Book Title: Anusandhan 2005 11 SrNo 34
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Catalog link: https://jainqq.org/explore/520534/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ) प ल मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त, ५२९)) JONEW0 अनुसंधान प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका DJ संपादक : विजयशीलचन्द्रसूरि 239PepepeD DOODOOL UPE 2033 कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी CpCDC स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदाबाद 2005 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त, ५२९) 'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे' अनुसंधान प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य-विषयक सम्पादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका सम्पादकः विजयशीलचन्द्रसूरि NOLOGoa क००-6 छन् 16 श्रीहेमचन्द्राचार्य कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि अहमदाबाद २००५ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ३४ आद्य सम्पादक: डॉ. हरिवल्लभ भायाणी सम्पादक: विजयशीलचन्द्रसूरि सम्पर्कः C/0. अतुल एच. कापडिया A-9, जागृति फ्लेट्स, पालडी महावीर टावर पाछळ अमदावाद-३८०००७ प्रकाशकः कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदाबाद प्राप्तिस्थान: (१) आ. श्रीविजयनेमिसूरि जैन स्वाध्याय मन्दिर १२, भगतबाग, जैननगर, नवा शारदामन्दिर रोड, आणंदजी कल्याणजी पेढीनी बाजुमां, अमदावाद-३८०००७ (२) सरस्वती पुस्तक भण्डार ११२, हाथीखाना, रतनपोल, अमदावाद-३८०००१ . मूल्य: Rs. 80-00 मुद्रकः क्रिश्ना ग्राफिक्स, किरीट हरजीभाई पटेल ९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद-३८००१३ (फोन: ०७९-२७४९४३९३) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका श्री लक्ष्मीकल्लोलगणि रचिता वर्द्धमानाक्षरा चतुर्विंशति-जिनस्तुतिः श्रीगुणविजयरचिता जातिविवृतिः ॥ म. विनयसागर 01 सं. विजयशीलचन्द्रसूरि 23 विजयशीलचन्द्रसूरि 35 'भुवनसुन्दरीकथा' की विशिष्ट बातों ___ का संक्षिप्त अवलोकन तरङ्गवती कथा तथा पादलिप्तसूरिः जैन के अजैन ? विजयशीलचन्द्रसूरि 43 विशेषावश्यक भाष्यनुं शुद्धिपत्रक (३) पत्रचर्चा षड्भाषाबद्ध चन्द्रप्रभस्तव के कर्ता जिनप्रभसूरि हैं। म. विनयसागर 55 .. विहंगावलोकन-३३ उपा. भुवनचन्द्र 57 ट्रॅक नोंध : एक विलक्षण धातुप्रतिमा शी. 60 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन अनुसन्धानना अर्थात् संशोधन तेमज कृतिसम्पादनना क्षेत्रमां काम करवुं गमतुं होय तेमने माटे, अगाऊ क्यारेय नहोती तेवी, उज्ज्वल तथा मबलख तको, आजे उपलब्ध छे. असंख्य अप्रगट तथा विशिष्ट नानी मोटी रचनाओ हाथपोथीओमां कोई उद्धारकनी राह जोती विभिन्न भण्डारोमां पडी छे. अगणित मुद्रित ग्रन्थो शुद्धीकरण अने पुनः सम्पादननी प्रतिक्षामा छे. पूर्वे प्रकाशित ग्रन्थोने, ते सुलभ बने एटला माटे, यथावत् पुनः मुद्रित करवानी प्रथा अत्यारे पूरजोशमां प्रवर्ते छे. उपलब्ध विपुल सामग्रीनो सदुपयोग करवानी दरकार के परिश्रम लीधा विना, आरम्भनां पानां तथा नाम तथा तसवीरो वगेरेमां अनुकूल परिवर्तनो मात्र करीने, जेमना तेम ते ग्रन्थोने छपावी नाखवा, एमां घणीवार धननो वेडफाट तथा नाम कमाई लेवानी वृत्ति ज मुख्यत्वे अनुभवाय छे. आमां एक प्रकारनो प्रज्ञापराध पण छे. आवी मन:स्थिति मटे, अने सुयोजित - सुग्रथित पद्धतिथी शोधसम्पादननी प्रवृत्ति फुलेफाले तेवी भावना. शी. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री लक्ष्मीकल्लोलगणि रचिता वर्द्धमानाक्षरा चतुर्विंशति-जिनस्तुतिः म. विनयसागर भारतीय साहित्य की अनेक विशेषताओं में एक प्रमुख विशेषता उसका विशाल स्तोत्र साहित्य भी है । स्तोत्र साहित्य भारतीय साहित्य का हृदय कहा जा सकता है। सभी जातियों ने स्तोत्र रचना में अपना बहुमूल्य योग दिया है । बौद्धों ने बुद्ध भगवान् की, जैनों ने अर्हत् की, वैष्णवों ने विष्णु व उनके अनेक रूपों की, शैवों ने शिव की, शाक्तों ने भगवती दुर्गा की और अन्य लोगों ने अपने इष्टदेवों की स्तुति मधुरतम गीयमान स्तोत्रों द्वारा की है, आत्म-निवेदन किया है, श्रद्धा के प्रसून अर्पित किये हैं । स्तोत्र द्वारा भक्त-हृदय स्वच्छन्दतापूर्वक अपने भावों को इष्टदेव के सम्मुख प्रस्तुत करता है । हृदय का आवरणरहित स्वरूप उसमें देखा जा सकता है । निरावृत्त व मुक्त-हृदय का आत्म-निवेदन ऐसी भाषा में अभिव्यक्त होता है, जिसे भाषा न जाननेवाला भी किसी-न-किसी तरह समझ लेता है । स्तोता की भाषा विशुद्ध मानव-हृदय की भाषा होती है जिस पर बुद्धि व तज्जन्य प्रपंचों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता । स्तोता की मधुर अनुभूतियों को स्वतः ही मधुरतम शब्द मिल जाते हैं जिसके लिए रचना-कौशल की उतनी आवश्यकता नहीं जितनी अनुभूति की सघनता की। पावस-ऋतु में जैसे जीवनदायक मेघों की फुहार पड़ते ही बीजों में अंकुर उत्पन्न होने लगते हैं, उसी तरह सघन-अनुभूतियाँ मधुरतम शब्दों में मूर्त होने लगती है । इस कार्य में किसी तरह के प्रयत्नों का कोई हाथ नहीं होता । जैन मनीषि-पुंगवों ने भगवत्-स्तवना करने में दो विधाएँ अपनाई हैं - १. स्तोत्र, २. स्तुति । १. स्तोत्र - किसी तीर्थंकर विशेष की या समन्वित समस्त तीर्थंकरों की या किसी तीर्थस्थित तीर्थंकर विशेष की स्तवना करते हुए जो हृदय Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ३४ के उद्गार प्रकट होते हैं, वे स्तोत्र कहलाते है। इन स्तोत्रों के माध्यम से अनेकान्त स्याद्वाद की प्ररूपणा, भगवान् की देशना अथवा दार्शनिक विवेचन का स्वरूप चिन्तन भी होता है । भगवत् गुणों का वर्णन करते हुए अष्ट महाप्रातिहार्य, ३४ अतिशय, ३५ वाणी इत्यादि का भी समावेश किया जाता है । भगवान के साथ तादात्म्य सम्बन्ध स्थापित करते हुए अपनी लघुता भी प्रदर्शित की जाती है और स्वकृत पापों की आत्मगर्हा भी । स्तुति - स्तुति यह केवल ४ पद्यों की होती है। प्रथम पद्य में किसी तीर्थंकर विशेष की या सामान्य जिन की, दूसरे पद्य में समस्त तीर्थंकरों की, तीसरे पद्य में भगवत् प्ररूपित द्वादशांगी आगम की और चतुर्थ पद्य में तीर्थंकर विशेष, के शासन देवता की । इन लक्षणों पर आधारित कई सामान्य स्तुतियाँ भी प्राप्त होती हैं और कई विशिष्ट स्तुतियाँ भी । जिसमें यमक और श्लेषालंकार आदि का छन्दवैविध्य के साथ उक्तिवैचित्र्य का समावेश होता है, वे विशेष कहलाती है । आचार्य बप्पभट्टिसूरि और शोभनमुनि आदि का स्तुति साहित्य विशिष्ट कोटि में ही आता है । श्रीभुवनहिताचार्य आदि रचित स्तुतियों में छन्दवैविध्य पाया जाता है । बढ़ते हुए अक्षरों के साथ छन्दों में रचना करना वैदुष्य का सूचक है ही । श्री लक्ष्मीकल्लोलगणि रचित चतुर्विंशतिस्तुति भी इसी विधा की रचना है । लक्ष्मीकल्लोलगणि - स्तुतिकार ने प्रान्त पुष्पिका में "उ. श्री हर्षकल्लोलप्रसादात्" लिखा है । अतः इससे एवं अन्य प्रमाणों से निश्चित है कि ये श्री हर्षकल्लोलगणि के शिष्य थे । आचार्य सोमदेवसूरि की परम्परा से कमल-कलश और निगम-मत निकले थे । सोमदेवसूरि तपा० सोमसुन्दरसूरि के शिष्य थे, किन्तु उन्होंने १५२२ के लेख में लक्ष्मीसागरसूरि का शिष्य भी लिखा है । इनके शिष्य रत्नमण्डनसूरि हुए । रत्नमण्डनसूरि की परम्परा में श्रीआगममण्डनसूरि के प्रशिष्य और श्रीहर्षकल्लोलगणि के शिष्य १. त्रिपुटी महाराज : जैन परम्परानो इतिहास - भाग ३, पृ. ५६० २. त्रिपुटी महाराज : जैन परम्परानो इतिहास - भाग ३, पृ. ५६६ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवेम्बर लक्ष्मीकल्लोगगणि थे । इनके अतिरिक्त इनके सम्बन्ध में कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है । इनका परिचय, जन्म, दीक्षा, पद आदि भी अज्ञात है। लक्ष्मीकल्लोलगणि आगम-साहित्य और काव्य-साहित्य शास्त्र के प्रौढ़ विद्वान् थे । आगम ग्रन्थों पर इनकी दो टीकाएँ प्राप्त होती हैं : १. आचाराङ्ग सूत्र तत्त्वागमारे टीका प्राप्त होती है जिसका रचना सम्वत् १५९६ दिया हुआ है । जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास में टीका के स्थान पर अवचूर्णी लिखा है । २. ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र 'मुग्धावबोध टीका- इसमें रचना सम्वत् प्राप्त नहीं है। श्री देसाई ६ के मतानुसार सोमविमलसरि के विजयराज्य में विक्रम सम्वत् १५९७-१६३७ के मध्य रचना की गई है । इससे इनका साहित्य रचनाकाल १५९० से १६४० तक निर्धारित किया जा सकता है । आगम साहित्य पर टीका रचना से यह स्पष्ट है कि आगम साहित्य पर इनका चिन्तन और मनन उच्च कोटि का था । इन दोनों टीकाओं के अतिरिक्त स्वतन्त्र कृतियों के रूप में कुछ स्तोत्र भी प्राप्त होते है वे निम्न हैं : ११९९ जिन स्तव (समस्याष्टक) १३४२ साधारण जिन स्तवः (समस्याष्टक) १४४० ऋषभदेव स्तव १७७२ महावीर स्तोत्र (सावचूरि) ५०८९ समस्याष्टक ६२३२ साधारण जिन स्तव (पराग शब्द के १०८ अर्थ) जिनरत्नकोश : पृष्ठ २४, इसके अनुसार इसकी प्रति A descriptive Catalogue of the Mss. in the B.B.R.A.S. Vol. No. 1397 4. पृष्ठ ५२०, पैरा नं. ७६१ जिनरत्नकोश : पृष्ठ १४७, इसके अनुसार इसकी प्रति A descriptive Catalogue of the Mss. in the B.B.R.A.S. Vol. No. 1473 6. जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, पृष्ठ ५२०, पैरा नं. ७६१ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ३४ ये सारे क्रमांक कैटलॉग ऑफ संस्कृत एण्ड प्राकृत मैनुस्कृप्ट मुनिराज श्री पुण्यविजयजी संग्रह भाग-१, २ लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद के दिए गये हैं । चमत्कृति प्रधान इन स्तोत्रों को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि श्री लक्ष्मीकल्लोलोपाध्याय साहित्य और लक्षणशास्त्र के भी उद्भट विद्वान थे। इनके अतिरिक्त स्वतन्त्र कृति के रूप में 'वर्द्धमानाक्षरा चतुर्विंशति जिनस्तुति' प्राप्त होती है । इसमें २४ तीर्थंकरो की स्तुति के साथ अन्तिम गौतम गणधर की भी स्तुति प्राप्त है । एकाक्षर से प्रारम्भ कर २५ अक्षरों तक के विभिन्न छन्दों में प्रत्येक की स्तुति की है जो कि इसके परिशिष्ट में दिये गये छन्दसूचि से स्पष्ट है । छन्द-शास्त्र के ये अजोड़ विद्वान् थे। इन छन्दों में कई छन्द ऐसे हैं जो कि प्रायः प्रयोग में नहीं आते हैं । प्रान्त पुष्पिका में 'अनुप्रासालङ्कारमय्यश्च' अर्थात् प्रत्येक स्तुति में अनुप्रासालङ्कार का विशेष रूप से प्रयोग किया है । प्रत्येक स्तुति का अवलोकन किया जाए तो प्रत्येक श्लोक के पहले और दूसरे चरण में, तीसरे और चौथे चरण में एकाक्षर या व्यक्षर में अनुप्रास का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। उदाहरण के रूप में देखिए - विमलनाथ की स्तुति प्रथम पद्य, प्रथम चरण ‘नमामः' और दूसरे चरण में रमामः ‘मामः' का प्रयोग है । इसी स्तुति में दूसरे श्लोक के तीसरे-चौथे श्लोक में 'वन्तां' का प्रयोग है । इस प्रकार प्रत्येक पद्य के समग्र चरणों का अवलोकन करें तो अन्त्यानुप्रास की छटा सर्वत्र दृष्टिगोचर होगी । कवि का अभीष्ट भी अनुप्रासालङ्कार प्रतीत होता है । श्लेष, उपमा, रूपक, यमक आदि अलंकार भी स्थान-स्थान पर मुक्ताओं की तरह गुंथे हुए नजर आते हैं । इस कृति की प्रतियाँ भी अत्यन्त दुर्लभ हैं । विक्रम सम्वत् २००१ में श्रद्धेय गणिवर्य श्री बुद्धिमुनिजी महाराज ने जामनगर में रहते हुए इसकी पाण्डुलिपि तैयार की थी। उनकी कृपा थी कि स्वलिखित प्रति मुझे भिजवा दी, वही आज प्रकाशित की जा रही है । गणिवर्य लिखित पाण्डुलिपि में किस भण्डार की प्रति से उन्होंने इसकी प्रतिलिपि की है, इसका संकेत न होने की वजह से यह कहने में असमर्थता है कि यह किस भण्डार की Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवेम्बर प्रति है ? __इन स्तुतियों प्रातः एवं सायं प्रतिक्रमण में इसका उपयोग किया जा सकता है । पाठको के रसास्वादन के लिए प्रस्तुति कृति प्रस्तुत है : निता श्री लक्ष्मीकल्लोलगणि रचिता वर्द्धमानाक्षरा चतुर्विंशति-जिनस्तुतिः [पण्डित श्री ५ श्रीलक्ष्मीकल्लोलगणि-चरणकमलेभ्यो नमः] १ - श्रीऋषभजिनस्तुतिः, - (श्रीछन्दसा) मेऽघं । स्याऽर्हन् ॥१॥ नोऽजाः । स्युर्यैः२ ॥२॥ नोऽकं । नव्यम् ॥३॥ गी: शं । वोऽव्यात् ॥४॥ २ - श्रीअजितजिनस्तुतिः (स्त्रीछन्दसा) अन्यः, सार्वः । सिद्धिं, दद्यात् ॥१॥ सार्वाः, सर्वे । सातं, दद्युः ॥२॥ सार्वा, वाचः । नः शं, कुर्युः ॥३॥ वाणी, देवी । लक्ष्म्यै, भूयात् ॥४॥ १. जिनाः । २. लक्ष्म्यै । ३. क्रियात् । ४. अजितः । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ३४ ३ - श्रीशम्भवजिनस्तुतिः (नारीछन्दसा) तीर्थेशस्तार्तीयः । वृद्धिं वः, प्रादुष्येत् ॥१॥ येऽर्हन्तस्ते पापं । भक्तानां, छिन्द्यासुः ॥२॥ सार्वीयः, सिद्धान्तः । मच्चित्तं, पोपूयात् ॥३॥ सुत्रास्यः, साधूनां । विघ्नौघं, लोलूयात् ॥४॥ ४ - श्रीअभिनन्दनजिनस्तुतिः (सुमतिच्छन्दसा) प्लवगाङ्क, गलिताङ्कम् । हतजालं, भजतालम् ॥१॥ जिनवृन्दं, कृतभन्द(?)म् । कनकाच्छं, ददताच्छम् ॥२॥ जिनवाक्यं, जितशाक्यम् । भज भव्यं, मुनिनव्यम् ॥