Book Title: Bindu me Sindhu
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिन्दु सिंधु श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थमाला ३६वां पुष्प बिन्दु में सिन्धु [लघु जीवन प्रसंग] लेखक राजस्थान केसरी प्रसिद्ध वक्ता परम श्रद्धय श्री पुष्कर मुनि जी म० के सुशिष्य देवेन्द्र मुनि शास्त्री प्रकाशक श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय शास्त्री सकिल, उदयपुर (राजस्थान) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पुस्तक बिन्दु में सिन्धु * लेखक देवेन्द्र मुनि शास्त्री * प्रथम मुद्रण अप्रैल १९७५, महावीर जयंती * प्रकाशक श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय शास्त्री सर्किल उदयपुर (राज.) * मुद्रक श्रीचन्द सुराना के लिए राष्ट्रीय आर्ट प्रिण्टर्स, मोतीलाल नेहरू रोड, आगरा दो रुपये मात्र Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण जिनकी पवित्र-प्रेरणा और पथ-प्रदर्शन से मेरी चिन्तन दिशाएं सदा आलोकित रही हैं, उन्हीं परमश्रद्धेय सद्गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी म० कर कमलों में -देवेन्द्र मुनि Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -प्रस्तुत पुस्तक के अर्थ सहयोगी शाह मनोहरदास गोपालजी वीरार चुनीलाल भेराजी खेमचन्दजी नेमीचन्द जी छोगालाल चमनाजी जैन कमलकुमार शंकरलाल जैन हुकमीचन्द पुखराज दीपचन्द भेराजी चुनीलाल बच्छराजनी कंपनी रतीलाल खेमचन्द जैन वच्छराज लक्ष्मीलाल प्यारचन्दजी मोहनलालजी जोर जी लालचन्द गंगाराम जी -उदार अर्थ-सहयोगी Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका जैन वाङमय तथा दर्शन के प्रतिष्ठित विद्वान एवं मौलिक साहित्य के प्रणेता श्री देवेन्द्रमुनि जी की प्रस्तुत कृति लघु कथाओं तथा रूपकों के माध्यम से जगत एवं जीवन के कतिपय महत्त्वपूर्ण प्रश्नों के सुविचारित समाधान की दिशा में एक विशिष्ट प्रयास हैं। अनेक महापुरुषों के जीवन-प्रसंगों से भावसुमन संकलित कर उन्होंने आधुनिक मानव के मन में उत्पन्न होने वाली द्विविधाओं तथा आशंकाओं के सन्दर्भ में विचारों की यह रत्नराशि सम्पादित की है। वैज्ञानिक उपलब्धियों के साथसाथ मानव-मन दिन-प्रतिदिन अशांत, क्षुब्ध एवं निष्प्राण होता जा रहा है । सुख, संतोष एवं समाधान की त्रिवेणी मानव-जीवन की नीरस बालुका-राशि में तिरोहित होती जा रही है। विचारधाराओं का पारस्परिक संघर्ष चरमस्थिति पर पहुँच कर बिखराव तथा टूटन का शिकार बन रहा है। ऐसी स्थिति में ज्ञान के किसी भी वातायन से सुखद-समीर के आने पर मन की प्रसन्नता स्वाभाविक है । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 'बिन्दु में सिन्धु' अपने शीर्षक को सार्थक करता हुआ सुपठनीय सामग्री प्रस्तुत करता है । प्रत्येक रूपक मस्तिष्क को चिन्तन सामग्री देने के साथ-साथ भावी संभावनाओं की ओर संकेत करता है । मुनि जी ने इसके पूर्व भी इस दिशा में अनेक स्तुत्य प्रयास किये हैं और जैन साहित्य के सुयोग्य पाठकों के मध्य उनकी रचनाओं का व्यापक स्वागत हुआ है । विचार-कणों के सुन्दर संकलन की दिशा में यह उनका अगला पड़ाव है । प्रांजल भाषा एवं प्रभावपूर्ण शैली का आधार लेकर लेखक ने विचार-सरिता के अवगाहन का प्रशंसनीय कार्य किया है । शैली में प्रसाद गुण की मनोरम छटा देते हुए मुनि जी ने जिस लगन एवं धैर्य का परिचय दिया है, उसके लिये वे सचमुच बधाई के पात्र हैं । २ अप्रैल १९७५ ६ ) -डा० रामप्रसाद त्रिवेदी एम० ए० पी एच० डी० [ अध्यक्ष, हिन्दी विभाग बिड़ला महाविद्यालय कल्याण (महाराष्ट्र ) ] Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय श्री देवेन्द्रमुनि जी लिखित 'बिन्दु में सिन्ध' पुस्तक अपने प्रेमी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हमें हार्दिक प्रसन्नता अनुभव हो रही है। जीवन के ये छोटे-छोटे महत्त्वपूर्ण प्रसंग अपने आप में अनन्त प्रेरणा का स्रोत छिपाए हुए हैं। भूले-भटके जीवन-राहियों के लिए ये मार्गदर्शक हैं। मुनि श्री ने भगवान ऋषभदेव : एक परिशीलन, भगवान अरिष्टनेमि और कर्मयोगी श्रीकृष्ण : एक अनुशीलन, भगवान पाव : एक समीक्षात्मक अध्ययन, भगवान महावीर : एक अनुशीलन, धर्म और दर्शन, साहित्य और संस्कृति, जैन दर्शन : स्वरूप और विश्लेषण' जैसे शोध-प्रधान ग्रन्थ लिखे हैं वहाँ चिन्तन साहित्य और कहानी व रूपक साहित्य भी लिखा है। पैतालिस से भी अधिक ग्रन्थ उनके लिखित व सम्पादित प्रकाशित हो चुके हैं। हमें आशा है पूर्व पुस्तकों की भाँति इसे भी पाठक अपनाएँगे और अपने जीवन को चमकाएँगे। पुस्तक प्रकाशन के लिए जिन उदारदानी महानुभावों का हमें अर्थ सहयोग प्राप्त हुआ है उनका और मुद्रण व्यवस्था करने वाले परमस्नेही श्रीचन्द्र जी सुराना 'सरस' का हम हृदय से आभार मानते हैं । मन्त्री श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका एकाग्रता महानता दिल के आईने में प्रामाणिकता क्षमा मैं साहित्य पति हूँ भगवान का सबसे प्यारा भक्त परीक्षा सुशिक्षित बेटा राष्ट्रपति जैफरसन नींव का पत्थर सेवामूर्ति इब्राहिम सफलता का राज परिवर्तन कविता का जन्म निन्दा निन्दक का कोई स्मारक नहीं जीवन जीने की कला जीवन और मृत्यु भव्य भावना स्वर्ग के बदले नरक or x ४ ८ ह १० ११ १२ १३ १४ १५ १७ १८ १६ २० २१ २२ २३ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ 5 0 mr mr mr mr m 9 Mmmm 0 महान श्लोक गोल्डस्मिथ की गोलियां सन्त तुकाराम की महानता स्वभाव नहीं छोड़ना चाहिए डाविन का सिद्धान्त देव बनना है या दानव ? मुक्ति का मार्ग दर्पण में चेहरा क्यों सुलतान बनने का रहस्य सिद्धान्त-निष्ठा एक उपाय एक तरकीब : प्रामाणिकता सत्यनिष्ठा जीवन का मूल्य सत्य की शक्ति जिज्ञासा चुप रहना सीखो दुःख की कल्पना शिक्षा प्रसन्नता का मूल सच्चा धन कर्नल कदाफी तू नहीं उठता तो अच्छा होता उपाधि महानता की प्रतीक नहीं उपहार ० mmx Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) 9 d . ६ vur 9 प्रजातन्त्र का नेता स्वावलम्बी लिकन कट वचन निर्भीकता असली और नकली कर्तव्य निष्ठा प्रजातन्त्र का परिहास आत्मा से परमात्मा मेरे बच्चों की मां विवाह आश्चर्य का कारण अच्छी वस्तु काम से मतलब सफलता का रहस्य सावधानी अचल-आस्था छोटा कद गौरव का मूल : पुरुषार्थ संगति का प्रभाव कंचन-कामिनी का संग उत्तराधिकारी कर्तव्य महान त्यागी नाम का व्यामोह प्रदर्शन mrdx Ur 9,99999999 vs . . * Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) समता खुशामदी अपने आपको देखो अपना विवेक अतिथि देवो भव देश की शान जिज्ञासा : प्रगति का मूल सफलता का रहस्य पराजय का रहस्य Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकाग्रता * पण्डित टोडरमलजी जयपुर के निवासी जैन श्रावक थे। उन्होंने अनेक आध्यात्मिक ग्रन्थों की रचना की। उनकी माँ ने भोजन में नमक डालना इसलिए बन्द कर दिया कि नमक से प्यास अधिक लगती है, परन्तु टोडरमल जी को पता ही न चला कि भोजन अलोना है। जिस दिन उनका ग्रन्थ पूर्ण हुआ उस दिन जब भोजन करने बैठे तब उन्हें अनुभव हुआ कि भोजन अलोना है। इतनी उनकी ग्रन्थ लिखने में एकाग्रता थी। जब उन्होंने अपनी माँ से कहा---''क्या माँ, तुम भोजन में नमक डालना भूल गई हो ?" माँ ने उत्तर दिया-"ज्ञात होता है तुम्हारा ग्रन्थ आज पूर्ण हो गया है।” दोनों एक-दूसरे को श्रद्धा और स्नेह से निहार रहे थे। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महानता * महान विद्वान डिडेरो के सन्निकट एक युवक आया और कहा-"मैं एक लेखक हूँ। मैंने एक पुस्तक लिखी है, मैं चाहता हूँ कि मुद्रण के पूर्व आप उसे एक बार भली प्रकार देख लें।" डिडेरो ने कहा- "मैं इसे अच्छी तरह से पढ़ लूँगा, तुम पुनः इसे कल ले जाना ।" जब दूसरे दिन वह लेखक आया तब डिडेरो ने कहा - "मुझे बड़ी प्रसन्नता है कि तुमने मुझे लक्ष्य बनाकर प्रस्तुत पुस्तक में मेरी खूब मखौल की है। मुझे बहुत गालियाँ दी हैं, पर जरा यह तो बताओ कि इससे तुम्हें क्या लाभ होगा?" २ बिन्दु में सिन्धु Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युवक ने कहा - "अभी मुझे अच्छी तरह लिखना नहीं आता है अतः मेरी पुस्तक को कोई प्रकाशक छापने के लिए तैयार नहीं होगा। मुझे ज्ञात है कि इस देश में आपके बहुत दुश्मन हैं, यदि मैं आपकी मजाक उड़ाने वाली पुस्तक लिखूँ तो मुझे अच्छा पैसा मिल सकेगा ।" डिडेरो ने मुस्कराते हुए कहा - "यह तुमने बहुत ही अच्छा किया है, पर एक कार्य तुम और करो। चूँकि प्रस्तुत पुस्तक छपाने के लिए तुम को पैसा भी चाहिए न ? एक उपाय बताता हूँ । एक व्यक्ति से मेरा धर्म के सम्बन्ध में तीव्र मतभेद है । वह मुझ पर अत्यधिक अप्रसन्न है । तुम यह पुस्तक उसे समर्पित कर दो। वह अत्यन्त प्रसन्न होकर तुम्हें अवश्य ही अर्थ सहयोग देगा | इसलिए तुम शीघ्र ही शानदार समर्पण-पत्र लिख दो ।" युवक ने कहा - "पर, मुझे सुन्दर समर्पण-पत्र लिखना कहाँ आता है ?" डिडेरो ने कहा - " तो तुम ठहरो! मैं ही तुम्हें अच्छा समर्पण-पत्र लिख देता हूँ जिससे तुम्हें खासी अच्छी रकम मिल जाय । उन्होंने उसी समय उसे समर्पण-पत्र लिखकर दे दिया । यह थी डिडेरो की महानता ! बिन्दु में सिन्धु ३ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल के आइने में पण्डित बनारसीदास चतुर्वेदी ने अपनी पत्रिका के लिए श्री पुरुषोत्तमदास टण्डन को एक फोटो की प्रति भेजने के लिए लिखा। उत्तर में श्री टण्डन जी ने लिखा- "मुझे खेद है कि मैं फोटो नहीं भेज सकता, कारण कि मैं अपना फोटो रखता ही नहीं। घर में अभी तक तो सभी मेरे शरीर को देख सकते हैं, फिर मेरे फोटो की क्या आवश्यकता है ? फिर स्नेही मित्रों को मेरे फोटो की क्यों आवश्यकता होनी चाहिए। मुझे इसी बात में सन्तोष है कि मैं उनके हृदय में ऐसा बस जाऊँ कि जिससे वे कह सकें "दिल के आइने में है तसबीरे-यार। जब जरा गरदन झुकायी देख ली॥" ४ बिन्दु में सिन्धु Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रामाणिकता अब्राहम लिंकन पहले एक छोटी-सी दुकान चलाया करते थे । एक दिन शाम को जब उन्होंने बिक्री का हिसाब लगाया तब उन्हें पता चला कि एक वृद्धा उन्हें तीन सेंट भूल से अधिक दे गई है। उनका मानस बेचैन हो उठा। वृद्धा का मकान पर्याप्त दूर था तथापि लिंकन उसी समय उसके घर पर पहुँचे और उस वृद्धा को तीन सेंट लौटाने पर ही उनके मन में शान्ति का अनुभव हुआ । बिन्दु में सिन्धु ५ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमा M दयानन्द सरस्वती अपने गुरु बिरजानन्द जो की कुटिया में प्रतिदिन सफाई करते थे । एक दिन मकान का कूड़ा-कचरा दरवाजे के पास इकट्ठा करके वे अन्य काम में लग गये, कचरे को वहाँ से उठाना भूल गये । बिरजानन्दजी प्रज्ञाचक्षु थे, वे ज्योंही कुटिया से बाहर निकलने लगे कि उनके पाँवों में वह कूड़ा-कचरा आ गया । वे उबल पड़े, – “मूर्ख ! क्या कचरे को यहाँ रक्खा जाता है !" यह कहते हुए उन्होंने दयानन्द को जोर से दो-चार चाँटे भी लगा दिये । जब उनका क्रोध उतर गया तब दयानन्दजी ने उनके पैरों को पकड़कर कहा - " पूज्य गुरुदेव ! आप श्री का शरीर अत्यधिक कमजोर है । मुझे आप डण्डे से