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माया का बाजार कहें या बाजार की माया कहें, अपने मुखौटे में, आदमी का असली चेहरा ढांके हुए है। मुखौटा चेहरे से इतना घुलमिल गया है कि वही असली चेहरा लगने लगा है।
लोभ : आकाश का वह क्षितिज बिन्दु है जहाँ वह धरती को छूता नजर आता है। उसे छूने के लिए आदमी की सारी दौड़ें व्यर्थ साबित हैं क्योंकि धरती पर ऐसा वास्तविक बिन्दु कहीं है ही नहीं । आशा का आकाश-लोभ की जमीन को छूता सा नजर आता है, उसे पाने आदमी दौड़ता है लेकिन सब व्यर्थ साबित होता है। पर्युषण पर्व-साधना और संयम के उस प्रशस्त पथ को दर्शाता है जहां उक्त क्रोध, मान, माया और लोभ की चारों दुर्घटनाओं से बचा जा सकता है।
जैन दर्शन में ये काषायिक विभाव हैं, जिनसे आत्मा के स्वभाव धर्म प्रगट नहीं हो पा रहे। ये कषाएं राग और द्वेष जन्य । जब तक राग और द्वेष की उर्मियों से भीतर का सरोवर तरंगायित हो रहा है, उसकी निर्मल बनने की सारी सम्भावनाएँ प्रसुप्त हैं। अस्तु मेरी अपील है कि इस महापर्व को केवल परम्परा और उत्सव - अभिनय से न जोड़ें, बल्कि जैनत्व के जीने को एक अभिनव शैली की विकाश पृष्ठ 8 का शेषांश : चातुर्मास को सार्थक कैसे बनाएँ?
यह मानुष पर्याय सुकुल सुनिवो जिनवाणी । इह विधि गये न मिले सुमणि ज्यों उदधि समाानी ॥ (छहढाला) धन-कन कंचन राज सुख सबहि सुलभ कर जान । दुर्लभ है संसार में एक यथारथ ज्ञान ॥ (बारह भावना)
चातुर्मास का पुनीत उद्देश्य धर्म-ज्ञान-संयम की
10 सितम्बर 2005 जिनभाषित
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यात्रा बनाएं।
क्षमा से हमारे विचार और हृदय में पवित्रता आती है। मार्दव और आर्जव धर्म मन की पवित्रता और सरलता को बढ़ाता । मन- विचारों का कोषालय है। विचारों की पवित्रता से मन निर्मल बनता है। तन की शुद्धि के लिए आहार का संयम चाहिए। रसों को आसक्ति भोजन में न हो । सात्विकता और पवित्रता भोजन से जुड़े। वचन की शुद्धि सत्य से होती है। इस प्रकार मन, वचन और तन की शुद्धि से आत्मा की शुद्धि होती है। संयम और तप-त्याग की ओर लक्ष्य करते हैं । निवृत्ति और त्याग से कर्म का आस्रव रुकता है और इसी से कर्मों की निर्जरा भी होती है । 'त्याग' से समर्पण की भाषा सीखी जाती है। आकिंचन्य धर्म-समर्पण की गोद में पलता है । यदि भीतर क्रोध है, अहंकार है, ठगनी माया के छद्म रूप हैं तथा लोभ की अनंत चाह है, तो समर्पण की भाषा समझ में नहीं आ सकती। यदि कामवासनाएं पीछे लगी हों तो क्या आकिंचन्य धर्म को धारण किया जा सकता है? नहीं। इसप्रकार धर्म के इन दश लक्षणों को धारण करके ही इस पर्व को आत्म-सात किया जा सकता है I
आराधना ही होना चाहिए। धनसंचय, मनोरंजन, प्रतिस्पर्धा के साथ अति आरम्भ - परिग्रह के कार्यों में साधुओं का उपयोग नहीं करना चाहिये। हमें पूर्ण विश्वास है कि इस दिशा में समाज का हर वर्ग सक्रिय होकर हमारी नवीन पीढ़ी को कुछ नया संदेश देकर भगवान् महावीर के शासन की शोभा बढ़ायेगा।
कविताओं के बादल बरसे
जवाहर वार्ड, बीना (म. प्र. )
कविताओं के बादल बरसे, बनकरके आध्यात्मिक बूँद । समकित सावन-भादों आया, जयवंतों की होती गूँज ॥ रत्नत्रय पुरुषोत्तम साधक, नग्न दिगम्बर रहते हैं । चातुर्मास जहाँ, जिनके हों, कालातीत सत्य कहते हैं ॥
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अनेकान्त ज्ञान मंदिर शोध संस्थान, बीना (सागर) म.प्र.
योगेन्द्र दिवाकर
सतना, म.प्र.
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