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________________ गर्भपात महापाप डॉ. सौ. उज्ज्वला जैन जैन धर्म में तीर्थंकरों के पाँच कल्याणक मनाने की । उसे पूर्ण रूप से रोकने के लिए भरसक प्रयत्न करना भी परंपरा है, मनाते भी हैं। उनका गर्भ कल्याणक मनाया जाता | हमारा प्रथम कर्तव्य है। है। जैन साहित्य में जहाँ विवाह संस्कारों की चर्चा की गयी आधुनिक विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि अंडाणु है वहीं गर्भाधान संस्कार को भी महत्व दिया गया है। भगवान् और शुक्राणु सजीव होते हैं। अतः उनके संयोग से बने महावीर की माता त्रिशला का यही सौभाग्य उसे सर्वश्रेष्ठ | झाइगोट में प्रथम क्षण से ही जीव का अस्तित्त्व होता है। नारी होने की गरिमापूर्ण स्थिति प्रदान करता है। निर्जीव की वृद्धि नहीं हो सकती। जबतक माँ को यह पता आज भी हम पंचकल्याणक समारोह में समस्त क्रियायें | चलता है कि वह गर्भवती है, तबतक उसकी कोख के शिश देखते हैं। जब साक्षात् तीर्थंकरों का गर्भकल्याणक होता है | का दिल धड़क रहा होता है। एक दिन के भ्रूण की हत्या तब इन्द्र के नेतृत्व में स्वर्गों के देव भावी तीर्थंकर के गर्भस्थ | करना भी एक पूर्ण मनुष्य की हत्या के समान है। धार्मिक शिशु के रूप में रहने के दौरान उसके माता-पिता के यहाँ | ग्रंथों के आधार से तो गर्भाधान के प्रथम समय में ही जीव पहुँचकर महोत्सव मनाते हैं। हमारे परिवारों में भी कहीं पर | वहाँ आ जाता है, क्योंकि जीव के बिना गर्भ का विकास सातवें और कहीं पर नौवे महीने में अपने रीति-रिवाजों के | संभव नहीं है। मनुष्य की पूर्ण आयु के जोड़ में गर्भस्थ काल अनुसार गर्भवती नारी और उसके गर्भ के लिए मंगल कामना | को भी सम्मिलित किया जाता है। की जाती है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक निर्णय सुनाते हुए "जियो और जीने दो" तथा "दूधो नहाओ पूतो फलो" | कहा कि किसी का जीवन लेना केवल अपराध ही नहीं जैसी भावना रखनेवाले हमारे देश, हमारे समाज में गर्भपात | अपितु पाप भी है। उन्होंने यह भी कहा कि- Foetus is जैसी घटनायें 21वीं सदी में प्रवेश करते हुए मानव की शून्य | regarded as a human life from the moment of fertiliसंवेदनाओं को ही व्यक्त कर रही हैं। वैसे तो विश्व का कोई | zation गर्भाधान के समय से ही भ्रूण को एक मानव जीवन धर्म भ्रूणहत्या का समर्थन नहीं करता। पर जैनधर्म तो एकेंद्रिय- | माना जाता है। प्राणीमात्र के जीवन की बात करता है। निरपराध भ्रूण को अनेक धर्मग्रन्थों में भी हमें यह ज्ञात होता है कि निर्दयतापूर्वक खत्म करना, कराना, आज सभ्य समाज के | तीर्थंकरों के गर्भस्थ होने पर उनके ज्ञान के प्रभाव से माता के लिए सबसे बड़ा कलंक है। यह अपराध इतना बड़ा है कि | ज्ञान में आशातीत असीम वृद्धि होती है। माता को कोई शायद ही किसी प्रायश्चित्त से इसका परिमार्जन किया जा | विकार या वेदना नहीं होती। रावण के गर्भस्थ होने पर सके। उसकी माता दर्पण के स्थान पर तलवार से अपना चेहरा हर छोटे बड़े प्राणी को जीने का पूर्ण अधिकार है। निहार, श्रृंगार किया करती थी जो निश्चित ही शिशु का किसी का जीवन नष्ट करने का अधिकार किसी को भी नहीं | वीरगुण से संपन्न होना परिलक्षित करता है। अर्जुन पुत्र है और न ही किसी माँ-बाप को अपनी जीती-जागती सन्तान | अभिमन्यु द्वारा गर्भावस्था में ही चक्रव्यूह भेदन की कला की हत्या करवाने की छूट विश्व के किसी भी धर्म ने प्रदान | सीखने की कथा से भी कोई अनभिज्ञ नहीं। की है। वर्तमान में संसार का प्रत्येक प्राणी किसी न किसी अनेक वर्षों के अध्ययन के बाद चिकित्सक दःख से दु:खी है। लेकिन गर्भपातरूपी दु:ख तो हमारा | मनोवैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि प्रकृति बच्चे को अपना बनाया हुआ है। हमारा अपना ही खून, जो हमारे | छठे माह में ही सबकुछ समझने योग्य बना देती है। वह सब अपने ही प्यार का फूल है, हम सब स्वयं ही मिलकर उसे | कुछ सुनने व देखने लगता है, सूंघने व चखने का अनुभव मसल देते हैं। कोख में पल रहे शिशु को मारना सचमुच ही | प्राप्त कर लेता है। पाँचवे महीने के मध्य में माँ के उदर पर संसार का सबसे जघन्य और अमानवीय कार्य है। यह एक | चमकदार प्रकाश पड़ने पर बालक अपने हाथों को हिलाकर ऐसा क्ररतम कार्य है जिसमें गर्भवती स्त्री मानसिक रूप से | आँखे ढकने के लिए यत्न करता है। तेज संगीत से वह और गर्भस्थ शिशु शारीरिक रूप से खण्ड-खण्ड हो जाते | अपने हाथ कानों की ओर ले जाते हैं। आँखें के तेजी से हैं। पाप-पुण्य की जो परिभाषायें हमें संस्कारों से मिली है | घुमने से उसके सोने, जागने व स्वप्नावस्था का पता लगता वह भी धरी की धरी रह जाती हैं। अतः भ्रूणहत्या जैसे | है। बारह सप्ताह का भ्रूण भी संगीत नृशंस, अमानवीय व हिंसक कार्य को जो सम्पूर्ण मानव | सक्षम हो जाता है। नवजात शिशु अपनी परिचित धुन सुनकर जाति पर कलंक है, उसे न केवल स्वयं त्यागना, अपितु | रोते-रोते चुप हो जाता है, क्योंकि वह केवल उन्हीं धुनों को 14 सितम्बर 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524300
Book TitleJinabhashita 2005 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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