पीटिए, क्योंकि मैं तो मोटा-ताजा हूँ । आप श्री अपने कोमल हाथों को कष्ट मत दीजिए ।" बिन्दु में सिन्धु ६ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं साहित्य पति हूँ राष्ट्रपति राजेन्द्रप्रसाद किसी कार्य-वश इलाहाबाद पहुँचे । महाकवि 'निराला' से मिलने की उनकी तीन उत्कण्ठा थी । उन्होंने अपने निजी सचिव को कार देकर निरालाजी को बुलाने के लिए भेजा । सचिव ने जाकर निरालाजी से जब राष्ट्रपति का संदेशा कहा तो निराला जी ने कहा---"यदि वे राष्ट्रपति हैं तो मैं साहित्यपति हूँ। यदि वे डॉक्टर राजेन्द्रप्रसाद हैं तो यहाँ भी आ सकते हैं, यदि वे राष्ट्रपति की हैसियत से मुझे मिलने के लिए बुला रहे हैं, तो मुझे राष्ट्रपति से कुछ भी लेना-देना नहीं है।" मोटर खाली ही लौट गई । ऐसे थे निस्पृह निराला । बिन्दु में सिन्धु ७ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान का सबसे प्यारा भक्त इस्लाम के एक सन्त हो गये हैं—'अबुबेन आदम ।' उन्होंने एक रात स्वप्न देखा कि देवदूत चन्द्रमा की चाँदनी में कुछ लिख रहा था। अबू ने पूछा-"क्या लिख रहे हो ?' देवदूत ने धीरे से कहा- 'मैं उन व्यक्तियों की सूची बना रहा हूँ, जो भगवान से प्यार करते हैं और जो भगवान के प्रिय भक्त हैं । क्या तुम्हारा नाम भी इस सूची में लिख दूँ ?' अबू ने कहा---''मैं उन व्यक्तियों में नहीं हूँ किन्तु आप यदि प्रभु के बन्दों से प्यार करने वालों की सूची बनाएँ तो उसमें मेरा नाम लिख सकते हैं।" दूसरे दिन फिर अबू ने स्वप्न देखा कि देवदूत प्रभु से प्यार करने वालों की एक लम्बी सूची बनाकर लाया जिसमें अबू का नाम सबसे प्रथम और ऊपर लिखा हुआ था । जो प्रभु के बन्दों से प्रेम करता है प्रभु उससे अवश्य हो प्रेम करते हैं। ८ बिन्दु में सिन्धु Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीक्षा साधक वह है, जो लाभ-अलाभ, सुख-दुख और अपेक्षा-उपेक्षा आदि सभी परिस्थितियों में तटस्थ रहता है एवं (सम-भाव) की साधना करता है। रामकृष्ण परमहंस का, स्वामी विवेकानन्द पर असीम स्नेह था। विवेकानन्द का पूर्वनाम नरेन्द्र था। एक बार रामकृष्ण परमहंस ने बालक नरेन्द्र से बोलना ही बन्द कर दिया। जब नरेन्द्र उनको नमस्कार करने के लिए आते तब वे अपना मुंह फिरा लेते थे। प्रतिदिन नरेन्द्र सहजभाव से आते, उन्हें नमस्कार करते और कुछ देर तक उनके पास में बैठकर चले जाते । यह क्रम कई सप्ताह तक चलता रहा। एक दिन रामकृष्ण ने नरेन्द्र से पूछा - "मैं तुमसे नहीं बोलता हूँ, तू आता है और नमस्कार करता है, तब मैं अपना मुंह फेर लेता हूँ तथापि तू प्रतिदिन मेरे पास क्यों आता है ?" नरेन्द्र ने प्रत्युत्तर दिया --- "गुरुदेव ! आपके प्रति मेरे मन में श्रद्धा है इसलिए चला आता हूँ। आप श्री बोलें या न. बोलें इससे मेरी श्रद्धा में कुछ भी अन्तर नहीं आ सकता। यह सुनते ही परमहंस का दिल नरेन्द्र के प्रति वात्सल्य से छल-छला उठा। उन्होंने नरेन्द्र को छाती से लगाते हुए कहा- अरे पगले ! मैं तेरी परीक्षा कर रहा था कि तू उपेक्षा-भाव को सहन कर सकता है या नहीं, तू परीक्षा में समुत्तीर्ण हुआ है । मेरी हत्तन्त्री के तार झनझना रहे हैं कि एक दिन तू विश्व का एक महान् व्यक्ति बनेगा। * बिन्दु में सिन्धु Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिक्षित बेटा पण्डित मोतीलाल नेहरू अपने पुत्र जवाहरलाल नेहरू के अध्ययन की योजना बना रहे थे। उनके एक मित्र पास ही बैठे थे, उन्होंने पूछा- "बताइये इसकी पढ़ाई में कितना खर्च होने की सम्भावना है ? मोतीलाल जी ने अच्छी तरह हिसाब लगाकर बताया कि एक लाख रुपये।" मित्र ने कहा कि मेरी सलाह यह है कि आप एक लाख रुपये बैंक में जमा करादें, जिससे आपकी इतनी स्थायी आमदनी हो जायगी कि विदेश में जाकर उच्चतम शिक्षा प्राप्त करने पर भी नहीं हो सकेगी। मुस्कराते हुए पण्डित मोतीलालजी ने कहा- "मित्रवर ! मैं अपने पोछे हरामखाऊ नहीं, अपितु एक-सुयोग्य सन्तान छोड़ना चाहता हूँ। यह मेरी भावना बैंक-जी से सफल नहीं हो सकती उसके लिए तो सुशिक्षा ही आवश्यक है । सुशिक्षा ही एक सुशिक्षित बेटा तैयार कर सकती है। १० बिन्दु में सिन्धु Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राष्ट्रपति जैफरसन का दृष्टिकोण अमरीकी राष्ट्रपति टामस जैफरसन एक भव्य होटल में गये और ठहरने के लिए उन्होंने स्थान माँगा। उनकी वेश भूषा एक किसान के समान थी। होटल के अधिपति ने उन्हें मामूली व्यक्ति समझकर वहाँ ठहराने से इंकार कर दिया । जैफरसन शान्ति के साथ लौट गये । ___ कुछ समय के पश्चात् किसी के द्वारा होटल के अधिपति को जब यह ज्ञात हुआ कि वह साधारण व्यक्ति नहीं, राष्ट्रपति जैफरसन हैं। उसने उसी समय अपने विशिष्ट व्यक्तियों को उनके पास भेजा कि वे ससम्मान उन्हें अपने यहाँ पर ले आवें। जब जैफरसन से उन व्यक्तियों ने होटल में पधारने के लिए निवेदन किया तो जैफरसन ने उनसे कहा--"आप अपने अधिपति से कहें कि जहाँ तुम्हारी होटल में एक सामान्य कृषक को स्थान नहीं है, वहाँ अमेरिका का राष्ट्रपति तुम्हारे यहाँ किस प्रकार ठहर सकता है ?" बेचारे अपना-सा मुँह लेकर लौट गये। बिन्दु में सिन्धु ११ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नींव का पत्थर ___ सन् १६२८-२६ का प्रसंग है। श्री लालबहादुर शास्त्री, 'सर्वेन्ट्स ऑफ पीपल्स सोसायटी' के सदस्य के नाते इलाहाबाद के सार्वजनिक जीवन के सम्बन्ध में कार्य करने लगे थे । वे अखबारी प्रचार से अपना सम्बन्ध काफी दूर रखना चाहते थे। उनके मित्र ने उनसे पूछा- “लालबहादुर जी ! आपको समाचार पत्रों में अपना नाम छपाने से इतना परहेज क्यों है ?" शास्त्रीजी ने मुस्करा कर कहा-“लाला लाजपतराय ने 'सोसायटो' के कार्य के लिए दीक्षा प्रदान करते हुए मुझे यह कहा था-लालबहादुर ! ताजमहल में दो तरह के पत्थर लगे हैं--एक बढ़िया संगमरमर है, जिसके मेहराब और गुम्बज बने हैं। संसार उन्हीं का प्रशंसक है। दूसरे हैं-नींव के पत्थर जिनकी कोई प्रशंसा नहीं करता और मैं नींव का पत्थर बन कर ही काम करना चाहता हूँ |* १२ बिन्दु में सिन्धु Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवामूर्ति इब्राहिम * एक काफिले के साथ तपस्वी इब्राहिम यात्रा कर रहे थे। काफिले का एक व्यक्ति अत्यन्त रुग्ण हो गया। इब्राहिम रात-दिन उसकी सेवा करते थे । रोगी के उचित उपचार में अपने पास जो कुछ भी था, उन्होंने सब व्यय कर दिया, फिर भी जब रोगी पूर्ण स्वस्थ न हुआ तो इब्राहिम ने उसका खच्चर बेच दिया और उसके पथ्य आदि की व्यवस्था की। जब रोगी को होश आया तब उसने कहा-"अब मैं खच्चर के अभाव में कैसे यात्रा कर सगा ! मुझसे तो एक कदम भी नहीं चला जाता।" इब्राहिम ने कहा- 'तुम चिन्ता न करो, खच्चर गया तो कोई बात नहीं, तुम मेरे कन्धों पर यात्रा करना ।" सेवामूति इब्राहिम ने कई दिनों तक उसे कन्धों पर बैठाकर यात्रा को। बिन्दु में सिन्धु Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सफलता का राज है __ महान् मूर्तिकार एडिन महान् लेखक स्टीफेन ज्विग को अपनी कला शाला दिखाने के लिए ले गये। जिस मूर्ति को उन्होंने बड़े कलात्मक ढंग से निर्मित किया था, उसके सामने ज्योंही वे उपस्थित हुए त्योंही उन्हें उसके कन्धों को अपूर्णता का ध्यान हुआ और वे तत्क्षण उसके कन्धों की सुघड़ता के लिए अपनी छैनो और हथौड़ो लेकर ठुकठूक करने में तल्लीन हो गये-कभी इधर, कभी उधर, कभी यहाँ और कभी वहाँ, कलाकार की सूक्ष्म निगाह से . उसे ठीक करने में पूरा एक घंटा हो गया तब उनके मुंह से निकला-'अब ठीक है।' फिर वे ज्योंही पीछे मुड़े तो ज्विग खड़े दिखाई दिये । कलाकार भौंचक्का और संकुचित होकर बोला- "मुझे इसके कंधे ठीक करने में स्मरण हो न रहा कि आप मेरे साथ आए हैं।" ज्विग ने प्रसन्न होकर कहा-'मुझे अनायास ही आज आपकी सफलता का रहस्य ज्ञात हो गया है और वह रहस्य है आपकी ‘एकाग्रता' । १४ बिन्दु में मिन्धु Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्तन बहुत तेज वर्षा हो रही थी। कब्रिस्तान को मिट्टी वर्षा के पानी से बह गई थी, जिससे मुदों की खोपड़ियाँ और हड्डियाँ बाहर आ गई थीं । बहलूल दाना कब्रिस्तान में पहुंचा और उसने उन सब खोपड़ियों को इकट्ठा किया और उन्हें गौर से देखने लगा। वह कभी एक खोपड़ी को हाथ में लेकर देखता, तो कभी दूसरी खोपड़ी को। बिन्दु में सिन्धु १५ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसी समय वहाँ के बादशाह की सवारी निकलो। बहलूल की निराली हरकत को देखकर बादशाह को बड़ा हो आश्चर्य हुआ। उन्होंने बहलूल से पूछा- "तुम इन मुर्दो को खोपड़ियों में क्या खोज रहे हो ?' बहलूल ने जवाब दिया-“जहाँपनाह ! आपश्री के और मेरे पूर्वज यहाँ से विदा हो चुके हैं । मैं इन खोपड़ियों में ढढ रहा हूँ कि आपके पूर्वजों की कौनसी खोपड़ियाँ हैं और मेरे पूर्वजों की कौनसी हैं ?'' बादशाह ने खिल-खिलाकर कहा- "अरे बहलूल ! तुम नादानों की सी क्या बात कर रहे हो ! कहीं मुर्दा खोपड़ियों में भी फर्क हुआ करता है ?" । बहलूल बोला-"परवर दिगार ! फिर चार दिनों को झठी जिन्दगी के लिए सत्ता के नशे में उन्मत्त होकर आप क्यों दीन-हीन व्यक्तियों को कष्ट देते हैं ? क्यों उन व्यक्तियों के साथ अशिष्टतापूर्ण व्यवहार करते हैं ?" बादशाह यह सुनकर अपने कुकृत्यों पर लज्जित होकर लाजवाब हो गया। बहलूल की मीठी फटकार ने उसके जीवन में आमूलचूल परिवर्तन कर दिया । १६ बिन्दु में सिन्धु Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविता का जन्म गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर और आचार्य क्षितिमोहन सेन दोनों ट्रेन में सफर कर रहे थे। क्षितिमोहन सेन ने देखा कि रवीबाबू कविता के मूड में हैं। मेरी उपस्थिति में संभव है कि कहीं कविता लिखने में उन्हें बाधा हो, यह सोचकर वे धीरे से वहाँ से उठकर शौचालय में चले गये। कुछ समय के पश्चात् जब वे पुनः लौटकर आये तो रवीबाबू ने पूछा- "तुम कहाँ चले गये थे ? देखो, अभीअभी इस कविता का जन्म हुआ है।" । क्षितिमोहन सेन ने कहा- "गुरुदेव ! कविता जन्म ले रही थी, इसलिए मैं यहाँ से उठकर चला गया था।" रवीबाबू ने फिर पूछा- "तुम यहाँ से किसलिए चले गये ?" क्षितिमोहन सेन का उत्तर था--"भारतीय संस्कृति की दृष्टि से किसी के जन्म लेते समय किसी पुरुष का वहाँ खड़ा होना अनुचित माना जाता है । पुरुष तो हमेशा बाहर खड़ा रहकर उसकी प्रतीक्षा करता है।" बिन्दु में सिन्धु १७ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निन्दा सन्त ऑगस्टिन को किसी की निन्दा सुनना पसन्द नहीं था। उन्होंने अपने मकान की दीवारों पर अंकित करवा दिया था कि 'चुगलखोर के लिए यहाँ कोई जगह नहीं है। यहाँ पर सिर्फ सच्चाई और अनुभूति का राज्य है।' ___ एक दिन कुछ मित्र उनसे मिलने के लिए आये । वार्तालाप में वे अपने एक साथी की निन्दा करने लगे जो उस समय वहाँ पर उपस्थित नहीं था। . सन्त ऑगस्टिन ने मधुर शब्दों में उपालम्भ देते हुए कहा-"मित्रो ! आपको या तो यह बात बन्द करनी होगी, या मुझे दीवार पर लिखे हुए ये शब्द मिटाने होंगे।" उन्होंने उसी समय निन्दा करना बन्द कर दिया। भगवान महावीर ने निन्दा को पीठ का माँस खाना बताया है। १८ बिन्दु में सिन्ध्र Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निंदक का कोई स्मारक नहीं ! फिनलैण्ड के विश्व-विश्रुत संगीतकार सिविलियस से एक बार एक नौसिखिया संगीतज्ञ मिलने आया। उसने वार्तालाप के प्रसंग में कहा--"कुछ आलोचक मेरी इतनी तीव्र आलोचना करते हैं कि मैं उसे सुनकर तिलमिला उठता हूँ और अत्यन्त निराश हो जाता हूँ। बताइये मुझे क्या करना चाहिए ?" सिविलियस ने कहा - "मित्र ! तुम्हें कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है, तुम उन आलोचकों की बातों पर ध्यान ही न दो और यदि तुम्हारी कुछ भूल है तो उसे सुधार लो। तुम्हें स्मरण रखना चाहिए कि आज दिन तक किसी आलोचक के सम्मान में कोई भी स्मारक नहीं बनाया गया है और न ही उसकी मूति बनाकर किसी ने उसकी पूजा की है। संसार में निन्दक तो हमेशा घृणा की दृष्टि से ही देखा जाता है।" बिन्दु में सिन्धु ___ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन जीने की कला 46 प्लेटो के एक मित्र ने उनसे कहा - " कुछ आलोचक आपकी बहुत ही बुरी आलोचना करते हैं, किसी तरह उन आलोचकों का मुँह बन्द कर देना चाहिए ।" प्लेटो ने मुस्कराते हुए कहा - " मुँह बन्द करने की आवश्यकता नहीं है, उन्हें निस्संकोच बोलने दीजिए, मैं ऐसा जीवन जीऊँगा कि आलोचकों की बातों पर कोई विश्वास ही नहीं कर सकेगा । जीवन जीने की कला मैं जानता हूँ ।" बिन्दु में सिन्धु २० Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन और मृत्यु लाओत्से के एक शिष्य की मृत्यु हो गई। वे उसके घर पर गये। सारा परिवार शोकातुर था । लाओत्से ने उनसे पूछा- "बताओ, यह मृत है या जीवित है ?" विचित्र प्रश्न सुनते ही सभी लोग चकित हो गये कि यह कैसा विचित्र प्रश्न है ? महान् दार्शनिक के सामने लाश पड़ी है फिर भी पूछते हैं कि जीवित है या मृत है। कुछ क्षणों तक सन्नाटा छाया रहा, फिर लोगों ने लाओत्से से कहा ---"कृपया आप ही बताइये?" ___लाओत्से ने कहा-"जो पहले मृत था, वह आज भी मृत है, जो पहले जीवित था, वह आज भी जीवित है। केवल दोनों का सम्बन्ध टूट गया है । जीवन की कोई मृत्यु नहीं होती और मृतक का कोई जीवन नहीं होता। ____ जीवन को जो नहीं जानते, वे मृत्यु को जीवन का अन्त कहते हैं । जन्म जीवन का प्रारम्भ नहीं है और मृत्यु जीवन का अन्त नहीं है । वह तो जन्म और मृत्यु के बाहर भी है और अन्दर भी है, वह जन्म के पहले भी है और पश्चात् भी है।" बिन्दु में सिन्धु २१ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भव्य भावना एक बार अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन अपने कुछ स्नेही मित्रों के साथ टहल रहे थे। उन्होंने पानी से तरबतर और भयंकर शात से ठिठुरते हुए एक पिल्ले को देखा । पिल्ले की दयनीय दशा देखकर उनका हृदय करुणा से छलछला उठा और शीघ्र ही उसे उठाकर उन्होंने अपने बढ़िया कोट में छिपा लिया। उनके एक मित्र ने कहा- "आप यह क्या कर रहे हैं ? इस गन्दे पिल्ले से यह कीमती कोट गन्दा हो जायगा।" मुस्कराते हुए लिंकन ने कहा- “कोट गन्दा हो जाने से मुझे दुख नहीं होगा, किन्तु यदि मैं इस पिल्ले को नहीं बचा पाया, तो यह दुःख जीवन भर मुझे सालेगा कि सामर्थ्य होने पर भी मैं एक छोटे से पिल्ले की भी सहायता नहीं कर सका।" यह थी लिंकन की भव्य भावना। ॐ २२ बिन्दु में मिन्धु Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्ग के बदले नरक खलीफा हारूँ रसीद ने सन्त फलिजानेन आयज के स्वभाव की बहुत ही प्रशंसा सुन रक्खी थी । वे उनके दर्शन के लिए पहुँचे । जैसा उन्होंने सन्त फलिजानेन के बारे में सुन रक्खा था, उससे भी उनको अधिक श्रेष्ठ पाया । अतः उपहार स्वरूप उन्होंने सन्त के चरणों में एक हजार अशर्फियाँ समर्पित कीं । सन्त ने मुस्कराते हुए कहा - "खलीफा साहब ! मैंने आपको स्वर्ग जाने का मार्ग बताया और उसके बदले में आप मुझे नरक का साधन दे रहे हैं ।" खलीफा सन्त की निस्पृहता देखकर चरणों में गिर पड़ा और अपने अपराध की क्षमा माँगने लगा । बिन्दु में सिन्धु २३ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महान् श्लोक भारत के सुप्रसिद्ध सम्राट विक्रमादित्य ने अपनी राज सभा में एक श्लोक लिखवाया.. "प्रत्यहं प्रत्यवेक्षेत, नरश्चरितमात्मनः । किन्नु मे पशुभिस्तुल्यं किन्नु सत्पुरुषैरिव ॥ तेरे इस बहुमूल्य जीवन का जो दिन व्यतीत हो रहा है, वह पुनः लौटकर नहीं आयेगा अतः प्रतिदिन चिन्तन कर कि आज का दिन व्यतीत हुआ है, वह पशुतुल्य हुआ है या मानव तुल्य ? प्रतिदिन के चिन्तन से विक्रमादित्य के जीवन का नक्शा ही बदल गया । २४ बिन्दु में सिन्धु Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोल्डस्मिथ की गोलियाँ महान् साहित्यकार ओलिवर गोल्डस्मिथ ने औषधिविज्ञान का गहरा अध्ययन किया था। ___ एक महिला जिसका पति अत्यन्त रुग्ण था, उसके पास डॉक्टर को देने के लिए फोस नहीं थी। उसने गोल्डस्मिथ के सम्बन्ध में सुन रक्खा था कि वह दयालु चिकित्सक है। उस महिला ने एक पत्र उसको लिखा। __ पत्र मिलते ही गोल्डस्मिथ उसके घर पर पहुँचा । साधारण वार्तालाप के उपरान्त उसने कहा-अभी मैं अपने आदमी के साथ कुछ गोलियाँ भिजवा दूंगा जिससे तुम्हारे पति शोघ्र ही स्वस्थ हो जायेंगे। उसने सन्देशवाहक के साथ एक बन्द डिब्बी भेजी। जब उस महिला ने उसे खोलकर देखा तो उसमें दस अफियाँ चमक रही थीं। पत्र में लिखा था "आवश्यकतानुसार एक का उपयोग करना, धैर्य रखना, निराश न होना, यदि आवश्यकता हो तो और भी मँगवा लेना, तुम पूर्ण स्वस्थ हो जाओगे।" फिर रोगी ने डॉक्टर के मार्गदर्शन के अनुसार दवाई ली और वह पूर्ण स्वस्थ हो गया। बिन्दु में सिन्धु २५ ___ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्त तुकाराम की महानता सन्त तुकाराम बड़े भक्त थे, वे एक रात्रि को कोर्तन कर रहे थे। उनकी कुटिया पर अन्य कोई नहीं था। एक चोर ने अवसर का लाभ उठाया और जो भैंस बँधी हुई थी, उसे खोलकर हाँकते हुए चलता बना। २६ बिन्दु में सिन्धु ___ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह कुछ दूर गया था कि उसके मन में विचार आया कि मैंने यह ठीक नहीं किया। वह उलटे पैरों वापस लौटा और पुनः भैंस को लाकर उसने सन्त की कुटिया के सामने बाँध दी। पर उसके मन में सन्तोष नहीं हुआ। अपने अपराध की क्षमा माँगने के लिए वह जहाँ पर तुकाराम कीर्तन कर रहे थे, वहाँ पर सीधा पहुँचा। उसने तुकाराम के चरणों पर गिरकर अपने अपराध की क्षमा माँगी। तुकाराम ने कहा- "भाई ! तुम्हें यदि भैंस की आवश्यकता हो तो उसे सहर्ष ले जाओ।" पर वह अब कहाँ ले जाने वाला था ? दूसरे ही दिन से सन्त तुकाराम अपनी आवश्यकतानुसार भैंस का दूध रखकर शेष दूध अपने अड़ोसी-पड़ोसी को बाँटने लग गये। तुकाराम ने सोचा कि मेरे परिग्रह के कारण ही उस चोर के मन में चोरी करने की भावना पैदा हुई थी। यदि पहले से ही दूध का वितरण कर देता तो वह भैंस को नहीं चुरा ले जाता। बिन्दु में सिन्धु २७ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सज्जनों को अपना स्वभाव नहीं छोड़ना चाहिए * घटना सन् १९२४ को है। महर्षि रमण रात्रि में सो रहे थे । खिड़कियों के काँच तोड़ने की आवाज उनके कानों में पड़ी। वे उठे और दरवाजा खोलकर कहा-"भाई ! तुम इतना कष्ट क्यों कर रहे हो ? तुम अन्दर आओ, हम लोग सब बाहर निकल जाते हैं । ___चोरों ने आश्रमवासियों को बुरी तरह से मारा। महर्षि रमण को भी उन्होंने नहीं छोड़ा। जब एक परिचारक ने यह दृश्य देखा तो उसका खून खौल उठा, उसने डण्डा उठा कर चोरों पर प्रहार करने की तैयारी की। महर्षि रमण ने उसे रोकते हुए कहा - "भाई, तुम यह क्या करने जा रहे हो ? ये चोर भी तो अपने ही भाई हैं। जैसे मुंह में जीभ और दाँत दोनों साथ रहते हैं वैसे ही समाज में सज्जन और दुर्जनों को साथ रहना चाहिए । यदि चोर अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते, तो फिर हमको अपना स्वभाव क्यों छोड़ना चाहिए ?" २८ बिन्दु में सिन्धु Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डार्विन का सिद्धान्त असत्य है। आम के वृक्ष पर बन्दर की एक टोली एकत्रित हुई। नीचे विद्यार्थी पढ़ रहे थे कि "डाविन का मन्तव्य है कि मनुष्य बन्दर की सन्तान है।" यह सुनते ही एक वृद्ध बन्दर ने कहा- “यह बात हमारे लिए अत्यन्त ही अपमानजनक है।” देखिए–“आज दिन तक किसी भी बन्दर ने बीड़ी नहीं पी, सिगरेट नहीं सुलगाई, शराब नहीं पी, उसने जुआ नहीं खेला, वह कभी परस्त्री के पीछे ललचाया नहीं, उसने अनावश्यक संग्रह नहीं किया है, उसने आज तक अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण भी नहीं किया है और कभी अपने दोषों को छिपाने की कोशिश ही नहीं की। अब आप ही बताइये कि मनुष्य हमारी सन्तान कैसे हो सकती है। अतः डार्विन का सिद्धान्त गलत है।" बिन्दु में सिन्धु २९ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव बनना है या दानव ? विनोबा भावे जब बालक थे। उनके घर के आंगन में एक पपीते का वृक्ष था। विनोबा उसे प्रतिदिन पानी पिलाते । उसमें फल लगे। विनोबा का मन कच्चे फल हो खाने को ललचाया। पर माँ ने कहा-"बेटा ! कच्चे फल नहीं खाये जाते ।" लम्बी प्रतीक्षा के पश्चात् फल पके । विनोबा ने दो फल तोड़े और उन्हें अच्छी तरह से काटा और फाँकों को संवार कर थाल में सजाया। विनोबा के मन में अपनी मेहनत के फल चखने की अत्यधिक उत्सुकता ३० बिन्दु में सिन्धु Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थी। उन्हें खाने के लिए उन्होंने ज्योंही हाथ आगे बढ़ाया त्योंही माँ ने कहा--"विनिया ! तुम देव बनना चाहते हो या दानव ? जो दूसरों को खिलाकर या देकर खाता है, वह देव है और जो खुद के लिए ही रखता है वह दानव है, बताओ तुम्हें क्या बनना है ?" विनोबा तुरन्त बोल उठे-"माँ मुझे देव बनना है।" माँ ने आज्ञा दी- "तो जाओ इन पपीते की फांकों को पहले पड़ोसियों को बाँटो । घर में लगे हुए पहले फल का अधिकारी पड़ोसी होता है।" विनोबा माँ की आज्ञा सुनकर वह थाल लेकर पड़ोसियों के घर पर दौड़ पड़े, पड़ोसी उसमें से एक-एक फाँक लेते गये और प्रेम से विनोबा की पीठ थपथपाते गये कि वाह ! बड़ा मीठा पपीता लाये हो ! बची हुई फाँकों को लेकर विनोबा घर पर आए और अपने भाइयों को बाँटकर खुद भी खाने लगे। माँ ने फिर पूछा-'"विनिया ! पपीता मीठा तो है न?" विनोबा ने प्रत्युत्तर दिया-"अम्मा ! पड़ोसियों की प्रेम की थपकी में जो मिठास था, वह पपीते में कहाँ है ?" विनोबाजी में 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना को उबुद्ध करने का श्रेय उनकी माँ को ही था। बिन्दु में सिन्धु ३१ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्ति का मार्ग Ne मिश्र के प्रसिद्ध सन्त मकारियो से एक जिज्ञासु ने प्रश्न पूछा - "कृपया मुझे बताइये कि मुक्ति का साधन कौनसा है ? जिससे मेरा जीवन सफल हो जाय ।" गुरु ने एक क्षण चिन्तन कर कहा - " मार्ग बहुत ही सीधा है—तुम अभी कब्रिस्तान में जाओ और कब्रों में जो बिन्दु में सिन्धु ३२ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोग सोये हुए पड़े हैं, उन्हें खूब गालियाँ दो, पत्थर फेंककर उनका अपमान करो। उसके पश्चात् मेरे