SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्रव्यसंग्रह की एक अनुपलब्ध गाथा पं. रतनलाल बैनाड़ा श्रमण संस्कृति संस्थान सांगानेर,जयपुर द्वारा गुना में ऊर्ध्वगमनत्व अधिकार 12 जून 2005 से 22 जून 2005 तक आध्यात्मिक शिक्षण पयडिट्ठिदि अणुभागप्पदेस बंधे हिं सव्वदो मुक्को। शिविर का आयोजन किया गया था। उसमें गुना निवासी उर्दू गच्छदि सेसा, विदिसावजं गदिं जंति ॥15॥ सौ० उज्ज्वला जैन ने मुझे सन् 1925 का छपा हुआ एक अन्वयार्थ : (पयडिट्ठिदि अणुभागप्पदेस बंधे 'द्रव्यसंग्रह'ग्रंथ दिखाया जो अत्यन्त जीर्ण अवस्था में था। | हिं) प्रकतिबंध. स्थितिबंध. अनभागबंध और प्रदेशबंध करके इस 'द्रव्यसंग्रह' ग्रन्थ की यह विशेषता थी कि इसमें जीवत्व | (सव्वदो )सब प्रकार से (मुक्को)छूटा हुआ सिद्ध जीव अधिकार में 15 गाथायें दी गईं थीं। मैंने भी द्रव्यसंग्रह का | स्वभाव से (उड्टुं गच्छदि) उर्ध्वगमन करता है (सेसा) शेष स्वाध्याय बहुत बार किया है। आचार्य नेमिचन्द्र जी ने इस | जो कर्म बंध सहित जीव हैं, वे (विदिसावजं गदि) विदिशाओं ग्रंथ की गाथा नं. 2 में जीव द्रव्य का 9 अधिकारों में वर्णन | को छोड़कर दिशाओं को (जंति) जाते हैं। करने की प्रतिज्ञा की है। ___ भावार्थ : जो जीव उपर्युक्त चार प्रकार के बंधन से जीवो उवओगमओ ----- छूट जाता है, वह सीधा मुक्ति स्थान अर्थात् सिद्धलोक की अर्थ : जो जीता है, उपयोगमय है, अमूर्तिक है, | ओर ऊर्ध्वगमन ही करता है और जो कर्म सहित जीव हैं वे कर्ता है, स्वदेह प्रमाण है, भोक्ता है, संसारस्थ है, सिद्ध है | अन्य दिशाओं को भी जाते हैं। परन्तु वे शरीर छूटने के और स्वभाव से उर्ध्वगमन करने वाला है। उपरोक्त 9 | अनंतर और नवीन शरीर धारण करने के पहिले अर्थात् अधिकारों में से गाथा नं. 13 तक 7 अधिकारों का वर्णन | विग्रह गति में अनुश्रेणि गमन ही करते हैं। अतएव वे जहाँ किया गया है। गाथा नं. 14 की पूर्व पीठिका में ब्रह्मदेवसूरि | जन्म लेते हैं वहाँ दिशा रूप ही गमनकर एक,दो,तीन मोड़ा ने लिखा है,' अथेदानीं गाथापूर्वार्द्धन सिद्धस्वरूपमुत्तरार्धेन | खाकर, एक-दो या तीन समय के भीतर चले जाते हैं। पुनरुर्ध्वगतिस्वभावं च कथयति' : | अथवा सीधे उसी समय में जाकर जन्म धारण कर लेते णिक्कम्मा----- || 14॥ हैं। 15 ॥ अर्थ : सिद्ध भगवान कर्मों से रहित हैं, आठ गुणों के ___ उपरोक्त गाथा की फोटोकापी लेकर आगरा आकर धारक हैं, अंतिम शरीर से कुछ कम आकार वाले हैं,लोक । 'जैन शोध संस्थान' आगरा में से द्रव्यसंग्रह की प्राचीन के अग्रभाग में स्थित हैं,नित्य हैं और उत्पाद-व्यय से युक्त | पांडुलिपियाँ दिखवाई । यहाँ तीन हस्तलिखित पांडुलिपियाँ हैं॥14॥ प्राप्त हुईं जो इसप्रकार हैं : ___ इस गाथा की पीठिका में यद्यपि ब्रह्मदेवसूरि ने सिद्ध | | 1. पहली पांडुलिपि 12" x 6" के पत्रों पर लिखी है। स्वरूप के वर्णन तथा ऊर्ध्वगमन स्वभाव के वर्णन की | कुल 18 पत्र हैं। यह पांडुलिपि माघ सुदी 10 सं. 1731 को सूचना दी है। परन्तु वास्तव में केवल सिद्ध स्वरूप का ही | पूर्ण हुई है। लिपि सुवाच्य है । कुल गाथा 59 हैं । वर्णन किया गया है, ऊर्ध्वगमन स्वभाव का वर्णन नहीं हुआ 2. यह 10" x 6" के कागजों पर काली स्याही से है। हमेशा स्वाध्याय करते समय ऐसा भाव आता था कि | लिखी गई है। कुल 32 पत्र हैं। लिपि सुवाच्य है। यह ज्येष्ठ ऊर्ध्वगमन स्वभाव की गाथा और होनी चाहिये। वदी 13 चन्द्रवासरे संवत् 1821 को संपूर्ण हुई है। कुल सौ. उज्ज्वला जैन ने प्राचीन मुद्रित द्रव्यसंग्रह में एक गाथा 59 हैं। गाथा नं. 15 और दिखाई तो मन में अत्यन्त आनंद हुआ। 3. यह 8" x 5" के सफेद कागजों पर काली स्याही वह गाथा एवं पूर्व पीठिका इसप्रकार है : से लिखी गई है। कुल 37 पत्र हैं। लिपि सुवाच्य है। यह माघ | वदी 14 सं0 1879 को संपूर्ण हुई है। कुल गाथा 59 हैं। 16 सितम्बर 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524300
Book TitleJinabhashita 2005 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy