Book Title: Anekant 1954 02
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अने अनेकान्त वर्ष १२ किरण & XXIIXX का न्त सम्पादक- जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' सोनगढ़ के सन्त श्री सत्पुरुष कानजी स्वामी श्री कानजी स्वामी करीब एक हजार साधर्मी भाइयोंके साथ श्री ऊर्जयन्तगिरि ( गिरनार ) की यात्रार्थं गए हैं । उनके सदुपदेश से गुजरातप्रान्त में अनेक दिगम्बर जैनमन्दिरोंका निर्माण हुआ और हो रहा है । फरवरी सन् १६५४ XXXXXXXXX D Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. शान्तिनाथ स्तुति : [श्री श्रुतसागर सूरि २. आठ शंकाओंका समाधान[तुलक सिद्धि सागर ३. हमारी तीर्थ यात्रा के संस्मरण[ परमानन्द शास्त्री - ४. राष्ट्र कूट कालमें जैन धर्म [डा० अ० स. अल्तेकर विषय-सूची २५१ २७२ नोट- दस ग्राहक बनानेवाले सहायकोंको 'अनेकान्त' एक वर्ष तक भेंट स्वरूप भेजा जायगा । २७६ २८३ ५. मथुराके जैन स्तूपादिकी [यात्रा के महत्वपूर्ण उल्लेख ६. अपभ्रन्श भाषाके अप्रकाशित कुछ ग्रन्थ - [ परमानन्द जैन संस्कृत साहित्य के विकास में - [जैन विद्वानोंका सहयोग [ लक्ष्मीचन्द ८. दोहाणुपेहा अनेकान्तकी सहायताके सात मार्ग (१) अनेकान्तके 'संत्तक' तथा 'सहायक' बनना और बनाना । ( २ ) स्वयं अनेकान्तके ग्राहक बनना तथा दूसरोंको बनाना । श्री- जिज्ञासा उन श्रियोंको जानने की इच्छा है जो खुल्लकों-ऐलकों तथा मुनियोंके साथ लगी रहती हैं और जिनका सूचन तुल्लक-एलकोंके नामके साथ 'श्री १०५' और मुनियोंके नामके साथ 'श्री १०८' लिखकर किया जाता है। ये दोनों वर्गकी श्रियाँ यदि भिन्न भिन्न हैं तो उन सबके अलग-अलग नाम मालूम होनेकी जरूरत है और यदि मुनियों को १०८ श्रियों में १०५ वे ही हैं जो तुलकों ऐलकोंके साथ रहती हैं तो १०५ श्रियोंके नामके साथ केवल उन तीन श्रियोंके नाम और दे देनेकी जरूरत होगी जो तुल्लक-ऐलकों की अपेक्षा मुनियों में अधिक पाई जाती है। साथ ही यह भी जानने की इच्छा है कि श्रियोंका वह विधान कौन से श्रागम अथवा श्रार्य ग्रन्थ में पाया जाता है, कबसे उनकी संख्या- सूचनका यह व्यवहार चालू हुआ है और उसको चालू करनेके लिये क्या जरूरत उपस्थित हुई है। अतः मुनिमहाराजों, तुलकों और दूसरे विद्वानोंसे भी विनम्र निवेदन है कि वे इस विषय में समुचित प्रकाश डालकर मेरी जिज्ञासाको तृप्त करनेकी कृपा करें। इस कृपाके लिये मैं उनका बहुत आभारी रहूँगा । - जुगलकिशोर मुख्तार मेरा २८८ (३) विवाह - शादी आदि दानके अवसरों पर अनेकान्तको अच्छी सहायता भेजना तथा भिजवाना । (४) अपनी ओर से दूसरोंको अनेकान्त भेंट-स्वरूर अथवा फ्री भिजवाना; जैसे विद्या संस्थाओं लायब्र ेरियों, सभा-सोसाइटियों और जैन- श्रजैन विद्वानोंको । २६३ (५) विद्यार्थियों आदिको अनेकान्त अर्ध मूल्य में देनेके लिये २५), २०) श्रादिकी सहायता भेजना। २५ की सहायतामें १० को अनेकान्त अर्धमूल्यमें भेजा जा सकेगा । दिलाना । ( ६ ) अनेकान्तके ग्राहकोंको अच्छे ग्रन्थ उपहारमें देना तथा ( ७ ) लोकहितकी साधना में सहायक अच्छे सुन्दर लेख प्रकाशनार्थं जुटाना । लिखकर भेजना तथा चित्रादि सामग्रीको २६१ ३०२ እ For Personal & Private Use Only सहायतादि भेजने तथा पत्रव्यवहारका पताः मैनेजर 'अनेकान्त' वीरसेवामन्दिर, १, दरियागंज, देहली। . Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहम वस्ततत्व-सद्यातक ARRIA+ विश्व तत्त्व-प्रकाशक वार्षिक मूल्य ५) एक किरण का मूल्य ॥) नीतिविरोधध्वंसी लोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्यबीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः वर्ष १२ किरण ६ फरवरी १६५४ सम्पादक-जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर' वीरसेवामन्दिर, १ दरियागंज, देहली माघ वीर नि० संवत् २४८०, वि० संवत २०१० श्रीश्रु तसागरमूरिविरचिता शांतिनाथस्तुतिः वाचामगम्यो मनसोऽपि दूरः, कायः कथं वेत्तुमलं तमज्ञः । तथापि भक्त्या त्रितयेन बंद्यः, श्रीशांतिनाथः शरणं ममाऽस्तु ।। १ ।। महीलताऽहिमृगराएमृगः स्यादिभः स्तुभोऽभोदचयो दवाग्निः । नाम्नापि यस्याऽसुमतां स देवः श्रीशांतिनाथः शरणं ममाऽस्तु ॥ २॥ यः संवरारिनकदाश्रवोभूच्छुचिर्नसंतापकरः परेषां । चक्री तथाप्यत्र न च द्विजिह्वः, श्रीशांतिनाथः शरणं ममाऽस्तु ॥ ३ ॥ विघ्नव्युदास सिजगद्व्युदासः प्रकाममिद्रैः प्रणतः सदा सः । संपत्तिकर्ता विपदेकहर्ता, श्रीशांतिनाथः शरणं ममाऽस्तु ।। ४ ।। न दुर्गति व यशोविनाशो न चाल्पमृत्युन रुजां प्रवेशः। यत्सेवया भद्रमिदं चतुर्दा श्रीशांतिनाथः शरणं ममाऽस्तु ।। ५ ।। कृतांजलिर्यस्य सदा पिनाकी, सहाच्युतस्तस्य कियान् पिनाकी । योगैकलक्ष्यः कृतिकल्पवृक्षः श्रीशांतिनाथः शरणं ममाऽस्तु ॥६॥ नयस्त्रिवेदी परमस्त्रिवेदी निराकृता येन विदां त्रिवेदी। तपःकुठारस्मरदारुभेदी, श्रीशांतिनाथः शरणं ममाऽस्तु ॥७॥ निर्दोषरूपः पदनम्रभूपः, कल कमुक्तः सदृगश्मयुक्तः । - आनन्दसांद्रो भुवनैकचन्द्रः, श्रीशांतिनाथः शरणं म्माऽस्तु ।।८।। स्तुतिःकृतेयं जिननाथ-भक्त्या, विदांवरेण श्रुतसागरेण । बोधिः समाधिश्चनिधिबुधानामिमां सदाऽऽदायजनो जिनोऽस्तु ॥६॥ ॥ इति श्रीशांतिनाथस्तुतिः समाप्ता ॥ For Personal & Private Use Only Jain Education Interational Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अाठ शंकाओंका समाधान (श्री० १०५ सुल्लक सिद्धसागर ) समयसार की १५वीं गाथा और श्री कान जी स्वामी नामक लेखमें जो अनेकान्तकी गत किरण में प्रकाशित हाहै मुख्तार श्री जुगलकिशोर नोकी पाठ शंकाए प्रकाश में आई हैं जिनका म्माधान मेरी हरिसे निम्न प्रकार हैआठ शंका में और सिद्धसेनाचार्यने स्वयम्भूस्तुति (प्रथमद्वात्रिं. (१) आत्माको प्रबद्धस्पृष्ट, अनन्य और अविशेषरूपसे शिका 1) में 'अनादिमध्यान्त' पदका प्रयोग किया देखने पर सारे जिनशासनको कैसे देखा जाता है? है। समयसारके एक कलशमें अमृतचन्द्राचार्यने भी (२) उस जिनशासनका क्या रूप है जिसे उस द्रष्टाके 'मध्याद्यन्तावभागमुक्त' जैसे शब्दों द्वारा इसी बातका द्वारा पूर्णतः देखा जाता है? उल्लेख किया है। इन सब बातोंको भी ध्यान में (३) वह जिनशासन श्रीकुन्दकुन्द, समन्तभद्र. उमास्वाति लेना चाहिये पार तब यह निणय करना चाहिये कि और अकलंक जैसे महान् प्राचार्योंके द्वारा प्रतिपादित क्या उक्त सुझाव ठाक है? याद ठीक नहीं हैं तो क्या? अथवा संसूचित जिनशासनसे क्या कुछ भिन्न है ? (१) यदि भिन्न नहीं है तो इन सबके द्वारा प्रतिपादित (4) १४वीं गाथामें शुद्धनयके विषयभूत आत्माके लिए एवं संसूचित जिनशासनके साथ उसकी संगति कैसे पाँच विशेषणोका प्रयोग किया गया है, जिनमें से बैठती है ? कुल तीन विशेषणोंका ही प्रयोग १५ वी गाथामें (५) इस गाथामें 'अपदेमसंतमझ' नामक जो पद पाया हुमा है, जिसका अर्थ करते हुए शेष दो विशेषणोंजाता है और जिसे कुछ विद्वान् अपदेससुत्तमझ' 'नियत और असंयुक्त' को भी उपलक्षणके रूप में रूपसे भी उल्लेखित करते हैं, उसे 'जिणशासणं' ग्रहण किया जाता है; तब यह प्रश्न पैदा होता है पदका विशेषण बतलाया जाता है और उससे द्रव्य कि यदि मूलकारका ऐसा ही भाशय था तो फिर श्रत तथा भावश्रुतका भी अर्थ लगाया जाता है, यह इस १५ वी गाथामें उन विशेषणोंको क्रमभंग करके सब कहाँ तक संगत है अथवा पदका ठीक रूप, अर्थ रखनेकी क्या जरूरत थी ! १४वीं गाथा ® के और सम्बन्ध क्या होना चाहिए? पूर्वार्धको ज्योंका त्यों रख देने पर भी शेष दो विशे(६) श्रीअमृतचन्द्राचार्य इस पदके अर्थ विषयमें मौन हैं षणोंको उपलक्षणके द्वारा ग्रहण किया जा सकता और जयसेनाचार्यने जो अर्थ किया है वह पदमें था। परन्तु ऐसा नहीं किया गया; तब क्या इसमें प्रयुक्त हुए शब्दोंको देखते हुए कुछ खटकता हुश्रा कोई रहस्य है, जिसके स्पष्ट होने की जरूरत है? जान पड़ता है, यह क्या ठीक है अथवा उस अर्थमें अथवा इस गाथाके,अर्थ में उन दो विशेषणांको ग्रहण खटकने जैसी कोई बात नहीं है ? करना युक्त नहीं है? । एक सुझाव यह भी है कि यह पद 'अपवेससंतमझ (अप्रवेशसान्तमध्य) है, जिसका अर्थ अनादि १ उक्त १४ वीं गाथा इस प्रकार हैमध्यान्त होता है और यह 'अप्पाणं ( आत्मानं ) पदका विशेषण है, न कि जिणशासण पदका । जो पस्सदि अप्पाण अबबूपुट अणण्णय णियदं । शुद्धास्माके लिये स्वामी समन्तभद्रने रत्नकरण्ड (६) अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि ॥१४॥ For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करण ] आठ शकाओंका समाधान समाधान (1) समाधान - समयसार ग्रन्थकी १५वीं गाथामें जो अस्पृष्ट प है - इसमें बदके साथ स्पृष्टका निषेध किया गया है | जब बद्धस्पृष्ठके कारण श्राखव तथा उसके विरोधको संवर, बद्धस्टष्टके एक देश के कारण निर्जरा और बद्धस्पृष्टके निरवशेष रूपसे श्रात्मासे दूर होने या क्षय होने को जाने तब श्रात्मा के श्रबद्धस्पृष्ट स्वरूपका ठीक बोध हो बंध प्रकृतमें अजीवके साथ जीवका है, अतः जोवका ज्ञान होना भी अत्यावश्यक है उनके लक्षणोंको विशेष प्रकारसे जानने पर ही श्रात्माका अनन्य रूपसे बोध होता है-जब यह श्रविशेषकी निष्ठाको जान लेता है तब वह विशेष रूप आत्माको जानता है दम, कि सामान्य विशेष निष्ठा श्राश्रय में रहता है-इस प्रकार प्रयोजन भूत सात तत्व जोकि जिनशासन रूप हैं या जिन शासन में बतलाये गये हैं इनको गुणस्थान मार्गणास्थान आदि के विवेवनसे या दया, त्याग, समाधिरूप विवेचनसे – जो जानता है वह तस्वार्थ अजून करने वाला होने पर वास्तव आत्मा को जानने वाला सारे जिनशासनको जानता है-जो भी द्रव्यश्रुतरूपं स्याद्वाद शासन में या भावश्रुतमें जो भी • प्रकाशित होता है वह सात तत्व रूपसे बतलाया जाता है या जाना जाता है - जो प्रयोजन भूत श्रात्माको जानता है वह प्रयोजनभूत सात तत्त्वको बतलाने वाले जिन शासनको भी प्रयोजनभूत रूपसे अवश्य पूर्णरूपसे जानता है । जो प्रयोजनभूत जिनशासनको पूर्णतया नहीं जानता है वह श्रात्माको भी नहीं जानता है या यथार्थ रूपसे नहीं जानता है— 'अपदेश सुत्तमज्मं जिनसास द्रव्य तमें बतलाये गये जिनशासनको, आमाको यथार्थ रूप से घामाको यथार्थरूपसे जाननेवाला या अनुभव करने वाला था देखने वाला अवश्य पूर्णरूपसे जानता है जो कि प्रयोजन भूय है— आमाको पूर्ण रूपसे सब गुणपर्यायों सहित जो जान लेता है वह सर्वज्ञ है चूं कि किसी भी पदार्थका पूर्णज्ञान सर्वज्ञको होता हैउसने तो अवश्य ही सारे जिनशासनको जाना ही हैकिन्तु श्रुतज्ञान युक्त छद्मस्थ भी सारे जिनशासनको कुछ गुणपर्याय सहित प्रयोजनभूत रूपसे अवश्य जानता है यदि वह सम्यक्व है, जो सम्यक्त्वी है वही सात स्वको जानने वाले अपने अामाका प्रस्थ अवस्था में अनुभव [ २७३ करता है इसलिये श्रात्माको जानने वाला सारे जिनशासनको पूर्ण रूप से अवश्य जानता है जो कि प्रयोजन भूत है । प्रयोजनभूत जिनशासनका जो प्रयोजनभूतरूपसे तज्ञान होता है वह प्रयोजनभूत व वज्ञान भी थका पर्याय है अतः जो आत्माको प्रयोजनभूत रूपसे उक्त तीन विशेषणोंसे अबद्धम्पष्ट अनन्य विशेष अविशेष - सामान्यरूपसे जानता है वह प्रयोजनभूत जिनशासनको पूर्ण रूपसे जानता है अर्थात् जो समयसारके सम्पूर्ण प्रयोजनभूत अधिकारों को सामान्य विशेष रूपसे जानता है वास्तव में वह समयसारको तस्वतः जानता है और जो समयसारको तस्वतः जानता है वह निरस्ताग्रह सारे जिनशासनको कुछ गुणपर्यायों सहित जानता है चाहे यह दष्पक्ष समें कहा गया हो या स्यादवादरूपसे बतलाया गया हो या भाव तसे जाना गया हो । भाव श्रुतज्ञान श्रात्माका पर्याय है अत: आत्माको जानने वाला सम्यग्दष्टि एवस्थ अवश्य उस (अतज्ञान) के द्वारा जाने गये प्रयोजनभूत पूर्ण जिनशासनको जानता है- प्रकृत आत्माको जानने वाला ज्ञान परोच है वह म्यायशास्त्रकी अपेक्षा ब्रह्मस्थका प्रामानुभव या ज्ञान सांम्यवहारिक प्रत्यक्ष हो सकता है। (२) समाधान - 'श्वाद्वाद' जिनशासनमें खुद तय पंचास्तिकाय, सात ताय और भी पदार्थ बतलाए गये हैं- ये सब जीव और अजीवके विशेष हैं। जीव र अजीवके विशेष शास्त्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष हैं। सात तथ्योंका विवेचन करने वाला तत्वार्थसूत्र इनमें का गया है और उस सूत्र द्वारा निर्दिष्ट सम्पूर्ण प्रमेय भी सांत तयका अति वर्तन नहीं करते हैं। वे सब सामान्यविशेषात्मक जात्यन्तर है-इन सातोंमेंसे प्रयोजन भूत एक arat पूरा ज्ञान तब होता है जब सातोंका ज्ञान हो, अतः आत्माका सम्बम्बोध उसीको होता है जो प्रयोजन भूत रूपसे इन सातोंको जान कर श्रद्धान करता है। छह द्रव्य, पंचास्तिकाय और नौ पदार्थ इन्हीं सात तत्त्वोंमें अन्तरभूत है— स्याद्वादश्रुतज्ञान इनको जानता है और स्वाद्वाद द्रव्यश्रुत इनका विवेचन करता है । स्याद्वाद और उसका अन्यतम प्रमेय सामान्य विशेषात्मक है अतः सम्पूर्ण जिन शासन सामान्य विशेषषात्मक कहा भी है 'अभेद भेदात्मकमथतत्त्वं, तब स्वतंत्रमंत्रान्यन्तरत्ख- पुष्पम् इस For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ ] विषय में प्रमेयमलमार्तण्ड देखें उक्त दो चरण युनु शासन है जो कि संस्कृतमें उद्भुत है। अनेकान्त [ किरण न हुआ तो ये सब समीचीन वास्त्र जम्मायके नेत्रों पर चश्मा लगाने के समान है—जो निरस्ताग्रह नहीं होता है वह प्रकृतमें जन्मान्य तुश्य है चूंकि स्याद्वाद रूप सफेद चश्मा उसको यथार्थ वस्तुस्थिति देखने में निमित्त कारण नहीं हो रहा है। यदि वह निमित्त कारण उसके देखने में है तो वह जन्मान्ध नहीं है। सम्पूर्ण द्वादशांग या उसके अवयव आदिक रूप समयसारादिक स्याद्वाद रूप हैं अतः बे सब महान श्राचार्यों द्वारा कहे गये ग्रन्थ सत्यके आधार पर ही हैं। (३) समाधान - वह जिनशासन जिनशासन श्री कुन्दकुन्द समन्तभद्र, उमास्वाति- गृद्ध पिच्छाचार्य, और अकलङ्क जैसे महात् श्राचायोंके द्वारा प्रतिपादित अथवा संसूचित जिनशासनसे कोई भिन्न नहीं है । 4 " (४) इन सबके द्वारा प्रतिपादित एवं संसूचित जिनशासन के साथ उसकी संगति बैठ जाती है चुकि कहीं पर किसीने संक्षिप्त रूपसे वर्णन किया है तो किसीने विस्तारसे, किसीने किसी विषयको गौरा और किसीको प्रधान रूपसे वर्णन किया है - जैसे कि समयसार में आत्माकी मुख्यता से वर्णन है यद्यपि शेष तत्वोंका भी प्रासंगिक रूप से गौणतया वर्णन है— जीव मध्यका विशद विवेचन जीवकाण्ड में मिलेगा । बन्धका श्रत्यन्त विस्तार पूर्वक वर्णन महाबन्ध में मिलेगा | किसीने किसी भट्टका छन्दके कारण पहले वर्णन किया तो किसीने बादमें, तो भी भंग तो सात ही माने है किसीने एव' कार लिखा है तो किसीने कहा कि उसे यसे जान लेना चाहिये या प्रतिज्ञासे जान लेना चाहिए 'स्याद्', पदके प्रयोगके विषय में भी उक्त मन्तव्य चरितार्थ होता है संग्रह व्यवहार और ऋजुसूत्र इन तीन नयोंके प्रयोग से सामान्य विशेष और अवाध्यकी या विधि निषेध और श्रवाच्यकी या नित्य, अनित्य और श्रवाच्यकी - या व्यापक, व्याप्य और श्रवाच्यकी योजना करना चाहिये न कि सर्वधा से उभव नामका भंग, नैगमनयसे योजित करना चाहिये संग्रह, व्यवहार और उभयके साथ में J जूनकी योजना करके शेष तीन संग्रह अवाप्य व्यवहारअवाच्य और उभय-श्रवाच्य भङ्ग, नययोगसे लगाना चाहिये न कि सर्वथा - विना सामान्यकी निष्ठाको समझे सामान्यका सच्चा ज्ञान नहीं होता है। चूंकि निर्विशेष सामान्य गधे सींग समान है। जब सामान्य है तो वह विशेष रूप श्राधार में --- निष्ठा में रहता है श्रतः संक्षिप्तसे वह सारा शासन सामान्य और विशेष श्रात्मक है उसीको प्रामाणिक श्राचार्योंने बतलाया है । अतः समयसार पढ़ कर निरस्ताग्रह होना चाहिये न कि दुराग्रही— उनमत्त । इसी प्रकार अन्य किसी भी न्याय या सिद्धान्तको पढ़ कर या किसी भी अनुयोगका पढ़ कर बुद्धिमें और आचरण में अपने योग्य समय और सौम्यता के दर्शन होना चाहिये। यदि दुरभिनिवेश का या सर्वधा श्राग्रहरूपभावका अन्त · (२.६. समाधान 'अपदे समुत्तमम्झ सव्वं जिसासणं द्रव्य श्रुतमें रहने वाले सम्पूर्ण जिनशासनको यह उक्त पाठका अर्थ होनेसे पाठ शुद्ध ६ । अथवा द्रव्यश्रुतमें विवेचना रूपसे पाए जाने वाले सम्पूर्ण जिनशासनको' यह अर्थ ले लेवें। अथवा सप्तमी अर्थमें द्वितीयका प्रयोग मानकर उसको जिएसास का विशेषण न रख कर प्रकृत तीन विशेषणोंसे युक्त आत्माको बतलाने वाले इस गाथा रूप में या इसके निमित्तसे होने वाले भाव मे सम्पूर्ण जिनशासनको देखता है जो कि उक तीन विशेषकोसे विशिष्ट आत्माको सम्यग् प्रकार से जानता देखता या अनुभव करता है। अतः 'अपदेससुतम' पाठ सगत और खरकने सरीखा नहीं है भले ही यहाँ 'अँपवेस सम्म वाले पाठकी संगति किसीने तात्पर्यभावसे रक्खी हो। किन्तु प्रचीनतम प्रतिमें जो 'श्रपदेससुत्तमज्म' पाठ है तो अन्य पाठकी संगति से क्या ? (७) समाधान - इस विषय में मूल प्राचीनतम प्रतियोंकी देखना चाहिये और इस समयसार पर प्रा. प्रभाचन्द्रका समयसार प्रकाश नामक व्याख्यान देखना चाहिये - जो कि सेनगण मन्दिर का आमे है-जयसेनाचार्य के सामने 'सम' – यह पाठ था था. अमृचन्द्र के सामने यह पाठ नहीं था यह निश्चित रूपसे नहीं कहा जा सकता है । 