३॥ श्रुतदेवी, पदसेवी । अघहीं, सुखकीं ॥४॥ ५ - श्रीसुमतिजिनस्तुतिः . (अभिमुखीछन्दसा)5 सुमतिजिनं, गतवृजिनम् । श्रय मुनिपं, चिदवनिपम् ॥१॥ ५. प्रकटीकरोतु । ६. पुनातु । ७. लुनातु । ८. ज्ञानप्रभुम् । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवेम्बर जिननिकरं, जनसुकरम् । कृतविभवं, भज विभवम् ॥२॥ जिनवचनं, वररचनम् । शिवसुखदं, नयतु पदम् ॥३॥ अमलतरा, कमलकरा । वितरतु कं, कजजतुकम् ॥४|| ६ - श्रीपद्मप्रभजिनस्तुतिः (रमणाछन्दसा) धरभूपभवं, वररूपरवम् । कृतकामजयं, श्रथधाममयम् ॥१॥ जिनराजगणं, नतभूरमणम् । शमताशरणं, कुरुताच्छरणम् ॥२॥ भगवत्समयः, शमशूकमयः । भवतान्तिहरः, शिवशान्तिकरः ॥३॥ सुमतः कुसुमः, सुरसालसमः । जनतेहितशं, तनुतादनिशम् ॥४॥ ७ - श्रीसुपार्श्वजिनस्तुतिः (मधुनामाछन्दः)7 कनकसमधनः, करतु शमधनः । नतनरसुमनाः, शिवममलमनाः ॥१॥ सकलजिनपतीन्, विमलनरपतीन् । भजत मुनिजना ! विगलितवृजिनाः ॥२॥ गणधरगदितं, यतिततिविदितम् । शमरससहितं, कुरु हृदि सहितम् ॥३॥ जयति भगवती, विमलगुणवती । शुचिरुचिमवती, शशिकरसुदती ॥४॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 ८ - श्रीचन्द्रप्रभजिनस्तुतिः (प्रमाणिकाछन्दः) 8 विशालवंशभूषणः, प्रणष्टकर्मदूषणः । ममाष्टमो जिनेशिता, तनोतु तां जगत्पिता ॥१॥ जिना दिशन्तु मे समे, समग्रसौख्यसङ्गमे । शिवालये पदं विभा - भरेण सूर्यसन्निभाः ॥२॥ जिनोक्तमागमं सदा, कुरुध्वमानने मुदा । भवार्णवौघतारकं, विनोदवृन्दकारकम् ॥३॥ जिनेन्द्रपादपावितः प्रभूतभक्तिभाव(वि)त: । ददातु यक्षनायकः, समाङ्करस्मसायकः ||४|| ९- श्रीसुविधिनाथस्तुति: (भद्रिकाछन्दसा) १ आनुवे सुविधिनायकं, भव्यजन्तुभवतायकम् । कर्म्मशत्रुभटभञ्जनं, साधुलोककृतरञ्जनम् ॥१॥ शं दिशन्तु सुजिनेश्वराः सर्वजन्तुषु कृपापराः । सिद्धिसाधुरमणीवराः, पादनम्रजनशङ्कराः ॥२॥ श्रीजिनागममहर्निशं संश्रयेऽहमतिसद्वशम् । क्षीरनीरनिधिसन्निभं सूक्तिशूक्तिरिव निर्निभम् ॥३॥ यो जिनः, कुमतितान्तिदः, साध्यराड् भवतु शान्तिदः । जैनशासनविभासनः प्राणिनां कृतसुवासनः || ४ || , १० , , श्रीशीतलजिनस्तुतिः ( --- छन्दसा ) अनुसन्धान ३४ 10 वन्देऽहं श्रीशीतलजनुषं, श्रीवत्साङ्कं काञ्चनवपुषम् । नन्दाजातं श्रीपतिविनतं मुक्तिप्राप्तं सुन्दररवितम् ॥१॥ ९. अतिसन्तः - अत्युत्तमाः, तेषां वशे यस्या (योऽ) सावतिसद्वशस्तम् । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवेम्बर सर्वे सर्वज्ञाः कुशलकराः, नानावर्णाकारवरतराः । संसाराब्धौ मग्नजनधराः, देयासुः शं मुक्तिपदवराः ॥२॥ श्रीसिद्धान्तो मे कुशलकरः, श्रीसर्वज्ञोक्तो दुरितहरः । जीयात्संसाराब्धिघटभवः, शश्वद्भक्तानां कृतविभवः ॥३॥ साऽशोकादेवी मम सुखदा, तेजःपुञ्जोद्दीप्ततररदा । अर्हद्भक्त्युत्थप्रबलमदा, भूयाद्भव्याङ्गिप्रहतमदा ॥४॥ ११ - श्रीश्रेयांसजिनस्तुतिः (---छन्दसा)" सकलसिद्धिविधानविदग्धं, दशमतोऽग्रिममीशममुग्धम् । अमितकामितदानसुरहूं, श्रयत शोषितलोभमितह्नम्१० ॥१॥ जिनवराः प्रदिशन्तु सतां शं, न लभते मरमर्द्विशतां शम् । हरिहराद्यपरः सुरसार्थः, प्रभुतया धृतयाऽपि कृतार्थः ॥२।। जिनपतेर्वचनं भविकानां, भवतु११ लब्धमहाभविकानाम् । दुरितसन्ततिसंहरणाय, प्रबलसंसृतिसंहरणाय ॥३|| अखिलमङ्गलमूलविधात्री, गुरुतरोच्चलचिन्तितदात्री । विकटसङ्कटवल्लिकृपाणी, जिनमते जयताद्भुवि वाणी ॥४॥ १२ - श्रीवासुपूज्यजिनस्तुतिः (तामरसच्छन्दः)12 नमत सुरासुरसेवितपादं, वदनविभाजितशीतलपादम् । महिषधरं गतखेदविषादं, जलधरगर्जिगभीरनिनादम् ॥१॥ सकलजिनेशगणं विनुवेऽहं, हुतकनकधुतिसत्तमदेहम् । चरणमाहदि सुन्दरहारं, पदयुगलप्रणते हितकारम् ॥२॥ जिनवनवाग्विभवो मम सातं, दिशतु महोदयपत्तनजातम् । नयगमभङ्गभरप्रतिपूर्णः, कठिनपुराणतमस्कृतचूर्णः ॥३॥ १०. समुद्रम् । ११. प्राप्तमहन्मङ्गलानाम् । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ३४ जिनपतिपादपयोरुहभक्तः, श्रितजिनशासनभासनमरक्तः । . करतु कुमारसुरः शिवमिष्टं, न भवति यत्र कदाचन कष्टम् ॥४॥ . १३ - श्रीविमलनाथस्तुतिः (प्रहर्षणी छन्दः)13 देवेन्द्रप्रणतपदं जिनं नमामः, चित्तं तच्चरणयुगे वयं रमामः । क्रोडावं निखिलसमीहितार्थकारं, नैर्मल्यं सृजतु कृतामरोपहारम् ॥१॥ सर्वज्ञाः सकलगुणाभिरामदेहा, आदित्यधुतिभरदीप्तधामगेहाः । मुक्तिश्रीरमणकलाभिलाषवन्तः, कुर्युः शं हृदयभवं शिवं ब्रुवन्तः ॥२॥ सिद्धान्तो जिनवदना[व]तीर्यमाणः, . साध्वोधैः श्रवणपुटावधार्यमाणः । भव्यानां शिवसदनाभिलाषुकानां, श्रेयोऽर्थं भवतु भयक्षयोत्सुकानाम् ॥३॥ विघ्नौघं जिनपदसेवके हरन्ती, सर्वाधिप्रशमसुखं जने करन्ती । सा भूयान्मम सुखमङ्गलादिकी, सर्वापत्प्रधनभयामयादिहीं ॥४॥ १४ - श्रीअनन्तजिनस्तुतिः __ (लक्ष्मीछन्दः)14 तं वन्दे सर्वभावज्ञानतत्त्वोपदेशं, दुष्कर्मध्वान्तनाशादित्यतेजोनिवेशम् । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवेम्बर संसाराम्भोधिमज्जज्जन्तुपोतायमानं, श्येनाकं पङ्कपूरोदासमेघायमानम् ॥१॥ सर्वज्ञा विज्ञवित्ता वासमासं दधाना, भूयासुभूरिभूरिप्राज्यराज्यप्रतानाः । सम्पत्प्राप्त्यै वरेण्यागण्यपुण्यप्रतीता, मदनमायाऽभिमानक्रोधलोभव्यतीताः ॥२॥ सिद्धान्तः स्ताच्छिवाध्वप्राप्तिहेतुर्जनानां, नानाभङ्गैर्गभीरार्थप्रकाशो घनानाम् । पाप्महच्छेदकर्ता शासनाम्भोजभानुभूयिष्टोत्पत्तिबद्धाऽदृष्टकक्षे कृशानुः१२ ॥३॥ पातालः सेवकानां शुद्धधीसंश्रितानां, सेवाहेवावशेन प्राप्तसर्वेप्सितानाम् । कुर्याद्धर्या महार्या सम्पदं स्फीतभीतिः, कामप्रोद्दामधामा भग्नविघ्नौघभीतिः ॥४॥ १५ - श्रीधर्मनाथस्तुतिः (ऋषभच्छन्दसा)15 जिनराजमुत्तमगुणाश्रयणीयदेहं कुलिशाङ्कितक्रममहं महिमैकगेहम् । धिषणाऽवधीरितगुरुं प्रणमामि नित्यं, त्रिदशाधिपक्षितिपतिप्रणताधिपत्यम् ॥१॥ जिनपा दिशन्तु कुशलं शिवसङ्गरङ्गा, वरकेवलद्धिकलिता गलिताङ्गसङ्गाः ।। समतारसार्णवनिमग्नमनोविनोदाः, सुकृताप्तिपुष्टजनताजनितप्रमोदाः ॥२॥ जिनवक्त्रतोऽर्थरचनावचनोपदिष्टः, सुगणाधिपैः पठितपाठतयाऽतिदिष्टः । १२. प्रचुरजन्मसञ्चितकर्मवनेऽग्निधर्मः ।। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 अनुसन्धान ३४ दुरितं जहाति परिशीलित एव भव्यैः, प्रतिषेवणीय इति वाक्यचयस्स नव्यैः ॥३॥ जिनसेवके विपुलमङ्गलमादधानः, सुरकिन्नरः सकलसाध्यगणप्रधानः । दह(द?)तां धनानि जनताकृतकामितानि, सततं परोपकरणप्रवणस्ततानि ॥४॥ १६ - श्रीशान्तिनाथस्तुतिः __ (पञ्चचामरच्छन्दसा)16 स शान्तिनाथनायकस्तमोभरक्षयङ्करः, करोतु कर्मसञ्चयप्रमोषणप्रियङ्करः । अनन्तसातदायकः शिवाभिलाषसम्भवं, सुखं विषादवर्जितं समग्रसौख्यतो नवम् ॥१॥ दिशन्तु मां जिना (रमां)विशालवंशसम्भवाः, प्रमत्तदत्तदेशना भवार्णवौघविद्रवाः । अनीतिभीतिघातका गुणावलीविभूषिता, महोदयास्पदस्थिताः कुसङ्गभङ्गयदूषिताः ॥२॥ जिनागमं श्रयाम्यहं शठावबोधदुस्तरं, प्रभूतभग्नसंशयप्रकाशितार्थविस्तरम् । . अनेकभङ्गसङ्कुलं भवभ्रमव्यथाऽपहं, मुमुक्षुसङ्घसेवितं गतक्रुधं गुणावहम् ॥३॥ जिनेन्द्रपादपङ्कजोपजीवनाऽलिलालस:१४, सुशीलसाधुयातनाविधानकेलिसालसः । सुसम्पदं ददातु नो महीतलावभासिनी, स ब्रह्मशान्तिसेवकः प्रशस्यचारुहासिनीम् ॥४॥ १३. कर्मसमूहविनाशनेऽभीष्टः । १४. श्रद्धा । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवेम्बर १७ - श्रीकुन्थुनाथस्तुतिः (हरिणीछन्दः)17 जिनपदयुगं वन्दे मोहद्रुमप्रमयप्रधि, निरवधिगुणग्रामारामाद्रिजातटसन्निधिम् ।। शिवपुरपथप्रस्थानाश्वं व्यपोहितदुर्मति, प्रथिमशमथश्रीमत्कुन्थोः प्रसारितसन्मतिम् ॥१॥ जिनपरिवृढा गाढं गूढाध्वतः कलुषव्रजाऽपहतिचतुरा गोत्रोन्नत्यप्रथा प्रथनध्वजाः । मम विदधतां चेतःस्वास्थ्यं कषायहतात्मनः, शिवपदसुखे तेजःपुञ्जात्मका विवशात्मनः ॥२।। गणधरवरैर्यन्निष्पाद्यं तमोत्तरभास्कर, विगलितमदद्वेषोन्मादव्यलीककलाबलम् ।। भजत भविनो जैनं वाक्यं मरुत्तरुसत्फलम् ॥३॥* प्रवचनसुरः श्रीगन्धर्वस्तनोतु तनूमतां, नयनकुमुदानन्दी माद्यद्विवेकवचोवताम् । अतुलकुशलश्रेणी सम्यग्दृशामुपकारकः, पिशुनरसनादृग्दोषोत्थव्यथाऽर्णवतारकः ॥४॥ १८ - श्रीअरनाथस्तुतिः (हरिणीछन्द:18) भगवदरनाथं नौमीशं देवराजनतक्रम, विदुरनिकराराध्यं देवं निष्ठिताघभरभ्रमम् । दुरितदहनस्वाहाकान्तं श्लेशलेशविनाशकं, विमलचरणज्ञानाधारं शुद्धपन्थप्रकाशकम् ॥१॥ जिनपतिगणास्ते भूयासुः श्रेयसां ततिकारका, अवितथपथाख्यानप्रष्ठाः सारलक्षणधारकाः । १५. शस्त्रधारम् । *एक चरण तुटेल छे. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 अनुसन्धान ३४ समवसरणाद्योतन्नत्यश्रीदेवताव्रजसंस्तुताः, परमपदवीं सम्प्राप्ता ये माननीयजनाश्रिताः ॥२॥ वचनरचनासंश्लिष्टाशं ग्रामरामरागपवित्रितं, प्रणमत मनोऽभीष्टार्थाप्तिं भूरिपाठविचित्रितम् । . शमरससुधावाक्यं पूर्ण जीतनीतिनिरूपकं, गणभृदुहि(दि?)तं श्रीसिद्धान्तं ध्वान्तवैरिसरूपकम् ॥३॥ जिनपतिपादाम्भोजे भक्ता धारिणी तनुताच्छिवं, जिनमतजनासीष्टानादरासुकृतावहम् । सरलमनसां दत्ताधारा व्याधिरोधनकारिका, कलिमलभरभ्रान्तस्वान्तप्रान्तलोकनिकारिका ॥४॥ १९ - श्रीमल्लिनाथस्तुतिः ___ (मेघविस्फूर्जिताछन्दः)" जिनेन्द्रं निस्तन्द्रं दुरि[त] तिमिरापायनाशाब्जहस्तं, घटाढू श्रीमल्लिं भवजलधिवातापिवैरिप्रशस्तम् । वहामश्चैनोऽन्तर्विशदतरभावेन हावेन मुक्तं, पवित्रां चारित्रश्रियमनुभवन्तं परानन्दयुक्तम् ॥१॥ जिनेन्द्राः कुर्युस्ते सपदि भवनिस्तारमारप्रहीणाः, सुरेन्द्राद्यैर्वन्द्याः प्रचुरतरचित्तेजसोऽतिप्रवीणाः । महानन्दप्रोद्यत्परमसुखसम्प्राप्तपुण्यप्रकर्षा, दरिद्रोद्यन्मुद्राविघटनघनाघातजातानुतर्षाः ॥२॥ जिनेन्द्रास्योद्भूतं भवतु भवभीतिप्रतीघातनाय, पुनः स्पष्टो दृष्टोत्कटचरटसङ्घातसंशातनाय । अनेकार्थाकीर्णं गमशमरमालीढमाधारभूतं, जनानां सिद्धिश्रीकमलमपयादूतिसङ्केतदूतम् ॥३॥ जिनेन्द्रोपास्तौ या चतुरतरधीवैभवव्यासमत्ता, मुनिश्राद्धव्याधिप्रमयसमयस्थापितैकाग्रचित्ता । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवेम्बर विदध्यात्सङ्घस्यातुलकुशाल]सन्दोहमूर्जस्वला सा, प्रभाविद्युत्तारा धरणदयिता हस्तिविङ्ख्याविलासा ॥४॥ २० - श्रीमुनिसुव्रतस्वामिस्तुतिः (शोभाछन्दः)20 जिनाधीशं वन्दे कुशलनिपुणधारीगम्यरम्यस्वरूपं, नमन्नाकिश्रेणीमुकुटपतितमालासुपूज्यं सुरूपम् । सुरेन्द्रैस्संस्तुत्यं चरणकमलं लक्ष्माणमुन्निद्रनेत्रं, भवाम्भोधौ मज्जज्जननिकरतरी तुल्यमेनोऽरिजेत्रम् ॥१॥ क्रियासुस्ते सार्वाः परमपदपुरप्राप्तये प्राज्यवीर्य, जगदुर्जेयश्रीतनयमदविनाशाप्तशौर्याः सधीर्यम् ।। प्रमाणोपेतश्रीसमवसरणभूसंस्थिताः स्वान्तशान्ता, निराधाराधाराः शिशुतरुणजराजीर्णभावेऽपि कान्ताः ॥२॥ कृतान्तः सार्वीयः सुरतरुसदृशश्चिन्तितार्थप्रदाता, मनोवृत्तेर्भक्त्या परमशुचितयाऽऽराधितः शंधिधाता । ददातु प्रज्ञां मां गलितकलिमलांशूकसत्कृत्यतूर्णा, महारेकोद्रेकच्छिदुरविदुरतातत्परः पुण्यपूर्णाम् ॥३॥ जगत्स्वामिध्यानाचरणसततधीः सज्जनानां श्रिये स्तादतिज्योति:शाली वरुण इति सुरो यः सुराणां पुरस्तात् । अभद्राणां श्रेणीलवनजवने वैज्ञानिकत्वं दधानः, सदानन्दी दीनातिहरणचतुरः स्मेरकीतिप्रतानः. ॥४॥ - १६. प्रभोद्यज्झात्कारा इति वा पाठः । १७. नवहनसमं पातकामित्रजैत्रम् इति पाठान्तरम् । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 16 . अनुसन्धान ३४ २१ - श्रीनमिनाथस्तुतिः (चन्दनप्रकृतिच्छन्दः) जिनेशपावकध्यानाऽत्यमलतरमतिरभिनवगुताः, सदा नमे ! पदाम्भोजं तव शमविदलितकलुषकणः । भजामि विश्ववात्सल्यं चरमपरमपदसुखकरणं, भवाब्धिमग्नभव्यौघप्रवहणसदृशविहितशरणम् ॥१॥ दिशन्तु मां जिनाः सौख्यं कलिमलदलगलितकलं, व्यथाप्रथापथातीतामदमदनखलविदलितथलम् । समस्तवासवार्चाऽर्हाः शमसंयमनियमपरिकलिताः, प्रभूतलक्ष्मणाकीर्णाश्चलननलिननतजनफलिताः ॥२॥ जिनोदितं ममेष्टार्थं वितरतु यमशमगमललितं, प्रकामभाग्यसंस्कारप्रकटितशुभफलमुनिमिलितम् । विचारसारसम्भारप्रथनकथितसुकृतकलफलं, समग्रभावसूचाया अतिविदितविषज्ञधरणितलम् ॥३॥ सशासनोन्नतिप्रह्वो भृकुटिरिति विबुधजनविदितं, नमे(जिष्यतां प्राप्तः सततमिति यतिपतिनिगदितम् । करोतु तन्ममाधानं शिवसदनगमनरसिकजने, वरेण्यलक्षणोपेताभयदपदयुगलविधृतमने ॥४॥ २२ - श्रीनेमिनाथस्तुतिः (महास्रग्धराछन्दः)2 जिनपं भावेन वन्दे सुरनरमहितं मान(नि)नीसङ्गशून्यं, प्रहतक्रोधप्रतापं प्रमुदितमनसं ध्यानचित्तादशून्यम् । मथिताजन्यं प्रसन्नं विदलितमदनं शाश्वतश्रीनिदानं, सुकृताद्वैतप्रपन्नातिहरणविदुरं शङ्खलक्ष्मप्रधानम् ॥१॥ सकलार्थाः साधिता यैस्त्रिभुवनविनतास्तीर्थपाः सन्तु सिद्ध्यै, सतताभिप्रायविज्ञाः शमदमनिचिता ज्ञानसन्तानवृद्ध्यै । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवेम्बर ममतामिथ्यानिरस्ता अमितगुणमणीगन्धमातासमानाः, समतासीमन्तिनीशाः पदनतजनता प्रत्तरामानिधानाः ||२|| गणधारैर्भाषितं यद्गमनयबहुलं लङ्घनीयं न देवैधिषणावद्भिर्निषेव्यं त्रिभुवनविदितं संस्तुवे पूतहेवैः । अविसंवादिप्रमेयं रुचिरतरवचो वर्णनीयं प्रगल्भैरमितार्थं व्यर्थहेतुव्यपगमनिपुणं प्रस्फुरद्दिव्यवल्मैः (ल्भैः ? ) ॥३॥ विदधातु स्वर्निवासी प्रवचनवरिवस्याविधानाभिरूप:, सबल: सन्तापहर्त्ता विदुरनरचमत्कारकारिस्वरूपः । प्रबलारिष्टप्रहर्त्ता जिनमतसततोपासकप्राणभाजां, कुशलं गोमेधनामा करकृतनकुलाहिः स्फुरत्पुण्यभाजाम् ॥४॥ २३ - श्रीपार्श्वनाथस्तुतिः (वृन्दारकच्छन्दः) 23 जिनेशमभिनौमि तं दलितमोहमायान्धकारप्रचारं सदा, दिनेशसममुत्तमं निहतरागरोषादिदोषं युतं सम्पदा । सुरेशजनसंस्तुतं नृपतिलोकनम्रीकृतं पार्श्वनाथप्रभुं, महेशपदवीश्रितं कमठमानवज्जापितं लोकरक्षाविभुम् ॥१॥ समस्तजिनमण्डलं मम पुनातु विश्वत्रयीज्ञातसद्विस्तरं, कठोरवृजिनोच्चयक्षयकरं समश्वेतकल्याणकुप्रस्तरम् । विमुद्रवहनाम्बुजप्रमदकृतसुखं श्रेणीविश्राणनाकोविदं, विसारिगुणसञ्चयप्रसृतविश्वभावावबोधस्फुरत्संविदम् ॥२॥ जिनेन्द्रवचनामृतं मम लुनातु दुःखावलिं पातकान्तंकजां, प्रभूतजनिसञ्चितप्रबलदुष्टदोषप्रकर्षं रजस्सङ्गजाम् ॥ भवामयभरागदं चतुरचित्तचातुर्यदानप्रधानो (नौ) जसं, कृपाशमरसात्मकं कुमतकौशिकव्यूहहंसोल्लसत्तेजसम् ॥३॥ धिनोतु जनमानसं धरणराजनागेन्द्रपत्नी सुपद्मावती, विचारचतुराञ्चितं परमसुन्दराकारसद्रूपशोभावती । 117 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 अनुसन्धान ३४ प्रमोदपरिपूरिता जनितजैनलोकप्रकाण्डोल्लसत्सम्पदा, मनीषिजनतास्तुता विशदबुद्धिसंसिद्धिसर्वद्धिसिद्धिप्रदा ॥४॥ २४ - श्रीवर्द्धमानजिनस्तुतिः (विभ्रमगतिच्छन्दः)24 सिद्धार्थान्वयमण्डनं जिनपतिस्त्रैलोक्यचूडामणिजितपावकः, पञ्चास्याङ्कितभूघनो घनगभीरध्वानविस्तारयुगादघातकः । संसारार्णवसेतुबन्धसदृशः सिद्ध्यङ्गनासङ्गमी गतकन्दलः, जीयाद्यः कमनप्रतापहननस्थाणूपमप्राणभृच्छमशम्बलः ॥१॥ सर्वे सार्वचयाः सुपर्वनिचयाधीशप्रमोदस्तुताहितवाचकाः, चारित्रावसरापवर्जनकला दारिद्रविद्रावणोद्धृतयाचकाः । जीयासुः प्रतिकृष्टकर्मनिकरच्छेदोद्यता: पादपूतरसातलाः, प्रोन्मीलत्कमनीयकान्तिकलितास्तत्त्वार्थविद्भास्करप्रग्रहामलाः ॥२॥ यज्जैनेन्द्रवचः प्रभावभवनं दुर्वादिगर्वापहं जनपावनं, सेवे शान्तरसामृतोद्भवमहं पुण्याङ्कराोधरं शुभभावनम् । शुद्धाचारनिरूपणव्रतधनस्वर्गापवर्गप्रदं मतिमिश्रितं, सर्वात्मप्रतिपालनासु ललितं कुन्मानमायाहृति व्रतिसंश्रितम् ॥३॥ मातङ्गोऽर्हदुपासकः प्रकुरुतात् श्वःश्रेयसं प्राणिनां सुमनोवराः, श्रीसङ्घस्य कृपाकरो मुनिमनःश्रेणीसमुल्लासकः सुमनोहरः । मातङ्गोपरिसंस्थितो भुजयुगः श्यामः सकर्णावली नुतलक्षणः, सर्वप्राण्युपकारकारणकलासक्तः सुदृष्टिः सदाऽतिविचक्षणः ॥४॥ २५ - श्रीगौतमगणधरस्तुतिः ज्ञाततनूजाद्यान्तेवासी सकलचरित्रादिगुणनिधानं हितकर्ता, गौतमनामा दीव्यद्धामा विमलयशःकायवसुमतीपीठविहर्ता । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवेम्बर अक्षयमुख्याः सर्वाः सहल्लब्धय इह पृथ्वीविदिततरायास्तदमत्रं, मुख्यगणाधीशो धेयान्मां विपदपतन्तमतिपरिपूर्णः सुचरित्राम् ॥१॥ तीर्थकरास्ते भूयासुर्मां परमपदाप्त्यै सुरनरनूताः शमपूताः, केवलचिद्रूपालोकालोकितभुवना भोगविरतचित्ता भ्रमधूताः । पातकजातानेकासातप्रकरकुबाधाव्यथितजनानां रतिकाराः, सुरतपूर्त्या नेत्रानन्दप्रथनसुधीदीधितिसमयादाः समताराः ||२|| आगमवाक्यं साधु श्रेष्ठैर्विदुरजनानामुपकृतिहेतोरुपनीतं, बादरसूक्ष्मप्राणाजीवप्रमुखविचारव्रजभृतमध्यचरजीतम् । ज्ञानदयादानव्याख्यानाद्यनणुगुणाली ग्रथितसुशास्त्रं गतदोष, कर्णपुटाभ्यां यैरानिन्ये भविकनरास्ते शिवसुखमीयुः कृतजोषम् ||३|| शासनदेवा देव्यः सर्वा मुनिनिवहानामचलसुखं ते जिनभक्ता, ये हतदुष्टव्राताः कुर्युर्यमनियमाचारनयरतानां रसरक्ताः । पण्डितलक्ष्मीकल्लोलस्पर्शननिपुणा निर्मथितविकारा अतिशिष्टाः, स्वीकृतसन्धानिर्वाहा: सज्जनपरमानन्दपदनिदानाहितकष्टाः ॥४॥ 1 [ अथ स्तुतिकृतो नामनिर्देशकं वृत्तम्- ] एवं श्रीजिनपुङ्गवाः स्तुतिपथं नीताश्चतुर्विंशतिः, श्रीमद्वीरविनेयगौतमयुताः सद्वर्द्धमानाक्षरैः । वृत्तैर्निर्भरभक्तिसम्भृतमनोवृत्त्या मया काम्यया, मुक्तिस्त्रीपरिरम्भणस्य कमलाकल्लोलमेधाविना ॥१॥ इति श्रीप्रतिस्तुतेजिनसङ्ख्याप्रमाणवर्द्धमानाक्षरा अनुप्रासालङ्कारमय्यश्च श्रीगौतमगणधरस्तुतियुताश्चतुर्विंशत्यर्हतां स्तुतयः पूर्वाचार्यैरकृतपूर्वी विनोदमात्रतया मया कृतपूर्वी उ० श्री ५ श्रीहर्षकल्लोलप्रसादात् । 19 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 अनुसन्धान ३४ टिप्पणी : १. एकाक्षर छन्द का नाम है श्री । इसका लक्षण है - केवल गुरु - .इस छन्द का नाम श्री है । २. द्वयक्षर छन्द का नाम है स्त्री । - इसका लक्षण है - दो गुरु - ऽऽ इस छन्द का नाम गंगा है। अन्य छन्दोग्रन्थों में अत्युक्तं, नौ, स्त्री, पद्यम् और आशी नाम भी प्राप्त होते है। .. ३. यक्षर छन्द का नाम है नारी । इसका लक्षण है - ऽऽऽ इस छन्द के अन्य नाम मन्दारम्, नारी, श्यामांगी मिलता है । ४. चतुरक्षर छन्द का नाम है - सुमति । इसका लक्षण है - ।। 5, 5, सगण, गुरु । यह छन्द अप्रसिद्ध है। पञ्चाक्षर छन्द का नाम है - अभिमुखी । इसका लक्षण है - ।। ।,। 5, नगण, लघु, गुरु । यह छन्द भी अप्रसिद्ध है । ६. षडक्षर छन्द का नाम है - रमणा । इसका लक्षण है - ।। 5, ।। s, सगण, सगण । इसके अन्य नाम प्राप्त होते हैं - नलिनी, रमणी, कुमुदं । ७. सप्ताक्षर छन्द का नाम है - मधु । इसका लक्षण है - I, II, 5, नगण, नगण, गुरु । इसके अन्य नाम प्राप्त होते हैं - मधुमति, हरिविलसित, चपला, द्रुतगति, लटह । ८. अष्टाक्षर छन्द का नाम है - प्रमाणिका । इसका लक्षण है - 151, ऽ।ऽ, Is, जगण, रगण, लघु, गुरु । इसके अन्य नाम प्राप्त होते हैं - स्थिरः, मत्तचेष्टितं, बालगर्भिणी । नवाक्षर छन्द का नाम है - भद्रिका । इसका लक्षण है - SIS, II, ऽ।ऽ, रगण, नगण, रगण । १०. दशाक्षर छन्द का नाम है - ......... इसका लक्षण है - 555, 551, II, 5, मगण, तगण, नगण और गुरु । इस छन्द का नाम प्राप्त नहीं ११. एकादशाक्षर छन्द का नाम है - रोधक । इसका लक्षण है - I, ॥, 50, 55, नगण, भगण, भगण, यगण । यह छन्द भी अप्रसिद्ध Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवेम्बर १२. द्वादशाक्षर छन्द का नाम है तामरस । इसका लक्षण है - III, ISI, ISI, Iऽऽ, नगण, जगण, जगण, यगण । इसके अन्य नाम ललितपदा और कमलविलासिणी प्राप्त होते है । १३. त्रयोदशाक्षर छन्द का नाम है - प्रहर्षिणी । इसका लक्षण है - ऽऽऽ, III, Iऽ1, ऽ।ऽ, ऽ, मगण, नगण, जगण, रगण और गुरु । इसका भिन्न नाम - मयूरपिच्छम् प्राप्त होता है । १४. चतुर्दशाक्षर छन्द का नाम है लक्ष्मी है । इस छन्द का नाम लक्षण है - ऽऽऽ, 515, 551, गुरु | इसके अन्य नाम इस छन्द का प्रयोग भी १५. पञ्चदशाक्षर छन्द का नाम है। ऋषभ । लक्षण है 15, 151, 115, ॥5, Iऽऽ, सगण, जगण, सगण, सगण, यगण, इस क्वचित् ही होता है । छन्द का प्रयोग १६. षोडशाक्षर छन्द का नाम है पञ्चचामर । लक्षण है 21 551, 55, मगण, रगण, तगण, तगण, गुरु, चन्द्रशाला, बिम्बालक्ष्यम् प्राप्त होते है कम होता है । 1 151, 515, 151, 515, 151, 5, जगण, रगण, जगण, रगण, जगण, गुरु । १७. सप्तदशाक्षर छन्द का नाम है - हरिणी । लक्षण है- III, II, ऽऽऽ, 515, 115, 15, नगण, सगण, मगण, रगण, सगण, लघु, गुरु । इसके अन्य नाम वृषभचरित और वृषभललित । १८. अष्टदशाक्षर छन्द का नाम है हरिणीपदम् । लक्षण है III, ||S, ऽऽऽ, 551, 511, 515, नगण, सगण, मगण, तगण, भगण, रगण । इस छन्द का प्रयोग क्वचित् ही देखने में आता है १९. एकोनविंशत्यक्षर छन्द का नाम है - मेघविस्फूर्जिता । लक्षण है Iऽऽ, ऽऽऽ, 11, 115, 51, 51, 5, यगण, मगण, नगण, सगण, रगण, रगण, गुरु, गुरु । २१. एकविंशत्यक्षर छन्द का नाम है - चन्दन प्रकृति । लक्षण है. S15, S15, 551, III, III, III, 115, जगण, रगण, तगण, नगण, नगण, नगण, सगण । इस छन्द का भी क्वचित् ही प्रयोग होता है । २२. द्वाविंशत्यक्षर छन्द का नाम है - महास्त्रग्धरा । लक्षण है - IIS, SI, Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 अनुसन्धान ३४ ऽऽ।, , us, 55, 55, 5, सगण, तगण, तगण, नगण, सगण, रगण, रगण, गुरु । इसका प्रयोग भी क्वचित् ही होता है । त्रयोविंशल्यक्षर छन्द का नाम है - वृन्दारक । लक्षण है - 151, Is, ।ऽ।, 15, 155, Iss, Iऽऽ, Is, जगण, सगण, जगण, सगण, यगण, यगण, यगण, लघु, गुरु । इस छन्द का भी क्वचित् ही प्रयोग होता २४. चतुर्विंशत्यक्षर छन्द का नाम है - विभ्रमगति । लक्षण है - ऽऽऽ, ॥ऽ, ISI, IIS, 551, 551, 50, 55, मगण, सगण, जगण, सगण, तगण, तगण, भगण, रगण । इसका प्रयोग भी क्वचित् ही होता है । २५. पञ्चविंशत्यक्षर छन्द का नाम प्राप्त नहीं होता है । इसका लक्षण है - डा, ऽऽऽ, ऽऽऽ, II, Iऽऽ, 1, 5, 5 भगण, मगण, मगण, नगण, यगण, नगण, यगण, सगण, गुरु । प्रशस्ति पद्य के छन्द का नाम है - शार्दूलविक्रीडित । इसका लक्षण है - ऽऽऽ, ||s, ISI, ||s, ऽऽ।, 551, 5, मगण, सगण, जगण, सगण, तगण, तगण, गुरु । C/o. प्राकृत भारती अकादमी 13-ए, मेन मालवीय नगर जयपुर Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवेम्बर 23 श्रीगुणविजयरचिता जातिविवृतिः ॥ भूमिका सं. विजयशीलचन्द्रसूरि विक्रमना १४मा शतकमां थई गयेला मनाता, तर्कपण्डित शिवादित्ये वैशेषिकदर्शन- प्रतिपादन करतो 'सप्तपदार्थी' नामे ग्रन्थ रच्यो छे. तेना उपर १६मा शतकमां थयेला, दाक्षिणात्य पण्डित, माधवसरस्वती नामना विद्वान् यतीन्द्रे 'मितभाषिणी' नामनी टीकानी रचना करेल छे. आ टीकामां 'जाति' तरीके तर्कशास्त्रमा प्रसिद्ध एवा केटलाक धर्मोनां खास लक्षणो आपवामां आव्यां छे, जे अध्येताने समजवामां जराक कठिन पडे तेवां छे. तेवां १८ लक्षणो चुंटी काढीने तेनुं अर्थघटन तथा तेनुं पदकृत्य, आ 'जातिविवृति' मां करवामां आवेल छे. आनी सहायताथी अध्येताने ते कठिन लक्षणो एकदम सुगम थई पडे छे, तेमां शंका नथी. आजकाल, तर्कशास्त्रना अभ्यासमा प्रवेश करनार विद्यार्थीने जेम अन्नम्भट्टनो 'तर्कसंग्रह' शीखववामां आवे छे, तेम एक काळे आ 'सप्तपदार्थी'नुं अध्ययन करावातुं हशे तेम प्रतीत थाय छे. तेथी ज तेना पर अनेक टीका ओ थई होवानुं जोवा मळे छे, तो ते टीकागत कठिन पदार्थोना आ जातिविवृति जेवां सरलीकरण पण प्राप्त थाय छे. जातिविवृतिना रचयिता श्रीगुणविजयजी सत्तरमा शतकमां थयेला विद्वान् जैन मुनि छे. १६-१७मा शतकना जगप्रसिद्ध जैन सूरि श्रीहीरविजयसूरिनी शिष्यपरम्परामां थयेल उपाध्याय श्रीसुमतिविजय गणिना तेओ शिष्य हता. तेमणे आ विवृतिमां बे वार 'प्रशस्त(पाद)भाष्यना सन्दर्भ टांक्या छे ते जोतां, तेओ न्याय-वैशेषिक दर्शनना रसिक अने ऊंडा अभ्यासी होय तेम मानी शकाय. केटलांक स्थानो आमां एवां पण छे, जेमां विवृतिकारे मितभाषिणीकारनी क्षति प्रत्ये अंगुलिनिर्देश को होय. जेम के - परत्वत्व जाति,, अपरत्वत्व जाति,, द्रवत्व, तथा सितत्व- - आ बधां लक्षणोनुं विवरण जुओ. आमां एवां प्रत्ये अंग अपरत्वत्व वि Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 अनुसन्धान ३४ निजी संग्रहनी सात पत्रनी एक प्रतिना आधारे आ सम्पादन थयुं छे. प्रतिना प्रान्ते पुष्पिका आदि कशुं नथी, अने लखावट १७मा शतकनी तेमज पडिमात्रा-लिपिमां छे, तेथी अनुमान एम थाय छे के आ प्रति कर्ताना स्वहस्ते ज लखाई हशे. ग्रन्थ समजवामां सुगमता पडे ते खातर, प्रान्ते टिप्पणीरूपे, जे १८ लक्षणोनी आ विवृत्ति छे ते १८ लक्षणो पण मूक्यां छे. मो.द. देसाईए पोताना ग्रन्थ 'जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास'मां पृ. ५९० पर (पारा ८६७) एवी नोंध करी छे के "हीरविजयसूरिराज्ये त०सुमतिविजय शि० गुणविजये मितभाषिणी (नामनी) जातिविवृति रची, तेमां कर्ता पोताना विद्यागुरु तरीके सूरचन्द्र जणावे छे." आ नोंधमां आटली स्पष्टता करवी जोईए : "मितभाषिणी नामनी वृत्ति नहि, पण मितभाषिणी वृत्ति उपर विवृति रची." जातिविवृतिनुं मेटर तैयार थया पछी अचानक मांडवी (कच्छ) ना खरतरगच्छसंघना ज्ञान भण्डारमाथी तेनी एक प्रति छे, तेनी झे. कॉपी मळी आवी. पांच पत्रनी आ प्रति अनुमानतः १८मा शतकनी लागे छे. अशुद्धिओ घणी होवा छतां तेमां केटलाक पाठो वधु सारा जणाया छे. पाठान्तरो तेनां नोंधीने पाछळ आवेल छे. आ नकल आपवा बदल मांडवी खरतरगच्छ जैन संघना कार्यवाहकोनो आभारी छु. श्रीगुणविजयकृता जातिविवृतिः ॥ ग्रन्थः १ श्रीगुरुभ्यो नमः ॥ श्रीमहावीरमर्हन्तं प्रणिपत्य विधीयते । विवृतिर्मितभाषिण्यां जातिलक्षणगोचरा ॥१॥२ आत्मवृत्त्येत्यादि । आत्मनि वृत्तिर्येषां ते तथा, बुद्ध्यादयो गुणा Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवेम्बर 25 इत्यर्थः । तेषु नास्ति वृत्तिर्यस्याः सा तथा । आत्मनि वृत्तिर्यस्य स तथा, स चाऽसावत्यन्ताभावश्च, तस्याऽप्रतियोगिनी, तत्रैव तस्या वर्तमानत्वात् । नहि यद् यत्र वर्तते तत् तदधिकरणात्यन्ताभावप्रतियोगि स्यादिति द्रव्यत्वादन्या सा तादृग् । ततश्च विशेषणानां त्रयस्यापि जात्या सह कर्मधारय इति ।। अथ विशेषणानां अतिव्याप्त्यादिलक्षणदोषविनिवारकत्वेन साफल्यं दर्श्यते । तत्र 'जातिरात्मत्वं' इत्युक्ते द्रव्यत्वेऽतिव्याप्तिः, अत उक्तं द्रव्यत्वान्येति । तथा च मनस्त्वादावतिव्याप्तिः, अत आत्मवृत्त्येत्यादि । एवमपि सत्तायामतिव्याप्तिस्तत आत्मेत्याधुक्तम् । ५आत्मगुणोप(पा)दाने सत्तादावव्याप्तिस्तत आद्यं, प्रथम-तृतीयविशेषणोपादाने च कर्मत्वादावतिप्रसङ्गस्ततो द्वितीयविशेषणाङ्गीकार इत्यात्मत्वलक्षणम् ॥१॥ गगनेत्यादि । गगने नास्ति वृत्तिर्यस्याः सा । तथा स्पर्शवत्, तस्याऽत्यन्ताभावस्तस्याऽधिकरणं सर्वदा स्पर्शशून्यमित्यर्थः । तादृशेष क्रियावति वृत्तिर्यस्याः सा तथोक्ता । एतच्च वृत्त्यन्तं विशेषणद्वयं जातेरिति तथैव समास इति । तत्र 'जातिर्मनस्त्वं' इत्युक्ते आत्मत्वादावतिव्याप्तिः, अतः क्रियावद्वत्तीति। तथापि वायुत्वादावतिव्याप्तिः, अतः स्पर्शवत्त्वेत्यादि । सत्तादावतिव्याप्तिव्यवच्छेदार्थं गगनावृत्तीति । गगनावृत्ति जातिम(म)नस्त्वमित्युक्ते वायुत्वादावतिव्याप्तिस्ततः स्पर्शवत्त्वेत्यादि । तथा च कर्मत्वादावतिव्याप्तिरतः क्रियावदिति- मनस्त्वलक्षणम् ॥२॥ रसावृत्तीत्यादि । रसे नास्ति वृत्तिरस्याः सा । तथा तैजसं च तदि[न्द्रि]यं च तैजसेन्द्रियं, चक्षुरित्यर्थः । तदेव तन्मात्रम् । तेन ग्राह्यः, स चाऽसौ गुणश्च । तत्र वृत्तिरस्याः सा । तथा तदनु वृत्त्यन्तविशेषणद्वयेन कर्मधारय इति । तत्र जाती रूपत्वमित्युक्ते द्रव्यत्वादावतिव्याप्तिः, तदपोहार्थं गुणवृत्तीति । तथा च धर्मत्वादावतिव्याप्तिः, इति इन्द्रियग्राह्येति गुणविशेषणम् । तथापि स्पर्श-त्वादावतिव्याप्तिः, अतस्तैजसेतीन्द्रियविशेषणम् । संयोगत्वादावतिव्याप्तिव्यपोहाय मात्रान्तं तैजसेन्द्रियपदम् । तस्मिन्नपि सकलपदकदम्बके प्रतिपाद्यमाने सत्ता-गुणत्वादावतिव्याप्तिः, अतो रसावृत्तीति । रसावृत्ती रूपत्वमित्युक्ते द्रव्यत्वादावतिव्याप्तिः, ततो जातिरिति । तथा चात्मत्वादावतिव्याप्तिः, तदर्थं तैजसेन्द्रियमात्रग्राह्येति । रसावृत्ति-तैजसेन्द्रियमात्रग्राह्यवृत्ती(त्ति)जाती रूपत्व Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ३४ मित्युक्ते तैजस्त्वादावतिव्याप्तिः, तस्यापि तैजसेन्द्रियमात्रग्राह्यप्रदीपप्रभादिद्रव्यवृत्तित्वात्, रसावृत्तित्वाच्च । ततो गुणपदम् । तैजसेन्द्रियमात्रग्राह्यजाती रूपत्वमित्युक्ते नीलत्वादावतिव्याप्तिः, अतो गुणत्वसाक्षाद्व्याप्यत्वे सतीति द्रष्टव्यम्। अन्यथा सकलपदसङ्ग्रहेऽपि लक्षणे तत्राऽतिव्याप्तिस्तदवस्थैवेति रूपत्वलक्षणम् ॥३॥ . रूपावृत्तीत्यादि । रूपे नास्ति वृत्तिर्यस्याः सा तथोक्ता । जलस्य जलमयं वा इन्द्रियं जलेन्द्रियं-जिह्वा, तेन ग्राह्यः, स चाऽसौ गुणश्च, तत्र वृत्तिरस्या इति तथा । ततः पूर्ववदेवेति । तत्र जातिः रसत्वमित्युक्ते द्रव्यत्वादावतिव्याप्तिः, अतो गुणवृत्तीति । तावत्युक्ते धर्मत्वादावतिव्याप्तिः, तत इन्द्रियग्राह्येति गुणविशेषणम् । तथा च गन्धत्वादावतिव्याप्तिः, इत्यतो जलेति। इयत्युक्तेऽपि सत्तादावतिव्याप्तिः, तन्निवृत्त्यर्थं रूपावृत्तीति । अथ रूपावृत्तीत्युक्ते आत्मादावतिव्याप्तिः, अतो जातिरित्युक्तम् । तथा च कर्मत्वादावतिव्याप्तिः, ततो जलेन्द्रियग्राह्येति । तथा च मधुरत्वादावतिव्याप्तिः, अतो गुणत्वावान्तरत्वे सतीति बोद्धव्यम् । अन्यथा समग्रलक्षणेऽपि तत्प्रसङ्गादिति । जलेन्द्रियग्राह्यजाती रसत्वमित्युक्ते सत्ता-गुणत्वादावतिव्याप्तिः, तदर्थमाद्यविशेषणम् । गुणवृत्तीतिपदं च स्पष्टार्थमिति रसत्वलक्षणम् ॥४॥ पार्थिवेन्द्रियेत्यादि । पृथिव्या विकार: पार्थिवं पृथिवीद्रव्यनिःपन्नमित्यर्थः । पार्थिवं च तदिन्द्रियं च तथा, नासिकेत्यर्थः । तेन ग्राह्यः, स चाऽसौ गुणश्च, तत्र वृत्तिर्यस्याः सा तादृक् ।१० ततो वृत्त्यन्तविशेषणद्वयेन प्राग्वद् विग्रह इति । तत्र जातिर्गन्धत्वमित्युक्ते स्पर्शत्वादावतिव्याप्तिः, अतः स्पर्शावृत्तीति । तथा च द्रव्यत्वादावतिव्याप्तिः, ततो गुणवृत्तीति । तथा च धर्मत्वादावतिव्याप्तिः, तदर्थमिन्द्रियग्राह्येति गुणविशेषणम् । तावत्युक्तेऽपि रूपत्वादावतिप्रसङ्गः, तदपोहार्थं पार्थिवेतीन्द्रियविशेषणम् । पार्थिवं गन्धत्वमित्युक्ते चाऽसम्भवः, अतो जातिरिति । तथा१२ सामानाधिकरण्येऽसम्भवः, वैयधिकरण्ये च घटत्वादावतिव्याप्तिः, तदपोहार्थमिन्द्रियग्राह्येति । तथा च सत्तादावतिव्याप्तिः, अत उक्तं स्पर्शावृत्तीति । तावत्युक्ते न कोऽपि दोषस्तथापि गुणवृत्तीति पदं स्पष्टार्थमिति सम्भाव्यते । सुरभित्वादावतिव्याप्तिव्यपोहार्थं गुणत्वावान्तरत्वे सतीति द्रष्टव्यमिति गन्धैत्वलक्षणम् ।।५।। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवेम्बर 27 रूपत्वेत्यादि । रूपत्वमेव लक्षणं स्वरूपं यस्य तत्तथा । तच्च तदवच्छेदकं १३, तेनाऽवच्छिन्नं विशिष्टम् । एतावता रूपमित्यर्थः । तथाभूतविशेषणस्याऽन्या(?)धिकरणकत्वाभावात् तस्याऽत्यन्ताभावः, तस्याधिकरणं सदापि रूपरहितमिति भावः । विभुत्वस्य सकलमूर्त्तद्रव्यसंयोगित्वस्याऽनधिकरणं मूर्तमित्यर्थः । तादृशे द्रव्ये वृत्तिरस्येति तथा । विशेष्यति(ते)द्रव्यमनेनेति विशेषः, स चाऽसौ गुणश्च, तादृक् चाऽसौ विशेषगुणश्चेति विग्रहः । तत्र वत्तिर्यस्याः सा तथा । अवान्तरे वर्तमाना जातिरवान्तरजातिः । गुणत्वस्याऽवान्तरजातिः सा तथा । गुणत्वस्य साक्षाद्व्याप्यजातिरित्यभिसन्धिः । ततश्च वृत्त्यन्तविशेषणेन कर्मधारय इति । तत्र जातिः स्पर्शत्वमित्युक्ते सत्तायामतिव्याप्तिः, ततोऽवान्तरेति । तथा च द्रव्यत्वेऽतिप्रसङ्गः, ततो गुणत्वेप्ति । तावत्युक्ते संयोगत्वादावतिव्याप्तिः, तत उक्तं विशेषगुणवृत्तीति । तावत्युक्ते शब्दत्वादावतिव्याप्तिः, ततो वक्ति विभुत्वेत्यादि । तथा च रूपत्वादावतिव्यापकता, तस्यापि विभुत्वाऽनधिकरण घटादिद्रव्यवृत्तिविशेषगुणवृत्तित्वाद् गुणत्वावान्तरजातित्वाच्चेत्युक्तं रूपत्वेत्यादि । गुणवृत्त्यन्ते च लक्षणे कृते गुणत्वादावतिव्याप्तिः, तन्निवृत्त्यर्थमुक्तं गुणत्वेत्यादीति । विभुत्वानधिकरणेति द्रव्यविशेषणव्यतिरेके च सुखत्वादावतिव्याप्तिः, तदर्थं तदुपादानम् । विशेषपदाभावे च संयोगत्वादावतिव्याप्तिः, तदपोहाय तदुपादानम्। विशेषान्ते च लक्षणे कृतेऽसम्भवः, तदपोहार्थं विशेषपदस्य गुणविशेषणोणार्थं गुणत्वेत्यादीति । इति स्पर्शत्वलक्षणम् ॥६॥ गगनेत्यादि । गगने समवेतो यः सामान्यगुणः, तत्र वृत्तिर्यस्याः सा तथा । द्वयोस्तिष्टतीति द्विष्टः, स चासौ गुणश्च संयोगादिलक्षणः, तन्मात्रेसर्वस्मिन्नपि द्विष्टगुणे नास्ति वृत्तिर्यस्याः सा तथा । परिमाणं च पृथक्त्वं च तयोः तिष्टा-स्थितिर्यस्य स तथा । स चाऽसावत्यन्ताभावश्च, तस्य प्रतियोगिनी, तद्भावस्तत्ता, सैवाऽवच्छेदकं, तेनाऽवच्छिना गुणत्वस्य साक्षाद्वयाप्या चाऽसौ जातिश्च । जातौ व्याप्यत्वं च स्वसमानाधिकरणजातिसमानाधिकरणात्यन्ताभावप्रतियोगिजातित्वमिति । तथा च विशेषणचतुष्टयेन समानाधिकरणसमास इति । तत्र जाति: संख्यात्वमित्युक्ते सत्तायामतिव्याप्तिः, अतो व्याप्येति । तावत्युक्तेऽपि द्रव्यत्वादावतिप्रसङ्गः, तद्व्यवच्छेदकृते गुणत्वेति । तथा Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ३४ चैकत्वादावतिव्याप्तिः, ततो गुणत्वपुरःसरं साक्षादिति पदम् । इयत्युक्ते च परिमाणत्वादावतिव्याप्तिः, अत: परिमाणेत्याद्यवच्छिन्नान्तं जातिविशेषणम् । तथापि संयोगत्वादावतिव्याप्तिः, अतो द्विष्टेत्यादि । विभागत्वादावतिव्याप्तिव्यपोहार्थं मात्रेति । तावत्युक्तेऽपि रूपत्वादावतिव्याप्तिः, अतः सामान्येत्यादि । तथा च गुरुत्वादावतिव्याप्तिः, अत उक्तं गगनेत्यादि । गगनसमवेतगुणवृत्तिजाति: संख्यात्वमित्युक्ते शब्दत्वेऽतिव्याप्तिः, अत: सामान्येति । तथा च संयोगत्वादावतिव्याप्तिः, तदपोहार्थं द्विष्टेत्यादि । तथा च परिमाणत्वादावतिव्याप्तिः, ततः परिमाणेत्यादि । एवमपि एकत्वादावतिप्रसङ्गः ततः प्रोक्तं गुणत्वसाक्षाद्व्याप्येति । द्वितीय - चतुर्थविशेषणोपादाने च परिमाणत्वादावतिव्याप्ति:, अतस्तृतीयविशेषणोपादानम् । शब्दत्वादावतिव्याप्तिव्यपोहार्थंमाद्यं विशेषणम् । गगनसमवेतगुणत्वसाक्षाद्व्याप्यजातिरित्युक्ते चाऽसम्भवः, तदपोहाय सामान्यगुणवृत्तीति । शेषं स्वयमेवोऽभ्यूह्यमिति संख्यात्वलक्षणम् ॥७॥ 28 संख्यासमवायीत्यादि । संख्या असमवायि कारणं यस्य स तादृक् । तत्र वृत्तिर्यस्याः सा तथा । अपेक्षाबुद्धिरसाधारणं कारणं यस्य स तथा । एतावता परत्वाऽपरत्वं-द्वित्व - द्विपृथक्त्वादयो गुणास्तथारूपा लभ्यन्ते । तथा च प्रशस्त भाष्यं परत्वाऽपरत्व-द्वित्व-द्विपृथक्त्वादयो बुद्ध्यपेक्षा इति ॥ तत्र नास्ति वृत्तिर्यस्याः सा तथा, गुणत्वस्य साक्षाद्व्याप्या, ततो विशेषणत्रयस्य जात्या सह कर्मधारय इति । यद्वा साक्षाद्व्याप्या चासौ जातिश्चेति, ततो गुणत्वपदेन सम्बन्धवाचकविभक्त्यन्तेन समासः । ततः प्राचीनविशेषणद्वयेन कर्मधारय इति । तत्र जाति [ : ] परिमाणत्वमित्युक्ते सत्तायामतिव्याप्तिः, अतो व्याप्येति । घटत्वादावतिव्याप्तिभङ्गाय गुणत्वेति । तथा च नीलत्वादावतिव्याप्तिः, तदपोहाय साक्षादिति । तथा च परत्वादावतिव्याप्तिः, ततोऽपेक्षेत्यादि । तथा च रूपत्वादावतिव्याप्तिः, तदर्थमुक्तं संख्येत्यादीति । संख्यासमवायिकारणकवृत्तिः जाति: परिमाण[त्व]मित्युक्ते संख्यात्वादावतिव्याप्तिः, तस्याप्येकत्वसंख्यासमवायिकारणकद्वित्वादिगुणवृत्तिजातित्वात्, अत उक्तमपेक्षेत्यादि । तावत्युक्तेऽप्यणुत्वादावतिव्याप्तिः, अतो गुणत्वेत्यादि प्रत्यपादि । द्वितीयविशेषणमात्रोपादाने रूपत्वा[दा]वतिव्याप्ति:, अतः प्रथमं तदुपादानम् । शेषं पूर्ववत् । आद्यान्त्य Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवेम्बर 29 विशेषणोपादानं१८ च संख्यात्वादावेवाऽतिव्याप्तिस्तन्निवृत्त्यर्थं शेषविशेषणोपादानमिति परिमाणत्वलक्षणम् ॥८॥ अपेक्षेत्यादि । अपेक्षाबुद्धिरसाधारणकारणं यस्य स तथा । एतावता एतादृशो गुणस्स कश्चित् तत्र वृत्तिरस्याः सा तथा । समयः कालस्तत्र वृत्तिर्यस्य स तथा । स चाऽसौ गुणश्च, तत्र वृत्तिर्यस्य स तथा, स चाऽसावत्यन्ताभावश्च, तस्याऽप्रतियोगिनी कालसमवेत->गुणवृत्तिरित्यर्थः । संख्यायां नास्ति वृत्तिर्यस्याः सा तथा । तत: पूर्ववत् समास इति । तत्र जाति: पृथक्त्वमित्युक्ते संख्यात्वादावतिव्याप्तिः, अतः संख्यावृत्तीति । तावत्युक्ते च द्रव्यत्वादावतिव्याप्तिः, अत उक्तं गुणेत्यादि । तावत्युक्तेऽपि रूपत्वादावतिव्याप्तिः, ततः समयवृत्तीति-गुणविशेषणम् । तथा च परिमाणत्वा-दावतिप्रसङ्गः, ततः प्रोक्तमपेक्षेत्यादि । अपेक्षाबुद्ध्यसाधारणकारणवृत्तिजाति: पृथक्त्वमित्युक्ते परत्वादावतिव्याप्तिः, अतः समयेत्यादि । तथापि संख्यात्वेऽति-व्याप्तिरत: संख्याऽवृत्तीति । शेषमुत्तानार्थमिति पृथक्त्वलक्षणम् ॥९॥ द्रव्याऽसमवायीत्यादि । द्रव्यस्याऽसमवायिकारणं यो गुणस्तत्र वृत्तिर्यस्य स तादृक्षः, स चासौ अत्यन्ताभावश्च, तस्याऽप्रतियोगिनी द्रव्यसमवायिकारणगुणे वर्तमानेत्यर्थः । गुणत्वस्याऽवान्तरजातिरिति । तत्र जाति: संयोगत्वमित्युक्ते सत्तायामतिव्याप्ति:, इत्युक्तमवान्तरेति । तथा च द्रव्यत्वेऽतिव्याप्तिः, अतो गुणत्वेति । तथा च रूपत्वादावतिव्याप्तिः, अतो द्रव्यत्वेत्यादि । आद्यविशेषणोपादाने सत्तादावतिव्याप्तिः, तदपाकृतये गुणत्वेत्याधुक्तमिति संयोगत्वलक्षणम् ॥१०॥ क्रियेत्यादि । क्रिया-कर्म असमवायिकारणं यस्य स तथा । तथा च प्रशस्तपादभाष्यं - संयोग-विभाग वेगा: कर्मजा इति ॥ द्वयोस्तिष्टतीति द्विष्टः । ततो विशेषणद्वये गुणपदेन कर्मधारयः । तादृशे गुणे वृत्तिर्यस्याः सा तथा । संयोगे नास्ति वृत्तिर्यस्याः सा तथा । गुणत्वस्य साक्षाव्याप्यजातिरिति व्याख्या(प्या)न्तविशेषणेन पूर्वं समासे कृते वृत्त्यन्तविशेषणद्वयेन ततः कर्मधारय एव कार्य इति । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 अनुसन्धान ३४ तत्र जाति [ : ] विभागत्वमित्युक्ते सत्तायामतिव्याप्ति:, अतो व्याप्येति । तावतापि द्रव्यत्वादावतिप्रसङ्गः ततो गुणत्वेति । नीलत्वादावतिव्याप्तिव्यपोहाय साक्षादिति । संयोगत्वादावतिव्याप्तिव्यवच्छेदे (दाय) संयोगावृत्तीति । रूपत्वादावतिव्याप्तिभङ्गाय द्विष्टेत्यादि । तावत्युक्तेऽपि पृथक्त्वादावतिव्याप्तिः, तस्याऽप्यनेकाश्रितद्विपृथक्त्ववृत्तित्वात् इत्यतः क्रियेत्यादि । क्रियाऽसमवायिकारणकगुणवृत्तिजातिर्विभागत्वमित्युक्ते च संस्कारत्वेऽतिव्याप्तिः, अतो द्विष्टेति गुणविशेषणम् । तावत्पदोपादाने च संयोगत्वेऽतिव्याप्तिस्तदवस्थैव तत: संयोगाऽवृत्तीति । तावति लक्षणे कृते च सत्तायामतिव्याप्तिः, ततो गुणत्वव्याप्येति । विभागत्वावान्तरजातेर्विभागत्वात्मकत्वव्यवच्छेदार्थं साक्षादिति । शेषं स्वयमेव बोध्यमिति विभागत्वलक्षणम् ॥११॥ " अपरत्वेत्यादि । अपरत्वरूपे गुणे नास्ति वृत्तिर्यस्याः सा यथा । सकलश्चासौ परत्वगुणश्च तत्र वृत्तिरस्याः सा तथा । ततो वृत्त्यन्तविशेषणद्वयेन स एव समास इति । तत्र जातिः परत्वमित्युक्ते द्रव्यत्वादावतिव्याप्तिः, अतो गुणवृत्तीति । रूपत्वादावतिव्याप्तिव्यपोहाय परत्वेति । ज्येष्टत्वादावतिव्याप्तिव्यपोहाय सकलेति । अत्र 'सकल' पदव्यवच्छेद्यं सम्यग् नावबोध्यत इति ध्येयम् । इति परत्वैलक्षणम् ॥१२॥ परत्वेत्यादि । परत्वे नास्ति वृत्तिर्यस्याः सा तथा । सकले अपरत्वे वृत्तिरस्या इति तथा । ततः प्राग्वत् । तत्र जातिरपरत्वमित्युक्ते रूपत्वादावतिव्याप्तिः, तदर्थमपरत्वेत्यादि । कनिष्टत्वादावतिव्याप्तिव्यपनुदे सकलेति । सत्तादावतिव्याप्तिभङ्गाय परत्वावृत्तीति । आद्यविशेषणोपादाने च संयोगत्वादावतिव्याप्तिः, तदर्थं द्वितीयविशेषणोपादानम् । अत्रापि 'सकल' पदं चिन्त्यं पूर्ववदेवेति अपरत्वैलक्षणम् ॥१३॥ सुखावृत्तीत्यादि । सुखे नास्ति वृत्तिः - समवायो यस्याः सा तथा । सकलाश्च ता बुद्धयश्चाऽनुभव-स्मृतिप्रभृतिभेदभिन्नाः, तत्र वृत्तिर्यस्याः सा तथा, ततः प्रागिवेति । तत्र जातिर्बुद्धित्वमित्युक्ते द्रव्यत्वादावतिव्याप्ति:, अतो बुद्धिवृत्तीति । तथा च प्रमात्वादावतिव्याप्तिः, अतः सकलेति । तथा च सत्ता-गुणत्वादावतिव्याप्तिः, तदपोहाय सुखावृत्तीति । द्वितीयविशेषणव्यतिरेकेण१२ च लक्षणे कर्मत्वादावतिव्याप्तिः, तन्निवृत्त्यर्थं सकलेत्यादि । बुद्धिपदाभावे Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवेम्बर चाऽसम्भवः, ततस्तदङ्गीकारः, इति बुद्धिलक्षणम् ॥१४॥ रूपवद्वत्तीत्यादि । रूपवती(ति)वृत्तिर्यस्याः २३सा तथा । गगने नास्ति वृत्तिर्यस्य स तथा । अपेक्षाबुद्ध्या अजन्यः । एतद्विशेषणत्रयविशिष्टे सामान्यगुणे वृत्तिर्यस्याः सा तथेति जातिविशेषणम् । गुरुत्वादन्या गुणत्वस्याऽवान्तरा चेति विशेषणद्वयं च जाति(ते)रेवेति । तत्र जातिः द्रवत्वमित्युक्ते सत्तायामतिव्याप्तिः, अतोऽवान्तरेति । तावत्युक्ते च द्रव्यत्वादावतिप्रसङ्गः, ततो गुणत्वेति । गुरुत्वे चाऽतिव्याप्तिव्यवच्छेदाय गुरुत्वान्येति । रूपत्वादावतिव्याप्तिभङ्गाय सामान्यगुणवृत्तीति । संख्यात्वादावतिव्याप्तिनिरसनाय अपेक्षाबुद्धयजन्येति गुणविशेषणम्। तावत्यभिहिते च संयोगत्वादावतिव्याप्तिः, ततो गानाऽवृत्तीति। रूपवद्वृत्तीति विशेषणं च व्यवच्छेद्याभावेन व्यर्थमिव प्रतिभातीति चिन्त्यम् । अत्राऽऽह कश्चित्, गगनेत्यादिलक्षणे कृते संस्कारत्वजातावतिव्याप्तिः, वेगस्य गगनाऽवृत्त्यपेक्षाबुद्धयजन्यसामान्यगुणत्वात्, गुरुत्वान्यगुणत्वाऽवान्तर जातित्वाच्च संस्कारत्वस्येति, तद्व्यवच्छेदार्थं रूपवद्वत्तीतिविशेषणम् ॥२४ तदयुक्तम् । वेगस्यापि रूपवद्वृत्तित्वेनाऽतिव्याप्तेस्तदवस्थत्वात् । न च रूपवद्वृतिपदस्य रूपवन्मात्रवृत्तित्ववाचकत्वेन विवक्षित्वात्, वेगस्य च तन्मात्रवृत्तित्वाभावात् तद्वृत्तिविशेषणोपादानात् तत्राऽतिव्याप्तेः परिहार इति वाच्यम् । तदा गगनाऽवृत्तीति विशेषणस्य वैयर्थ्यापातात्, रूपवन्मात्रविशेषणेनैव तस्य चरितार्थत्वादित्यलं प्रसङ्गेनेति । गगनावृत्ति-जातिव्य(व)त्वमित्युक्ते च परत्वादावतिव्याप्तिः, तदन्तकृते अपेक्षाबुद्धयजन्येति । तावत्युक्ते च मनस्त्वादावतिव्याप्तिः, अतः सामान्येत्यादि । गुणव्यतिरेके लक्षणे त्वसम्भवः, तन्निवृत्त्यर्थं गुणेति । सामान्यपदं सुखत्वादावतिव्याप्तिनिरासार्थम् । गुरुत्वजातावतिव्याप्तिव्यपोहाय गुरुत्वान्येति । तावति कृते च सत्तादावतिव्याप्तिव्यवच्छेदाय गुणत्वावान्तरेति । शेष सुगमम् । इति द्रवत्वलक्षणम् ॥१५॥ गगनवृत्तीत्यादि । गगने वृत्तिर्यस्य स तथा । एतादृशो यो विशेषगुणस्तत्र वृत्तिरस्याः सा तथा । रूपे नास्ति वृत्तिर्यस्याः सा तथा । एतद्विशेषणद्वयविशिष्टा जातिः शब्दत्वमित्यर्थः ॥ तत्र जातिः शब्दत्वमित्युक्ते सत्तादावतिव्याप्तिः, तन्निवृत्त्यर्थं रूपाऽवृत्तीति । कर्मत्वादावतिव्याप्तिव्यवच्छेदार्थं गुणवृत्तीति । तथा च संयोगत्वादावतिव्याप्तिव्यवच्छेदाय विशेषेति । तथा च Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ३४ सुखत्वादावतिव्याप्तिः, तदपास्त्यै गगनवृत्तीति । आद्यविशेषणोपादाने च, सामानाधिकरण्ये, द्रव्यत्वादावतिव्याप्तिः, वैयधिकरण्ये च सत्तादावतिव्याप्तिः, ततो विशेषेति । तथा चाऽसम्भवः, तव्यावृत्त्यर्थं गुणवृत्तीति । सत्तादावतिव्याप्तिव्यवच्छेदकृते रूपावृत्तीति । शेषं .२५सुगमम् । इति शब्दत्वलक्षणम् ॥१६॥ ऊर्ध्वदेशेत्यादि । ऊर्ध्वदेशेन यः क्रियावतो द्रव्यस्य संयोगस्तस्य हेतु:-कारणं या क्रिया-कर्म, तत्र वृत्तिरस्याः सा तथा । तादृशी कर्मत्वस्याऽवान्तरजातिरुत्क्षेपणत्वमित्यर्थः । तत्र जातिरुत्क्षेपणत्वमित्युक्ते सत्तार्दीवतिव्याप्तिः, अतोऽवान्तरेति । तथा च द्रव्यत्वादावतिव्याप्तिः, ततः कर्मत्वेति । अपक्षेपणत्वादावतिव्याप्तिव्यवच्छेदार्थं ऊर्ध्वदेशेत्यादि निगदितम् । कर्मत्वपदाभावे च कर्मत्वादावतिप्रसङ्गः, तद्भङ्गाय कर्मत्वेति । अवान्तरपदाभावे च, वैयधिकरण्ये चाऽसम्भवः, सामानाधिकरण्ये तु कर्मत्वजातावतिव्याप्तिः, अतस्तदुपादानम् । पुनरसम्भवव्यवच्छित्त्यै क्रियावृत्तीति । कर्मत्वावान्तर-विशेषणव्यतिरेके च सत्तादावतिव्याप्तिः, अतस्तदादानम् । शेषं सुगमम् । इति उत्क्षेपणत्वलक्षणम्” ॥१७॥ कपिलावृत्तीत्यादि । कपिले नास्ति वृत्तिर्यस्याः सा तथा । सकलसितेषु रूपेषु वृत्तिर्यस्याः सा तथा । ईदृशी रूपत्वस्याऽवान्तरजातिः सितत्वमित्यर्थः ॥ तत्र जातिः सितत्वमित्युक्ते सत्तायामतिव्याप्तिः, अतोऽवान्तरेति । तावत्युक्ते च द्रव्यत्वादावतिप्रसङ्गः, तदपोहकृते रूपत्वेति । नीलत्वादावतिव्याप्तिनिरासाय सितवृत्तीति । शुक्लतरत्वादौ प्रसङ्गवारणाय सकलेति । कपिलाऽवृत्तीति पदं तु व्यर्थमिव प्रतिभाति, व्यवच्छेद्याभावात् । तत्पदाङ्गीकरणे च रूपत्वाऽवान्तरेतिपदस्य वैयर्थ्यापातादिति हृद्यवधार्यमेवाऽऽर्यवयः । सकलसितवृत्तिजाति: सितत्वमित्युक्ते पुनः सत्ता-गुणत्वादावतिव्याप्तिः, इत्यतो रूपत्वावान्तरेति । रूपत्वपदाभावे तु रूपत्वादावतिव्याप्तिः, अतस्तदङ्गीकारः । अवान्तरपदव्यतिरेके च लक्षणे प्राग्वदवबोध्यमिति । शेषं तु सुगमं स्वयमेव ज्ञेयमिति सितत्वलक्षणम् ॥१८॥ सत्तर्कयुक्त्युत्कटसिंहनादः, कुवादिदुर्दन्तिघटासु सिंहः । श्रीसूरचन्द्रः स मदीयविद्या-गुरुश्चिरं नन्दतु विज्ञसिंहः ॥१॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवेम्बर यः सम्प्रत्यवनीतले गुरुगुणैः श्रीगौतमीयत्यलं साम्यं यस्य तु सेनशियविजयाह्वः सूरिरेवाश्नुते । सूरिश्रेणिवतंसहीरविजये तस्मिंश्चिरं जीवति व्याख्येयं विहिता तपागणपतौ प्रामाणिकानां हिता ॥२॥ सुविहितमणिमालानायकः सद्गुणाढ्यः सुमतिविजयनामा वाचकग्रामणीर्यः । जयति विमलशीलस्तत्पदाम्भोजभृङ्गो गुणविजय इतीमां ग्रन्थलीलां चकार ॥३।। इति श्रीजातिविवृतिः ॥२९ टिप्पणानि : 1. आत्मवृत्त्यवृत्त्यात्मवृत्त्यत्यन्ताभावऽप्रतियोगिद्रव्यत्वान्यजाति: आत्मत्वम् ।। 2. गगनाऽवृत्तिस्पर्शवत्त्वात्यन्ताभावाधिकरणक्रियावद्वृत्तिजातिर्मनस्त्वम् ॥ 3. रसाऽवृत्तितैजसेन्द्रियमात्रग्राह्यगुणवृत्तिजाती रूपत्वम् । 4. रूपाऽवृत्तिजलेन्द्रियग्राह्यगुणवृत्तिजाती रसत्वम् ॥ 5. पार्थिवेन्द्रियग्राह्यवृत्तिस्पर्शाऽवृत्तिजातिर्गन्धत्वम् ॥ पत्वादिलक्षणतावच्छेदकावच्छिन्नात्यन्ताभावाधिकरणविभुत्वाऽनधिकरण द्रव्यवृत्ति विशेषगुणत्वावान्तरजाति: स्पर्शत्वम् ॥ 7. गगनसमवेतवृत्तिसामान्यगुणवृत्तिद्विष्ठगुणमात्राऽवृत्तिपरिमाणपृथक्त्वनिष्ठा त्यन्ताभावप्रतियोगितावच्छेदकावच्छिन्नागुणत्वसाक्षाव्याप्यजातिः संख्यात्वम् ।। संख्याऽसमवायिकारणकवृत्त्यपेक्षाबुद्ध्यसाधारणकारणकावृत्तिगुणत्वसाक्षाद्व्याप्यजाति: परिमाणत्वम् । अपेक्षाबुद्ध्यसाधारणकारणसमयवृत्तिगुणवृत्त्यत्यन्ताभावाऽप्रतियोगि-- संख्याऽवृत्तिजाति: पृथक्त्वम् ।। द्रव्यासमवायिकारणगुणवृत्त्यत्यन्ताभावाऽप्रतियोगिगुणत्वावान्तरजातिः संयोगत्वम् ॥ 11. क्रियाऽसमवायिकारणद्विष्ठगुणवृत्तिसंयोगावृत्तिगुणत्वसाक्षाद्व्याप्यजाति-- Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ३४ विभागत्वम् ॥ 12. अपरत्वगुणावृत्तिसकलपरत्ववृत्तिजाति: परत्वत्वम् ।। 13. परत्वाऽवृत्तिसकलाऽपरत्ववृत्तिजातिरपरत्वत्वम् ॥ 14. सुखाऽवृत्तिसकलबुद्धिवृत्तिजातिर्बुद्धित्वम् ॥ 15. रूपवद्वृत्तिगगनाऽवृत्त्यपेक्षाबुद्धयजन्यसामान्यगुणवृत्तिगुरुत्वान्यगुणत्वा वान्तरजातिवत्वत्वम् ।। 16. गगनवृत्तिविशेषगुणवृत्तिरूपाऽवृत्तिर्जातिः शब्दत्वम् ॥ 17. ऊर्ध्वदेशसंयोगहेतुक्रियावृत्तिकर्मत्वावान्तरजातिरुत्क्षेपणत्वम् ॥ 18. कपिलाऽवृत्तिसकलसितवृत्तिरूपत्वावान्तरजातिः सितत्वम् । (२) मा. संज्ञकप्रतिगतपाठान्तराणि १. ऐं नमः ॥ २. (श्लोकानन्तरं) श्रीमद् विद्यागुरुभ्यो नमः ॥ ३. तत्तदधिकरणेऽत्यन्ता० । ४. विशेषणत्रयस्या० ॥ ५. 'आत्मगुणोपादाने' इत्यस्य स्थाने मां. प्रतौ- "आत्मवृत्त्यवृत्तिजातिरात्मत्वमित्युक्ते पृथिवीत्वादावतिव्याप्तिः, ततो द्वितीयमात्मेत्यादिविशेषणम् । द्रव्यत्वादावति-व्याप्तिव्यपोहार्थं द्रव्यत्वान्येति । द्वितीयविशेषणोपादाने" - एतावान् पाठः ॥ ६. तादृशं क्रिया० ॥ ७. वृत्त्यन्तविशे० ॥ ८. ०दिति । स्पर्शवत्त्वाद्युक्ते च सत्ताद्रव्यत्वादावतिव्याप्तिरिति गगनावृत्तीति । स्पर्शाद्यधिकरणं च कर्मत्वादावतिव्याप्तिः, अतः क्रियावदिति मनस्त्व० ॥ ९. तथापि ॥ १०. तादृक्, तथा स्पर्शे नास्ति वृत्तिर्यस्याः सा तादृक् ततो० ॥ ११. अत्र आदर्शप्रतौ 'गुणावृत्ती'तिपाठः ।। १२. तथापि ॥ १३. ०दकं च, तेना० ॥ १४. ०दीति । रूपत्वेत्यादिगुण० ॥ १५. गुणविशेषणत्वार्थं ।। १६. स्वयमभ्यूह्यं ।। १७. प्रशस्तपाद० ।। १८. opan pota एतदन्तर्गतः पाठः मां. प्रतौ नास्ति ।। २०. ०त्युक्ते पृथ० ॥ २१. "सत्तायामतिव्याप्तिव्यवच्छित्तये प्रथमविशेषणम् । आद्यविशेषणोपादाने च कर्मत्वादावतिव्याप्तिस्तदपोहकृते सकलेत्यादि अत्र च" इत्यधिकः पाठः मां. प्रतौ ।। २२. व्यतिरेके च ॥ २३. ०र्यस्य स तथा ।। २४. विशेषणमिति ॥ २५. शेषं सुबोधमिति ॥ २६. सत्तायामति० ॥ २७. सकलेषु सितेषु ।। २८. सेनशीर्ष० ॥ २९. इति श्री मितभाषिणीजातिविवृतिः ॥ श्रीः । श्रीः । श्रीः॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवेम्बर ॥ श्रीमहावीरस्वामिने नमः ॥ 'भुवनसुन्दरीकथा' की विशिष्ट बातों का संक्षिप्त अवलोकन विजयशीलचन्द्रसूरि [ नागेन्द्रकुल के प्रसिद्ध आचार्य आर्यसमुद्र के शिष्य विजयसिंहाचार्यने संवत् १७५ में 'भुयणसुंदरीकथा' की रचना की । उसकी एकमात्र ताडपत्र - प्रति खम्भात के शान्तिनाथ ताडपत्र भण्डारमें मौजूद है । उस प्रतिके आधार से इस ग्रन्थ का सम्पादन किया गया है, जो दो विभागोंमें प्राकृत टेस्ट सोसायटी (PTS ) से प्रकाशित है । उस ग्रन्थ में आनेवाली कतिपय विशेष बातों के बारेमें उक्त प्रकाशन में ही एक शोधलेख दिया गया है, वह ही यहां मुद्रित किया जा रहा है । मुझे सूचना दी गई कि उक्त कथाग्रन्थ सभी के पास पहुंच नहि पाएगा, अतः यह लेख अगर 'अनुसन्धान' में पुनः मुद्रित करवाओ तो ठीक होगा । अतः यह यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है ।] 35 भुवनसुन्दरी की कथा का यह ग्रन्थ मुख्यतया अद्भुत रस का प्रतिपादन करनेवाला ग्रन्थ है । यहां वीररस, शान्तरस, करुणरस नहीं है ऐसा नहीं, किन्तु समग्र कथा का केन्द्रीय रस तो अद्भुत रस ही प्रतीत होता है । वैसे यह ग्रन्थ घटना- प्रचुर है; आप देखेंगे कि कथा शुरू होते ही विविध घटनाओं का दौर शुरू हो जाता है । एक घटना पूरी हुई भी नहीं कि उसमें से दूसरी घटना फूट निकलेगी ! फिर ये सभी घटनाएं अत्यन्त विस्मयजनक एवं चमत्कार - भरपूर भी हैं। जैसे जैसे इन चमत्कारिक घटनाओं को हम पढ़ेंगे, वैसे वैसे हमारे चित्त में अद्भुत रस का एक पूर उमड़ने लग जाएगा । फिर भी इस कथाग्रन्थ में कई बातें ऐसी भी है जिनका सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक व ऐतिहासिक मूल्यांकन होना चाहिए । इसका सांस्कृतिक एवं तुलनात्मक या समीक्षात्मक अध्ययन तो होना ही चाहिए, किन्तु अभी तो मैं, यहाँ, इस ग्रन्थ में बिखरे हुए कुछ तथ्यों या मुद्दों के प्रति अंगुलिनिर्देश ही करूंगा । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 अनुसन्धान ३४ (१) इस कथाग्रन्थ का नाम भले 'भुवनसुन्दरी कथा' हो, किन्तु ग्रन्थ का अत्यधिक हिस्सा तो भुवनसुन्दरी के पिता वीरसेन को ही समर्पित है। वीरसेनचरित का प्रारम्भ होता है गाथाङ्क ८२२ (पृ. ७६) से; और अन्त होता है गाथाङ्क ७८९९ (पृ. ७२०) पर । अर्थात् ८९४४ गाथा-प्रमाण वाले ग्रन्थ की अन्दाजन ७००० से कुछ अधिक गाथाएं तो वीरसेन को ही नायक बनाये हुई हैं । वास्तव में यह कथा नायिकाप्रधान न होकर नायकप्रधान लगती है; अथवा होनी चाहिए । और तब इसका नाम होगा 'वीरसेणकहा' या 'वीरसेणचरियं' फिर भी कर्ता ने इसको नायिकाप्रधान रखकर 'भुवनसुन्दरीकथा' नाम क्यों दिया होगा ? प्रश्न होना स्वाभाविक है । लगता है कि ग्रन्थकार तिलकमञ्जरी, कादम्बरी, उदयसुन्दरी, कर्पूरमञ्जरी, लीलावती, विलासवतीजैसी नायिकाओं को प्राधान्य देकर रचे गये अद्भुत ग्रन्थों की परम्परा का अनुसरण करना चाहते हैं। यदि कादम्बरी का नाम 'चन्द्रापीडकथा' ऐसा होता तो विद्याविश्व उसके प्रति इतना अधिक आकर्षित होता ? शक्यता बहुत कम है । ऐसा ही अन्य कथा-काव्यों के बारे में भी कहा जा सकता है । ठीक उसी तरह, यदि इसका नामाभिधान 'वीरसेन-चरित' रखा गया होता, तो इतना प्रस्तुत न बनता, जितना 'भुवनसुन्दरी' नाम देने से बनता है। (२) अब देखें कुछ धार्मिक बातें : १. जिन-प्रतिमा की विलेपनपूजा के लिए चन्दन, कपूर इत्यादि उत्तम सुरभि-द्रव्यों को पानी में लसोट कर उपयोग में लिया जाता है । पूजा-समाप्ति के बाद तो द्रव शेष रह जाता है, उसका उपयोग कोई गृहस्थ अपने देह-परिभोग के वास्ते नहीं कर सकता है, यह सामान्य प्रचलित नियम है । इस ग्रन्थ में जरा जुदी बात मिलती है। कुमार हरिविक्रम और भुवनसुन्दरी का प्रथम मिलन जब चन्द्रप्रभु-जिनालय में हुआ, तब कन्या की सखी हाथ में चन्दनद्रव का कटोरा लाकर कुमार को कहती है कि "जिनपूजा करने के बाद शेष रहा हुआ यह समालभन (विलेपनद्रव्य) आप अपने अंग पर लगाएं बाह्यान्तर ताप Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवेम्बर को मिटावें" (गा. ६८४, पृ. ६४) सामान्यत: जैन साधु किसी भी व्यक्ति को सांसारिक कामनाओं की प्राप्ति का उपाय नहीं बताते हैं । फिर, वे वीतराग की ही उपासना करने का कहेंगे । किन्तु इस ग्रन्थ में एक से अधिक बार जैन मुनि ऐसा मार्गदर्शन करते दिखाई देते हैं । उदाहरणार्थ, जब रानी विजयवती आचार्य निर्मलमतिसूरि की देशना सुनने के पश्चात्, सन्तानप्राप्ति की अपनी तीव्र कामना की पूर्ति के लिए पृच्छा करती है, तब आचार्य श्री उसको कूष्माण्डी (अम्बिका) देवी की आराधना करने से ईप्सितप्राप्ति होने का कहते हैं (गा. ९२० - २२, पृ. ८५), और तदनुसार रानी के द्वारा की गई आराधना के जवाब में देवी वरदान भी देती है ( गा. ९४२, पृ. ८७) | ऐसा ही दूसरा प्रसंग नवकारमन्त्र के प्रभाव का आता है । जब वीरसेन--कुमार सरोवर के किनारे पहुँचता है, तब वहाँ अकलंक मुनि उसे पूछते हैं कि 'इस गम्भीर सरोवर को तू कैसे पार करेगा ? एक काम कर, नवकारमन्त्र का स्मरण कर, सरोवर का जल उसके प्रभाव से स्थगित हो जाएगा, और तू पार निकल जाएगा (गा. २५८७-८८, पृ. २३६-३७) । २. ४. नवकार के प्रभाव की दूसरी भी बात है, जो विस्मयजनक है । वीरसेन की भेंट घोर अरण्य में योगीन्द्र से होती है, तब योगीन्द्र उसको जुआ खेलने का आह्वान देता है । दोनों खेलने तो लगे, पर पूरा दिन बीतने पर भी कोई जीता नहीं । तभी वीरसेन ने नवकारमन्त्र का स्मरण किया, और उसके प्रभाव से वह जीत गया (गा. ५५४२४४, पृ. ५०६-७) । 