________________
नवेम्बर
55
पत्रचर्चा षड्भाषाबद्ध चन्द्रप्रभस्तव के कर्ता जिनप्रभसरि हैं।
___ म. विनयसागर
प्राकृत भाषा में गुम है । इस कृति के कख न
अनुसन्धान अंक ३३ पृष्ठ २० पर मुनि श्री कल्याणकीर्तिविजयजीका जिनभक्तिमय विविध गेय रचनाओं शीर्षक लेख प्रकाशित हुआ है । इस लेख में पृष्ठ २५-२६. पर चन्द्रप्रभस्तव प्रकाशित है । यह स्तोत्र छ: भाषाओं-संस्कृत, प्राकृत, शूरसेनी, मागधी, पैशाचिकी, चूलिका पैशाचिकी, अपभ्रंश और समसंस्कृत प्राकृत भाषा में गुम्फित है। प्रत्येक भाषा में दोदो-पद्य है और अन्तिम पद्य घत्ता छन्द में है। इस कृति के कर्ता के सम्बन्ध में लेखक ने पृष्ठ-२० पर लिखा है- कर्त्तानो कोई उल्लेख नथी अर्थात् कर्ता का कोई उल्लेख नहीं है । इस सम्बन्ध में ज्ञातव्य है :
१. प्रकरण रत्नाकर भाग-२ जो कि पण्डित भीमसिंह माणेक ने बम्बई से सन् १८७६ में प्रकाशित किया है। उसके पृष्ठ ३६९ पर यह स्तोत्र प्रकाशित हुआ है । इस स्तोत्र के अन्त में लिखा है- इति श्री जिनप्रभसूरिकृतचन्द्रप्रभस्वामिसत्कं षड्भाषास्तवनं सम्पूर्णम् ।
___२. विधि मार्ग प्रपा, जिनप्रभसूरि कृत की भूमिका में अगरचन्द भवरलाल नाहटा ने पृष्ठ-१८ पर स्तुति-स्तोत्रादि कि सूची देते हुए षड्भाषामय चन्द्रप्रभ जिनस्तुति (नमो महासेननरेन्द्रतनुज) गाथा-१३ जिनप्रभसूरि का ही माना है।
३. मैंने (विनयसागर) भी शासनप्रभावक आचार्य जिनप्रभ और उनका साहित्य पुस्तक के पृष्ठ-९९ पर जिनप्रभसूरि की ही कृति माना है।
आचार्य जिनप्रभसूरि १४वीं-१५वीं शताब्दी के प्रभावक आचार्यों एवं असाधारण विद्वानों में से हैं । ये खरतरगच्छकी लघुखरतर शाखा के द्वितीय जिनेश्वरसूरि के पौत्र शिष्य और जिनसिंहसूरि के शिष्य है । भारत के तुगलक शाखा के सम्राटों में मोहम्मद तुगलक के ये प्रतिबोधक भी हैं। प्राकृत और संस्कृत साहित्य के ये प्रौढ़ मनीषियों मे से थे । इनके
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org