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________________ मूलनायक भगवान् शान्तिनाथ की आजीवन भरपूर सेवाविनय की है, उसे श्रीक्षेत्र के रूप में प्रख्यापित, विकसित, संरक्षित और समृद्ध बनाने हेतु समग्र समाज एवं प्रबन्धकारिणी के सहयोग से वही सब किया है जो एक यक्ष कुबेर के 'कोष और उद्यानों की रक्षा हेतु करता है I ब्र. कल्याणदास जी का नश्वर शरीर यद्यपि अब नहीं है, किन्तु उनका यशः शरीर बहोरीबन्द के कण-कण में रमा प्रतीत होता है । बहोरीबन्द पहुँचकर भ. शान्तिनाथ के गुणानुवाद : स्व-दोषशान्त्या विहितात्मशान्तिः शान्ते विधाता शरणं गतानाम | भूयाद्भवक्लेश भयोपशान्त्यै शान्तिर्जिनो में भगवान् शरण्यः ॥ जिन्होंने अपने अज्ञान तथा रागद्वेष-काम-क्रोध आदि विकारों की, शान्ति करके पूर्ण निवृत्ति करके, आत्मा में शान्ति स्थापित की है। पूर्ण सुखावस्था स्वाभाविक स्थिति प्राप्त की है, और इसलिए, जो शरणागतों के लिए शान्ति के विधाता हैं, वे भगवान् शान्तिजिन मेरे शरण्य हैं- शरणभूत हैं। अतः मेरे संसार परिभ्रमण की, क्लेशों की, भयों की उपशान्ति के लिए निमित्तभूत होवें । उपर्युक्त पाठ प्रारम्भ करते समय मन ही मन इस श्रीक्षेत्र के वर्तमान रूप के सृजन की परिकल्पना संकल्प और क्रियान्विति के आद्य सम्वाहक सूत्रधार ब्र. कल्याणदास जी को गौरव पूर्वक स्मरण करता हूँ । बहोरीबन्द की विकासयात्रा को देखकर हमारे अन्तर्मन से महाकवि भारवि (छठी शताब्दी) का यह पद्य सहज ही प्रस्फुटित हो रहा है विषमोऽपि विगाह्यते नयः, कृततीर्थः पयसामिवाशयः । स तु तत्र विशेष - दुर्लभः सदुपन्यस्यति कृत्यवर्त्म यः ॥ (नीतिशास्त्र बड़ा गहन है। जिस तरह दुर्गम जलाशय में तैरने का अभ्यास कर लेने पर अथवा सीढ़ियों के बन जाने के बाद प्रवेश करना सुगम होता है, परन्तु उस गम्भीर जलाशय में खड्ड, पत्थर, मगरमच्छ, घड़ियाल आदि का निदर्शनकारी तथा सोपान निर्माण दक्ष पुरुष बहुत कम दिखलायी पड़ता है । उसी प्रकार इसमें ( नीति शास्त्र) में गुरुओं से शास्त्रों का अध्ययन करके भलीभांति प्रवेश हो सकता है, परन्तु ऐसा पुरुष जो सन्धि, विग्रह, यान, द्वैधीभाव * आदि का पथ प्रदर्शक हो-विरल होता है । तात्पर्य यह है कि शास्त्र आदि का अध्ययन और अभ्यास करके नीतिशास्त्र का रहस्य सरलतापूर्वक उद्घाटित किया जा सकता है।) महाकवि भारवि प्रणीत उक्त पद्य का लक्ष्यार्थ हमारे Jain Education International । मन्तव्य की ओर ही संकेत करता है कि- जब बहोरीबन्द पूर्णत: उपेक्षित, अज्ञात 'अथ च अन्धकाराच्छादित' था, उस समय उसके उद्धार और विकास का संकल्प बहुत बड़ा साहस का कार्य था । और अपने संकल्प की प्रतिपूर्ति के लिए दर-दर की ठोकरें खाना । अपने भोजन में पहले नमक और कुछ समय पश्चात् आजीवन घी और शक्कर का परित्याग बहुत कठिन साधना तथा आत्म संयम के कार्य थे। इस तथ्य से सभी सुपरिचित हैं कि अप्रकाशित स्थान के लिए दान, सहयोग देने वाले विरले होते हैं और ऐसे स्थानों के लिए कार्य करने वालों की घोर उपेक्षा, अवहेलना और अवमानना भी होती है। हमें अच्छी तरह मालूम है कि श्रद्धेय ब्रह्मचारी जी ने यह सब गरलपान किया है। उनकी सहजसरल और नि:स्पृह जीवन शैली, धैर्यवृत्ति, सहिष्णुता तथा विवेक ने उन्हें सदैव कर्त्तव्य मार्ग पर आरूढ रखा । वस्तुत: वे महाकवि भारवि के शब्दों में 'कृततीर्थ: पयसाम् आशयः सरोवर पर घाट निर्माता हैं, हम सभी जानते हैं कि घाट निर्माण हो जाने पर स्नान करने वाले तो आगे निरन्तर बड़ी संख्या में सुलभ होते रहते हैं। = श्रीक्षेत्र बहोरीबन्द और वहाँ अवस्थित भगवान् शान्तिनाथ के दिव्य दर्शन को वर्तमान सुरम्य, मनमोहक सांस्कृतिक सुरभि के साथ जन-जन के लिए सुलभ बनाने में निमित्तभूत अधिष्ठान बनाने वाले श्रद्धेय ब्र. कल्याणदास जी की पावन स्मृति को कोटि-कोटि नमन्-वन्दन करता हूँ। और श्रीक्षेत्र बहोरीबन्द की प्रबन्धकारिणी समिति से आग्रह करता हूँ कि श्रद्धेय ब्रह्मचारी कल्याणदास जी के योगदान को स्थायी रूप निदर्शित करने तथा आगामी पीढ़ी को प्रेरणा प्रदान के लिए श्री क्षेत्र पर कोई स्थायी स्मारक बनाकर कृतज्ञता प्रकट करना चाहिए। इसी क्रम में तत्कालीन समिति के महामंत्री (अब स्वर्गीय) श्री जयकुमार जैन एडवोकेट सिहोरा के प्रति भी कृतज्ञता प्रकट करने हेतु किसी धर्मशाला या अन्य निर्मिति का नामकरण उनके नाम पर करना उचित होगा । सन्दर्भ 1. 2. 3. संस्कृत हिन्दी कोश, पृ. 822 आचार्य समन्तभद्र : स्वयम्भूस्तोत्र, पद्य संख्या 80 किरातार्जुनीयमहाकाव्यम्, सर्ग 2, पद्य सं. 3 For Private & Personal Use Only संस्कृत प्राकृत तथा जैन विद्या अनुसन्धान कॉलोनी, 28, सरस्वती कॉलोनी, दमोह - 470661 (म. प्र. ) -सितम्बर 2005 जिनभाषित 13 www.jainelibrary.org
SR No.524300
Book TitleJinabhashita 2005 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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