37 शासनदेव की उपासना किस ढंग से करनी चाहिए, उस विषय में यह ग्रन्थ बड़ा मार्मिक मार्गदर्शन देता है । वीरसेन एवं चन्द्र श्री का पता पाने के लिए विचित्रयश राजा जब चक्रेश्वरी के सामने ध्यान लगा कर बैठता है, तब स्वयं देवी उसे यह संकेत देती है कि "तुम्हें ध्यान धरना हो तो वीतरागदेव का धरो । हम तो सराग देवता ठहरे; हम सराग पूजा यानी गीत, नृत्य आदि से ही प्रसन्न होंगे, ध्यान धरने से Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ३४ नहीं" (गा. ४०४३-४५, पृ. ३६९) । ६. एक और विशिष्ट बात इस ग्रन्थ की प्रशस्ति से मिलती है । हमारे यहाँ तीर्थ के या मन्दिर के नाम समर्पित की जानेवाली मिल्कत को 'देवद्रव्य' ही मानने की आजकल पद्धति है । यह मान्यता कब से प्रविष्ट हुई, पता नहीं । यह ग्रन्थ कुछ अलग ही बता रहा है । ग्रन्थकार श्रीविजयसिंहाचार्य प्रशस्ति में लिखते हैं कि “गोपादित्य श्रावक ने सोमेश्वरनगर का अपना त्रिभूमिक घर, श्रीउज्जयन्ततीर्थ के श्रीनेमिनाथ को भेंट किया, और उसने संघ को कहा कि मुनि-समूह के निवासार्थ यह घर मैं आपको अर्पण करता हूँ" (प्रशस्ति गा. १३१४, पृ. ८१७) । यह तो स्पष्ट है कि मकान संघ को ही सौंपा जा सकता है। किन्तु वह जब नेमिनाथ के नाम भेंट किया जाता है तब तो वह, आज की धारणा के अनुसार, देवद्रव्य ही बन जाएगा; फिर उसमें मुनि-संघ का निवास कैसे हो सकता है ? । फिर भी ग्रन्थकार ने उस स्थान में निवास किया की है और इस ग्रन्थ का सर्जन भी वहाँ रहकर ही किया है, यह तो ऐतिहासिक तथ्य है ही (गा. १५-१६, पृ. ८१७) । मुखवस्त्रिका-मुहपत्ती जैन साधु का एक आवश्यक उपकरण है। वह हाथ में ही रखा जाता था - ग्रन्थकार के काल में, ऐसा स्पष्ट उल्लेख इस ग्रन्थ में पाया जाता है (गा. ५८९३, पृ. ५३७) (३) और अब देखें कुछ सांस्कृतिक बातों का उल्लेख : १. अनुकूल बात सुनते ही शुकन की गाँठ बांधने का रिवाज (गा. ९४०, पृ. ८८); २. कुमार-अवस्था पाते ही (राजपुत्र का भी) चूला (शिखा) संस्कार व उपनयन संस्कार (गा. १७४९, पृ. १६०); ३. सामुद्रकशास्त्र (गा. १९२२-६०, पृ. १७६-१८०); ४. समुद्र में उतरने से पहले नेत्र, नासिका व कान को ढांकने की बात (गा. ३३५०, पृ. ३०६); ५. जहाज चलानेवालों की परिभाषा (गा. ३३६८-७३, पृ. ३०७-८); ६. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवेम्बर २. ( ४ ) कुछ ऐतिहासिक एवं पौराणिक तथ्यों का भी इसमें जिक्र किया गया है । उदाहरणार्थ, १ ३. विवाह के अवसर पर मातृका - निमन्त्रण, ब्रह्मभोजन, सर्व देवों का पूजन, नगरदेवता की पूजा इत्यादि प्रक्रिया का सूचन (गा. ४२९१९२, पृ. ३९२); ७. भरत नाट्यशास्त्र के उल्लेखपूर्वक 'लय' का स्वरूप - वर्णन (गा. ५३४२, पृ. ४८७) इत्यादि । कौलधर्म या कापालिक सम्प्रदाय की बातें इस में अनेक जगह आती हैं । इस सम्प्रदाय के साथ सम्बद्ध शब्दावली - भैरवी, कात्यायनी, चण्डिका, योगिनी, वीरवर्ग, दाक्षायणी, योगी ( अघोरगण), क्षेत्रपाल (दारुणदाढ), (पृ. ३१३ - १९); कौलशासन, योगीन्द्र (पृ. ५०४-५६); योगीन्द्र (अघोरगण), चामुण्डा, भैरवीमुद्रा, कात्यायनी (५१९२८); योगीन्द्र, कौलागम, कौलधर्म, भैरव, कौल, उड्डीशशास्त्र, (पृ. ५४४); भैरवायतन, कापालिक, मठ, शूलपाणि (योगी), (योगिशिष्य), त्रिशूल, भैरवपूजाविधि, भैरव, लोहार्गल(यक्ष)(पृ. ७६२– ६६); यह सब ध्यानाह है । उक्त सभी सन्दर्भों के अवलोकन से सहज ही पता लगता है कि ग्रन्थकार के समय में कापालिक सम्प्रदाय का व्याप भारतवर्ष में बहुत रहा होगा । चण्डरुद्र 39 पृ. ४१८ पर दशानन एवं राम के द्वारा प्रतिष्ठापित जिन - प्रतिमाओं का उल्लेख है ( गा. ४५८६) । राम-रावण के निर्देश अन्यत्र भी देखे जाते हैं (गा. ४१५१, पृ. ३७९; गा. ५६३८ पृ. ५४१) । कृष्ण का भी उल्लेख यहाँ है (गा. ५९३७, पृ. ५४१) । इससे पता चलता है कि इस भुवनसुन्दरी की कथा का घटना समय कृष्ण वासुदेव के बाद का होना चाहिए । इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण उल्लेख मिलता है मथुरानगरीस्थित जिनस्तूप का (गा. ६५७०-७१, पृ. ५९९) । इस निर्देश से मालूम होता है कि ग्रन्थकार के समय में भी मथुरा में स्तूप का अस्तित्व था । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 अनुसन्धान ३४ ४. युद्ध में मारे गए सैनिकों की खांभी (भटस्तम्भ) बनाने के रिवाज़ का भी निर्देश गा. ७१३७, पृ. ६५१ में पाया जाता है । एक पौराणिक (जैन ऐतिहासिक) मान्यता का भी सूचन इसमें मिलता है : अंगइया ( अंगदिका ? ) नगरी के जिनालय की रत्नमय जिनप्रतिमा का रावण व राम के द्वारा प्रतिष्ठित किये जाने का सूचन (गा. ४५८६, पृ. ४१८) । वैसे स्तम्भन पार्श्वनाथ की रत्नप्रतिमा, जो अभी खम्भात में विद्यमान है, उसकी प्रतिष्ठा राम ने की थी, ऐसी जैन पौराणिक मान्यता है ही । 3 (५) ग्रन्थ में कहीं कहीं श्रीउमास्वातिजी एवं श्रीहरिभद्रसूरिजी के प्रतिपादनों की छाया भी देखने मिलती है । यथा १. विणयफलं सूस्सूसा गुरुसुस्सूसाफलं सुयन्नाणं । नाणस्स फलं विरई विरइफलं आसवनिरोहो ||६०७२ || संवरफलं च सुतवो तवरस्स पुण निज्जरा फलं तीए । होइ फलं कम्मखओ तस्स फलं केवलं नाणं ||६०७३ || केवलनाणस्स फलं अव्वाबाहो निरामओ मोक्खो । तम्हा कम्मखयाणं सव्वेसिं भायणं विणओ ||६०७४|| (भु.सुं. पृ. ५५४) अब यह पाठ 'प्रशमरति प्रकरण (वा. उमास्वाति)' का देखें : विनयफलं शुश्रूषा गुरुशुश्रूषाफलं श्रुतज्ञानम् । ज्ञानस्य फलं विरतिर्विरतिफलं चास्रवनिरोधः ॥७२॥ संवरफलं तपोबलमथ तपसो निर्जरा फलं दृष्टम् । तस्मात् क्रियानिवृत्तिः क्रियानिवृत्तेरयोगित्वम् ॥७३॥ योगनिरोधाद् भवसन्ततिक्षयः सन्ततिक्षयान्मोक्षः । तस्मात् कल्याणानां सर्वेषां भाजनं विनयः ॥ ७४ ॥ २. वा उमास्वाति कृत तत्त्वार्थसूत्र - सम्बद्ध अन्तिमोपदेशकारिका में आया हुआ यह श्लोक, - दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्कुरः । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवेम्बर कर्मबीजे तथा दग्धे नारोहति भवाङ्कुरः ||८|| 'भुवनसुन्दरी' की निम्न गाथा में प्रतिध्वनित होता हैदडुंमि जहा बीए परोहइ अंकुरो न पुण जम्हा । तह कम्मबीयदाहे न जम्ममरणंकुरा होंति ॥ ८६४२॥ (पृ. ७८८) ३. एक और भी पद्य है जो मेरी स्मृति के अनुसार श्रीउमास्वातिकृत माना जाता है, - तज्ज्ञानमेव न भवति यस्मिन्नुदिते विभाति रागगणः । तमसः कुतोऽस्ति शक्तिर्दिनकरकिरणाग्रतः स्थातुम् ? ॥ उसका भी छायानुवाद यहाँ मौजूद है : तं नाणं पिन भण्णइ रागाई जेण उक्कडा होंति । सो कह भन्नइ सूरो विहडावए जो न तिमिरोहं ? ।। ५९८० ।। (पृ. ५४५) 41 ४. श्रीहरिभद्रसूरि - रचित 'पञ्चसूत्र' में 'दुक्कडगरिहा', 'सुकडासेवणं', 'रागदोसविसपरममंतो' इत्यादि पदावली प्राप्त होती है । इस कथा की 'जिणधम्मतत्तनाणं दुक्कडगरहा य सुकडसेवा य ।' 'कम्मविसपरममंतो भवविडविच्छेयणकुढारो ।' (गा. २९२३-२४, पृ. २६७) इन पंक्तिओं में उस पदावली के अंश पाये जाते हैं । ५. इस पञ्चसूत्र के चतुर्थ सूत्र में 'व्याधितसुक्रियाज्ञात' नामक दृष्टान्त सोपनय लिखा गया है, जो 'विंशतिविंशिका' में भी मिलता है । इस कथा की ८६२४ से ८६२७ इन गाथाओंमें (पृ. ७८६-८७) यह दृष्टान्त, लगभग, पञ्चसूत्र-वर्णित पदावली में ही मिलता है, जो बड़ा रोचक है । (६) कितनेक रूढिप्रयोग या लोकोक्तिस्वरूप कहावतों का प्रयोग भी इस ग्रन्थ में किये गये है । जैसे १. 'घुणक्खरो नाओ' (गा. ३६०, पृ. ३४ ) २. 'नो भज्जइ लउडी न मरइ ससओ' (गा. १३३२, पृ. १२२) Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 ३. 'केसरि-दोत्तडीनाओ' (गा. २३९७, पृ. २१९) ४. 'फोडावियं च जम्हा बिल्लं बिल्लेण बुद्धीए' (गा. ५६२९, पृ. ५१३) ५. हमारी भाषाओं में एक मुहावरा बहुत प्रसिद्ध है : " करमे - धरमे " 'करमे - धरमे' करना पड़ा; 'करमे - धरमे' हो गया, इत्यादि । यह मुहावरा यहाँ बार-बार प्रयोजा गया है । यथा 'कम्मधम्मजोगा' (गा. ३६०, ११९३, १५५८, १७९६, ३०८६, ६७१०, ७७६५ वगैरह ) । अनुसन्धान ३४ (७) पृ. ६६८-६९ पर संक्षिप्त किन्तु विविधछन्दोमण्डित वसन्तऋतुवर्णन (गा. ७३२५-२९) भी द्रष्टव्य है । ( ८ ) बहुत सारे विशिष्ट शब्दप्रयोग इस में मिलते हैं, जो अभ्यासियों के लिये रसप्रद है । उदाहरणार्थ : मन्दिर की प्रदक्षिणा (परिक्रमा) के परिसर को भ्रमी ( भ्रमन्ती) (गुजराती- 'भमती' कहते हैं । उसके लिये यहाँ 'भवंतिय' शब्द (गा. ५२६९, पृ. ४८१) का प्रयोग मिलता है। दादरा (सीडी) के लिए 'दद्दर' (गा. ४८४५, पृ. ४४ २ ) का प्रयोग मिलता है । 'भरवसो' शब्द 'भरोसा' के अर्थ में प्राप्त है (५८५१, पृ. ५३४) 'खडप्फडा' का प्रयोग किया गया है ( गा. ५८५९, पृ. ५३३) । 'पिंढारा' शब्द हमारे यहाँ यह प्रकारकी ठगजाति के लिये प्रयोजाता जाता है । उसका प्रयोग यहाँ 'पिंडारा' रूप से मिल रहा है (गा. ६६७९, पृ. ६०९) । 'लड्ड' शब्द भी है, जो शायद 'लाड' वाचक है (गा. ८०८३, पृ. ७३७) । ऐसे और भी अनेक शब्दप्रयोग हैं, जो तज्ज्ञों के लिए ध्यानाह हैं । इन सभी शब्दों की सूचि बनाकर, यह लेख लिखने से पहले, भायाणी साहब को भेजकर उन से इसका विवरण पाने का मैंने सोचा था । किन्तु उनके दुःखद निधन से वह बात मन में ही रह गई । अन्य और भी रसप्रद शोध - सामग्री इस बृहत्काय कथाग्रन्थ में उपलब्ध हो सकती है । अभ्यासियों उसे प्रकाश में लाए ऐसी अभ्यर्थना । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवेम्बर तरङ्गवती कथा तथा पादलिप्तसूरिः जैन के अजैन ? विजयशीलचन्द्रसूरि 43 तरङ्गवती - तरङ्गलोला-कथा ए प्राकृत भाषासाहित्यनुं एक अणमोल रत्न छे. श्रीपादलिप्तसूरि नामे जैनाचार्यनी आ रचना भारतीय साहित्यजगतमां तो सुख्यात हती ज, पण छेल्ला बे सैकामां ते विश्वख्यात पण बनी छे. तरङ्गवतीनी मूल सुविस्तृत कथा आ. पादलिप्तसूरिनी रचना छे, जेने विद्वानो इस्वीसननी आरम्भनी सदीओमां थयेल सर्जन गणावे छे. पण वखत जतां ते मूल कथा लुप्तप्राय थई छे, अने तेनो, आ. नेमिचन्द्रसूरिकृत, 'संखित्ततरंगवईकहा'ना नामे संक्षेप उपलब्ध थाय छे. आ संक्षेप सम्भवतः १० मी सदीनो मनाय छे. आ बन्ने कथाओ विषे घणुं लखाई चूक्युं छे; डॉ. हरिवल्लभ भायाणीए आना सानुवाद- सम्पादनमां घणां तारणो आप्यां छे, जे अधिकृत गणाय तेवां छे. ताजेतरमां प्रा. नरोत्तम पलाणे पोताना एक लेखमां एवं प्रतिपादन करवानो प्रयास कर्यो छे के तरङ्गवती ए मूळे जैनेतर (चारणी?) परम्परानी कथा - रचना छे, ए रीते ते जैनेतर रचना छे, अने पाछळथी तेने कोई जैन साधुए जैन कथामां फेरवी नाखी छे. 'गुजरातनी प्रथम प्राकृतकथा अने कविता' शीर्षकना, प्रा. कानजी पटेल अभिनन्दन ग्रन्थ (सं. गौतम पटेल वगेरे, ई. २००५, अमदावाद) मां प्रकाशित, पोताना ए लेखमां श्रीपलाणे चर्चेला मुद्दा आ प्रकारना छे : " मूळनी संख्याबंध लौकिक कथाओ धर्मप्रचारको द्वारा पोतपोताना धर्मनुं स्वरूप पामी छे. जैन... अने बौद्ध कथाकारो एमना धर्मसिद्धान्त मुजब शृङ्गार के वीरनो (युद्धनो) अनुभव धरावता न होय ते स्वाभाविक ज छे, आम छतांय जैनबौद्ध कथाओमां युद्धवर्णन अने शृङ्गारवर्णन आवेल छे ते मूळनी लौकिक कथाओ परिवर्तन पामी होवानुं सूचन करे छे. गुजरातमां सर्जायेली प्रथम प्राकृतकथा तरङ्गवती सन्दर्भे पण आम बन्यानुं अनुमान छे. पादलिप्त रचित मूळनी तरङ्गवती कथा हाल प्राप्त नथी, परन्तु तरङ्गवतीना आधारे कोई जैन आचार्य द्वारा सर्जन पामेली तरङ्गलोला नामनी कथा Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ३४ उपलब्ध छे. एम लागे छे के समये समये मूळनी कथामा सुधारावधारा थया कर्या हशे अने जैन कथाकारोना अति मानीता घटकतत्त्व एवा 'पुनर्जन्म'नी गूंथणी पण एमां थई गई हशे. कथामां ज नहि, लेखक-नाममां पण 'आचार्य' अने 'सूरिजी' वणाई आव्या हशे ! के. ह. ध्रुव जणावे छे के तरङ्गवतीनो कर्ता पालित किंवा श्रीपालित मारी समजमां जैनेतर ठरे छे, केमके ८मा शतकना हरिभद्रसूरिनी 'शिष्यहिता' नामे बृहद्वृत्तिमां "इतरलोके निर्दिष्टवशाद् वासवदत्ता तरङ्गवती इत्यादि" मुजब आ कथानो समावेश जैनेतर साहित्यमां को छे. ... के.ह.