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________________ संपर्क सूत्र : उदयचंदजी (०७५८५ - २५८२३५, ९३००६-८८०८२, २५८७७५) ४२. ऐलक सिद्धांतसागरजी महाराज : कुल : १ (१ ऐलक, ब्रह्मचारीगण ) चातुर्मास स्थली : श्री आदिनाथ दिगंबर जैन मंदिर, ब्रह्मानंद सोसायटी, मेघानी नगर, अहमदाबाद (गुजरात) संपर्क सूत्र : कार्यालय (०७९-५५२५८३४९), छगनलालजी मंत्री (९८२५९-८६३४१) ४३. ऐलक संपूर्ण सागर जी महाराज : कुल : १ (१ ऐलक, ब्रह्मचारीगण ) चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन मंदिर, पानीपत (हरियाणा) संपर्कसूत्र : चंद्रशेखरजी (०१८४-२२५२०२४), वीरेन्द्र जैन (९४१६२ - ७२८४१) ४४. ऐलक नम्रसागरजी महाराज : कुल : १ (१ ऐलक, ब्रह्मचारीगण ) चातुर्मास स्थली : श्री दिगंबर जैन मंदिर, मालथौन, जि. सागर (म. प्र. ) संपर्क सूत्र: सुभाष जैन (०७५८१ - २७१२०६ ) ४५. क्षु. ध्यानसागरजी महाराज : कुल : १ (१क्षुल्लक, ब्रह्मचारीगण ) चातुर्मास स्थली : श्री शांतिनाथ दिगंबर जैन मंदिर, महावीरनगर एरिया, हिम्मतनगर, जि. सांवरकांठा (गुजरात) संपर्कसूत्र : जतिन दोशी (०२७७२-२३३५६७) ४६. क्षु. पूर्णसागर जी महाराज : कुल : १ (१क्षुल्लक, ब्रह्मचारीगण ) चातुर्मास स्थली : श्री पार्श्वनाथ दिगंबर जैन मंदिर, शिवनगर कॉलोनी, दमोह नाका, 32 सितम्बर 2005 जिनभाषित जबलपुर (म.प्र.)४८२००२ संपर्क सूत्र : प्रवीण जैन अध्यक्ष (९८२६११५०३६), चौधरी विक्रम जैन (०७६१५०४२७४८, ५०४२७५१ ) Jain Education International ४७. क्षु. नयसागरजी महाराज : कुल : १ (१क्षुल्लक, ब्रह्मचारीगण ) चातुर्मास स्थली : श्री दिगंबर जैन मंदिर, महरौनी, तह. मड़ावरा, जि. ललितपुर (उ. प्र. ) संपर्क सूत्र : जिनेन्द्र जैन (०५१७२-२३०२७८, २३०२७९) वर्तमान में आचार्य श्री विद्यासागरजी से दीक्षित शिष्य ८० मुनि महाराजजी, १०९ आर्यिका माताजी, ८ ऐलक:महाराजजी, ५ क्षुल्लक महाराजजी । कुल : २०२ अन्य : ४ मुनि एवं ५ क्षुल्लक वीरदेशना सज्जन मनुष्य पाप से उत्पन्न हुए दुःख को देखकर उस पाप का परित्याग करते हैं । The noble ones, having realised that evil actions breed misery, give up the latter forever. धर्म और अधर्म के फल को प्रत्यक्ष में जानकर विवेकी जीव सब प्रकार से अधर्म का परित्याग करते हुए निरन्तर धर्म किया करते हैं । कुल : २१२ (१ आचार्य, ८४मुनि, १०९ आर्यिका, ८ ऐलक, १०क्षुल्लक) Having directly realised the consequence of dharma and adharma, the discerning ones renounce adharma and practise dharma. जो जीव क्षमा के आश्रय से क्रोध को मृदुता के आश्रय से मान को, ऋजुता के आश्रय से माया को तथा संतोष के आश्रय से लोभ को नष्ट कर देता है, उसके ही धर्म रहता है । Dharma abides with the person who conquers anger by forbearance, conceit by mellowness, illusion by simplicity and acquisitiveness by contentment. मुनिश्री अजितसागर जी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524300
Book TitleJinabhashita 2005 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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