पास आओ।" शिष्य ने कब्रिस्तान में पहुँचकर खूब गालियाँ दी, पत्थर फेंके, फिर गुरु के पास आकर बोला-“मैं आपके आदेशानुसार कार्य करके आया हूँ।" । गुरु ने फिर आदेश दिया-"अब फिर उसी कब्रिस्तान में जाकर उनकी खूब प्रशंसा करो और उन पर फूल चढ़ाओ। वह गुरु के आदेशानुसार कार्य करके लौट आया। ___ गुरु ने कहा- "तुमने जब उनकी निन्दा की, गालियाँ दी, उन पर पत्थरों की बौछार की तब उन्होंने तुमसे कुछ कहा था ? और जब उनकी प्रशंसा की, उन पर फूल चढ़ाए तब उन्होंने कुछ कहा ? शिष्य ने नम्रतापूर्वक उत्तर दिया-"उन्होंने कुछ भी नहीं कहा । वे तो शान्त रहे।" सन्त मकारियो ने मुक्ति का मार्ग बताया- "कब्रिस्तान के मुर्दो की तरह तुम्हारी भी यदि कोई प्रशंसा करे या कोई पेट भरकर निन्दा करे, तो दोनों दशाओं में समता रक्खो। यही समता की साधना ही मुक्ति का मार्ग है। बिन्दु में सिन्धु ___ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्पण में चेहरा क्यों देखना चाहिए? महान् दार्शनिक सुकरात अपने कमरे में बैठे थे और बार-बार वे दर्पण में अपना मुंह देख रहे थे । सुकरात का चेहरा बड़ा ही कुरूप था । वे बार-बार अपने चेहरे को क्यों देख रहे हैं ? यह उनके शिष्यों को समझ में नहीं आ रहा था। आखिर उन्होंने सुकरात से पूछ ही लिया-"आप अपना चेहरा बार-बार दर्पण में क्यों देख रहे हैं ?" सुकरात ने कहा-"चेहरा सुन्दर हो या कुरूप, सबको दर्पण में देखना चाहिए।" एक शिष्य बोल उठा- "गुरुवर ! कुरूप तो अपनी वास्तविकता को जानता ही है, दर्पण में अपने कुरूप चेहरे को देखकर उसे अत्यधिक दुःख होगा।" । सुकरात ने कहा- "वत्स ! कुरूप को दर्पण में इसलिए देखना चाहिए कि अपने रूप को देखकर उसे यह ध्यान आ जाय कि वह वस्तुतः कुरूप है । अतः अपने श्रेष्ठ कार्यों से उस कुरूपता को सुन्दर बनाकर उसे ढकने का प्रयास करे। सुन्दर चेहरे वाले को दर्पण में इसलिए देखना चाहिए कि उसका चेहरा सुन्दर है अतः वह सदैव सुन्दर कार्य ही करे।" ३४ बिन्दु में सिन्धु Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुलतान बनने का रहस्य बादशाह बनने के पश्चात् हसन से किसी ने प्रश्न पूछा- "आपके पास न तो पर्याप्त धन है और न सेना ही है तथापि आप सुलतान किस प्रकार बन गये ?" __हसन ने हँसते हुए उत्तर दिया-"मित्रों के प्रति मेरा सच्चा प्रेम है, शत्र के प्रति भी मेरा व्यवहार उदारता एवं सहानुभूतिपूर्ण है और प्रत्येक मानव के प्रति मेरा सद्भाव है। यही मेरे सुलतान बनने का रहस्य है।" ॐ बिन्दु में सिन्धु ३५ ___ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त-निष्ठा लालबहादुर शास्त्री नैनी जेल में थे । उस समय उनकी पुत्री पुष्पा अत्यधिक बीमार हो गई और उसकी दशा चिन्तनीय हो गई। उनके स्नेही साथियों के अत्यधिक आग्रह पर शास्त्री जी जेल से बाहर आकर अपनी पुत्री की सेवा शुश्रुषा करने के लिए प्रसन्न हुए। पैरोल ने बिना किसी शर्त के स्वीकृति प्रदान की। ___शास्त्री जी घर पर पहुँचे, कुछ समय के पश्चात् उनकी पुत्री ने सदा के लिए आँखें मूंद ली। शास्त्री जी उसकी अन्तिम क्रिया कर लौटे, पर घर में नहीं गये, अपना सामान उठाकर वे ताँगे में बैठ गये । लोगों ने कहा अभी तक पैरोल बाकी है, किन्तु शास्त्री जी ने दृढ़ निश्चय के साथ कहा-मैं जिस कार्य हेतु पैरोल पर छूटा, वह कार्य समाप्त हो गया अतः सिद्धान्त को दृष्टि से मुझे जेल में जाना चाहिए। और वे जेल की ओर बढ़ गये, यह थी शास्त्रीजी की सिद्धान्त-निष्ठा । ३६ बिन्दु में सिन्धु - Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक उपाय, एक तरकीब स्कूल की छुट्टी हुई, एक सुकुमार बालक अपने कन्धे पर बस्ता लटकाए हुए बाहर निकला, उसने देखा एक हृष्टपुष्ट नौजवान लड़का एक दुबले लड़के को बुरी तरह मार रहा है। उसे जोश आगया, वह उसे छुड़ाने के लिए पास में पहुँचा, किन्तु उस बलवान युवक को देखकर उसका साहस नहीं हुआ कि किस प्रकार उसे टोके । उसने मधुर बिन्दु में सिन्धु ३७ ___ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दों में उस पीटने वाले युवक से पूछा-भाईसाहब! आप इस बालक को कितनी बेंत लगाना चाहते हैं। पीटने वाले युवक ने उसे झिड़कते हुए कहा- तुम्हारा क्या तात्पर्य है ? धीरे से बालक ने कहा- मुझे एक काम है। क्या काम है तुम्हें ? मैं इतना हृष्ट-पुष्ट नहीं हूँ कि इस बालक का पक्ष लेकर आपसे लड़ सकू किन्तु मैं इतना अवश्य कर सकता हूँ कि इसकी पिटाई में हिस्सेदार बन सकता हूँ। इसका क्या मतलब है ? यह तुम्हारी पहेली मेरी समझ में नहीं आई। ____ मेरा तात्पर्य यह है कि तुम इस लड़के के जितनी बेंतें लगाना चाहते हो, उनकी आधी मेरी पीठ पर लगा दो। पीटने वाला युवक उस साहसी बालक की ओर आश्चर्य मुद्रा में देखता रहा, उसे अपनी निर्दयता पर विचार आया कि एक मैं हूँ, जो बुरी तरह इस मरियल लड़के को मार रहा हूँ और एक यह है जो इसके बदले में मार खाने के लिए प्रस्तुत है। उसने उसी क्षण उस बेंत को तोड़कर एक ओर फेंक दी। यह बचाने वाला बालक आगे चलकर अंग्रेजी का सुप्रसिद्ध कवि लार्ड बायरन के नाम से विश्रुत हुआ। ३८ बिन्दु में सिन्धु Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रामाणिकता लालबहादुर शास्त्री भारत के प्रधानमन्त्री थे, वे एक साड़ियों के कारखाने का निरीक्षण करने गये । साड़ियाँ देखकर उन्हें विचार आया कि परिवार वालों के लिए कुछ साड़ियाँ खरीद लें, पर साड़ियाँ बहुत ही महँगी थीं। उन्होंने कारखाने के मालिक से कहा-भाई ! कुछ सस्ती साड़ियाँ हों तो बताओ, जो मुझ जैसा गरीब आदमी भी खरीद सके। मिल-मालिक ने कहा-आप मूल्य की चिन्ता न करें। आपको जो भी साड़ियाँ पसन्द हों, चुन लीजिए। जिससे हमें भी भारत के प्रधानमन्त्री को कुछ भेंट करने का सौभाग्य प्राप्त हो। शास्त्रीजी ने दृढ़ता के साथ कहा-मैं जिस वस्तु को लेना चाहता हूँ, वह अपने परिवार के लिए लेना चाहता हूँ, उससे प्रधानमन्त्री का कोई सम्बन्ध नहीं है। साड़ियाँ खरीदकर ही ली जायेंगी, मुफ्त में नहीं। यह थी शास्त्रीजी को प्रामाणिकता। बिन्दु में सिन्धु ३६ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य-निष्ठा गोपालकृष्ण गोखले के जीवन का प्रसंग है, वे स्कूल में पढ़ते थे, उनके मित्र ने उनसे कहा-आज नाटक देखने चलो। उसने कहा-मेरे पास पैसे नहीं हैं। मैं नाटक देखने नहीं चल सकता। ४० बिन्दु में सिन्ध Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मित्र ने कहा-पैसे मैं दूंगा, तुम्हें मेरे साथ नाटक देखने चलना ही होगा। मित्र अपने दृढ़ निश्चय पर अड़ा रहा अतः गोपाल को उसके साथ नाटक में जाना पड़ा। कुछ दिनों के पश्चात् दोनों मित्रों में किसी चीज को लेकर अनबन हो गई। वह मित्र नाटक दिखाने के दो पैसे माँगने लगा। __ गोपाल के सामने एक गम्भीर समस्या उपस्थित हो गई, उस समय उसे घर से महीने भर के खर्च के लिए सिर्फ दो रुपए मिलते थे और वे रुपए भी गुरुजी के माध्यम से। यदि वह चाहता तो दो पैसे गुरुजी से लेकर दे सकता था, पर उस घाटे की पूर्ति कैसे की जाय, यह उसके सामने प्रश्न था। उस समय एक पैसे के मिट्टी के तेल से एक महीने भर लालटेन जलती थी। ___ उसने निश्चय किया और वह दो महीने तक चुगो की लालटेन के नीचे बैठकर पढ़ता रहा और दो पैसे बचाकर उसे दिये । यह थी उनमें सत्य-निष्ठा । बिन्दु में सिन्धु ४१ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन का मूल्य एक दिन तथागत बुद्ध को ज्ञात हुआ कि रोहिणी नदी के जल को लेकर उनके स्वयं के वंश के शाक्य और कोलीय राजा एक दूसरे के कट्टर शत्रु हो गये हैं। दोनों ओर युद्ध के नगाड़े बज चुके हैं । बुद्ध उसी समय रणस्थल पर पहुँचे। उन्होंने दोनों पक्ष के सैनिकों से प्रश्न किया कि जल का मूल्य क्या है ? ___ सैनिकों ने एक स्वर से कहा कि जल का कुछ भी मूल्य नहीं है। बुद्ध ने पुनः दूसरा प्रश्न किया-वीर क्षत्रियों का क्या मूल्य है ? ___ सैनिकों ने कहा- भगवन् ! उनका जीवन तो अनमोल है, वे देश की महान् निधि हैं । __ क्या जिस जल का मूल्य नहीं है, उसके लिए अनमोल जीवन का बलिदान करोगे ? क्या तुम्हारी यही बुद्धिमत्ता बुद्ध की बात का इतना असर हुआ कि सैनिकों ने हथियार डाल दिये, और रक्तपात बच गया। उन्हें जीवन का मूल्य समझ में आगया । ४२ बिन्दु में सिन्धु Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य की शक्ति हजरत गौसुल को अध्ययन के प्रति अत्यधिक रुचि थी। उस समय बगदाद शहर विद्या का प्रमुख केन्द्र था । गौसुल ने अपनी माँ से बगदाद जाने की आज्ञा माँगी। माँ ने प्रेम से उसे आज्ञा प्रदान की और चालीस अफियाँ लड़के के कुर्ते में बगल के नीचे चतुराई से सिलदी जिससे वे सुरक्षित रहें । विदा होते समय माँ ने आशीर्वाद दियाबेटा ! मैं तुम्हें सहर्ष भेज रही हूँ किन्तु सदा सत्य बोलना और ईश्वर को मत भूलना।। ___ हजरत गौसुल एक काफिले के साथ रवाना हुए । रास्ते में डाकुओं के एक गिरोह ने काफिले को लूट लिया। एक बिन्दु में सिन्धु Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डाकू ने उसके पास आकर कहा-अय लड़के ! क्या तेरे पास भी कुछ है क्या ? गौसुल ने कहा-हाँ, मेरे पास चालीस अफियाँ हैं । डाकू-कहाँ हैं ? कुर्ते के बगल के नीचे सिली हुई हैं। डाकू ने समझा कि यह उपहास कर रहा है, वह आगे बढ़ गया । दूसरे डाकू ने भी उससे यही प्रश्न किया, उसको भी उसने वही उत्तर दिया । डाकू ने अपने सरदार से निवेदन किया । सरदार ने आदेश दिया कि इसकी अफियाँ निकालो। लड़के के बताये हुए स्थान को खोला गया तो चालीस चमचमाती अफियाँ निकलीं। डाकू का सरदार यह देखकर चकित था। उसने कहा लड़का तू तो बड़ा विचित्र है । तुमने चोरों को अपना माल बता दिया। हजरत गौसुल ने कहा-मेरी प्यारी माँ ने चलते समय मुझे नसीहत दी थी कि सदा सच बोलना और ईश्वर को कभी मत भूलना । मैंने अपनी माँ की आज्ञा का पालन किया है। डाकू आत्म-चिन्तन करने लगा कि एक यह है और एक मैं हूँ । उसको अपने कृत्य पर लज्जा आई, उसने लूटा हुआ समस्त धन लौटा दिया। ४४ बिन्दु में सिन्धु Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिज्ञासा ईरान के सुप्रसिद्ध चितक हजरत इमाम महमूद मुशिद गजाली से किसी ने जिज्ञासा व्यक्त की कि-"आप इतने महान् ज्ञानी किस प्रकार बने और ऐसे ऊँचे पद पर किस प्रकार पहुँच गये ?" गजाली ने अत्यन्त मधुर शब्दों में कहा—मैं जिस बात को नहीं जानता था, उसे पूछने में कभी शर्म नहीं की और जैसे-जैसे पूछता गया वैसे-वैसे मेरा ज्ञान भी बढ़ता गया और मुझे लोग विद्वान समझने लग गये । वस्तुतः बिना जिज्ञासा के ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। बिन्दु में सिन्धु ४५ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चुप रहना सीखो ___ एक अध्यापक गधे को बोलना सिखा रहा था, वह सुबह से लेकर शाम तक मेहनत करता, उसे पढ़ाने के लिए उसने अपनी जितनी भी शक्ति थी, उसका उपयोग किया तथापि सफलता प्राप्त नहीं हुई। उस अध्यापक के कठोर परिश्रम को देखकर एक विद्वान को हँसी आगई ? अध्यापक ने पूछा-क्या बात है ? विद्वान ने धीरे से कहा भाई ! तुमने बहुत श्रम किया है, किन्तु यह गधा तुमसे बोलना नहीं सीख सका तो मेरी दृष्टि से यही श्रेष्ठ है कि तुम इससे चुप रहना सीख लो । निरर्थक बकवास को अपेक्षा पशु के समान चुप रहना, कहीं अधिक अच्छा है। ४६ बिन्दु में सिन्धु Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुःख की कल्पना मिस्र में एक बार भयंकर दुष्काल गिरा, उस समय वहाँ के खलीफा हजरत युसूफ सिद्दीक ने जनता की मन लगाकर सेवा की । वे स्वयं एक समय भोजन करते और वह भोजन भी आधा ही । लोगों ने उनसे प्रार्थना की-हजरत ! अपने यहाँ पर अन्न के भण्डार भरे हुए हैं, अनाज की कमी नहीं है, तथापि आप भूखे क्यों रहते हैं ? हजरत ने कहा-इसका एक रहस्य है-हमारे देश के लाखों लोग भूख से छटपटा रहे हैं, उन्हें खाने को नहीं मिल रहा है, उनके दुःख की सदा स्मृति बनी रहे एतदर्थ मैं भूखा रहता हूँ । यदि मेरा मिष्टान्नों से पेट भरा रहेगा, तो मैं उनके दुःख की कल्पना नहीं कर सकता। बिन्दु में सिन्धु ४७ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ঘিশ্বা बादशाह हुमायू ने प्रसिद्ध विद्वान बैरामखाँ को चिन्तन मुद्रा में बैठे हुए देखकर पूछा-आज तुम क्या सोच रहे हो? बैरामखाँ ने कहा- हुजूर ! मैंने अनुभवी बुजुर्गों से सुना है- "मानव को अपने जीवन में तीन अवसरों पर, तीन बातों पर संयम रखना चाहिए। यदि सामने बादशाह हो, तो आँखों पर संयम रखना चाहिए, उनके सामने सदा विनम्र रहना चाहिए, यदि सामने फकीर हो, तो मन पर संयम रखना चाहिए और यदि विद्वान सामने हो, तो वाणी पर संयम रखना चाहिए, विद्वानों के सामने निरर्थक नहीं बोलना चाहिए।" बैरामखाँ की शिक्षा से छलछलाती हुई बातों को सुनकर बादशाह को प्रसन्नता का पार न रहा। ४८ बिन्दु में सिन्धु Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसन्नता का मूल चीन के राजा क्वांग का सुनशू आओ प्रधानमन्त्री था। राजा ने उसे अपने पद से हटा दिया। कुछ दिनों के पश्चात् फिर उनको प्रधानमन्त्री बनाया । तीन बार इस प्रकार की घटना घटित हुई । राजा ने अनुभव किया कि सुनशू आओ इन प्रसंगों पर न कभी प्रसन्न हुआ है और न कभी उदास ही बना । वह निलिप्तता से अपने कार्य में जुटा रहता था। एक दिन राजा ने प्रधानमन्त्री से इसका कारण पूछासुनशू आओ ने उत्तर देते हुए कहा-"जब मुझे प्रधानमन्त्री का पद दिया गया तब मैंने मन में सोचा कि सम्मान को अस्वीकार करना उचित नहीं है। जब मैं पदच्युत किया गया, तब मैंने सोचा-'जहाँ आवश्यकता नहीं है, वहाँ पर चिपके रहना बेकार है।' फिर प्रश्न उठता कि यह सम्मान किसका है ? मेरा है या पद का है ? यदि पद का है, तो उसमें मुझे कुछ भी लेना-देना नहीं है और यदि मेरा है तो चाहे पद रहे या न रहे उससे क्या अन्तर पड़ेगा ?" राजा क्वांग समझ गया कि प्रसन्नता और अप्रसन्नता का मूल कहाँ छिपा हुआ है ? बिन्दु में सिन्धु ४६ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच्चा धन एक सेठ के पास धन के अम्बार लगे हुए थे, तथापि उसे सन्तोष नहीं था । एक दिन एक चमत्कारी योगी नगर के बाहर आया, सेठ ने उसकी प्रशंसा सुनी और वह उसके पास पहुँचा । सेवा करने के पश्चात् उसने कहा कि मुझे इतनी सम्पत्ति प्रदान कीजिये कि सात पीढ़ी तक वह खत्म न हो । सन्त ने उसके चेहरे को ऊपर से नीचे तक देखा और कहा - " तुम जो चाहोगे, वह हो जायेगा, पर तुम्हें एक काम करना होगा ।" सेठ ने बड़ी नम्रता से पूछा - "बताइए वह कौनसा काम है ?" बिन्दु में सिन्धु ५० Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महात्मा ने कहा- "तुम्हारे मकान के पास ही एक घास-फूस की झोंपड़ी है न ? उसमें एक सास और बहू रहती है, कल उसको खाने जितना सीधा दे आना, बस तुम्हारे पास अटूट सम्पत्ति हो जायगी।" सूर्योदय होते ही वह 'सोधा' लेकर झोंपड़ी पर पहुँचा। उसने देखा-सास तो ध्यान साधना में तल्लीन है और बहू झोंपड़ी की सफाई कर रही है। सेठ ने उससे विनम्रतापूर्वक कहा-“मैं आपके लिए आटा, दाल, घी, चीनी इत्यादि लाया हूँ, मेहरबानी करके इसे स्वीकार कोजिए। बहू ने नम्रतापूर्वक कहा-“सेठजी ! आज के खाने भर का सामान हमारे पास पड़ा हुआ है इसलिए हमें इस सामान की आवश्यकता नहीं है।" सेठ ने कहा- 'आप इसे कल के लिए स्वीकार कर लीजिए।" बहू ने कहा- "हम कल के लिए संग्रह करके नहीं रखतीं। हमें प्रतिदिन खाने को मिल ही जाता है।" सेठ उसकी बात को सुनकर चकित हो गया। एक ये लोग हैं जो अपने लिए कल की भी चिन्ता नहीं करते और एक मैं हूँ, जो सात पीढ़ी की चिन्ता कर रहा हूँ। उसे सच्ची दृष्टि मिल गई कि सन्तोष ही सच्चा धन है। * बिन्दु में सिन्धु Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्नल कदाफी लिबलिस शहर के बड़े अस्पताल में एक लम्बा व्यक्ति चहल कदमी कर रहा था। वह प्रत्येक वस्तु का बड़ी गहराई से निरीक्षण कर रहा था । अपनी ओर एक डॉक्टर को आते हुए देखकर वह ठिठक गया। उसके सन्निकट आने पर उसने कहा-"डॉक्टर साहब, मेरे पिताजी रुग्णावस्था में हैं।" ____ डॉक्टर ने उकता कर कहा-"उसे तुम यहाँ पर ले आओ।" उसने निवेदन करते हुए कहा-"वे तो अत्यधिक कमजोर है, उनको यहाँ लाना सम्भव नहीं है।" डॉक्टर का जवाब था--"तो मेरा वहाँ पर जाना भी सम्भव नहीं है।" ५२ बिन्दु में सिन्धु Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसने कहा-"चाहे रुग्ण व्यक्ति मर जाय, तो भी आप नहीं आ सकते ?" डॉक्टर ने कहा- "विशेष बोलने की आवश्यकता नहीं है, एस्प्रीन की गोलियाँ उसे दे देना।" "क्या इसका यही उपाय है ?" "मैं नहीं जानता, तुम यहाँ से चले जाओ।" "डॉक्टर, जरा सोच लो, तुम किससे बात कर रहे हो।" डॉक्टर ने अपशब्द कहकर आवाज दी कि इस पागल को पागलखाने में भिजवा दो। पलक झपकते ही उस व्यक्ति ने अपना चोंगा उतार दिया। ___डॉक्टर के सम्मुख अब वह साधारण व्यक्ति नहीं किन्तु सैनिक वर्दी में एक कर्नल खड़ा था। उसकी आँखों में से अंगारे बरस रहे थे। उसने कहा-"डॉक्टर ! अब तुम्हारे लिए लिबिया में में कोई स्थान नहीं है । मैं इस अस्पताल का अधिकारी नहीं किन्तु देश का अधिकारी हूँ, जो कर्तव्य से मुंह मोड़ते हैं, उसके लिए इस देश में स्थान नहीं है । वह था लिबिया का राष्ट्रपति कर्नल कदाफी। ॐ बिन्दु में सिन्धु ____ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तू नहीं उठता तो अच्छा होता बालक शेख सादी अपने पिता के साथ मक्का जा रहा था । आधी रात के समय उठकर वह पिता के साथ प्रार्थना करता था । दूसरे लोगों को सोते हुए देखकर सादी ने पिता से कहा-"ये सब कितने आलसी हैं, न उठते हैं, न प्रार्थना ही करते हैं।" पिता ने कड़े शब्दों में प्रतिवाद करते हुए कहा-"बेटा! तू न उठता तो अच्छा होता । जल्दी उठकर दूसरों की निन्दा करने से तो नहीं उठना ही अच्छा है । ५४ बिन्दु में सिन्धु Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाधि महानता की प्रतीक नहीं है इंग्लैण्ड का सम्राट जेम्स अपना खजाना भरने के लिए धनवानों को उपाधियाँ प्रदान करता था। वह जानता था कि उपाधि प्रदान करने से कोई महान् नहीं बन सकता, महान् बनने के लिए तो सद्गुण अपेक्षित हैं। एक बार उसके दरबार में एक अमीर व्यक्ति आया। बादशाह जेम्स ने उससे पछा--"आपको किस उपाधि की आवश्यकता है ?" उसने जिज्ञासा प्रकट की— "मुझे आप सज्जन बना दीजिये।" बादशाह ने उसका परीक्षण किया और कहा- 'मैं आपको लॉर्ड, ड्यूक, सर इनमें से किसी भी उपाधि को प्रदान कर सकता हूँ, पर किसी को सज्जन बनाना मेरी शक्ति से परे है।" बिन्दु में सिन्धु ५५ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपहार एक उद्योगपति ने दीर्घकाल तक एक सन्त की सेवा की। जब वह अपने घर जाने लगा तब सन्त ने प्रसन्न होकर उसके हाथ में तीन चीजें थमाई। उद्योगपति उस अपूर्व उपहार को आश्चर्य की दृष्टि से देख रहा था । सन्त ने कहा—“यह मोमबत्ती है, यह स्वयं जलकर दूसरों को प्रकाश देती है, वैसे तुम भी कष्ट सहनकर दूसरों को प्रकाश देना।" सन्त ने फिर कहा : “यह सुई है, जो दो को जोड़ने का काम करती है तुम भी इस कला में दक्ष होना। अन्तिम बार सन्त ने कहा- 'यह तीसरी चीज केश है—जो बड़ा मुलायम है और लचीला है, तुम्हें भी अपना जीवन इस तरह लचीला और मुलायम बनाना है इसीलिए मैंने तुम्हें यह उपहार प्रदान किया है।" ५६ बिन्दु में सिन्धु Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रजातन्त्र का नेता एक बहिन अपने नन्हे-मुन्ने को लेकर एक ज्योतिषी के पास पहुँची और उससे कहा--"यह मुन्ना रात में कई बार सोते सोते चिल्लाता है- 'जागो-जागो' आगे बढ़ो।" । ___ ज्योतिषी ने कहा-"जिस समय यह चिल्लाता है, उस समय यह लड़का स्वयं जागता है या सोता रहता है ?" ___ बहिन ने उत्तर दिया-"नहीं, यह तो नींद में ही चिल्लाता है।" ज्योतिषी ने भविष्यवाणी करते हुए कहा-"बहिन, फिक न करो, यह लड़का बड़ा होने पर भविष्य में प्रजातन्त्र का नेता होगा, जो स्वयं पर अपना कर्त्तव्य अदा न करके दूसरों को जगाता रहेगा।" ____आधुनिक प्रजातन्त्र के नेताओं पर कितना तोखा व्यंग्य है यह ! बिन्दु में सिन्धु ५७ ___ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाबलम्बी लिंकन प्रातः कालीन दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर अब्राहिम लिंकन अपने जूतों पर पॉलिश कर रहे थे। इतने में उनका एक मित्र आया, वह यह देखकर आश्चर्यचकित हो गया । उसने साश्वर्यं पूछा - "आप यह क्या कर रहे हैं ? क्या राष्ट्रपति को भी अपने जूतों पर पॉलिश करनी पड़ती है ?" राष्ट्रपति लिंकन ने तुरन्त ही कहा- "तो क्या आपको दूसरों के जूतों पर पॉलिश करनी पड़ती है ?" सारा कमरा कह-कहों से गूँज उठा । सबके हँसी के फब्बारे छूट पड़े । उस मित्र ने लजाते हुए कहा – “मैं तो अपने जूतों पर भी दूसरों से पॉलिश करवाता हूँ ।" - लिंकन ने धीरे से कहा - " मित्र ! दूसरों से अपने जूतों पर पॉलिश करवाना, यह तो बहुत ही बुरी बात है । इतने से छोटे कार्य के लिए भी हम यदि पराश्रित बनेंगे, तो हमारा जीवन दुःखमय हो जायगा ।" मित्र, लिंकन की तत्व भरी बात का प्रत्युत्तर नहीं दे सका । बिन्दु में सिन्धु ५८ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटुवचन तथागत बुद्ध से एक बार उनके प्रिय शिष्यों ने पूछाभगवन् ! संसार में ऐसी कौनसी वस्तु है, जो चट्टान से भी अधिक कठोर है ?" बुद्ध ने उत्तर दिया-"लोहा चट्टान से भी अधिक कठोर होता है।" उन्होंने पुनः जिज्ञासा अभिव्यक्त की-“क्या ऐसी भी अन्य कोई वस्तु है, जो लोहे से भी अधिक कठोर हो ?' बुद्ध ने उत्तर दिया- "लोहे से भी कठोर कटु वचन बोलना है।" बिन्दु में सिन्धु ५६ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निभीकता एक गुरुकुल में बहुत से छात्र अध्ययन करते थे। वे अपने-अपने कमरों में रहते थे । एक दिन उन सभी छात्रों ने फल खाये और छिलके कमरों में ही डाल दिये । कमरों में गन्दगी हो गई । इतने में अध्यापक उनके कमरों का निरीक्षण करने के लिए पहुँचे । कमरों में गन्दगी को देखकर उन्होंने आदेश देते हुए कहा-'शीघ्र ही सब छात्र अपने६० बिन्दु में सिन्धु Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने कमरों को साफ करें।" सभी लड़के अपने-अपने कमरे की सफाई करने में लग गये पर एक छात्र अपनी मस्ती में बैठा रहा। उसके चेहरे से ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो उसने आदेश सुना ही न हो। __ अध्यापक ने डाँटते हुए कहा-"क्या तुमने मेरी बात नहीं सुनी ?" उसने अत्यन्त नम्रता के साथ उत्तर देते हुए जवाब दिया-"श्रीमान् ! मैंने आपका आदेश सुना है किन्तु मेरा कमरा बिल्कुल साफ है, जब मेरे कमरे में गन्दगी ही नहीं है, तो मैं सफाई किसकी करूँ ?" अध्यापक ने कहा- "तुम मेरे आदेश की अवज्ञा कर रहे हो, तुम भी सफाई करो।" विद्यार्थी ने निर्भीकता के साथ उत्तर देते हुए कहा"श्रीमान् आपका आदेश गन्दगी को साफ करने के लिए है, जब मेरे कमरे में गन्दगी ही नहीं है तो सफाई किसकी की जाय?" ____ अध्यापक उसकी निर्भीकता एवं सच्चाई देखकर मुग्ध हो गया। उस लड़के का नाम था तिलक । जो बाद में, 'लोकमान्य तिलक' के नाम से प्रख्यात हुए। लोकमान्य तिलक ने ही सर्वप्रथम नारा लगाया कि स्वतन्त्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है। बिन्दु में सिन्धु ६१ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असली और नकली * महान् चित्रकार पिकासो का एक चित्र एक व्यक्ति ने दस लाख रुपये में खरीदा । पर वह चित्र पिकासो का ही है या नहीं, यह जानने के लिए उस व्यक्ति ने पिकासो की पत्नी से पूछा - " क्या यह चित्र पिकासो ने स्वयं चित्रित किया है ?" पत्नी ने विश्वास दिलाते हुए कहा- "मैं अधिकारपूर्वक कह सकती हूँ कि यह चित्र पिकासो ने ही बनाया है और जब वे इस चित्र को बना रहे थे, उस समय मैं उनके सामने बैठी थी । आपको इसमें कोई धोखा नहीं दिया जा रहा है ।" खरीददार अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उसकी सूचना देने के लिए वह पिकासो के पास पहुँचा कि मैंने आपका प्रस्तुत चित्र दस लाख रुपये में खरीदा है । पिकासो ने चित्र देखा और कहा - "भैया ! यह असली चित्र नहीं है । " यह सुनते ही खरीददार को गहरा आघात लगा कि दस लाख रुपये भी लगे और यह चित्र असली नहीं है ! कुछ क्षण रुककर उसने पुन: कहा- आप जरा गहराई से देखिये, ६२ बिन्दु में सिन्धु Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपने ही इसको बनाया है, आपकी पत्नी इसकी साक्षी हैं, उसने मुझे कहा है कि पिकासो ने यह चित्र मेरी नजरों के सामने ही बनाया है। उसी समय किसी कार्य-वश पिकासो की पत्नी भी वहाँ पर आ गई। उसने भी जोर देकर कहा- "आप भूल रहे हैं, मैं कहतो हूँ कि यह चित्र आपने मेरे सामने बनाया है। पिकासो ने मुस्कराते हुए कहा-"बनाया तो मैंने है, पर यह असली नहीं है।" खरीददार ने कहा--"क्या आप मेरे साथ उपहास कर रहे हैं, जब आपने ही इसे बनाया है, फिर असली नहीं, यह कैसे ? पिकासो ने रहस्य का उद्घाटन करते हुए कहा-“यह उपहास नहीं है मित्र ! पर, यह सत्य-तथ्य है। ऐसा चित्र एक बार पहले भी मैंने बनाया था, यह चित्र उसी की प्रतिकृति है, मूल चित्र नहीं है। यदि अन्य व्यक्ति प्रतिकृति बनाता है, तो वह प्रामाणिक नहीं होती, फिर मैं स्वयं नकल करूं तो वह प्रामाणिक कैसे होगी ? वस्तुतः तो पहला चित्र ही प्रामाणिक है। खरीददार और उसकी पत्नी को तब समझ में आया कि पिकासो की असली और नकली की परिभाषा क्या है ? बिन्दु में सिन्धु ६३ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | कर्तव्य-निष्ठा लेकि पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल को जिस दिन फाँसी मिलने वाली थी, उस दिन बिस्मिलजी अपने कमरे में दण्ड-बैठक लगा रहे थे । जेलर यह देखकर हैरान था । उसने उनसे पूछा - "आज तो आपको फाँसी होने वाली है, इन बैठकों से आपको क्या लाभ ?" बिस्मिलजी ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया – “ फाँसी लग रही है तो क्या हुआ, उसके लिए मैं अपना प्रतिदिन का नित्य कर्म क्यों छोड़ ? अपने नियम क्यों तोड़ ?” फिर भगवान की पूजा-अर्चना की और बढ़िया नये वस्त्र पहनकर फाँसी के तख्ते को चूमने के लिए जेलर के साथ चल दिये । - ६४ बिन्दु में सिन्धु Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रजातन्त्र का परिहास सन् १९३० के एक हिन्दी दैनिक समाचार पत्र में प्रजातन्त्र का परिहास करते हुए लिखा था कि “एक महाशय बिना टिकट लिए हुए रेल-यात्रा कर रहे थे। टिकट चेकर ने उनको पकड़ लिया । तब उन महाशय ने कहा--"भाई ! अब तुम कितने दिन हमें और परेशान करोगे ? अब तो शीघ्र ही स्वराज्य होने वाला है। फिर तो जब भी चाहेंगे, जहाँ जाना होगा, बिना टिकट यात्रा करेंगे।" कितना ताज्जुब है कि स्वराज्य आने से पूर्व किया गया यह परिहास, वर्तमान समय में कितना सफल सिद्ध हो रहा है। बिन्दु में सिन्धु ६५ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा से परमात्मा एक सन्त के पास एक जिज्ञासु पहुँचा और उसने कहा"आत्मा को परमात्मा कैसे बनायें ? कृपया सरल मार्ग प्रदर्शित कीजिए।" उसी समय सन्त के सामने ही एक कलाकार मूर्ति का निर्माण कर रहा था, सन्त ने जिज्ञासु का ध्यान उधर आकषित करते हुए कहा-"यह कलाकार पत्थर से मूर्ति बना रहा है। वह पत्थर के अनावश्यक अंश को काटकर सुन्दर आकृति बना रहा है, वैसे ही हमें भी राग-द्वष का अनावश्यक अंश काटना है, भेद-विज्ञान या तप-जप से उसको काटकर अलग करना है। जितना अंश अलग होगा, उतना ही परमात्म भाव हमारे भीतर प्रकट होगा।" ६६ बिन्दु में सिन्धु Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे बच्चों की माँ * महान् दार्शनिक सुकरात की धर्मपत्नी जेंथिप्पी का स्वभाव बड़ा क्रूर था । एक दिन उसने क्रोध में आकर सुकरात को खूब गालियाँ दीं और फिर भरा हुआ पानी का घड़ा लाकर उन पर उड़ेल दिया । आसपास के लोग यह तमाशा देखकर खिल खिलाकर हँस पड़े । सुकरात ने अत्यन्त मधुर शब्दों में कहा - "मुझे मालूम था कि जेंथिप्पी इतना गरजने के बाद अवश्य हो बरसेगी ।" सुकरात के पड़ौसी ने कहा - " आप इतनी परेशानी चुपचाप कैसे सहन कर लेते हैं ?" सुकरात ने मुस्करा कर कहा - "मुझे तो इसकी कड़वी बातें सुनने की आदत पड़ गई है उसी प्रकार, जैसे मशीन की खट-खट आवाज सुनने की आदत किसी कारीगर को हो जाती है। पर आपके घर में बतखें हैं, जो दिन-रात 'घे घे' किया करती है, क्या उनके शोर से आप तंग नहीं आ जाते ?" पडौसी ने कहा - "क्या बात करते हैं आप ? हमारी बतखें तो अण्डे दिया करती हैं ।" सुकरात ने हँसते हुए कहा - " तो मेरी जेंथिप्पी भी तो मेरे बच्चों की माँ जो है ?" बिन्दु में सिन्धु ६७ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाह आश्चर्य का कारण बना अमेरिका के सुप्रसिद्ध राष्ट्रपति अब्राहिम लिंकन का दाम्पत्य जीवन सुखी नहीं था। उनकी पत्नी 'मेरी' दिनरात उनके दोषों को देखने में लगी रहती थी। उनका पारिवारिक जीवन बड़ा ही विषम था। उन्होंने अपने विवाह के पश्चात् एक बार अपने मित्र को लिखा था- "मेरे विवाह के अतिरिक्त इधर कोई नये समाचार नहीं हैं और वह भी मेरे लिए अत्यधिक आश्चर्य का कारण बना हुआ है।" एक दिन वे बाहर से आये हुए मेहमानों के साथ भोजन कर रहे थे, उनकी पत्नी मेरी ने गरम-गरम कॉफी उनके मुंह पर फैंक दी किन्तु लिंकन ने उसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं की। वे जानते थे कि कहने पर वह और अधिक उग्र हो उठेगी। इस प्रकार जीवन भर विवाह उनके लिए एक आश्चर्य ही बना रहा। ६८ बिन्दु में सिन्धु Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अच्छी वस्तु इंगलैंड के सुप्रसिद्ध नाटककार बेनार्ड शॉ एक पार्टी में पहुँचे । वहाँ पर स्त्रियाँ एवं पुरुष दोनों उपस्थित थे । बेनार्ड शॉ ने स्त्रियों की मजाक उड़ाते हुए कहा - " वस्तुतः स्त्रियों में अच्छी चीज को पहचानने की अक्ल नहीं होती है । वे निकलती हैं - स्वर्ग की तलाश में पर नरक को लेकर ही लौटती हैं किन्तु पुरुषों का ध्यान हमेशा अच्छी वस्तु पर ही रहता है और उसे वे प्राप्त भी करते हैं । 书 अन्य उपस्थित महिलाएँ बेनार्ड शॉ की उक्ति के प्रति कुछ तीखा व्यंग्य कसना ही चाहती थीं कि शॉ की धर्मपत्नी ने मधुर स्वर में कहा - "प्रियतम ! आपकी बात का मैं पूर्ण समर्थन करती हूँ । एतदर्थ हो तुमने मुझे चुना है और मैंने तुम्हें ।" बेनार्ड शॉ पत्नी का प्रत्युत्तर सुनकर निरुत्तर हो गये । बिन्दु में सिन्धु ६६ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम से मतलब फ्रांस के तेजस्वी सम्राट नेपोलियन ने एक बार ऐसे आदमी की नियुक्ति ऐसे उच्चतम पद पर कर दी, जो बड़ा ही महत्वपूर्ण पद था। नेपोलियन के कुछ स्नेही-साथी उनके पास पहुँचे और बोले-"आपने जिस आदमी को नियुक्ति की है, वह आदमी आपके प्रति अच्छे विचार नहीं रखता है। संभव है उसके अत्युच्च पद पर होने से कभी संकट के कालेकजरारे बादल भी मंडरा सकते हैं।" नेपोलियन ने उसी स्वस्थता के साथ प्रत्युत्तर दिया "यदि वह आदमी अपना काम अच्छी तरह से कर सकता है, तो मुझे उसके सम्बन्ध में किञ्चित भी चिन्ता नहीं है। उसके विचार मेरे संबंध में कैसे हैं, यह मैं नहीं देखता । मैं तो उसका काम देखता हूँ । मुझे काम से मतलब है, व्यक्तिगत विचारों से नहीं।" ७० बिन्दु में सिन्ध Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सफलता का रहस्य * पंडित मदनमोहन मालवीय के पास एक सज्जन आये उनसे वार्तालाप करके जब वे बिदा होने लगे, तो पंडितजी ने कहा - "तुम अपनी डायरी में एक सूत्र लिख लो । उसने अपनी डायरी खोली । मालवीयजी ने कहा - " जब तक असफलता तुम्हारी छाती पर चढ़कर तुम्हारा गला न दबाये तब तक जीवन में कभी असफलता को स्वीकार मत करो। " बिन्दु में सिन्धु ७१ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावधानी क चीन के महान् विचारक चेन चीजू से किसी ने प्रश्न पूछा - "हमें किस प्रकार के आदमी से सावधान रहना चाहिए ?" चेन चीजू ने गहन चिन्तन करने के पश्चात् उत्तर दिया - "हमें ऐसे आदमी से सतत सावधान रहना चाहिए, जो दूसरे व्यक्तियों के सम्बन्ध में किसी अच्छी बात को सुनकर अपने मन में शंका रखता हो और किसी को बुरी बात सुनकर उसे शीघ्र मानने को प्रस्तुत हो जाता हो । ७२ बिन्दु में सिन्धु Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचल-आस्था भारतीय इतिहास में चाणक्य का नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित है। चाणक्य के मार्ग-दर्शन से ही सम्राट चन्द्रगुप्त अपना साम्राज्य स्थिर कर सके थे। युद्ध चल रहा था, किसी ने चाणक्य से आकर कहा"मंत्री प्रवर ! आपके साथियों ने ही आपको धोखा दिया है। वे आपके शत्रुओं के दल में जा मिले हैं। आपकी सेना भी आपका साथ छोड़कर, शत्र दल में जाकर मिलना चाहती है।" चाणक्य अपनी पूर्ववत् मस्ती में झूमते हुए बोले"यदि किसी अन्य को भी शत्रु के पक्ष में जाना है, तो जा सकता है । मुझे इसकी बिलकुल ही चिन्ता नहीं है। केवल मेरी बुद्धि मेरे पास रही तो, मैं सब कुछ कर सकता हूँ।" बिन्दु में सिन्धु ७३ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छोटा कद कराँची के हवाई अड्डे पर पाकिस्तान के राष्ट्रपति अय्यूब खाँ भारत के प्रधान मंत्री लालबहादुर शास्त्री से मिलने के लिए पहुँचे । शास्त्रीजी का कद छोटा था । अतः वार्तालाप के प्रसंग में उन्होंने कहा- "मुझे आपसे बातचीत करने में कितनी कठिनाई पड़ती है ?" प्रत्युत्पन्नमति शास्त्री जी ने उसी समय उत्तर देते हए कहा-“अय्यूब