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________________ पं. वसन्तकुमार जी जैन शास्त्री, शिवाड़ ने निम्नलिखित शब्दों के माध्यम से अपने हृदय की वेदना में सनी हई भविष्यवाणी प्रकट की है-"यदि हम आगत 10-15 वर्षों की होनेवाली छबि की कल्पना करें, तो आज जो है, वह इससे भी बदतर होगी। क्योंकि आज जो श्रमण और श्रावकों का मानस बन रहा है, वह पीछे की मर्यादाओं को तिलाञ्जलि देनावाला ही दिखाई देता है। आज भी कुछ सन्त हैं जो मर्यादा में हैं, ऐसे ही कुछ श्रावक भी हैं, जो मर्यादा में हैं, लेकिन बहुमत अमर्यादित श्रमण और श्रावकों का ही है।" _ 'जैन गजट' के सहसम्पादक श्री कपूरचन्द जैन पाटनी लिखते हैं-"आज के साधुसमाज में ज्ञानध्यान की पिपासा अब लुप्त होने लगी है। उसका स्थान ले लिया है लोकैषणा और मानैषणा ने। आज जैन साधु में शिथिलाचार बहुत ही व्यापक स्तर पर फैला हुआ है, इससे कोई भी इनकार नहीं कर सकता।" ___ श्री अजित जैन जलज ककरवाहा (टीकमगढ़) ने बड़ी ही मार्मिक और यथार्थ बात लिखी है-"आज अधिकांश जैन समाज वाग्विलासी विद्वानों, सन्तों के द्वारा दिखाये गये ऐसे धर्म को मानने पर मजबूर हो गया है, जिसमें फिल्मी धुनों पर नाच का आनन्द लेते हुए, धन-दौलत के जोर पर इन्द्रपद की प्राप्ति या सभी पापों के कटने का आश्वासन पा लिया जाता है। कुछ लोगों ने क्रियाकाण्डों, विधिविधानों का व्यवसाय शुरू कर दिया। ऐसे पण्डितों के घर धन और यश की वर्षा होने लगी।" ___डॉ. मालती जैन सेवानिवृत्त प्राचार्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय मैनपुरी (उ.प्र.) ने वर्तमान में दृश्यमान एक नयी प्रवृत्ति की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। वे आहार की प्रक्रिया में वैभव का प्रदर्शन शीर्षक देकर लिखती हैं - "षड्रस व्यंजन बनाने की होड़। अब तो इडली, डोसा, गरमागरम चपाती, सब कुछ चलता है। मेवा और फलों के रस की भरमार। आहार देते समय कुछ और लेने का दुराग्रह। संघस्थ ब्रह्मचारियों का चौके में जाकर विभिन्न मनपसन्द व्यंजन बनाने के निर्देश, धर्मसाधना के लिए शरीर को आवश्यक पोषण देने के स्थान पर रसना की सन्तुष्टि का प्रयास । सब कुछ बदला-बदला सा नजर आता है।" डॉ. मालती जैन ने यह भी लिखा है कि आज कल कोरा आशीर्वाद नहीं चलता, साथ में मुनिश्री का चित्र बालपेन, डायरी, चाबी का गुच्छा, पुस्तकें, कैलेण्डर, चित्र न जाने कितने उपहार देते हैं। संग्रह करना ही होगा। जन्त्र, मन्त्र, तन्त्र की व्यवस्था भी करनी है। "मुनिश्री की दृष्टि में यह परिग्रह नहीं है, दान है परोपकार के लिए। मुनिश्री तो पदविहार करते हैं पर उनके पीछे आहार-सामग्री, प्रचार सामग्री को ढोती हुई अनेक गाड़ियों का काफिला उनके अपरिग्रह महाव्रत की खिल्ली उड़ाता प्रतीत होता है । नव-निर्माण एवं जीर्णोद्धार के जुनून ने अपरिग्रही साधुओं को निन्यानवे के फेर में डाल दिया है।" किन्त डॉ. मालती जैन ने यह भी स्वीकार किया है कि "आज भी ऐसे निःस्पृही श्रमणों की कमी नहीं है, जो कब पीछी कमंडल उठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर विहार कर जायें, किसी को कानों-कान खबर नहीं होती। नियति उन्हें जहाँ ले जाय, वहाँ के अतिथि हैं वे। सही अर्थ में तिथि की सूचना के बिना आये हैं, बिना बताये चले जायेंगे। रमता जोगी बहता पानी।" डॉ. विमला जैन 'विमल', फिरोजाबाद ने एक नयी दशा पर प्रकाश डाला है, वह यह है कि "वर्तमान में आचार्य-उपाध्याय की बाढ़ आ गयी है। एक अकेला साधु भी आचार्यपद से विभूषित है। न उनके साथ में संघ है, न शिष्य। यही स्थिति उपाध्याय-पद की है, गुरु से खटक गयी, किसी अन्य आचार्य से उपाध्यायपद ले लिया, उन आचार्य को बना-बनाया शिष्य मिल गया और शिष्य को गुरु।" । डॉ. विमला जी ने एक दूसरी नयी दिशा को भी प्रकट किया है। वे लिखती हैं-"अनगिनत प्रकाशनों पर समाज का अर्थ-व्यय हो रहा है, परन्तु मौलिक चिन्तन बहुत ही कम दृष्टिगोचर होता है। प्रायः वही अत्यधिक व्ययशील चातुर्मासों की बड़ी-बड़ी पत्रिकाएँ, वही समाचार, वही द्वन्द्वात्मक विचार अथवा नित नयी योजनाओं हेतु अर्थयाचना।" -सितम्बर 2005 जिनभाषित 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524300
Book TitleJinabhashita 2005 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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