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थी। उन्हें खाने के लिए उन्होंने ज्योंही हाथ आगे बढ़ाया त्योंही माँ ने कहा--"विनिया ! तुम देव बनना चाहते हो या दानव ? जो दूसरों को खिलाकर या देकर खाता है, वह देव है और जो खुद के लिए ही रखता है वह दानव है, बताओ तुम्हें क्या बनना है ?" विनोबा तुरन्त बोल उठे-"माँ मुझे देव बनना है।"
माँ ने आज्ञा दी- "तो जाओ इन पपीते की फांकों को पहले पड़ोसियों को बाँटो । घर में लगे हुए पहले फल का अधिकारी पड़ोसी होता है।"
विनोबा माँ की आज्ञा सुनकर वह थाल लेकर पड़ोसियों के घर पर दौड़ पड़े, पड़ोसी उसमें से एक-एक फाँक लेते गये और प्रेम से विनोबा की पीठ थपथपाते गये कि वाह ! बड़ा मीठा पपीता लाये हो !
बची हुई फाँकों को लेकर विनोबा घर पर आए और अपने भाइयों को बाँटकर खुद भी खाने लगे।
माँ ने फिर पूछा-'"विनिया ! पपीता मीठा तो है न?"
विनोबा ने प्रत्युत्तर दिया-"अम्मा ! पड़ोसियों की प्रेम की थपकी में जो मिठास था, वह पपीते में कहाँ है ?"
विनोबाजी में 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना को उबुद्ध करने का श्रेय उनकी माँ को ही था।
बिन्दु में सिन्धु
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