ध्रुव प्रमाण आपतां नोंधे छे के नेमिचन्द्र गणिना यश नामना शिष्ये तरङ्गलोला एवं नाम राखी जैनी दीक्षा आपी.' (पद्यरचनानी ऐतिहासिक आलोचना' पृ. १७७)" प्रा. पलाणनां अन्य विधानो पण आ ज लेखमां छे, ते जोई लईए : "वलभीभंग पूर्वे जे लौकिक कथा छे, वलभीभंग उत्तरे जैन कथा बने छे." "....जैन संस्करणनी उत्तर मर्यादा १५मी सदी सुधीनी आंकी शकाय छे." "...पादलिप्त अने नागार्जुननी कथाना अंशो पाछळनो उमेरो समजवो जोईए." "मूळनी कथा- ई.स.नी ८मी सदी पछी जैन संस्करण थयुं हशे अने क्रमशः आजनुं स्वरूप बंधातां ५००-७०० वर्ष लाग्यां हशे." प्रा. पलाणना उक्त लेखनां तारणो आटलां तारवी शकाय : १. पादलिप्त जैन कवि/सूरि नहोता; जैनेतर हता, तेमने पछीना जैन संक्षेपकारे जैन कवि बनावी दई तेमना नाम साथे आचार्य व. पदवाचक शब्दो गोठवी दीधा छे. २. पोताना आ निरीक्षणमा तेमने के. ह. ध्रुवनो टेको मळे छे. ३. 'तरङ्गवती' ए जैन कथा नथी. मूलत: ते अजैन अथवा लौकिक कथा छे. पाछळथी तेने जैन कथानुं रूप अपायुं छे, अने तेमां ५००-७०० वर्षोमां, सम्भवतः छेक १५मी सदी सुधीमां अनेक प्रक्षेपो थतां रह्या छे. ४. जैन साधुओ विरागी-वीतरागी होई शृङ्गार अने वीररसनी वातोथी तेओ साव अनभिज्ञ ज होय, अॅथी तेनुं वर्णन के प्रतिपादन करवानी Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवेम्बर साहित्यिक क्षमता तेओ पासे न ज होय. प्रस्तुत कथामां तो ते बे रसोनुं वर्णन छे, ते परथी पण आ कथा जैनेतर होवानुं फलित थाय छे. आ. हरिभद्रे पण शिष्यहिता टीकामां आ कथाने इतर (जैनेतर) कथा तरीके वर्णवी छे. ६. जैन पादलिप्त अने नागार्जुननो सम्बन्ध पण काल्पनिक लागे छे. १. हवे आ तारणो तथा विधानो विषे विमर्श करीए : ३ पादलिप्स ए जैन आचार्य छे अने तरङ्गवती ए तेमनी रचना छे, एवं डॉ. भायाणीए पोताना 'अनुलेख' मां स्पष्ट प्रतिपादन कर्तुं छे. कवि जो अजैन होत, अथवा कथा जैनेतर के लौकिक रचना होवानुं लाग्यं होत, तो भायाणी जेवा विद्वाने प्रबन्धो के प्रबन्धकारोनी शेहमां तणाईने कर्ता तथा कथाने 'जैन' लेखे स्वीकारीने वात करी न होत. अने तेमनी वात, पूर्वधारणा के पूर्वग्रह विहोणी होईने जैनोए सहेजे स्वीकारी पण होत. 45 २. तरङ्गवतीनो रचनाकाळ ई.स. नी आरम्भनी सदीओ होवानुं पण भायाणीए स्थापी आप्युं छे. ३. तरङ्गवती ए जैनेतर रचना छे अने तेनो संक्षेप ते तेनुं जैन संस्करण छे, एवा विधाननी सामे डॉ. भायाणीनो आ फकरो वांची : ५ संक्षेपकारे स्पष्ट कह्युं छे के तेणे पादलिप्सनी मूळगाथाओमांथी पोतानी दृष्टिओ गाथाओ वीणी लईने ते कथाने संक्षिप्त करी छे.... आनो अर्थ ए थयो के सं. तरं. मां जे गाथाओ आपेली छे ते घणुं खरुं तो शब्दश: मूळ तरङ्गवतीनी गाथाओ ज छे.... एटले सं. तरं. नी घणी खरी गाथाओने आपणे पादलिप्तनी रचना तरीके लई शकीए. " "आ वस्तुनुं असन्दिग्ध समर्थन ए हकीकतथी थाय छे के भद्रेश्वरे 'कहावली' मां तरङ्गवतीनो जे ४२५ गाथा जेटलो संक्षेप आपेलो छे तेनी आशरे २५५ गाथाओ (६० टका) सं. तरं.नी गाथाओ साथे Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 अनुसन्धान ३४ शब्दश: साम्य धरावे छे. अने भ. तरं.नी बाकीनी घणीखरी गाथाओ पण सं तरं मां आंशिक साम्य साथे मळे छे.... विषय, सन्दर्भ वगेरे जोतां ए अंश भद्रेश्वरे करेलो उमेरो नहि, परंतु मूळ कृतिमांथी ज लीधेलो होवानुं दर्शावी शकाय तेम छे. आथी सं. तरं अने भ.तरं वच्चे जेटली गाथाओ समान छे.... ते असन्दिग्धपणे पादलिप्तनी ज छे, अने ते उपरांत सं. तरं.नी बाकीनी पण मोटा भागनी गाथाओने पादलिप्तनी रचना गणवामां कशो दोष जणातो नथी." ४. तरङ्गवती-संक्षेपना रचनाकार तथा तेना काळ अंगे भायाणीनी नोंध जुओ : "अने जो अर्थ एवो घटावीए के संक्षेपनी आ प्रति वीरभद्रसूरिना शिष्य नेमिचन्द्रगणीने माटे जस नामना लहियाए लखी छे ( एटले के. आ गाथा पण लहियानी रचेली छे) तो ए अर्थघटन व्याकरण अने वाक्यरचना साथै सुसंगत छे. आ वात स्वीकार्य लागे तो संत. नो कर्ता अज्ञात होवानुं मानवुं पडशे. 1. “सं.त.ना समय बाबत पण कशुं निश्चितपणे कही शकाय तेम नथी. अन्ते जेनो निर्देश छे ते नेमिचन्द्र अने धनपालकृत 'उसभपंचासिया' परनी अवचूरिना कर्ता नेमिचन्द्र ए बन्ने जो एकज होय तो संत. ने दसमी शताब्दीना अन्त पहेलां मूकी शकाय संक्षेप प्राकृतमां ज छे ते हकीकत पण मुकाबले तेना वहेला समयनी समर्थक छे... संतरं . नी हस्तप्रतमां ९ मा पत्रना पहेला पाने (गा. २३१)... इ वर्ण ११ - १२ मी शताब्दीनी देवनागरीनी जेम उपर बे मींडां अने नीचे नानी लकीरएवा रूपे लखायेलो छे ते पण सूचवे छे के ए प्रतिना आधार तरीके बारमी शताब्दी लगभगनी कोई प्रत होवी जोईए. १६ डॉ. भायाणीनी उपर उद्धरेली नोंधो परथी प्रा. पलाणनां विधानो आपोआप असंगत पुरवार थाय छे, ते हवे कहेवानुं न होय. जैन साधु शृङ्गार/ वीर रसना अनभिज्ञ होय, अने तेथी तेनुं वर्णन करवामां तेओ अक्षम होय, एवं प्रा. पलाणनुं तारण, जैन रचनाकारोना सम्पूर्ण जीवन - कवननी तेमनी अनभिज्ञता ज पुरवार करे छे. जैन साधुओ द्वारा थयेल आ बे रसोनुं उत्कृष्ट निरण पौराणिक तेमज Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवेम्बर ६. ७. मध्यकालीन अनेक रचनाओमां उपलब्ध छे. रसोनुं निरूपण कर्या पछी तेनुं पर्यवसान वीतरागतामां विरागमां लाववुं, ए जैन रचनाकारोनो विशेष जरूर छे. पण तेनो अर्थ तेओ आना निरूपणमां अक्षम छे एम करवो, अने तेटला मात्रथी ज पादलिप्तने जैनेतर मानवा ते तो हास्यास्पद कल्पना छे. शिष्यहिता वृत्ति कया सूत्र परनी ? ते ध्रुवसाहेबे नोंध्युं नथी. सम्भवत: दशवैकालिकसूत्र परनी टीका तेमना मनमां (के समक्ष ) होवी जोईए. प्रथम तो तेमणे नोंधेल वाक्य आ टीकामां छे ज नहि. तेमणे अन्यत्र कशे वांच्युं पण होय तो पण ते वाक्य अधूरुं छे. दशवै ० परनी शिष्यहिता वृत्तिमां तरङ्गवतीनो उल्लेख आ प्रमाणे छे : 47 "लोके रामायणादिषु वेदे यज्ञक्रियादिषु, समये तरङ्गवत्यादिषु " || ( पत्र ११४). मिश्रकथा ( धर्म-अर्थ-काम वनां मिश्रणवाळी कथा) ना वर्णनमां नियुक्तिकारे जे त्रण प्रकार पाडी आपेल छे, तेनां दृष्टान्त आपतां आ. हरिभद्रसूरि नोंधे छे के लोक (लौकिक ) मां रामायण वगेरेमां; वेदोमां यज्ञक्रिया आदिमां; अने समय एटले जैनधर्म-परम्परामां तरङ्गवती वगेरेमां (मिश्रकथा) जाणवी. आ ज वात दशवै० परनी 'चूर्णिमां पण ए ज प्रमाणे वर्णवाई छे. याद रहे के चूर्णिकार हरिभद्रसूरिना पुरोगामी छे. - पादलिप्त तथा नागार्जुननो सम्बन्ध काल्पनिक होय तो पण ते वात जैन प्रबन्ध - प्रमाणे प्रचलित छे. प्रबन्धोमां इतिहास - अनुश्रुतिनुं सम्मिश्रण तो होय ज. परन्तु आ बन्ने पात्रो तो ऐतिहासिक छे, एमां शंका नथी. हवे बन्ने वच्चे सम्बन्ध हतो के केम, अने सम्बन्धनी वात ऐतिहासिक छे के केम, ते नक्की करवानुं काम तो तज्ज्ञोनुं छे. Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ३४ ८. सार ए के तरङ्गवती जैन मुनिनी ज रचना छे. पादलिप्त ए एक जैनाचार्य, ज नाम छे. तेओ चारण ज्ञातिना नहोता, के तेमणे चारण कविओनी रचना पोताना नामे पण चडावी नहोती. फरी कहीश के चारण कविओ प्रत्येना पक्षपातथी दोराईने जैन कविओ तथा काव्योने खोटां ठराववां, ते काई विद्वज्जनोचित न गणाय, अने एवी रीते कर्याथी चारण कविओनी महत्ता वधी जाय एम पण मनाय नहि. कविनी महत्ता तेनी रचनाथी ज पुरवार करी शकाय, ए वात हमेशां याद राखवी जोईए. पादटीप १. संखित्त तरंगवई कहा, सं. डॉ. हरिवल्लभ भायाणी, L.D. Series 75, ई.स. 1979, अमदावाद, पृ. २७९ २. ए ज, पृ. २८५ ३. ए ज, पृ. २७५ ४. ए ज, पृ. २७९ ५. ए ज, पृ. १७९ ६. ए ज, पृ. २८५ ७. दसकालियसुत्तं - णिज्जुति चुण्णिसंजुयं, सं. मुनि पुण्यविजयजी, PTS. ई. १९७२, (रिप्रिन्टः २००३), पृ. ५८ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवेम्बर 49 स्वाध्याय ३४ विशेषावश्यक भाष्यनुं शुद्धिपत्रक (३) (नोंध : विशेषा० भाष्यनी बे आवृत्ति मुद्रित छे. एक आवृत्ति पूज्य सागरजी महाराजे सम्पादित छ - प्रायः, तेनी बीजी आवृत्ति दिव्यदर्शन ट्रस्टे चोपडारूपे बेबे भागमां छपावी छे. तथा अन्य आवृत्ति मुनि राजेन्द्रविजयजी द्वारा सम्पादित, बाई समरथ जैन श्वे. मू. ज्ञानोद्धार ट्रस्टे (अमदावाद) छपावेल छे. ते प्रति पूज्य श्रीचतुरविजयजी महाराजे संशोधेली छे. ते प्रतिना आधारे तथा वांचन वेळाए सहेजे जणायुं ते प्रमाणे आ पाठान्तरो तथा शुद्धिपत्र तैयार थयेल छे. आना बे अंश अगाऊ अनुसन्धानना अंकोमा छपायेल छे. तेनो त्रीजो अंश अत्रे आपेल छे.) पृष्ठ पक्ति अशुद्ध शुद्ध ३३५ २२ कउवियारो० कउ वियारो ३३५ ०पच्छामो ०पगच्छामो ३४२ १० ०घण्णो ०घणो ३४२ १५ उद्यत उत्पद्यत ३४४ २० ०भ्रान्तर० ०भ्रातर० ३४६ २८ ०त्तताओ ०त्तत्ताओ ३४७ ५ दिट्ठफ० दिट्ठप्फ० ३४७ २७ ते अपय० तेऽपय० ३४८ ३० यस्य यस्य यद् यत् ३४८ ३८ ०मिवोदाह० मिवाह० ३४८ ०मिवोदाह० मिवाह० ३५० ७ विप्पमु० ३५० १८ विप्रमु० विमु० ३५० ३३ अथ मूर्त० अथाऽमूर्त० ३५२ एवेददम् एवेदम् आत्मा प्रति० आत्मा सुप्रति० ३५२ इत्यादिविधि० इत्यादिविधि० ३५३ ८ जरा-म० जर-म० विमु० MMM ३५२ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 अनुसन्धान ३४ १२ ३५३ ३५३ ३५५ ३५६ ३५८ ३५९ ३५९ ३५९ आगच्छइ वच्चामि तेजो वाय्व० ज्ञानन्द्रि० सविषया० आगच्छई वच्चामी तेजोवाय्व० ०ज्ञानेन्द्रि० सविसया० २१ ३६ ५ ११ ११ वोढुं बोद्धं ३५९ ३५९ ३६० १७ १८ الله الله الله للہ لہ لہ لہ لہ ३६० ३६१ ३६३, ३६४ ३६४ ३६४ ३६५ ३६६ ३६६ ३६६ ३६६ ३६७ ३६९ ३७० ३७१ ३७१ ३७ १४ ११ २९ ३१ ३३ ८ १७ २२ २३ ३८ मृत इवाहस्मि मृत इवाहस्मि वासणा उ वासित्त । ०लद्धि उ विकर्षाद् पिशादी० जिणेणं जरा० विष्वग् भा० ननुकिं० ०या-ऽणूया प्रियतमा० सोत्ताइयाई दीहम्मि दीर्घन ज्ञाना हस्सम्मि ०ऽन्यापेक्षाः तहं वव० ०था जात० मूत्रणु० देस० देश० अपच्च० मृत इवाऽहमस्मि मृतवानहमस्मि इति पाठान्तरम् वासणाओ वासिंत ०लद्धिओ विप्रकर्षाद् पिशाचादी० जिणेण जर० विष्वग्भा० ॥१७०२।। ननु किं० ०या-ऽणूवा(?) वैभवप्रियतमा० सोत्ताईयाई दीहंति इति पाठान्तरम् दीर्घज्ञाना० हस्संति इति पाठान्तरम् ०ऽन्याऽनपेक्षाः नहं च वव० ०था न जात०. मूर्तोऽणु० दिस्स० दृश्य० अप्पच्च० سہ لله الله ३ ३० ४ १९ الله الله الله Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवेम्बर 51 * ३७२ ३७३ ३७४ ३७४ ३७५ ३७५ ३७५ ३७६ ३७७ ३७७ ३७७ ३७९ ३८० ३८० ३८१ ३८२ ३८३ ३२ ३४ ७ २७ ३१ १४ ७ -रिसणाईणं वृत्ति० ०णा हिंस्रः घन्ना बाह्यास० जरा० सुहम ०लोमाभ्यां तो सरि० रिसईणं वृति० ०णाऽहिंस्रः घ्नन्न० बाह्यस० जर० सुहम्म ०लोमभ्यां तोऽसरि० न तु ततोऽसदृ० भवन्स्व० जर० आगच्छई होज्ज व स मोक्ख होउ व जइ प्रयत्नान्त ननु ५ २२ २६ ३८५ ततः सदृ० भवत्स्व० जरा० आगच्छइ होज्ज स ०मोक्खा होउ जइ प्रयत्नानन्त० इत्यश्च लाउ य लाउ य निच्चथा० नियम्मि नहिवै यद्यपि इतश्च ३८६ ३८७ ३८९ ३८९ ३८९ ३८९ ३९३ ३९४ २६ ३४ १३ १३ लाउय लाउय निच्चत्था० नेयम्मि नहवै यदपि सयपच्च० अप्रत्यक्ष० रोगवृद्धिः सपच्च० ३९५ ३९७ ३९७ २२ २३ प्रत्यक्ष रागवृद्धिः सुख० दुःख० Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 ३९७ ३६ ३९९ ३३ ४०० ४०१ ४०२ ४०३ ४०५ १५ ४०५ २४ ४०५ २७ ४०८ २१ ४११ १६ ४११ ३८ ४१२ १६ ४१२ १८ ४१३ २५ ४१६ २६ ४१७ ३३ ४१९ २५ ४२० १५ ४२२ ३५ ४२४ ३४ ४२५ १६ ४२५ २० ४२७ ३१ ४२८ १२ ४२९ २४ ४३० ३४ ४३० ३६ ४३१ २३ १० V जउ फलभेदओ मूर्तत्वेन दुःखयोः ० काले पु० साइय० नास्त्यवा कथम्भूतस्यो ० परकोल ० अथका० वायाव्यदयः स्वच्छस्य अमूर्त ० ० त्वाप्रा० ० कुटकु० ०रीरग्ग० नाणाऽबा० अहाउ य भव्वा - ऽभव्वा भाष्कारः • द्वरेण ० भवओ कया० ० भवतः कृता० यावाङ्गणे पसईओ अहाउ य अहाउ य अहाउ य वस्त्रम० जइ फलभेओ मूर्तेन (?) सुखदुःखयोः ० काले तु बन्धकाले पु० . साईय० नास्ति भवा० अनुसन्धान ३४ कथम्भूतस्य ? उ० परलोक ० अथैका० वायव्यादयः स्वस्थस्य (?) मूर्त ० ० त्वावा० ० कटकु० ०रीरग० नाणाऽणाबा० अहाउय भव्व - ऽभव्वा भाष्यकार: द्वारेण ० भवओऽकया० ० भवतोऽकृता० या चाऽङ्गणे पसई अहाउय अहाउय अहाउय वज्रम० Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवेम्बर ४३२ ४ सेसा ३८ ३७ मेगत्ते ४३३ ४३४ ४३५ ४३५ ४३६ ३१ ४३६ ४३७ ३ ४४०१७ ४४३ १४ ४४५ ३४ ४४६ ४४६ द्रव्ये द्रव्यं विसेसा० विशेषा शेषा मेगंते रिक्तो त० रिक्तोऽत० ०मवाई ०मवाई सगुणा व्व सगुण व्व तन्त्वादि० तन्त्वादेः काऽसौ क्रिया काऽसौ ? क्रिया, कुम्भं प्रति कुम्भं प्रति ? सामाइया० सामइया० सामान्यरूपो सामान्यरूपा विपक्ष स्वविपक्ष० वत्धुं न भावो वत्थुनभावो वस्तु न भावः वस्तुनभावः येनैव भा० येनैव[रूपेण] भा० ओदईओ ओदइओ . वत्थुओ वत्थूओ ० भूतस्ता० ० भूतास्ता० ०दशाती० ०देशाती० भिन्ना, एतेन भिन्ना एते न यथाभूता तथाभूता गयत्तओ गयन्नत्तओ ०गतत्वतः ०गतान्यत्वतः व वहीरए ववहीरए अयं च... ॥२२१२॥ ॥२२१२॥ अयं च...