'अपवेससन्त मज्भं' इस पाठको आत्माका भी विशेषण बनाया जा सकता है और जिनशासनका भी चूंकि जिनशासन भी प्रवाहकी अपेक्षाले अनादिमध्यान्त है। संभव है कि-सुत्तमे से 'उ' के नहीं लिखे जानेसे 'अप देवसंतम' पाठ हो गया हो और किसीने उसकी शुद्धि के लिये 'द' को व' पढ़ा हो तब वह 'अप वेस संतमज्म' हो गया हो। दोनों पाठ शुद्ध हैं च हे दोनोंमेंसे कोई हो किन्तु 'अपदेश सुत्तमज्यं' ही उसका मूल पाठ For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६ ] आठ शङ्काओंका समाधान २७५] होना चाहिये चूकि जयसेनाचार्यने पाठको सुरक्षित नहीं हो सकता है कि वह पूर्व गाथामे अक्षुब्ध अर्थरखा है। में प्रयुक्त हुश्रा है-उसका अर्थ मोह और राग द्वेष रहित (5) समाधान-जो अर्थ अनन्य विशेषणका है वह अवस्था विशेष है उससे मुक्त प्रास्माको बतलाना इष्ट विशेष है और सामान्य अर्थका सूचक पद अविशेष है। था। किन्तु प्रकृतमें ऐसा अर्थ पाच र्यवर्यको इष्ट नहीं वैसा अर्थ न तो नियत पदमें है जो कि क्षोभ रहित अर्थ था इसी लिए वह नियत पद अविशेषके स्थान पर रक्खा में प्रयुक्त हुआ है और न असंयुक्त-शब्दमे चूकि १४ गया, नकि उपलक्षण रूप वह बनाया गया। १४वीं गाथावीं गाथामें उसका प्रयोग अमिश्रित अर्थ में हुआ है- में शुद्धनयके विषयभूत आत्माको पाँच विशेषणोंसे युक्त इसी लिए अविशेष शब्दका प्रयोग हुआ है । स्पष्ट अर्थमें बतलाया है-उसका अर्थ यह है कि शुद्ध नय कभी अबद्ध प्राचार्यवर्यको यह बताना था कि आत्माको अबद्ध तथा देखता है। कभी दूसरे रूप नहीं है-अनन्य है इस प्रकार विशेष और सामान्य दोनों प्रकारसे देखना चाहिये कि देखता है. कभी मोह क्षोभ रहित नियत देखता है, कभी मात्माको विना पूर्वोक्तरीत्या देखे वह जिनशासनका पूर्ण वह ज्ञान, दर्शन, सुख इत्यादिक भेद न करते हुए, ज्ञाता नहीं कहा जा सकता था जो कि प्रकृत अपदेशसूत्रके ज्ञाता रूपसे देखता कि ज्ञान भी आत्मा है सुख भी प्रास्मा मध्यमें निर्दिष्ट है-समयसारके सम्पूर्ण अधिकारोंका विवे. त्यादि और कभी वह शुद्धनयसे भास्माको दूसरे चन इसी मूल गाथाकी भित्ति पर है यदि उसके अंत: द्रव्यादिकके मिश्रणसे रहित असंयुक्त देखता है-किन्तु परीक्षणसे काम लिया जावे । समयसार कलशका मंगला- १५ वी गाथामें तो सारे जिनशासनको देखनेका कहा है। चरण भी इस गाथाकी ओर इशारा करके बतला रहा है कि अत: ५ वी गाथाका विवेचन अपने विशिष्ट विवेचनसे 'सर्वभावान्तरच्छिदे' ऐसे समयसारके लिये ही हमारा अंत: अत्यन्त गम्भीर और विस्तृत हो गया है जो शुद्ध अशुद्ध करणसे नमस्कार है-न कि दुराग्रहके दलदलके प्रति । श्रादिकको जानने वाला ज्ञाता-सप्ततत्त्व दृष्टा है उसको असंयुक्त और नियतपद १५ वीं गाथामें आवश्यक न थे केवल सामान्य ही नहीं विशेष भी जाननेको कहा है दोनोंचूकि सारा जिनशासन जो साततत्त्वको बतलाने वाला है वह समान्य विशेष प्रात्मक है अतः प्रकृतमें विशेष को प्रधान रूपसे जानने वाला ज्ञान प्रमाण है प्रकृतमें वत्री पद रक्खा गया है। यहाँ उपलक्षण वाले झमेलेसे क्या यहाँ इष्ट है जो प्रारमरूप है। आगे इस पर और भी जब कि वह नियत पद प्रकृत 'अविशेष' अर्थका घातक अधिक विस्तारसे अन्य लेखोंमें विचार किया गया है। . 'अनेकान्त' की पुरानी फाइलें 'अनेकान्त' की कुछ पुरानी फाइलें वर्ष ४ से ११ वें वर्षतक की अवशिष्ट हैं जिनमें समाजके लन्ध प्रतिष्ठ विद्वानों द्वारा इतिहास, पुरातत्त्व, दर्शन और साहित्यके सम्बन्धमें खोजपूर्ण लेख लिखे गये हैं और अनेक नई खोजों द्वारा ऐतिहासिक गुत्थियोंको सुलझानेका प्रयत्न किया गया है। लेखोंकी माषा संयत सम्बद्ध और सरल है। लेख पठनीय एवं संग्रहणीय हैं। फाइल थोड़ी ही रह गई हैं। अतः मंगाने में शीघ्रता करें। फाइलों को लागत मूल्य पर दिया जायेगा। पोस्टेज खर्च अलग होगा। मैनेजर-'अनेकान्त' वीरसेवामन्दिर, १ दरियागंज, दिल्ली । For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारी तीर्थयात्राके संस्मरण (लेखक : परमानन्द जैन शास्त्री ) . श्रवणबेलगोलसे चलकर हम लोग हासन पाए। विध दान देने में दक्ष और विनयादि सद्गुणोंसे अलंकृत, हामन मैसूर स्टेटका एक जिला है। यहाँ वनवासीके प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेवकी 'शष्या थी, जो मूलसंघ देशीयकदम्बवंशी राजाओंने चौथी पांचवीं शताब्दीसे ११ वीं गण पुस्तकगच्छके विद्वान् प्राचार्य मेघचन्द्र विद्यदेवके शताब्दी तक राज्य किया है। यहांका अधिकांश भाग जैन शिष्य थे, जिनका स्वर्गवास शक सं०.