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________________ बहोरीबन्द के यक्ष : ब्र. कल्याणदासजी डॉ. भागचन्द्र जैन भागेन्दु बात जून 1955 की है।। विद्यमान है। बहोरीबंद के निकटवर्ती स्थानों में भी इस हाईस्कूल बोर्ड परीक्षा का हमारा | प्रकार की प्रचुर सामग्री सहज ही प्राप्त होती है। परिणाम घोषित हो चुका था। | बहोरीबंद में कायोत्सर्ग आसन में स्लेटी रंग के पत्थर ग्रीष्मावकाश में अपने गृहनगर रीठी | पर उत्कीर्णित सोलहवें जैन तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ की में आगामी अध्ययन-अनुशीलन | प्रतिमा का पाषाणफलक 13" x 9" ऊँचा और 10" चौडा है। की योजनाओं का संधारण हो रहा | नख से शिर तक प्रतिमा की अवगाहना 12" x 2" तथा ब्र. कल्याणदास जा था। उन्हीं दिनों नगर के वरिष्ठ | चौड़ाई 3" x 10" है। प्रतिमा की केश राशि धुंघराली, वर्तुलाकार गणमान्य हमारे पित-पुरुष पूज्य सवाई सिंघई पं. लम्पूलालजी | पाँच हिस्सों में ऊपर की ओर उठी हई (बंधी) दर्शायी गयी (अब स्वर्गस्थ) के आवास पर अधेड़ उम्र के एक सजन | है। वक्ष पर श्रीवत्स का चिह्न अंकित है। से भेंट हुई। उन्होंने बताया कि सिहोरा से 24 कि.मी. दर प्रतिमा के परिकर का ऊपरी भाग उपलब्ध नहीं है। उत्तर-पश्चिम में बहोरीबंद में भगवान् शान्तिनाथ की एक एक | शेष अंश में प्रतिमा के दोनों ओर एक-एक उड़ते हुए प्राचीन प्रतिमा खुले आकाश में खड़ी है। और अंधश्रद्धा के मालाधारी देव और हाथों के नीचे चमरधारी देव सेवारत वशीभूत ग्रामीणजन अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति हेतु उस खड़े अंकित किये गए हैं। इनके नीचे दोनों ओर एक-एक प्रतिमा का अनादर करते हैं। उसकी सुरक्षा-व्यवस्था हेतु उपासक हाथ जोड़े दर्शाये गये हैं। इनके एक-एक पैर के वह भी यहाँ आये हैं। रात्रि में श्री पार्श्वनाथ जैन मंदिर जी में घुटने भूमि पर टिके हुए हैं और दूसरे पैर कुछ मुड़े हुए हैं। ये शास्त्र सभा के उपरान्त बहोरीबंद की मूर्ति और उसकी आभूषण धारण किये हैं। इनके नीचे आसन पर 07 पंक्तियों सुरक्षा-व्यवस्था के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा की गई। इन्हीं का विक्रम की दशवीं शताब्दी का कल्चुरी कालीन एक सज्जन का नाम था-श्री कल्याणदास जी। प्रतिमा की सुरक्षा अभिलेख देवनागरी लिपि में उत्कीर्ण है। अभिलेख की व्यवस्था हेतु रीठी की जैन समाज ने प्रारंभिक सहयोग राशि भाषा प्राञ्जल संस्कृत है। अभिलेख के नीचे मध्य भाग में भी उन्हें सौंपी और यह तय हुआ कि एक प्रतिनिधि मंडल प्रतिमा के चिह्न स्वरूप दो हरिण पास-पास ऐसे उत्कीर्ण हैं बहोरीबंद जाकर प्रतिमा के संबंध में समग्र स्थिति का मानों वे परस्पर कुछ कह रहे हों। हरिणों के सामने की ओर आकलन करे। हमें याद है कि समाज के जो 8-10 लोग एक-एक सिंह अलंकरण स्वरूप उत्कीर्ण किए गए हैं। पूज्य स.सि.पं. लम्पूलालजी के नेतृत्व में प्रस्थित हुए उनमें एक नाम इन पंक्तियों के लेखक का भी था। उन दिनों रीठी उस समय काजी हाऊस के पास खुले मैदान में, ईंटों से बहोरीबंद आवागमन हेतु कोई सीधा साधन नहीं था। से निर्मित एक तिकोने से टिकाई गई, इस प्रतिमा के विषय अतः हम लोग रेल से कटनी और वहाँ से सिहोरा पहुँचकर में ग्रामीण जनता से विदित हुआ कि- यह 'खनुआ देव' हैं। श्री जयकुमार जी जैन एडव्होकेट (जो बहोरीबंद क्षेत्र के पहले यह मूर्ति जमीन के गड्डे में लेटी हुई थी। इसे खोदकर निकाला गया है। ग्रामीणजन इसके पास आकर मनोतियाँ विकास हेतु गठित तत्कालीन समिति के महामंत्री भी थे और आगे बहुत वर्षों तक इसी पद पर सेवारत रहे) के मनाते और मनोकामनाओं की पूर्ति हेतु वीतराग देव पर आवास पर रात्रि विश्राम किया और प्रात: बस से बहोरीबंद जूता-चप्पल का प्रहार करते थे। भगवान् शांतिनाथ की मूर्ति की संघटना, महत्ता और तत्कालीन परिवेश पर विचार कर, पहुँचे । यहाँ निकटस्थ एक शाला भवन में ठहरकर मूर्ति का किसी भी सहृदय संचेता का हृदय द्रवीभूत हो उठेगा। अवलोकन किया। अत्यन्त भव्य आकर्षक और ऐतिहासिक महत्व की इस प्रतिमा का प्रथम दर्शन इतना प्रभावक रहा बाबा कल्याणदास जी से पहली भेंट और उनसे कि तब से प्रायः प्रतिवर्ष इसके दर्शन-पूजन कर आत्म | अभिज्ञात सभी तथ्यों की परिपुष्टि बहोरीबंद की प्रथम यात्रा विभोर होते आये हैं। ने तो कर ही दी। साथ ही वहाँ हमें स्मरण हो आया कि प्रातः स्मरणीय गुरुणांगुरु परमपूज्य संत गणेशप्रसाद जी वर्णी यहाँ वैदिक, बौद्ध एवं जैन संस्कृति की पर्याप्त सम्पदा | महाराज ने भी, अपनी 'जीवन गाथा' में, इस मनोज्ञ प्रतिमा -सितम्बर 2005 जिनभाषित 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524300
Book TitleJinabhashita 2005 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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