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________________ अनुसन्धान ३४ नहीं" (गा. ४०४३-४५, पृ. ३६९) । ६. एक और विशिष्ट बात इस ग्रन्थ की प्रशस्ति से मिलती है । हमारे यहाँ तीर्थ के या मन्दिर के नाम समर्पित की जानेवाली मिल्कत को 'देवद्रव्य' ही मानने की आजकल पद्धति है । यह मान्यता कब से प्रविष्ट हुई, पता नहीं । यह ग्रन्थ कुछ अलग ही बता रहा है । ग्रन्थकार श्रीविजयसिंहाचार्य प्रशस्ति में लिखते हैं कि “गोपादित्य श्रावक ने सोमेश्वरनगर का अपना त्रिभूमिक घर, श्रीउज्जयन्ततीर्थ के श्रीनेमिनाथ को भेंट किया, और उसने संघ को कहा कि मुनि-समूह के निवासार्थ यह घर मैं आपको अर्पण करता हूँ" (प्रशस्ति गा. १३१४, पृ. ८१७) । यह तो स्पष्ट है कि मकान संघ को ही सौंपा जा सकता है। किन्तु वह जब नेमिनाथ के नाम भेंट किया जाता है तब तो वह, आज की धारणा के अनुसार, देवद्रव्य ही बन जाएगा; फिर उसमें मुनि-संघ का निवास कैसे हो सकता है ? । फिर भी ग्रन्थकार ने उस स्थान में निवास किया की है और इस ग्रन्थ का सर्जन भी वहाँ रहकर ही किया है, यह तो ऐतिहासिक तथ्य है ही (गा. १५-१६, पृ. ८१७) । मुखवस्त्रिका-मुहपत्ती जैन साधु का एक आवश्यक उपकरण है। वह हाथ में ही रखा जाता था - ग्रन्थकार के काल में, ऐसा स्पष्ट उल्लेख इस ग्रन्थ में पाया जाता है (गा. ५८९३, पृ. ५३७) (३) और अब देखें कुछ सांस्कृतिक बातों का उल्लेख : १. अनुकूल बात सुनते ही शुकन की गाँठ बांधने का रिवाज (गा. ९४०, पृ. ८८); २. कुमार-अवस्था पाते ही (राजपुत्र का भी) चूला (शिखा) संस्कार व उपनयन संस्कार (गा. १७४९, पृ. १६०); ३. सामुद्रकशास्त्र (गा. १९२२-६०, पृ. १७६-१८०); ४. समुद्र में उतरने से पहले नेत्र, नासिका व कान को ढांकने की बात (गा. ३३५०, पृ. ३०६); ५. जहाज चलानेवालों की परिभाषा (गा. ३३६८-७३, पृ. ३०७-८); ६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520534
Book TitleAnusandhan 2005 11 SrNo 34
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2005
Total Pages66
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size4 MB
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