१०३७ (वि० संवत् राजाओंके हाथ में रहा है। इस जिले में पूर्वकालमें जैनियोंका ११७२) में मगशिर सुदि १४ बृहस्पतिवारके दिन सद्बड़ा भारी अभ्युदय रहा है। वह इस जिले में उपलब्ध ध्यानसहित हा था। उनके शिष्य प्रभाचंद्र सिद्धांतदेवने मूर्तियों, शिलालेखों ग्रन्थभंडारों और दानपत्रों आदिमे महान महादण्डनायक गंगराज द्वारा उनकी निषद्या बनवाई थी। सहजही ज्ञात हो जाता है। हासनमें ठहरने का कोई विचार जिनकी मृत्य शक संवत् १०६८ (वि० संवत् १२०३) नहीं था किन्तु रोड टैक्सको जमा करनेके लिए रुकना में आश्विन सदि १० वृहस्पतिवारके दिन हुई थी । पड़ा। यहां केवल लारीका हा टैक्स नहीं लिया जाता किन्तु शान्तलदेवीके पिताका नाम 'मारसिङ्गय्य और माताका सवारियोंसे भी फी रुपया सवारी टैक्स लिया जता है। नाम माचिकम्वे था। इनकी मृत्यु शान्तलदेवीके बाद हुई इसमें कुछ अधिक विलम्ब होते देख म्युनिस्पल कमेटीके थी। शान्तलदेवीने शक सं० १.१० (वि० सं० ११८५) एक बागमें हम लोगांने घाज्ञा लेकर भोजनादिका कार्य शुरु में चैतसदि के दिन शिवगङ्ग' नामक स्थानमें शरीरका किया । मैं और मुख्तार साहब नहा-धोकर शहरके मंदिर में दर्शन करनेके लिए गए । शहरमें हमें पासही में दो जिन राजा विष्णुवर्द्धन एक वीर एवं पराक्रमी शासक था। मन्दिर मिले। जिनमें अन्य तीर्थंकर प्रतिमाओंके साथ इसने मांडलिक राजाभों पर विजय प्राप्त की थी और मध्यमें भगवान पार्श्वनाथकी मूर्ति विराजमान थो । दर्शन अपने राज्यका खूब विस्तार किया था । पहजे इस राजा. करके चित्तमें बड़ी प्रसन्नता हुई । परन्तु यहाँ और कितने की आस्था जैनधर्मपर थी किन्तु सन् १९१७ में रामानुजके मन्दिर हैं, यह कुछ ज्ञात नहीं हो सका और न वहाँ के प्रभावसे वैष्णवधर्म स्वीकार कर लिया था, और उसीकी जैनियोंका ही कोई परिचय प्राप्त हो सका । जल्दीमें यह स्मृतिस्वरूप बेलूर में विष्णुवर्द्धनने केशवका विशाल मंदिर सब कार्य होना संभव भी नहीं है । मन्दिस्जीसे चलकर भी बनवाया था। यह मन्दिर देखने योग्य है। कहा जाता कुछ शाक-सब्जी खरीदी और भोजन करनेके बाद हम है कि जैनियोंके ध्वंस किए गए मन्दिरोंके पत्थरोंका लोग । बजे के करीब हासनसे २४ मील चलकर बेलूर उपयोग इसके बनाने में किया गया है। उस समय हलेविडपाए। यह वही नगर है,जिसे दक्षिण काशी भी कहा जाता में जैनियोंके ७२० जिनमन्दिर थे। जैनधर्मका परित्याग था; क्योंकि यहां होयसल राजा विष्णुवर्द्धनने जैनधर्मसे करनेके बाद विष्णुवर्द्धनने उन जैनमन्दिरोंको गिरवा कर वैष्णवधर्मी होकर 'चेन्न केशव' का विशाल एवं सुन्दर नष्ट-भ्रष्ट करवा दिया था, इतना ही नहीं; किन्तु उस मन्दिर बनवाया था । बेलूरसे ११ मोल पूर्व चलकर समय इसने अनेक प्रसिद्ध २ जैनियोंको भी मरवा दिया हम लोग 'हलेबीड' श्राये। इसे. दोर या द्वारसमुद्र भी था और उन्हें अनेक प्रकारके कष्ट भी दिये थे, जैनियोंके कहा जाता है। साथ उस समय भारी अन्याय और अत्याचार किये गए थे जिनका उल्लेख कर मैं समाजको शोकाकुल नहीं बनाना 'हलेबीड' पूर्व समयमें जैनधर्मका केन्द्रस्थल रहा है: किमी समय यह नगर जन धनसे समृद्ध रहा है और इसे चाहता होयसल वंशके राजा विष्णुवर्द्धनकी राजधानी बननेका भी देखें, जैन शिलालेख संग्रह भाग १, लेख नं. ४७ (१२७)। सौभाग्य प्राप्त हुश्रा है। राजा विष्णुवर्द्धनकी पट्टरानी x शिलालेख नं०५०(१४०)। जैनधर्म-परायणा, धर्मनिष्ठा, व्रत-शीला, मुनिभक्ता, चतु- +शिलालेख मं०५३ (१४३)। For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण] हमारी जन तीथयात्रा संस्मरण [२७७ हां, 'स्थल पुराण' के कथनसे इतना अवश्य ज्ञात की झांकीका भी दिग्दर्शन हो जाता है। विष्णुवर्द्धनने होता है कि विष्णुवर्द्धनके द्वारा जैनियों पर किये गए शक सं० १०३३ (वि.