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________________ बालवार्ता अहं का विसर्जन डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' एक बार एक व्यक्ति ने पर्वत के समीप पहुँचकर | पर्वत के इस कथन को सुनकर वह व्यक्ति बोलादेखा कि वह छोटा दिखाई दे रहा है और पर्वत ऊँचा। आज | 'संसार में जिसे भी ऊँचाई मिलती है, वह इसी तरह किसीतक वह यही समझता था कि ऊँचाई में, उससे बड़ा और | न-किसी के सहारे से ही तो मिलती है। तुम भी तो इसी कोई नहीं है। उसका कद भी औसत आदमियों से कुछ | तरह ऊँचे बने हो।' अधिक ही था, लगभग सात फुट। अतः अभिमान कुछ | यह सुन पर्वत बोला- 'नहीं, ऐसा नहीं है। मैंने अपनी अधिक ही था। लोकोक्ति है कि, जब ऊँट पहाड़ के नीचे | ऊँचाई पाने के लिए किसी की छाती को रौंदा नहीं है, किसी आता है, तभी उसे अपनी निम्नता का भान होता है। इस | को पद-दलित नहीं किया है, बल्कि कण-कण मिट्टी व्यक्ति के साथ भी यही हुआ। जोड़कर हवा, पानी की मार सहते हुए यह ऊँचाई पायी है। उस व्यक्ति ने निश्चय किया कि वह पर्वत से ऊँचा | लाखों वर्षों की साधना और तपस्या का परिणाम है, मेरी यह होकर दिखायेगा। उसने कमर कस ली और पर्वत को | ऊँचाई । तम्हें भी यह ऊँचाई अपने सत्कर्मों एवं स्वावलम्बन पददलित करते हुए अभिमान सहित चढ़ना प्रारम्भ किया। से पाना चाहिए।' मन में उत्साह और विजेता बनने की चाह लिए, वह पर्वत उस व्यक्ति को पर्वत की बातों से लगा कि जैसे पर चढ़ता ही गया और उसने देखा कि वह क्षण आ गया है, | किसी ने उसे उच्चता के रहस्यों से परिचित करा दिया हो। जब वह पर्वत को अपने पैरों के नीचे दबाये, उसके उच्चतम | उसे पर्वत की ऊँचाई के कारणों का ही भान नहीं हआ, शिखर पर खड़ा है। उसे लगा कि अब वह किसी से छोटा | अपितु अपनी उच्चता के लिए मार्ग भी सूझ गया। वह अपने नहीं है। सबसे बड़ा हो गया है। वह गर्व से फुला नहीं | स्थान पर झका और हाथ जोडकर पर्वत को नमस्कार कर समाया। विजेता का भाव उसके मन में ही नहीं, चेहरे पर भी | बोला- 'मुझे क्षमा करना भाई, मैंने तुम्हारा अपमान किया। स्पष्ट झलक रहा था। वास्तविक ऊँचाई किसी को पद-दलित करके नहीं अपित् उसने पर्वत से कहा - 'देखो पर्वत! तुम पददलित | साधना की सफलता और सत्कर्मों से मिलती है। आज मैं हो गये हो। मैं तुमसे भी ऊँचा हो गया हूँ।' यह अच्छी तरह जान गया हूँ।' उस व्यक्ति के इसप्रकार दंभपूर्ण वचन सुनकर पर्वत | पर्वत ने यह सुनकर कहा- 'हे मानव! अब तुम छोटे जोर से हँसा और बोला कि- 'तुम मुझसे ऊँचे कहाँ हुए हो? | नहीं हो, बल्कि तुमने वास्तविक रूप से मुझसे भी अधिक जिस ऊँचाई पर तुम इतना घमण्ड कर रहे हो, यह ऊँचाई तो ऊँचाई को पा लिया है, क्योंकि तुमने अपने अहंकार का तुमने मेरे कन्धों पर खड़े होकर प्राप्त की है। यदि मैं अपने | विसर्जन कर झुकना सीख लिया है। वास्तव में अहं का कन्धे हटा लूँ तो तुम एक क्षण भी इस ऊँचाई पर ठहर नहीं | विसर्जन ही सबसे बड़ी उच्चता है।' सकोगे।' एल-६५, न्यू इन्दिरा नगर, बुरहानपुर (म.प्र.) वीर देशना जिनका चित्त केवल धर्म में ही आसक्त रहता है, ऐसे योगीजन को भी भव्य जीवों से अनुराग हुआ करता है। Even yogis, whose mind is always intent upon dharma, have affection for the souls capable of attaining liberation (bhavya souls). धर्म दुःखरूपी लकड़ियों को भस्म करने के लिए अग्नि के समान है। Dharma is the fire that reduces the firewood of misery into cinders. विद्वान् जन स्वयं ही धर्म कार्य में प्रवृत्त हुआ करते हैं। The wise, on their own volition, take to the auspicious activity. मुनिश्री अजितसागर जी 20 सितम्बर 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524300
Book TitleJinabhashita 2005 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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