साहब ! मुझे उससे बहुत लाभ हैं । छोटा कद होने से मैं माथा ऊँचा रखकर आपसे बात कर सकता हूँ और आपको तो माथा नवाकर बातचीत करने को आदत पड़ गई है।" ७४ बिन्दु में सिन्धु Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौरव का मूल : पुरुषार्थ इफ्रिकेटिस यूरोप का एक प्रसिद्ध सेनापति था। उसकी जाति चमार थी किन्तु प्रबल पुरुषार्थ से वह इस महान् पद पर पहुँच गया। __ उस समय दूसरा सेनापति हार्मोदियस था, वह उच्च कुल में पैदा हुआ था। उसे अपनी जाति पर घमण्ड था । जब वह चमार सेनापति की कीर्ति सुनता तो उसका चेहरा मुरझा जाता। एक दिन उसने ईर्ष्या से जलकर इफ्रिकेटिस से कहातुम चाहे कितने भी बढ़ जाओ किन्तु इससे तुम्हारी चमार जाति का गौरव नहीं बढ़ सकता। इफ्रिकेटिस ने मुस्कराते हुए कहा-मित्रवर ! लगता है तुम्हारे से अब तुम्हारे कुल के गौरव का अन्त आ रहा है और मेरे से मेरे कुल के गौरव का प्रारंभ हो रहा है। ___मित्र ! तुम भूल रहे हो कुल और जाति से किसी को गौरव नहीं मिलता । गौरव मिलता है साहस और पुरुषार्थ से। बिन्दु में सिन्धु ७५ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगति का प्रभाव ds वार्तालाप के प्रसंग में एक बार बीरबल के मुँह से कोई अपशब्द निकल गया उसे सुनते ही बादशाह अकबर क्रोध से तमतमा उठे - " अरे ! तुम्हें तो बोलने का बिल्कुल भान ही नहीं रहता, दिन व दिन बदतमीज होते जा रहे हो ?" बीरबल ने कहा – “जहाँपनाह! पहले ऐसा नहीं था, किन्तु अब धीरे-धीरे संगति का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है ।" अकबर यह सुनकर निरुत्तर हो गया । ७६ बिन्दु में सिन्धु Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंचन-कामिनी का संग रामकृष्ण परमहंस के पास एक धनी व्यक्ति आया। नमस्कार कर एक थैली सामने रखते हुए कहा-इसे आप ग्रहण कीजिए और इस धन को आप किसी भी परोपकार के कार्य में लगा दीजिएगा। परमहंस ने मुस्कराते हुए कहा-यदि मैं तुम्हारा यह धन ले लूँगा तो मेरा मन उसमें लग जायेगा और फिर मेरी मानसिक शान्ति भंग हो जायेगी। धनिक ने नम्र निवेदन करते हुए कहा-महाराज ! आप तो परमहंस हैं, आपका मन तो उस तेल-बिन्दु के सदृश है जो कंचन-कामिनी के महासमुद्र में स्थित होकर के भी सदा उससे अलग-थलग रहता है।। परमहंस ने गंभीर होकर कहा- क्या तुम्हें यह मालूम है कि अच्छे से अच्छा तेल भी यदि दीर्घकाल तक पानी के सम्पर्क में रहे तो वह अशुद्ध हो जाता है और उसमें से दुर्गन्ध निकलने लगती है।" धनी को सच्चा बोध हो गया। उसने उस थैली को लेने का आग्रह छोड़ दिया। बिन्दु में सिन्धु ७७ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराधिकारी चतुर्थ सिख गुरु रामदास जी तृतीय गुरु अमरदास जी के दामाद थे । एक दिन पुत्र और शिष्यों को परीक्षा के लिए अमरदास जी ने आज्ञा प्रदान करते हुए कहा कि अपने बैठने के लिए चबूतरा बनाओ । ज्यों ही आज्ञा प्राप्त होते ही चबूतरा तैयार हो गया। तैयार होने पर उसे पुनः गिरा दिया गया और दुबारा बनाने की आज्ञा दी गई। इस बार भी गुरु जी ने उसे गिरा दिया और फिर से बनाने का आदेश दिया। सारे दिन इस प्रकार चबूतरे बनते और बिगडते रहे । कुछ लोग नाराज हो गये, क्या गुरुजी का दिमाग बिगड़ गया है ? केवल रामदास जी हो ऐसे थे जो हर बार उसी उत्साह से चबूतरा बना रहे थे। गुरुजी ने पूछा--रामदास ! तुम अब भी चबूतरा बना रहे हो? जबकि दूसरे सारे शिष्य काम छोड़कर भग गये हैं। रामदास ने नम्रतापूर्वक निवेदन करते हुए कहाशिष्य का कर्तव्य गुरु के आदेश का पालन करना होता है । भले ही प्राण चले जायें किन्तु गुरु का दिया हुआ काम छोड़ नहीं सकता । गुरु अमरदास ने उसी समय रामदास को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। ७८ बिन्दु में सिन्धु Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तव्य सिकन्दर अपने गुरु अरस्तु के साथ बियावने जंगल में से जा रहे थे । मार्ग में उफनता हुआ बरसाती नाला मिला। नाले को देखकर सिकन्दर ने कहा पहले मैं नाला पार करूंगा तो अरस्तू ने कहा मैं । दोनों में विवाद छिड़ गया। सिकन्दर जब अड़ गया तो अरस्तू ने उसे प्रथम पार करने की आज्ञा दे दी। नाला पार करने के पश्चात् अरस्तू ने कहा-सिकन्दर ! क्या तुमने आज मेरा अपमान नहीं किया। सिकन्दर ने अरस्तु के चरणों में सिर झुकाते हुए कहानहीं गुरुदेव ! मैंने अपने कर्तव्य का पालन किया है क्योंकि अरस्तू रहेगा तो हजारों सिकन्दर तैयार हो सकते हैं, किन्तु सिकन्दर रहने पर एक भी अरस्तू तैयार नहीं हो सकता। बिन्तु में सिन्धु ७६ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महान त्यागी कौन ? निर्जन जंगल में एक योगी ध्यान साधना कर रहा था । शिकार के लिए एक राजा उस जंगल में पहुँचा, योगी को देखकर उसने नमस्कार किया और उपदेश सुनने की इच्छा से वह सामने बैठ गया । ध्यान से निवृत्त होकर योगी ने पूछा- राजन् ! तुमने मेरा इतना सम्मान क्यों किया ? राजा ने करबद्ध होकर कहा - भगवन् ! आपने धन वैभव, परिवार और क्रोधादि विकारों का त्याग किया है । तप जप की साधना करते हैं, आप साक्षात् भगवान तुल्य हैं, इसलिए मैं तो क्या सारा संसार आपको नमस्कार करता है । योगी ने स्मित मुस्कान के साथ कहा - यदि त्याग को लक्ष्य में लेकर ही तुम मेरा सम्मान करते हो तो मुझे तुम्हारे चरण प्रक्षालन करने चाहिए क्योंकि तुम संसार के सभी योगियों से महान् त्यागी हो, तुम्हारे त्याग की तुलना ही नहीं हो सकती । बिन्दु में सिन्धु ८० Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा के आश्चर्य का पार न रहा, भगवन् ! आपने यह क्या अबूझ पहेली प्रस्तुत की ? योगी ने कहा-कल्पना करो, किसी के पास एक भव्य-भवन है वह प्रतिदिन झाडू लगाकर उसमें से कूड़ा कचरा निकाल कर बाहर फेंकता है, क्या वह व्यक्ति त्यागी कहलायेगा? राजा ने कहा-भगवन् ! उसका क्या त्याग, कूड़ा कचरा तो बाहर फेंकने की ही चीज है ? अच्छा तो बताइए, दूसरा एक व्यक्ति है जो मकान का कूड़ा कचरा तो नहीं फेंकता है पर घर में रही हुई बहुमूल्य हीरे-जवाहरात आदि सारी सम्पत्ति दूसरों को दे देता है उसे राजन् तुम क्या कहोगे ? भगवन् ! निश्चय ही वह तो महान् त्यागी है। योगी ने मुस्कान बिखेरते हुए कहा-राजन् ! इसीलिए तो मैंने तुम्हारे को महान त्यागी कहा है । तुमने परमात्मा, आत्म-चिन्तन जैसी महान वस्तुओं का त्याग किया है । मैंने तो परिवार, धन-वैभव के कूड़े कचरे को छोड़ा है । अब तुम ही बताओ कि तुम महान त्यागी हो या मैं ? राजा के विवेक नेत्र खुल गये। वह चरणों में गिर पड़ा, भगवन् ! जो मुझे चाहिए था वह मुझे मिल गया। 8. बिन्दु में सिन्धु Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम का व्यामोह दुःख का मूल कारण मोह है 'दुक्खं हेयं जस्स न होई मोहो' एक विचारक ने फुटबॉल से पूछा-तू ठोकरे क्यों खाता है ? फुटबॉल ने कहा-मेरे में हवा भरी है। मोह की हवा जब तक हममें भरी है वहाँ तक हम भी ठोकरें खाते हैं। ___मानव को बात छोड़ दें, यदि कुत्ते को भी व्यामोह हो जाता है तो वह झूठे व्यामोह में फंस जाता है। ८२ बिन्दु में सिन्धु Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक धोबी था, उसके दो औरतें थीं, वे आपस में बहुत लड़ा करती थीं। उसी धोबी के वहाँ पर शताबा नाम का एक कुत्ता रहता था। जब वे दोनों आपस में झगड़तीं तो एक दूसरे को 'शताबा की रांड' कह कर गालियाँ देती थीं और मारपीट भी करती थीं। परस्पर लड़ाई में कुत्ते को रोटी नहीं मिलती, कुत्ता भूख से अधमरा हो गया। एक दिन दूसरे मोहल्ले का कुत्ता उधर आ निकला, और उस शताबा को कृश हालत देखकर बोला-मित्र ! यहाँ पर क्यों भूखे मर रहे हो ? मेरे साथ दूसरे मोहल्ले में चलो, जहाँ पर तुम्हें भरपेट भोजन प्राप्त होगा। __ शताबा ने कहा- तुम्हारी बात तो सत्य है, यहाँ भोजन की अवश्य ही कठिनाई है पर यहाँ पर मेरे दो पत्नियाँ हैं उनको छोड़कर मैं कैसे आ सकता हूँ। केवल गालियों में कुत्ते का नाम आने से वह अपने को दो औरतों का स्वामी मान रहा था, और उसी व्यामोह के कारण वह भूखा मर रहा था। क्या इसी प्रकार नाम के व्यामोह में हम तो नहीं फंसे हैं न ! मोह राहु है, जो आत्मा रूपी सूर्य को ग्रसने से अंधकार होजाता है। बिन्दु में सिन्धु ८३ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदर्शन सामाजिक जीवन में दिन-प्रतिदिन प्रदर्शन की मात्रा बढ़ रही है। कभी-कभी अपने जीवन का सर्वस्व होम कर भी प्रदर्शन किया जाता है । एक लोक कथा है। एक गरीब की स्त्री किसी सेठ के यहाँ पर गई। सेठाणी ने उसी दिन बहुत ही बढ़िया हाथी दाँत का चूडा पहना था । अड़ोस-पड़ोस की स्त्रियाँ उसे देखने हेतु आ रही थीं और सेठाणी को बधाइयाँ दे रही थीं। उस गरीब स्त्री ८४ बिन्दु में सिन्धु Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के मन में विचार आया कि मैं भी हाथी दाँत का च ड़ा पहन और लोगों से बधाइयाँ प्राप्त करूँ। ___ वह अपने घर गई, पति से हाथी दाँत का चड़ा लाने के लिए कहा। __ पति ने कहा-घर में चूहे एकादशी करते हैं । कई दिनों तक खाना भी नहीं मिलता और तुझे चाहिए हाथी दाँत का चूड़ा। स्त्री-जब तक चड़ा न आयेगा, तब तक भोजन न बनेगा? पति ने उसको विविध प्रकार से अपनी आर्थिक स्थिति समझाई, तथापि वह न मानी। अन्त में वह बाजार गया और किसी सेठ से कर्जा लेकर हाथी दाँत का चूड़ा खरीद कर लाया । उसने बड़ी प्रसन्नता से वह चूड़ा पहना और झोंपड़ी के बाहर द्वार पर आकर बैठ गई । उसने हाथों को लटका कर चड़ा दिखलाने का प्रयास किया, किन्तु कोई भी उसके चूड़े को देखने के लिए नहीं आया । एक दिन बीत गया, दूसरा दिन भी इसी प्रकार चला गया । उसके मन में प्रदर्शन की आग भड़क रही थी। वह लोगों को अपना चूड़ा दिखाना चाहती थी। उसने तीसरे दिन हाथ में दियासलाई ली और झोंपड़ी को सुलगा दी । देखते ही बिन्दु में सिन्धु ८५ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देखते आग की लपटें आकाश को स्पर्श करने लगी। लोग दौड़े, किसी भी प्रकार प्रयत्न कर आग को बुझाई, किन्तु झोंपड़ी राख हो गई थी। लोगों ने सहानुभूति के स्वर में कहा-पहले से ही यह कितनी गरीब थी, और फिर कैसा भयंकर वज्रपात हुआ है कि जो कुछ था वह सभी जल कर नष्ट हो गया। लोग संवेदना प्रकट कर रहे थे पर उस स्त्री के मन में अशान्ति थी, वह चाहती थी कि कोई भी उससे उस चूड़े के सम्बन्ध में पूछे । लोगों ने पूछा-बहन ! बताओ कुछ बचा है या नही ? उसने अपने हाथ को आगे करते हुए कहा-केवल यह चड़ा बचा है, इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं बचा । पड़ौस की औरतों ने आश्चर्यपूर्वक पूछा-अरे ! यह तेने कब पहना ? बड़ा सुन्दर है ! वह बोली-यदि यह बात तुम पहले ही पूछ लेते तो मैं अपनी झोंपड़ी क्यों जलाती। लोग उसकी मूर्खता पर हँस पड़े, लोगों की सहानुभूति आक्रोश के रूप में परिवर्तित हो गई। __ आज भी ऐसे हजारों मूर्ख हैं जो घर को आग लगा कर मिथ्या प्रदर्शन करते हैं। ८६ बिन्दु में सिन्धु Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समता साधना का नवनीत है-समता । समभावी साधक सम्मान होने पर फूलता नहीं और अपमान होने पर क्रोध नहीं करता। आज हमारे भाग्य को