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पर्युषण : जैनत्व का अभिनव प्रयोग
प्राचार्य निहालचंद जैन एक समय था जब जैनों की पहचान के कुछ मानक | हम आध्यात्मिक प्रवचनों में भी मनोरंजन तलासने लगे हैं। थे। आज वे मानक कहीं खो गये हैं। जैनत्व की पहचान का संयम भी सरस होना चाहिए। सयंम में भी व्यजनों की सुगंध संकट बढ़ता जा रहा है। नई पीढ़ी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और | होना चाहिए। अन्यथा वह धर्म क्या जो जीवन में
वादी संस्कृति से सम्मोहित है। अर्थ तन्त्र- जीवन | उपेक्षा/अनुप्रेक्षा/वीतरागता अथवा उदासीनता भेंटता है ? ऐसी तंत्र पर हावी है। भ्रष्ट आचरण और घूसखोरी की फिसलन | हमारी सोच बन गयी है। भरी काई पर, व्यक्ति फिसल रहा है। मन की तृष्णा, लोभ- आज इस आत्म धर्म रूप पर्युषण पर्व का उत्सवीकरण लालच के आकाश को अपनी मुट्टियों में बांध लेना चाह रहा | किया जाने लगा है। इसका समापन 'क्षमा वाणी-दिवस' के है। टी.व्ही. चैनलों पर, दिखाये जा रहे विज्ञापनों में नारी को, ।
रूप में सभा-सम्मेलन करके मनाया जाने लगा और क्षमा काम (सेक्स) और भोग्या के रूप में वस्तु की भांति प्रस्तुत |
वाणी पत्रों / कार्डों में केन्द्रित होकर रह गया है। जिस क्षमा किया जा रहा है। जब व्यक्ति या वामिनी, वस्तु की तरह पेश | धर्म को अन्तस-बहारने और कषायों के काले धब्बे मेटने होने लगे, तो समझ लेना चाहिए कि धर्म-वेभाव-बिकने के
| के लिए डिटरजेण्ट की भांति उपयोग किया जाना चाहिए लिए चौराहे पर लाकर खडा कर दिया गया है।
था, वह प्रवचनों में व्याख्यायित होकर कैसटों में कैद हो जीवन के रोज-ब-रोज बदलते मूल्यों ने समाज की | | गया है। अस्मिता को नये शब्द और नयी परिभाषाएं देना शुरू कर
____ हम चारित्र की भाषा भूल गये हैं और प्रदर्शन, दिखावा, दिया है। ऐसे में, हमारे नैतिक जीवन मूल्य ही हमें धता बता | नेताई अभिनय गौरान्वित हो रहा है। स्व. डॉ. नेमीचंद रहे हैं। आशा की कोई किरण शेष बची है, तो वह है-'धर्म
| (सम्पादक तीर्थंकर) के शब्दों में कहें तो- हम 'लेंग्विज का पाला' । महान् वैज्ञानिक आइन्स्टाइन का वह कथन आज | ऑफ मॉरल्स' की वर्णमाला विसार कर. थोथी भाषा यानी रोमांचित करता है. जिसने कहा था 'जब संसार के सारे | 'लेंग्विज ऑफ सेल्फिशनेस' सीख गये हैं। दरवाजे किसी के लिए बंद हो जाते हैं, तब एक दरवाजा
आत्म-विश्लेषण करना पर्युषण पर्व में कि इतना फिर भा खला रहता है और वह है धर्म का । वह एक महान् | सारा बोला जा रहा है. उन्हें कैसिटों में भरा जाकर पस्तकें
मानिकही नहीं था. बल्कि एक महान् दार्शनिक और | रची जा रही हैं , या इतना सारा सुना जा आस्थाओं का जीवन्त प्रतीक था। जिसने जीवन के अंतिम
| बदलो में प्रभावी बन पा रहा है ? या केवल सुनकर उसे ही क्षणों में, अदृश्य सत्ता को समर्पित होकर यह प्रार्थना की थी
धर्म की इति मानकर जीने के अभ्यासी बन गये हैं । क्या कि मुझे अगले जन्म में कुछ भी बना देना, परन्तु एक
यह 'कुछ पाने' या 'कुछ होने' की दिशा में प्रकाश स्तम्भ वैज्ञानिक न बनाना। भौतिकता के प्रति उसकी यह चरम
बन पायेगा? अनासक्ति थी, जो चिन्मय के धरातल से उद्भूत हुई होगी।
आदमी कितना अधीर और असन्तुलित हो गया है पर्युषण महापर्व : आत्मशोधक और आत्म
| कि प्रतिकूलता की बात छोड़िये, वह अनुकूलताओं में क्रोध विश्लेषण का पावन प्रसंग है, जिसके प्रवेश द्वार पर चिन्मयता
| और आवेश के तीर छोड़ने में नहीं चूक रहा है। क्रोध के चिन्तन-प्रसून खिले हुए हैं। व्यक्ति कामना और काया के
उसका कृतित्त्व और अहंकार उसका व्यक्तित्त्व बन गया है। कारण खण्डित हो रहा है। आत्म विस्मरण के मूल्य पर | जो जितना बौद्धिक - उतना ही गमान/ साधु या संत, अपन उसकी काया की माया, सब कुछ भुना लेना चाह रही है।
अहंकार को स्वाभिमान कहकर श्रावकों के गले पड़ रहा है ऐसे में, हमारे स्वभाव-धर्म, अपनी मौलिकता में लौटने के
और श्रावक-अपने धन-बल के अहंकार से साधु को अपने *लिए प्रतीक्षारत हैं और हमें आव्हान कर रहे हैं।
पक्ष में करके, अपने विरोधी को साधु से ही मात दिलवा पर्युषण पर्व में : जीवन के उदात्त मूल्यों/गुणों की | रहा है। यह यथार्थ शायद गले न उतरे, परन्तु उससे घटनाएँ याद आने लगती है, परन्तु बस याद भर आती है, उसे हम | विलोपित नहीं हो सकतीं। जीवन में उचित स्थान देकर प्रतिष्ठित नहीं कर पाते। अब तो
सितम्बर 2005 जिनभाषित १
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