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4. जैन विद्या संस्थान श्री महावीर जी (राज.) से एक । संस्कृति संस्थान सांगानेर के सभी पदाधिकारियों ने विचार द्रव्यसंग्रह प्रकाशित हुआ है, जिसके ढूंढारी वचनिकाकार | किया है कि संस्थान के परीक्षा बोर्ड से छपे हुये 'द्रव्यसंग्रह' पं. जयचन्द जी छाबड़ा (जयपुर) रहे हैं। और हिन्दी | में यह गाथा और बढ़ा देनी चाहिये। हम सभी अन्य प्रकाशकों रूपान्तरकार श्री धनकुमार जैन एम.एस.सी. जयपुर हैं। इस | से भी निवेदन करते हैं कि वे भी उपरोक्त गाथा को, भविष्य पुस्तक में भी गाथा 14 के बाद उपरोक्त गाथा 'उक्तं च | के सभी प्रकाशनों में शामिल करने का कष्ट करें। करके दी गई है।
विद्वानों के लिए यह शोध का विषय है कि ब्रह्मदेव इन तीनों पांडुलिपियों में, उपरोक्त गाथा नं. 15 | सूरि ने टीका करते समय उपरोक्त गाथा की टीका क्यों नहीं यथास्थान दी गई है। तीनों पांडुलिपियों में गाथा का हिन्दी | की? या तो उनके सामने जो ग्रंथ उपलब्ध थे, उसमें यह अर्थ भी ठीक प्रकार दिया गया है।
गाथा नहीं थी। या अन्य कोई कारण था। उपरोक्त तीनों पांडुलिपियां इस बात को प्रमाणित कर
सभी विद्वानों से निवेदन है कि उपरोक्त निर्णय रहीं हैं कि यह गाथा नं. 15 वास्तव में ग्रंथ की ही गाथा है। के संबंध में यदि कोई आपत्ति या विचार हों तो अवश्य
और इसप्रकार ग्रंथ में 58 की बजाय 59 गाथा हो जाती हैं। | सूचित करने का कष्ट करें। सभी आगत पत्रों पर विचार साथ ही एक छूटा हुआ विषय भी पूर्ण हो जाता है। करने के उपरांत ही नवीन प्रकाशन में उपरोक्त गाथा शामिल
इन समस्त प्रमाणों के उपलब्ध हो जाने पर श्रमण | की जायेगी।
मानी द्वीपायन द्वीपायन नामक एक मुनि थे। वे रत्नत्रय धारण किये हुए थे। महान तपस्वी थे। वे चाहते तो उनकी तपस्या का फल मीठा भी हो सकता था, किन्तु वे द्वारिका को जलाने में निमित्त बन गये।
दिव्यध्वनि के माध्यम से जब इन्हें ज्ञात हुआ कि मेरे निमित्त से बारह वर्ष के बाद द्वारिका जल जायेगी, तो यह सोचकर वे द्वारिका से दूर चले गये कि बारह वर्ष के पूर्व नहीं लौटेगे। समय बीतता गया और बारह वर्ष बीत गये होंगे, ऐसा सोचकर वे विहार करते हुए द्वारिका के समीप आकर एक बगीचे में पहुँचे, जहाँ वे ध्यानमग्न हो गये। ____ यादव वहाँ आये। द्वारिका के बाहर फेंकी गयी शराब को उन्होंने पानी समझा और पी गये। मदिरापान का परिणाम यह हआ कि यादव नशे में होश खो बैठे। पागलों की तरह वे वहाँ पहँचे. जहाँ दीपायन मनि ध्यानस्थ थे। मुनि को देखकर यादव उन्हें गालियाँ देने लगे। इतना होने पर भी मुनि ध्यानस्थ रहे, किन्तु जब यादव नशे में चूर होकर मुनि को पत्थर मारने की क्रिया बहुत देर तक करते रहे, तब द्वीपायन का मन अपमान सहन नहीं कर सका। मन को ठेस पहुंची और मान जागृत हुआ, इसके लिए क्रोध जागा और उसके फलस्वरूप तैजसऋद्धि का उदय हुआ जिसके प्रभाव से द्वारिका जलकर राख हो गयी।
आशय यह है कि मान-सम्मान की आकांक्षा पूरी न होने पर क्रोध उत्पन्न हो जाता है, जिस क्रोधाग्नि के भड़कने से बड़ी-बड़ी हानियाँ हो जाती हैं। अत: मार्दव धर्म धारण करें। द्वीपायन मुनि को भीतर तो यही श्रद्धान था कि मैं मुनि हूँ, मेरा वैभव समयसार है, समता परिणाम ही मेरा निधि है, मार्दव मेरा धर्म है, मैं मानी नहीं हूँ, लोभी नहीं हूँ, मेरा यह स्वभाव नहीं है । रत्नत्रय धर्म उनके पास था, उसी के फलस्वरूप उन्हें ऋद्धि प्राप्त हुई थी, लेकिन मन में यह पर्याय बुद्धि जाग्रत हो गयी कि ये मुझे गाली दे रहे हैं, मुझ पर पत्थर बरसा रहे हैं। यह पर्यायबुद्धि मान को पैदा करनेवाली है। अत: ज्ञानी बनो और पर्यायबुद्धि उत्पन्न न होने दो। उपयोग में स्थिर रहो।
"विद्याकथाकुंज' से साभार
-सितम्बर 2005 जिनभाषित 17
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