किन्तु 'वच्चइ० उज्जं उज्जें 'उज्जं' 'उज्जु' ३० ४४६ ४४७ ४४८ ४४९ ४५० ४५० ४५० ४५१ ७ १० ११ २३ ४५० ४५३ १३ १५ ४५३ ४५४ ४५४ २७ २८ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 ४५४ ४५६ ४५७ ४५७ ४५८ ३२ ३६ ३० ३० ३० ३९ ९ ४५८ ४५९ ४५९ ३२ ४६० ५ ४६० २९ ४६० २९ ४६० ३७ ४६१ १२ ४६१ १५ ४६२ १५ ४६२ ३५ ४६३ १४ ४६३ २४ ४६३ २४ ४६३ २८ ४६३ ३१ ४६३ ३२ ४६३ ३९ ४६४ ४६४ ४६४ १ 6 ७ १८ ऋजुः सद्धो ० शब्दात् ० शब्दादिव ० णसिद्धं ० णसिद्धं पुनस्त० तदन्न० अर्थस्तु ० रजीवो जीवप० ० त्तमाण० ०नो देशीति 'नो देशी' • रास्तेऽपीहा ० ० त्वकराणे० ० स्तपर्याया ० रन्नाव० ० शार्नहम० ० मुहतए ० न्योन्य० सयया० ० मुखतया वान्य० ०हणाए ० थनायाम् ऋजु सद्दो शब्दान् शब्दानिव ० णमिट्ठ ० णमिष्टं अनुसन्धान ३४ पुनस्त० तहन्न० इति पाठान्तरम् अर्थन्तु ० रज्जीवो जीवणप० इति पाठान्तरम् ० त्तमण० नोदेशीति 'नोदेशी' रास्ते सर्वेऽपि नयास्तेऽपीहा० ०त्वकारणे० ० स्ताः पर्याया ० रत्नाव० ० शानर्हम० ० मुहे नए ० न्यान्या० समया० ० मुखान् नयान् वाज्ञ० व्हणा य ० थना च Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवेम्बर 55 पत्रचर्चा षड्भाषाबद्ध चन्द्रप्रभस्तव के कर्ता जिनप्रभसरि हैं। ___ म. विनयसागर प्राकृत भाषा में गुम है । इस कृति के कख न अनुसन्धान अंक ३३ पृष्ठ २० पर मुनि श्री कल्याणकीर्तिविजयजीका जिनभक्तिमय विविध गेय रचनाओं शीर्षक लेख प्रकाशित हुआ है । इस लेख में पृष्ठ २५-२६. पर चन्द्रप्रभस्तव प्रकाशित है । यह स्तोत्र छ: भाषाओं-संस्कृत, प्राकृत, शूरसेनी, मागधी, पैशाचिकी, चूलिका पैशाचिकी, अपभ्रंश और समसंस्कृत प्राकृत भाषा में गुम्फित है। प्रत्येक भाषा में दोदो-पद्य है और अन्तिम पद्य घत्ता छन्द में है। इस कृति के कर्ता के सम्बन्ध में लेखक ने पृष्ठ-२० पर लिखा है- कर्त्तानो कोई उल्लेख नथी अर्थात् कर्ता का कोई उल्लेख नहीं है । इस सम्बन्ध में ज्ञातव्य है : १. प्रकरण रत्नाकर भाग-२ जो कि पण्डित भीमसिंह माणेक ने बम्बई से सन् १८७६ में प्रकाशित किया है। उसके पृष्ठ ३६९ पर यह स्तोत्र प्रकाशित हुआ है । इस स्तोत्र के अन्त में लिखा है- इति श्री जिनप्रभसूरिकृतचन्द्रप्रभस्वामिसत्कं षड्भाषास्तवनं सम्पूर्णम् । ___२. विधि मार्ग प्रपा, जिनप्रभसूरि कृत की भूमिका में अगरचन्द भवरलाल नाहटा ने पृष्ठ-१८ पर स्तुति-स्तोत्रादि कि सूची देते हुए षड्भाषामय चन्द्रप्रभ जिनस्तुति (नमो महासेननरेन्द्रतनुज) गाथा-१३ जिनप्रभसूरि का ही माना है। ३. मैंने (विनयसागर) भी शासनप्रभावक आचार्य जिनप्रभ और उनका साहित्य पुस्तक के पृष्ठ-९९ पर जिनप्रभसूरि की ही कृति माना है। आचार्य जिनप्रभसूरि १४वीं-१५वीं शताब्दी के प्रभावक आचार्यों एवं असाधारण विद्वानों में से हैं । ये खरतरगच्छकी लघुखरतर शाखा के द्वितीय जिनेश्वरसूरि के पौत्र शिष्य और जिनसिंहसूरि के शिष्य है । भारत के तुगलक शाखा के सम्राटों में मोहम्मद तुगलक के ये प्रतिबोधक भी हैं। प्राकृत और संस्कृत साहित्य के ये प्रौढ़ मनीषियों मे से थे । इनके Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 अनुसन्धान ३४ I द्वारा निर्मित असाधारण कृतियों में विविध तीर्थकल्प, विधि मार्ग प्रपा और द्वयाश्रय महाकाव्य ( कातन्त्र व्याकरण के सूत्र और श्रेणिक चरित्र) है । ये माँ पद्मावती के साधक थे । इनके चमत्कारों का वर्णन तपागच्छीय शुभशीलगणि कृत पञ्चशतीकथाप्रबन्ध और सोमधर्मगणि कृत उपदेश सप्ततिका में प्राप्त होते हैं । इनके द्वारा लगभग ७०० स्तोत्रों का निर्माण हुआ था और कथानकों के अनुसार ५०० स्तोत्र तपागच्छ के आचार्य सोमप्रभसूरि को समर्पित किए थे । इनके रचित स्तोत्रों में से लगभग ८० स्तोत्र प्राप्त होते हैं । इन स्तोत्रों में से कई स्तोत्र अष्टभाषामय, षड्भाषामय, पारसी भाषामय भी प्राप्त होते हैं । इनके उत्कट वैदुष्य को देखते हुए इस स्तोत्र के कर्त्ता भी जिनप्रभसूरि हो सकते है । प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों की लेखन परम्परा में कई स्तोत्रकारों ने अपना नाम श्लेषालङ्कार में, चित्र काव्य में और नाम के पर्यायवाची शब्दों में अथवा आद्यन्त के रूप में भी प्रदान किए हैं। साथ ही कई कृतियों में प्रणेता का नाम न होने पर भी तत्कालीन आचार्यों एवं प्रतिलिपिकारों द्वारा उस आचार्य की कृति को श्रद्धा के साथ मानते हुए अन्त में कृतिरियं श्री जिन...सूरीणां लिखते हैं । इसी प्रकार इस कृति में प्रणेता का नाम न होने पर भी कृतिरियं श्री जिनप्रभसूरीणां लिखा हो और उसी के आधार से उन्हीं की यह कृति मानी जाती हो, अत: यह कृति जिनप्रभसूरि की मानने में कोई आपत्ति नहीं है । पद्य १२ दूसरे चरण में अबलकर - भु (भू ) रुहकुंजर के स्थान पर सबलकलिभूरुहकुञ्जर और चतुर्थ चरण में मम भूरुहकुंजर (?) के स्थान पर मम केवलिकुञ्जर प्राप्त है । दिनाङ्क २९-९-०५ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवेम्बर 57 विहंगावलोकन-३३ उपा. भुवनचन्द्र तेत्रीसमा अंकना अलंकार समी बे विशिष्ट रचनाओ छे. उपाध्यायप्रवर श्री यशोविजयजीनी गणिअवस्था दरम्यान रचायेल श्री सुविधिपार्श्व जिनस्तव (जे अपूर्ण प्राप्त थइ छे) अने श्री शंखेश्वरपार्श्वजिनस्तुति अने ए सम्पादित थई छे. संशोधनप्रिय ज नहि, पण संशोधनभक्त एवा मुनि श्री धुरंधरविजयजी द्वारा. कृतिओनी विशिष्टता अनेक रीते छे : १. बने अद्यावधि अप्रगट रचनाओ छे. २. उपाध्यायजीना गुरुना हाथे लखायेली छे. ३. बन्ने कृतिओ पूर्वर्षिरचित अन्य कृतिओनी अनुकृति छे. ४. सम्भवतः उपाध्यायजी म.ना साहित्यसर्जनना प्रारम्भकाळनी रचनाओ जणाय छे.. प्राकृत छन्दो अने अपभ्रंशकालीन छन्दोमां पण उपाध्यायजी म.नी लेखिनी अनवरुद्ध रूपे वहेती अहीं जोवा मळे छे. प्रत्येक अभ्यासीए उपाध्यायजी म.नी सर्वतन्त्र स्वतन्त्र प्रतिभाना एक अलग आयामना दर्शन माटे पण आ रचनाओ वांची जवी जोइए, दुर्भाग्य एटलुंज छे के 'अजित-शान्तिस्तोत्र'ना अनुकरण रूपे रचित 'सुविधि-पार्श्वस्तव'ना अन्तिम ९ श्लोको ज सम्पादक मुनिवरने हाथ लाग्या छे. बाकीना श्लोकोनां पानां पण आ ज रीते संशोधनलब्धवर एवा सम्पादक मुनिवरने हाथ चढे एवा सुखद योगानुयोगनी कामना मनमां थई आवे. पृ. ५, श्लोक. १६ : 'संखेसरपासणाह !' एवं संबोधन नहीं, पण 'संखेसरपासणाह समरण...' एवं सामासिक पद आ स्थळे योग्य गणाशे. पृ. ६, श्लो. २० : 'विरविज्जुईई' छे त्यां 'तिमिराई व रविज्जुईई' एवो पाठ वधु संगत बने. म. विनयसागरजी द्वारा बे सम्पादनो तथा बे चर्चापत्र आ अंकमां सामेल छे. वृद्धवये पण संशोधन-सम्पादननी प्रवृत्ति तेओ करता ज रहे छे ए आपणा माटे आनन्दनी वात छे. जयशेखर लिखित विज्ञप्तिलेख प्रमाणमां अर्वाचीन छे, परंतु जैन श्रमणोमां साहित्य दैनिक/सामाजिक कार्यक्रमोमां केटलुं ओतप्रोत हतुं तेनुं दर्शन करावी जाय छे. सम्पादकीयमा जणाव्युं छे तेम, वि.सं. १४४१मां लखायेलो विज्ञप्ति लेख मळे छे. प्रस्तुत पत्र १८९७ मां लखायो छे. विज्ञप्तिलेखनी परिपाटी पांचसो वर्ष सुधी तो प्रचलित रही हशे एवं कहेवामां वांधो नथी. मुनिश्री कल्याणकीर्तिविजयजीए विविध गेय रचनाओ सम्पादित करी छे. 'आदिनाथ स्तोत्र' श्लो. १मां 'रिसह!' एवं सम्बोधनरूप उचित बने' श्लोक ४मां Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 अनुसन्धान ३४ 'इग्यारसी' एवो पाठ अपभ्रंशनो न होइ शके. 'नेमिनाथस्तोत्र' श्लो. १मां 'चरीयन्निज्जइ' छे त्यां 'नेमिचरीय(व)निज्जइ' होइ शके. श्लो. ३ मां 'कुल तसुण' छे त्यां "कुलतरणि' जेवो शब्द विचारी शकाय. श्लो. ४ मां 'रायमह' नहि, 'रायमई' होवू जोइए. 'पार्श्वनाथस्तोत्र'मां श्लो. ३मां 'जम्मुत्सवो' त्यां (जम्मुस्सवो) एम सुधारेलो पाठ कौंसमां आपवो जोइए. 'महावीर स्तोत्र'मां श्लो. ४मां 'वालंभ' शब्द छे. तेनुं मूळ 'वल्लभ' शब्द छे, अने 'वालम' रूपे गुजरातीमां ऊतरी आव्यो छे. वचगाळानुं रूप 'वालंभ' अहीं जोवा मळे छे, ते भाषाशास्त्रीओ माटे रसप्रद बनशे. ___ महाकवि मेघविजयगणि विरचित 'सेवालेख' पण विज्ञप्तिपत्र छे. कर्ताना साहित्यजीवनना प्रारंभकाळनी आ रचना होय तो १७मा शतकनो अंतभाग आनो रचनासमय गणी शकाय. संस्कृत अने साहित्य श्रमणसंघमां केवा आत्मसात् थइ गयां हतां तेनुं नेत्रदीपक दर्शन आवां पत्रो करावे छे. चालती कलमे लखायेली आ लघुकाव्य समी रचनामा उत्प्रेक्षा-उपमा जेवा अर्थालंकारो अने वर्णानुप्रास जेवा शब्दालंकारो छूटे हाथे जाणे वेरायां छे. अनायास रचाइ जता प्रासना नमूना जरा जोइए : "श्चिराय रोचिः शुचि संचिनोति' ९१६), 'नष्ठोऽष्टः समतिष्ट दिष्टा०' (२), 'त्वत्सेवया नर्मदया दयालो (१६५), १८८मो श्लोक ध्वनिओना पुनरावर्तनथी केवो कर्णमधुर बन्यो छे ते तो तेनुं गान कराय त्यारे ज समजाय. समर्थ कविओ नवा शब्दोना स्रष्टा बनता होय छे. कविवर मेघविजयजीनी कलमे एक एवो नवो शब्द सर्यो छे : स्वाधीयते (१२९). 'स्व' अहीं उपसर्ग तरीके आव्यो छे ने 'स्वाध्याय करवो' एवा अर्थनो नवो धातु जन्म पाम्यो छे. १पृथुक' (१५४) =पौंआ होवानुं समजाय छे. आ बन्ने शब्दो अन्यत्र जोवा मळ्या छे के केम ते विषे सम्पादक अथवा अन्य कोई विद्वान् प्रकाश पाडे एवी अपेक्षा. केटलांक शुद्धिस्थानो : श्लो. ४४ अनेकशोभासुर अनेकशोभाभर संभू (?)तानि संभृतानि श्लो. ६७ . दर्वी... दुर्वीपस्य श्लो. ६८ - पाठ त्रुटित नथी, श्लोक पूरो छे. श्लो. ६९ पुरावनीपौरा० पुरावनीपो, राभेय. श्लो. ७४ सु -नोपकारं स्युः सुजनोपकार० १. पृथुक ए पहुंआ अर्थमा प्रयोजातो रह्यो छे. 'पृथुकः स्याच्चिपिटकः' एवं अमरकोष पण प्रमाणे छे. (चिपिटक-चीवडो =चेवडो). Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवेम्बर 59 श्लो. ८५ रजो सिद्धि सिद्धिः वैश्रयणा० वै श्रमणा० श्लो. ११० मध्येन नु मध्ये ननु श्लो. १६१ रेजो (जे?) । श्लो. १६९ स (सु) नमसाध्य(?) सुनर्मसाध्यं श्लो. १७९ मनुजानिहिश मनुजानिहेश ! ___'चित्रकाव्यानि' शीर्षक श्लोकसंग्रह संस्कृतज्ञ जनो माटे उजाणी समान छे. पृ. ५४ पर आपेलो 'बिन्दुमयाली' नामक समस्याप्रकार अक्षरोने स्थाने बिन्दु (०)ओने मात्र / रेफ / विसर्ग विगेरे लगाडीने लखवाथी बने छ- एवं तेना नामथी सूचित थाय छे. सम्पादके 'ठ'कारनो उपयोग को छे, ते विचारणीय छे. वर्णोने स्थाने बिन्दुओ वापरीने लखेला श्लोकने ओळखी बताववा आह्वान करातुं हशे. देखीतुं छे के साहित्यथी सुपरिचित अभ्यासी-रसिक जन ज आq आह्वान झीली शके. पृ. ५४ पर क(?)मुख० छे त्यां स्वमुख० पाठ समुचित जणाय छे. 'रागमाला' संगीतज्ञो माटे रसप्रद बने एवी रचना छे. शाब्दिक अशुद्धि अर्थघटन माटे बाधक बने छे, तेम कडीना चरणो निर्धारित करवामां पण बाधक बने छे. श्री शान्तिनाथ भगवानना जीवनने विषय तरीके लइने विविध रागोमां शृंखलाबद्ध पदोनी आ रागमाला अन्य रागमालाओथी अलग स्वरूप धरावे छे. _ 'प्रणम्यपदसमाधानम्' ए प्राचीन 'वाद' अने आधुनिक Debate ना प्रकारनी रचना छे. पृ. ७० पर 'श्रुतिकरुः' छपायुं छे त्यां साचो शब्द 'श्रुतिकटुः' छे. पृ. ७३मां 'स्वापरसन' छे त्यां 'स्वापहसन...' समजवू जोईए. प्रतिना अन्ते खाली रहेती जगामां लेखको अथवा प्रतनो मालिको प्रकीर्ण माहिती अथवा श्लोक / दूहा / पद लखी राखता. आ रचनानी हस्तप्रतना अन्ते आवो एक समस्याश्लोक छे. समस्यानो उत्तर 'कुवलय' आपेलो ज छे, ते जोतां प्रथम चरणनी अस्पष्टता दूर थई जाय छे : किं तद्वर्णचतुष्टयेन वनजं वर्णैस्त्रिभिभूषणं अनु. ३३मां छपायेल अनु. ३२ना विहंगावलोकनमां पृ. ८६ पर प्रेसदोषथी थोडा शब्दो छूटी गया छे. 'प्रभुस्तवननो महिमा...' ए शब्दोथी शरू थती पंक्ति आ रीते वांचवी : 'प्रभुस्तवननो महिमा वर्णवती आ कृतिमां परमात्माना गुण / गरिमा । उपकारोना स्मरण । कीर्तन सिवाय चमत्कार । भौतिक लाभ जेवी वातो क्यांय नथी देखाती.' जैन देरासर, नानी खाखर-३७०४३५, कच्छ, गुजरात Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 अनुसन्धान ३४ ढूंक नोंध : एक विलक्षण धातुप्रतिमा वर्षो पूर्वे कोई विहारक्षेत्रमांना जैन चैत्यमां ओक धातुप्रतिमा जोयेली (जुओ मुखपृष्ठ). ते परनो लेख अहीं आप्यो छे. ए लेख प्रमाणे आ प्रतिमा भदा नामक मंत्रीनी छे. आ मंत्री कया राज्यना के गामना हता ते स्पष्टता लेखथी मळती नथी. लेखमां क्यांय गाम/देशनुं नाम नथी. लेख महदंशे स्वयंस्पष्ट छे. तेमां बे वार संघहत्र एवो शब्द आवे छे, तेनो अर्थ संघपतिसंघवी थतो हशे के पछी संघना आगेवान तरीकेनी ए ओळख हशे? संघहत्र शब्द पण जरा विचित्र-अपभ्रष्ट जणाय छे. वळी, ते शब्द पुरुषवाचक नाम (लाडण) तथा स्त्रीवाचक नाम (सुहागदे) बन्नेनी साथे जोडायेलो जोवा मळे छे. मूर्ति माटे मूत्रि एवं भ्रष्ट रूप प्रयोजायुं छे, ते बात पण संघहत्रने उकेलवामां मददरूप बने तेम छे. प्रतिमानो परिचय : अश्वारूढ भदा मंत्रीनी सामे/आगळ एक सेवक ऊभो छे. अश्वना मस्तक नजीक चरणपगलां छे, जे सम्भवतः तीर्थंकरनां होवां जोईए. मंत्रीना माथा पर जिनप्रतिमा छे. प्रतिमा ऊपर कळश अने तेनीये ऊपर मयूर तथा सर्प जोडाजोड छे, ते जोतां आ शत्रुजयतीर्थावतार प्रतिमानुं स्वरूप होय तेवू मानी शकाय. पादुका ते रायणपगला होय. नीचेना भागे मध्यमां सिंह छे, जे मंत्री भदाना पराक्रमनो संकेत आपतो होवानुं जणाय छे. तेनी डाबे प्रायः कळशधर सेवक छे, तो जमणे सरोवर- चिह्न छे.. प्रतिमालेख आ प्रमाणे छे : स्वस्तिश्री संवत १५७४ वर्षे महामासे क्रस्णपक्षे २ रवौ श्रीभावडरायगच्छे श्रीकालकाचार्यसंताने षांटडगोत्रे मंत्रिजावड भा. हारू पुत्र जिणदास-ऋषभदास-संघहत्र लाडण घपा मंत्रि संघहत्र भा० सुहागदे पु० कर्मसी-वासण-भीमा-डाहीआ मं. कर्मसी भा. जोगी पु० नरबद-पुनराजयुता स्वश्रेयसे कल्याणार्थं मंत्रीश्वर भदा मूत्रि कारापिता श्रीभावडरायगच्छे ।। - शी. Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EP CP CLP पाव DSS PCPCRePCPCDCPCPCPCPC Depepaवो वरायगर नाकाला जानाजीरावमापता। DOOनादान पुत्रालदास कासलाडाचपोम JO OD G Fb21719 DER ER AdSPIRI BILL INDIA PORNORMERI HD CD IPaa कारावती MIGRया PCOSना EPCDCDCCBEDORE o आवरणचित्र : सं. 1574 नी एक विलक्षण धातुप्रतिमा ( जुओ पृ. 60) ".