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________________ नवेम्बर 23 श्रीगुणविजयरचिता जातिविवृतिः ॥ भूमिका सं. विजयशीलचन्द्रसूरि विक्रमना १४मा शतकमां थई गयेला मनाता, तर्कपण्डित शिवादित्ये वैशेषिकदर्शन- प्रतिपादन करतो 'सप्तपदार्थी' नामे ग्रन्थ रच्यो छे. तेना उपर १६मा शतकमां थयेला, दाक्षिणात्य पण्डित, माधवसरस्वती नामना विद्वान् यतीन्द्रे 'मितभाषिणी' नामनी टीकानी रचना करेल छे. आ टीकामां 'जाति' तरीके तर्कशास्त्रमा प्रसिद्ध एवा केटलाक धर्मोनां खास लक्षणो आपवामां आव्यां छे, जे अध्येताने समजवामां जराक कठिन पडे तेवां छे. तेवां १८ लक्षणो चुंटी काढीने तेनुं अर्थघटन तथा तेनुं पदकृत्य, आ 'जातिविवृति' मां करवामां आवेल छे. आनी सहायताथी अध्येताने ते कठिन लक्षणो एकदम सुगम थई पडे छे, तेमां शंका नथी. आजकाल, तर्कशास्त्रना अभ्यासमा प्रवेश करनार विद्यार्थीने जेम अन्नम्भट्टनो 'तर्कसंग्रह' शीखववामां आवे छे, तेम एक काळे आ 'सप्तपदार्थी'नुं अध्ययन करावातुं हशे तेम प्रतीत थाय छे. तेथी ज तेना पर अनेक टीका ओ थई होवानुं जोवा मळे छे, तो ते टीकागत कठिन पदार्थोना आ जातिविवृति जेवां सरलीकरण पण प्राप्त थाय छे. जातिविवृतिना रचयिता श्रीगुणविजयजी सत्तरमा शतकमां थयेला विद्वान् जैन मुनि छे. १६-१७मा शतकना जगप्रसिद्ध जैन सूरि श्रीहीरविजयसूरिनी शिष्यपरम्परामां थयेल उपाध्याय श्रीसुमतिविजय गणिना तेओ शिष्य हता. तेमणे आ विवृतिमां बे वार 'प्रशस्त(पाद)भाष्यना सन्दर्भ टांक्या छे ते जोतां, तेओ न्याय-वैशेषिक दर्शनना रसिक अने ऊंडा अभ्यासी होय तेम मानी शकाय. केटलांक स्थानो आमां एवां पण छे, जेमां विवृतिकारे मितभाषिणीकारनी क्षति प्रत्ये अंगुलिनिर्देश को होय. जेम के - परत्वत्व जाति,, अपरत्वत्व जाति,, द्रवत्व, तथा सितत्व- - आ बधां लक्षणोनुं विवरण जुओ. आमां एवां प्रत्ये अंग अपरत्वत्व वि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520534
Book TitleAnusandhan 2005 11 SrNo 34
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2005
Total Pages66
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size4 MB
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