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३. 'केसरि-दोत्तडीनाओ' (गा. २३९७, पृ. २१९) ४. 'फोडावियं च जम्हा बिल्लं बिल्लेण बुद्धीए' (गा. ५६२९, पृ. ५१३)
५. हमारी भाषाओं में एक मुहावरा बहुत प्रसिद्ध है : " करमे - धरमे " 'करमे - धरमे' करना पड़ा; 'करमे - धरमे' हो गया, इत्यादि । यह मुहावरा यहाँ बार-बार प्रयोजा गया है । यथा
'कम्मधम्मजोगा' (गा. ३६०, ११९३, १५५८, १७९६, ३०८६, ६७१०, ७७६५ वगैरह ) ।
अनुसन्धान ३४
(७)
पृ. ६६८-६९ पर संक्षिप्त किन्तु विविधछन्दोमण्डित वसन्तऋतुवर्णन (गा. ७३२५-२९) भी द्रष्टव्य है ।
( ८ )
बहुत सारे विशिष्ट शब्दप्रयोग इस में मिलते हैं, जो अभ्यासियों के लिये रसप्रद है । उदाहरणार्थ :
मन्दिर की प्रदक्षिणा (परिक्रमा) के परिसर को भ्रमी ( भ्रमन्ती) (गुजराती- 'भमती' कहते हैं । उसके लिये यहाँ 'भवंतिय' शब्द (गा. ५२६९, पृ. ४८१) का प्रयोग मिलता है। दादरा (सीडी) के लिए 'दद्दर' (गा. ४८४५, पृ. ४४ २ ) का प्रयोग मिलता है । 'भरवसो' शब्द 'भरोसा' के अर्थ में प्राप्त है (५८५१, पृ. ५३४) 'खडप्फडा' का प्रयोग किया गया है ( गा. ५८५९, पृ. ५३३) । 'पिंढारा' शब्द हमारे यहाँ यह प्रकारकी ठगजाति के लिये प्रयोजाता जाता है । उसका प्रयोग यहाँ 'पिंडारा' रूप से मिल रहा है (गा. ६६७९, पृ. ६०९) । 'लड्ड' शब्द भी है, जो शायद 'लाड' वाचक है (गा. ८०८३, पृ. ७३७) । ऐसे और भी अनेक शब्दप्रयोग हैं, जो तज्ज्ञों के लिए ध्यानाह हैं ।
इन सभी शब्दों की सूचि बनाकर, यह लेख लिखने से पहले, भायाणी साहब को भेजकर उन से इसका विवरण पाने का मैंने सोचा था । किन्तु उनके दुःखद निधन से वह बात मन में ही रह गई ।
अन्य और भी रसप्रद शोध - सामग्री इस बृहत्काय कथाग्रन्थ में उपलब्ध हो सकती है । अभ्यासियों उसे प्रकाश में लाए ऐसी अभ्यर्थना ।
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