सं. १९६८ से शक संवत् १०६३ अत्याचारोंको पृथ्वी भी सहन करने में समर्थ नहीं हो (वि. स. १६५) तक राज्य किया है। हलेविरमें सकी। फलस्वरूप हलेविड के दक्षिणमें अनेकवार भूकम्प इस समय जैनियोंके तीन मन्दिर मौजूद हैं पार्श्वनाथवस्ति, हुए और उन भू-कम्पोंमें पृथ्वीका कुछ भू-भाग भी भू-गर्भ आदिनाथवस्ति और शान्तिनाथवस्ति, जिनका संक्षिप्त में विलीन हो गया, जिससे जनताको अपार जन-धनकी परिचय निम्न प्रकार है:हानि उठानी पड़ी। इन उपद्रवोंको शान्त करने के लिये १ पार्श्वनाथवस्ति-हलेविडकी इस पार्श्वनाथबस्तियद्यपि रामाने अनेक प्रयत्न किये, अनेक शान्ति-यज्ञ को शक सं० १०५५ (वि० सं० ११९०) में बोप्पाने अपने कराये और प्रचुर धन-व्यय करने पर भी राजा वहाँ जब स्वर्गीय पिता गणराजकी पुण्य-स्मृतिमें बनवाया था। इस प्रकृतिके प्रकोपजन्य उपद्र्वाको शांत करने में समर्थ न हो मन्दिरमें पार्श्वनाथ भगवानकी १४ फुट ऊँची काले सका। तब अन्तमें मजबूर होकर विष्णुवर्द्धनको श्रवण पाषाणकी मनोज्ञ एवं चित्ताकर्षक तथा कलापूर्ण मूर्ति बेल्गोलके तत्कालीन प्रसिद्ध प्राचार्य शुभचन्द्र के पास जा विराजमान है। इस मूर्तिके दोनों ओर धरणेन्द्र और कर क्षमा याचना करनी पड़ी। प्राचार्य शुभचन्द्र राजाके पद्मावती उत्कीर्णित हैं। मन्दिर ऊपरसे साधारणसा द्वारा किये गए अत्याचारोंको पहलेसे ही जानते थे। प्रथम प्रतीत होता है; परन्तु अन्दर जाकर उसकी बनावटको तो उन्होंने राजाकी उस अभ्यर्थनाको स्वीकार नहीं किया; देखनेसे उसकी कलात्मक कारीगरीका सहजही बोध हो किन्तु बहुत प्रार्थना करने या गिड़गिड़ानेके पश्चात् राजा जाता है इस मन्दिरमें कसौटी पाषाणके सुन्दर चौदह को क्षमा किया। राजाने जैनधर्मके विरोध न करनकी खम्भे लगे हुए हैं उनमें से भागेके दो खम्भोंपर पानी प्रतिज्ञा की और राज्यकी ओरसे जैनमन्दिरों एवं मठोंको डालनेसे उनका रंग कालेसे हरा हो जाता है। मुख्य पूजादि निमित्त जो दानादि पहले दिया जाता था उसे द्वारके दाहिनी ओर एक यक्षकी मूर्ति और बाई भोर पूर्ववत् देनेका श्राश्वासन दिलाया तथा उक्त कार्योंके अन कूष्मांडिनीदेवीकी मूर्ति है। तर शान्तिविधान भी किया गया। इस मन्दिरके बाहरकी दीवालके एक पाषाण पर विष्णुवद्धनके मंत्री और सेनापति गंगराज तथा संस्कृत और कनदी भाषाका एक विशाल शिलालेख अंकित हल्लाने उस समय जैनधर्मका बहेत उद्योत किया, अनेक है जिसमें इस मन्दिरके निर्माण कराने और प्रतिष्ठादि जिन मन्दिर बनवाए और मन्दिरोंकी पूजादिके निमित्त कार्य सम्पन्न किये जाने भादिका कितनाही इतिहास दिया भूमिके दान भी दिये । श्रवणबेल्गोल आदिके अनेक हुआ है। उसमें गंगवंशके पूर्वजोंका आदि स्रोत प्रकट शिलालेखोंसे गंगराज और हुक्लाकी धर्मनिष्ठा और कर्तव्य करते हुए उनके 'पोवसल' नाम रूढ होनेका उल्लेख परायणताके उल्लेख प्राप्त है जिनसे उनके वैयक्तिक जीवन भी किया गया है। उसी वंशमें विनयादिस्य राजाका पुत्र यह शुभचन्द्राचार्य सम्भतः वे ही जान पड़ते हैं जो एरेयंग था उसकी पत्नी एचलदेवीसे ब्रह्मा विष्णु और मूबसंघ कुन्दकुन्दन्वय देशीगण और पुस्तकगच्छके कुक्क. शिवकी तरह बक्साल, विष्णु और उदयादिस्य नामके तीन टासन मनधारिदेवके शिष्य थे और जिन्हें मंडलिनाड्के पुत्र हुए इनमें विष्णुका नाम लोकमें सबसे अधिक प्रसिद्ध भुजबल गंग पेमार्दिदेवकी काकी एडवि देमियक्कने श्रुत- हमा। उसकी दिग्विजयों और उपाधियोंका वर्णन करनेके पंचमीके उद्यापनके समय, जो बलिकेरेके उत्तौंग चैत्यालयः पश्चात् तलकाड, कोक, नङ्गलि, गङ्गवाडि, नोलम्बवाडि, में विराजमान थे । धवलाटीकाको प्रति समर्पित की गई मासवाडि, हुलिगेटे, हलसिगे बनवसे, हानुगल. अङ्ग, थी। इन शुभचन्द्राचार्यका स्वर्गारोहण शक सं० १०४५ कुन्तल, मध्यदेश, काम्ची, विनीत और मंदुरापर भी (वि० सं० १८०) श्रावण शुक्ला १० मी शुक्रवारको उनके अधिकारको सूचित किया है। हुना था। विष्णुवर्द्धनका पादपद्मोपजीवी महादंडनायक गंगराज . देखो, जैन शिलालेख संग्रह भा० . ले. नं० ४३। था, जो अनेक उपाधियोंसे अलंकृत था, उसने अनेक ध्वस्त. For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ ] जैन मन्दिरोंका पुनः निर्माण कराया था और अपने दानोंसे ३६००० गंगवाडिको कोपयुके समान प्रसिद्ध किया था। उक्त गंगराजकी रायमें सप्त नरक निम्न थे - झूठ बोलना, युद्ध में भय दिखाना, परदारारत रहना, शरणाथियोंको आश्रय न देना, अधीनस्थोंको अपरितृप्त रखना, जिन्हें पास में रखना आवश्यक है उन्हें छोड़ देना और अपने स्वामीसे विद्रोह करना । उक्त सेनापति गङ्गराज और नागलदेवी से 'बोध'' नामका एक पुत्र उत्पन्न हुआ। उसके कुलगुरु गौतमगणघरकी परम्परा में प्रख्यात मलधारीदेवके शिष्य शुभचन्ददेव थे जो बोपदेवके गुरु थे, और बोष्पदेव के पूज्य गुरु गंगमाचार्य प्रभाचन्द्र सेद्धान्तिक थे। बोष्पदेवने दोर या द्वार समुद्र के मध्य में अपने पिताकी पवित्र स्मृति में उक्त पाश्वनाथ वस्तिका