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अनुसन्धान ३४
४. युद्ध में मारे गए सैनिकों की खांभी (भटस्तम्भ) बनाने के रिवाज़ का भी निर्देश गा. ७१३७, पृ. ६५१ में पाया जाता है ।
एक पौराणिक (जैन ऐतिहासिक) मान्यता का भी सूचन इसमें मिलता है : अंगइया ( अंगदिका ? ) नगरी के जिनालय की रत्नमय जिनप्रतिमा का रावण व राम के द्वारा प्रतिष्ठित किये जाने का सूचन (गा. ४५८६, पृ. ४१८) । वैसे स्तम्भन पार्श्वनाथ की रत्नप्रतिमा, जो अभी खम्भात में विद्यमान है, उसकी प्रतिष्ठा राम ने की थी, ऐसी जैन पौराणिक मान्यता है ही ।
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(५)
ग्रन्थ में कहीं कहीं श्रीउमास्वातिजी एवं श्रीहरिभद्रसूरिजी के प्रतिपादनों की छाया भी देखने मिलती है । यथा
१.
विणयफलं सूस्सूसा गुरुसुस्सूसाफलं सुयन्नाणं । नाणस्स फलं विरई विरइफलं आसवनिरोहो ||६०७२ || संवरफलं च सुतवो तवरस्स पुण निज्जरा फलं तीए । होइ फलं कम्मखओ तस्स फलं केवलं नाणं ||६०७३ || केवलनाणस्स फलं अव्वाबाहो निरामओ मोक्खो । तम्हा कम्मखयाणं सव्वेसिं भायणं विणओ ||६०७४|| (भु.सुं. पृ. ५५४) अब यह पाठ 'प्रशमरति प्रकरण (वा. उमास्वाति)' का देखें : विनयफलं शुश्रूषा गुरुशुश्रूषाफलं श्रुतज्ञानम् । ज्ञानस्य फलं विरतिर्विरतिफलं चास्रवनिरोधः ॥७२॥ संवरफलं तपोबलमथ तपसो निर्जरा फलं दृष्टम् । तस्मात् क्रियानिवृत्तिः क्रियानिवृत्तेरयोगित्वम् ॥७३॥ योगनिरोधाद् भवसन्ततिक्षयः सन्ततिक्षयान्मोक्षः । तस्मात् कल्याणानां सर्वेषां भाजनं विनयः ॥ ७४ ॥ २. वा उमास्वाति कृत तत्त्वार्थसूत्र - सम्बद्ध अन्तिमोपदेशकारिका में आया हुआ यह श्लोक, -
दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्कुरः ।
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