कुजी दूसरे के हाथों में चल रही है । टेप-रेकार्डर बोलता है पर वह उसकी आवाज नहीं होती किसी दूसरे की होती है। आज हम स्वयं अपने स्वामी नहीं रहे हैं । हम दूसरे के बटखरों से अपने को तोलते हैं, दूसरों के गजों से अपने को नापते हैं। राम को दशरथ ने राज्य देने की बात कही तब भी प्रसन्नता नहीं थी और वनवास देने पर विषाद नहीं था। जो अपने में रमण करता है वही राम है । बाह्य में रमण करने वाले को आनन्द कहाँ ? एक सामूहिक भोज था, हजारों व्यक्ति भोजन कर रहे थे। भोजन के उपसंहार में भोजन परोसने वाले के द्वारा पापड़ परोसा जा रहा था । पंक्ति में बैठे हुए व्यक्ति को वह क्रमश: पापड़ देता हुआ चला जा रहा था, किन्तु एक व्यक्ति को पापड़ देते समय वह पापड़ किञ्चित् खण्डित हो गया । परोसने वाले ने बिना किसी दुर्भावना के खण्डित बिन्दु में सिन्धु ८७ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापड़ परोस दिया । भोजन करने वाला व्यक्ति सोचने लगा-मालूम होता है मुझको अपमानित करने के लिए ही इसने मुझे खण्डित पापड़ दिया है। समय आने पर मैं इसका बदला लूंगा। उस व्यक्ति ने अपने मन में अपमान की गाँठ बाँध ली। वह गरीब था । उसने इधर उधर से कर्ज लेकर सारे ग्राम को भोजन के लिए निमन्त्रण दिया । भोजन की विविध तैयारियाँ की। भोजन पूर्ण होने के पूर्व वह स्वयं आकर पापड़ परोसने लगा । उस व्यक्ति के पास आकर उसने पापड़ को खण्डित कर परोसा । उस सेठ के मन में तो कुछ भी भावना नहीं थी, उसने पापड़ को खाना शुरू कर दिया। उस व्यक्ति ने हँसते हुए सेठ से कहा-देखिए सेठजो, मैंने आपको खण्डित पापड़ परोस कर पुराना बदला ले लिया है। आपको स्मरण है न । उस दिन आपने मुझे खण्डित पापड़ परोसा था। सेठ ने मुस्कराते हुए कहा-वस्तुतः तू मूर्ख रहा, क्या उसी बदले को लेने के लिए तेने इतना कर्ज किया ? श्रेष्ठ तो यही था कि मुझे अकेले में बुलाकर भी तू अपना बदला ले सकता था, इस प्रकार की बर्बादी तो नहीं होती। ___ यह प्रतिक्रिया अपमान के कारण पैदा हुई, पर योगी इनसे परे होता है। ८८ बिन्दु में सिन्धु Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुशामदी बादशाह अकबर ने बीरबल से कहा कि बीरबल ! बेंगन बहुत ही स्वादिष्ट होते हैं। हाँ हजुर ! इसीलिए उसका नाम बहुगुन है । बादशाह ने खूब बेंगन खाये, वायु के कारण रात भर घबराहट रही, दूसरे दिन बीरबल को कहा-ये बैंगन बिल्कुल हो निकम्मे हैं। हाँ हजुर ! इसीलिए उसे बे-गुन कहते हैं। अरे बीरबल तू बड़ा ही खुशामदी है, कल तो तेने बेंगन को बहुगुणी कहा था और आज उसे 'बेगुन' कहता है। बीरबल-जहाँपनाह मैं आपका सेवक हूँ बेंगन का नहीं। बिन्दु में सिन्धु ८६ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने आपको देखो युनिवर्सिटी के पुस्तकालय में एक नवीन व्यवस्थापक की नियुक्ति हुई । उसने पुस्तकालय में अनेक परिवर्तन किये । नवीन व श्रेष्ठ पुस्तकों पर पाठकों का ध्यान शीघ्र केन्द्रित हो, एतदर्थ उसने लेखक व विषय की दृष्टि से पुस्तकों का वर्गीकरण किया । नूतन साहित्य को एक ओर सजा कर रखा । कभी वह जीवन चरित्रों को, कभी यात्रा वर्णनों को और कभी पुरस्कृत पुस्तकों को इस प्रकार सजा कर रखता कि देखते ही दर्शक उन्हें पढ़ने के लिए ललक उठता। उसने द्वार पर सुन्दराक्षरों में लिखा-"आपने पुस्तकालय में अन्य लेखकों की श्रेष्ठ से श्रेष्ठ कृतियाँ देखी हैं अब आपकी कृति आपके सामने हैं कृपया उसे भी अवश्य देखिए और सामने था एक सुन्दर दर्पण । दर्पण अपने आपको निहारने की सुन्दर प्रेरणा प्रदान करता था। १० बिन्दु में सिन्धु Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपना विवेक एक बहुत बड़ी दुकान से एक ग्राहक ने सिगरेट का एक पाकेट खरीदा और उसमें से सिगरेट निकालकर वहीं पर पीने लगा। दुकान के मालिक ने उसे टोकते हुए कहायहाँ पर धूम्रपान की सख्त मनाई है, कृपया आप यहाँ पर सिगरेट न पीएँ। यह सिगरेट मैंने यहीं से अभी खरीदी है, ग्राहक ने अपना तर्क प्रस्तुत किया। दुकान के अधिपति ने कहा-इसमें क्या ? हम अपनी दुकान में तो जुलाब की गोलियाँ भी रखते हैं और जहर की गोलियाँ भी । लेने का विवेक तो आपको रखना होगा। बिन्दु में सिन्धु ६१ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिथि देवो भव ____ व्हेनसाँग गोबी का छोटा-सा रेगिस्तान और मंचूरिया एवं तिब्बत के खड़े पठार पारकर भारत पहुँचा । भीष्मग्रीष्म का समय था । चिलचिलाती धूप गिर रही थी। उसका शरीर पसीने से तरबतर था । वह पंजाब के एक छोटे से गाँव में पहुँचा । उसने एक मकान का द्वार खटखटाया। घर मालिक ने द्वार खोला। उस अपरिचित व्यक्ति को देख कर उसने नमस्कार कर कहा आइए, यहाँ पर विराजिए। ___व्हेनसांग ने कहा-मुझे बहुत तेज प्यास लग रही है, कृपया जरा-सा पानी ला दीजिए । गृहस्वामी घर में जाकर बढ़िया दूध का ग्लास भर कर ले आया । ६२ बिन्दु में सिन्धु Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुझे प्यास लगी है, पानी चाहिए-व्हेनसांग ने पुनः कहा-वह मन में चिन्तन करने लगा कि यह कैसा विचित्र देश है । जहाँ पर बिल्कुल ही अपरिचित व्यक्ति का इतना सत्कार किया जाता है । यह बिना माँगे दूध लाया है, जब कि मेरे देश में अपरिचित व्यक्ति इस प्रकार किसी के घर पर पानी माँगे तो उसे जान से मारने का प्रयास किया जाता है। गृहस्वामी पुनः लौटकर आया, उसके हाथ में दही के मठे का गिलास चमक रहा था । व्हेनसांग झुझलाया-मैंने आपसे पानी माँगा था, दूध या दही नहीं। गृहस्वामी उलटे पैरों लौट गया तीसरी बार उसके हाथ में शर्बत की ग्लास थी। व्हेनसांग विचारने लगा यह कैसा विचित्र आदमी है। मैं पानी माँग रहा हूँ और यह शरबत की ग्लास लाया है । उसने अपनी बात दुहराई। ___गृहस्वामी ने कहा-ज्ञात होता है कि आप भारत के नहीं है । भारत में किसी भी घर पर पहली बार अतिथि को केवल पानी नहीं पिलाया जाता । यहाँ पर अतिथि को देव मानकर उसकी उपासना करते हैं । केवल पानी के लिए नदी, तालाब, कुए की कहाँ कमी है ? K बिन्दु में सिन्धु १३ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देश की शान * वीर दुर्गादास अपने खेतों की रखवाली कर रहे थे । उस समय सरकारी ऊँटों का एक दल उनके खेतों में आ गया दुर्गादास ने ऊँटों के नायक से कहा - शीघ्र ही खेत में से ऊँटों को बाहर निकालो, किन्तु राजकीय मद में उन्मत्त बने हुए नायक ने उसकी बात को हवा में उड़ादी । दुर्गादास ने तलवार के एक ही बार में ऊँट का सिर उड़ा दिया । उस समय जोधपुर के राजा जसवन्तसिंह थे । उन्होंने दुर्गादास के पिता आसकरण को दरबार में बुलाया । जब दुर्गादास के साथ आसकरण जो दरबार में पहुँचे तो जसवन्तसिंह ने प्रश्न किया आपने सरकारी ऊँट को क्यों मारा है ? आसकरण जो चुप थे । बालक दुर्गादास ने निर्भयता पूर्वक कहा- राजन् ! सरकारी ऊँट का सिर मैंने काटा है । आपको ज्ञात ही है कि किसानों का जीवन खेती पर निर्भर है, अब आप ही बताइए कि हम कैसे सहन कर सकते हैं कि ऊँट हमारी फसल को नष्ट करदे । दुर्गादास की बीरता को देखकर राजा जसवन्तसिंह मुग्ध थे । उन्होंने कहा इस बालक को मुझे दे दो, यह राज्य की शोभा बढ़ाएगा । वीर बालक ही देश की शान है । ६४ बिन्दु में सिन्ध Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिज्ञासा : प्रगति का मूल लुकमान जाना माना हुआ महान हकीम था । उससे किसी ने पूछा--आपने इतना अदब, इतनी तहजीब किससे सीखी है ? उत्तर में लुकमान ने कहा "बेअदबों से ! बेहतजीबों से !" प्रश्नकर्ता असमंजस में पड़ गया। वह बोला-यह किस प्रकार सम्भव है ? भला उनसे कोई क्या सीख सकता है ? __ मुस्कराते हुए लुकमान ने कहा—इसमें घबराने की आवश्यकता नहीं है । मैंने जिनमें जो खराब बातें देखीं उनसे अपने आपको सदा बचाने का प्रयास किया । जिस व्यक्ति को सीखना है वह तो जीवन की साधारण घटना से भी बहुत कुछ सीख सकता है और जिसमें जिज्ञासा का अभाव है, उसे चाहे जितना उपदेश भी दिया जाय तो भी वह कुछ नहीं सीख सकता। बिन्दु में सिन्धु ६५ ___ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सफलता का रहस्य 2246 एक युवक ने अनुभवी वृद्ध से प्रश्न किया कि कृपया बताइए कि आपकी सफलता का रहस्य क्या है ? वृद्ध ने कहा - धैर्यं और प्रतीक्षा, जिससे विश्व का कोई भी कार्य सरलता से सम्पन्न किया जा सकता है । युवक ने कहा- एक ऐसा कार्य भी है, जो आप नहीं कर सकते हैं, वह है चलनी में पानी भरकर ले चलना । वृद्ध ने उसी धैर्यता से कहा - यह भी सम्भव है, जब तक पानी जमकर बर्फ न बन जाय, वहाँ तक धैर्य के साथ तुम्हें प्रतीक्षा करनी होगी । उसे सफलता का रहस्य समझ में आ गया । ६६ बिन्दु में सिन्धु Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पराजय का रहस्य करनाल के विशाल मैदान में मुहम्मदशाह की सेना को परास्त कर विजयी नादिरशाह दिल्ली पहुंचा तो उसका भव्य स्वागत किया गया। दोनों बादशाह एक हो तख्त पर आसीन हुए। नादिरशाह को प्यास सताने लगी । उन्होंने पास में बैठे हुए मुहम्मदशाह को पानी मँगवाने का संकेत किया । नादिरशाह पानी की प्रतीक्षा करने लगा किन्तु बिन्दु में सिन्धु ९७ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पानी आता हुआ दिखलाई नहीं दिया और जोर-जोर से नगाड़े बजने की आवाज आने लगी । वह देखने लगा कि यह असमय में कहाँ पर उत्सव हो रहा है। बादशाह पूछना चाहता ही था कि दस बारह अनुचर उपस्थित हुए। किसी के हाथ में कीमती रूमाल चमक रहा था, तो किसी के हाथ में पानदान था। कुछ सेवक आगे बढ़, हाथ में चाँदी के थाल चमचमा रहे थे उनमें सोने की ग्लासे सजाकर रखी थीं और उनमें सुगन्धित पानी था वह बड़े कीमती वस्त्र से ढका हुआ था। नादिरशाह ने देखा यह सारा आडम्बर केवल पानी पिलाने के लिए किया जा रहा है। उसे विलासितापूर्ण आडम्बर से नफरत हो गई। उसने कहा—मैं ऐसा पानी नहीं पीता। नादिरशाह ने अपने भिश्ती को आवाज दो, वह शीघ्र ही चमड़े के मशक में पानी ले आया और नादिरशाह ने अपने सिर से लोहे का टोप उतारा और उसमें पानी भर कर पी लिया । मुहम्मदशाह की ओर देखकर नादिरशाह ने कहा-मुझे तुम्हारे पराजय का कारण ज्ञात हो गया। यदि हम भी तुम्हारी तरह पानी पीते तो ईरान से हिन्दुस्तान तक नहीं आ सकते थे। १८ बिन्दु में सिन्धु Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक की महत्वपूर्ण कृतियाँ शोध ग्रन्थ १. भगवान ऋषभदेव : एक परिशीलन २. भगवान अरिष्टनेमी और कर्मयोगी श्रीकृष्ण : एक अनुशीलन ३. भगवान पार्श्व : एक समीक्षात्मक अध्ययन ४. भगवान महावीर : एक अनुशीलन ५. धर्म और दर्शन ६. जैन दर्शन : स्वरूप और विश्लेषण विचार साहित्य १. चिन्तन की चाँदनी २. विचार रश्मियाँ ३. विचार और अनुभूतियाँ ४. अनुभूति के आलोक में ५. विचार-वैभव कथा साहित्य १. महकते फूल २. बोलते चित्र ३. अमिट रेखाएँ ४. खिलती कलियाँ : मुस्कराते फूल ५. बिन्दु में सिन्धु प्राप्ति स्थान श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय शास्त्री सकिल, उदयपुर [राजस्थान] Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन के ..... ਦੋ ਗੋਟੇ-ਛੋਟੇ ਕਾ अनन्त प्रेरणा का स्त्रोत छियाये हुए हैं। प्रकाशक: तारक गुरु जैन ग्रन्थालय शास्त्री सर्कल 1 उदया