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________________ 22 की टीका में इसतरह कहा है, लोकबहिर्भागेकालाणु- | कारण स्वयं काल ही है। द्रव्याभावात्कथमाकाशद्रव्यस्य परिणतिरिति चेत् ? अखण्ड वृहद द्रव्यसंग्रह गाथा-22 की टीका में इसप्रकार द्रव्यत्वादेकदेशदण्डाहत कुम्भकारचक्रभ्रमणवत्, तथैवेकेदेश कहा है, 'जिसप्रकार आकाशद्रव्य अन्य सब द्रव्यों का आधार मनोहरस्पर्शनेन्द्रियविषयानुभवसर्वाङ्गसुखवत, लोकमध्यस्थित | है और अपना भी आधार है, इसीप्रकार कालद्रव्य भी अन्य * कालाणुद्रव्यधारणैक देशेनापि सर्वत्र परिणमनं भवतीति।' द्रव्यों के परिणमन में सहकारी कारण है और अपने परिणमन अर्थ : लोकाकाश के बाह्य भाग में कालाणुद्रव्य | में भी सहकारी कारण है। का अभाव होने से आकाश-द्रव्य का परिणमन (अलोकाकाश जिज्ञासा : अशुभ तैजस का पुतला लौटकर आने में) किस प्रकार होता है ? पर उस मुनि को भी भस्म करता है या नहीं? आकाश अखंड द्रव्य होने से, जिस प्रकार कुम्हार समाधान : उपरोक्त विषय पर आचार्यों के दो मत के चाक के एक भाग में लकड़ी से प्रेरणा करने पर पूरा | | उपलब्ध होते हैं। चाक भ्रमण करता है, तथा स्पर्शेन्द्रिय के विषय का एक 1. स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा 176 की टीका भाग में मनोहर अनुभव करने से समस्त शरीर में सुख का में इसप्रकार कहा है, स्वस्य मनोऽनिष्टजनकं किंचित्कारणान्तर अनुभव होता है, उसीप्रकार लोकाकाश में रहे हुए मवलोक्य समुत्पन्न क्रोधस्य संयमनिधानस्य........विरूद्धं वस्तु कालाणुद्रव्य के, एक भाग में स्थित होने पर भी, सम्पूर्ण भस्मसात्कृत्य तेनैव संयमिना सह च भस्मं व्रजति, द्वीपायनवत्। आकाश में परिणमन होता है। अर्थ : अपने मन को अनिष्ट उत्पन्न करने वाले किसी अन्य पंचास्तिकाय गाथा-24 की टीका में भी इसप्रकार कारण को देखकर जिनको क्रोध उत्पन्न हुआ है ऐसे संयम कहा गया है : के निधान मुनि के शरीर से निकला हुआ अशुभ तैजस का प्रश्न : लोक के बाहरी भाग में कालाणु द्रव्य के | पुतला, विरुद्ध वस्तु को भस्मसात करके उन्ही मुनि के साथ अभाव में आलोकाकाश में परिणमन कैसे होता है ? भस्म हो जाता है अर्थात् उन मुनि को भी भस्म कर देता है उत्तर - जिसप्रकार बहुत बड़े बाँस का एक भाग और स्वयं भी समाप्त हो जाता है । द्वीपायन मुनि की तरह । स्पर्श करने पर सारा बाँस हिल जाता है......अथवा जैसे 2. द्रव्यसंग्रह गाथा 10 की टीका में भी बिल्कुल स्पर्शन इन्द्रिय के विषय का या रसना इन्द्रिय के विषय का इसी प्रकार कहा गया है । प्रिय अनुभव एक अंग में करने से समस्त शरीर में सुख का परन्तु आचार्य अकलंक स्वामी ने इस संबंध में अपना अनुभव होता है, उसीप्रकार लोकाकाश में स्थित जो अलग अभिप्राय बताया है जो इसप्रकार है : कालद्रव्य है वह आकाश के एक देश में स्थित है, तो भी यते रूग्रचारित्रस्यातिकुद्धस्य जीवप्रदेश संयुक्तं सर्व अलोकाकाश में परिणमन होता है, क्योंकि आकाश बहिर्निष्क्रम्य दाह्यं परिवृत्यावतिष्ठमानं निष्पावहरितफल एक अखण्ड द्रव्य है । परिपूर्णास्थालीमिव पचति, पक्त्वा च निवर्तते, अथ आपकी जिज्ञासा के दूसरे प्रश्न का उत्तर यह है कि चिरमवतिष्ठतेअग्निसाद्दाह्योऽर्थो भवति, तदेतन्निःसरणात्मकम्। काल द्रव्य अन्य द्रव्यों के परिणमन के साथ-साथ, अपने | अर्थ : नि:सरणात्मक तैजस उग्रचारित्रवाले अतिक्रोधी परिणमन में भी सहकारी कारण है, जैसा कि पंचास्तिकाय यति के शरीर से निकलकर जिस पर क्रोध है उसे घेरकर गाथा-24 की टीका में कहा है, 'कालस्य किं ठहरता है और उसे शाक की तरह पका देता है। फिर परिणतिसहकारिकारणमिति । आकाशस्याकाशाधारवत् वापिस होकर यति के शरीर में समा जाता है । यदि अधिक ज्ञानादित्यरत्नप्रदीपानां स्वपरप्रकाशवच्च कालद्रव्यस्य | देर ठहर जाये तो उसे भस्मसात कर देता है । (हिन्दी टीका परिणते : काल एव सहकारिकारणं भवति। अर्थ : काल | पं. महेन्द्रकुमार जी न्यायाचार्य) इस प्रमाण के अनुसार कदाचित् द्रव्य की परिणति में सहकारी कारण कौन है ? मनि को भी भस्म कर देता है अथवा नहीं भी करता है) उत्तर : जिस प्रकार आकाश स्वयं अपना आधार है, 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, हरीपर्वत, तथा जिसप्रकार ज्ञान, सूर्य, रत्न वा दीपक आदि स्वपर आगरा-282 002 प्रकाशक हैं, उसीप्रकार कालद्रव्य की परिणति में सहकारी -सितम्बर 2005 जिनभाषित 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524300
Book TitleJinabhashita 2005 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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