निर्माण कराया था । उसमें भगवान पार्श्वनाथकी मूर्तिकी प्रतिष्ठा नयकीर्ति सिद्धान्त चक्रवर्तीके द्वारा शक सं० १०२२ ( वि० सं० ११३४ ) में सोमवार के दिन सम्पन्न कराई गई थी, जो मूळ संघ कुन्दकुन्दान्वय देशीयगण पुस्तकगच्छुके विद्वान थे । श्रागे शिलालेख बतलाया गया है कि हनसोगे ग्रामके समीप वर्ती इस द्रोह परजिनालयकी प्रतिष्ठाके बाद जब पुरोहित चढ़ाए हुए भोजनको बंकापुर विष्णुवर्द्धनके पास ले गए तब विष्णुवर्द्धनने मसण नामक श्राक्रमण करने वाले राजाको परास्त कर मार दिया और उसकी राज्यश्री जब्त कर ली। उसी समय उसकी रामी जमी महादेवीके एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो गुणोंमें दशरथ और नहुषके समान था राजाने पुरोहितोंका स्वागत कर प्रणाम किया और यह समझ कर कि भगवानकी पार्श्वनाथ प्रतिष्ठा से युद्धविजय और पुत्रोत्पत्ति एवं सुख-समृद्धि के उपलक्ष में विष्णुबर्द्धनने देवताका नाम 'विजय पार्श्वनाथ' और पुत्रका नाम 'विजयनरसिंहदेय रक्खा और अपने पुत्र की सुखसमृद्धि एवं शान्तिकी अभिवृद्धि के लिये 'आसन्दिनाद के जायगा मन्दिरके लिये दान दिया, इसके सिवाय, और भी बहुतसे दान दिये तक शिलालेख के निम्न पथ में 'विजयपार्श्वनाथ' की स्तुतिकी गई है वह पद्य इस प्रकार है:श्रीमन्द्रमणिमौलिमरीचिमाला, मालाचिंता भुवनप्रयधने । कामान्तकाय जित - जन्मजरान्तकाय भक्त्या नमो विजय पारवजिनेश्वराय ॥ । अनेकान्त [ किरण इस पद्य में बतलाया गया है कि इन्द्रके मस्तक पर लगे हुए मणियों जटिल मुकुटोंकी माला पंकिसे पूजित भुवनत्रयके लिये धर्मनेत्र, कामदेवका अन्त करने वाले जन्म जरा और मरणको जीतने वाले उन विजय पार्श्वनाथ जिनेन्द्र के लिये नमस्कार हो । यह मन्दिर जितना सुन्दर बना हुआ है खेद है कि आजकल इस मन्दिर में बिल्कुल सफाई नहीं है, उसमे हजारों चमगादड़े लटकी हुई हैं जिनकी दुर्गन्धि दर्शक काजी ऊब जाता है, और वह उससे बाहर निकलने के जल्दी प्रयत्न करता है। मैसूर सरकारका कर्त्तव्य है कि यह उस मन्दिरकी सफाई करानेका वरन करे। जब सरकार पुरातन धर्मस्थानोंको अपना रक्षक मानती हैं, ऐसी हालत में उसके संचयीदिका पूरा दायित्व सरकार पर ही निर्भर हो जाता है। आशा है मैसूर सरकार इस सम्बन्ध में पूरा विचार करेगी। २ आदिनाथवस्ति - दूसरा मन्दिर भगवान आदिनाथका है जिसे सन् 11 में हेगड़े मस्लिमोयाने बनवाया था । ३ शान्तिनाथवस्तितीसरा मन्दिर भगवान शांतिनाथका है। इस मन्दिर में शान्तिनाथकी १४ फुट ऊंचीखड्गासममूर्ति विराजमान है। यह मन्दिर सन् १२०४ का बना हुआ है। इस मन्दिर में एक जैन मुनिका अपने शिष्यको धर्मोपदेश देनेका बड़ा ही सुन्दर दृश्य अति ई मूर्ति दोनों ओर मस्तकाभिषेक करनेके लिये सीढ़ी बनी हुई हैं। और मन्दिरके सामने वाले मानस्तम्भ में श्रीगोम्मटेश्वर की मूर्ति विराजमान है। 1 हलेविडमें सबसे अच्छा दर्शनीय मन्दिर होयसलेश्वर का है। कहा जाता है कि इस कलात्मक मन्दिरके निर्माणकार्य ६ वर्षका समय लगा है। फिर भी वह अधूरा ही है उसका शिखर अभी तक भी पूरा नहीं बन सका है पर यह मन्दिर जिस रूप में अभी विद्यमान है वह अपनी ललित कलामें दूसरा सानी नहीं रखता। इसकी शिक्षप कक्षा अपूर्व एवं बेजोड़ है जिस चतुर शिल्पीने इसका निर्माण किया उसने केवल अपनी कलाकृतिका प्रदर्शन ही नहीं किया; प्रत्युत इन कलात्मक चीजोंके निर्माण द्वारा अपनी आन्तरिक प्रतिभाका सजीव चित्रण भी श्रभिव्यंजित किया है। इस मन्दिरकी बाह्य दीवालों पर हाथी, सिंह, और विभिन्न प्रकारके पक्षी, देवी देवता और४०० फुटकी - For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ] हमारी जैन तीर्थयात्राके संस्मरण २७६ ] लम्बाई में रामायण के सरस दृश्य भी अंकित किए गए हैं जो पहुँचे और वहांके रामा देवपालके पेलिस भवनमें ठहरे, दर्शकोंको अपनी ओर आकर्षित किये विना नहीं रहते। भवनके इस हिस्से पर सरकारने कब्जा कर लिया है। खेद है ! कि हलेविड में आज जैनियोंकी आवादी नहीं है। आपके निजी भवन में भी एक चैत्यालय है। शिलालेखोंमें वहाँ के ये कीर्ति-मन्दिर जैनधर्मकी गुण-गरिमा पर किसी मूलबिद्रीका प्राचीन नाम 'बिद्री' 'वेणुपुर' या 'वंसपुर' समय इठलाते थे । पर आज यह नगर अपने गौरव हीन उल्लिखित मिलता है। इसे जैनकाशी भ कहा जाता है। जीवन पर सिसिकयाँ ले रहा है- दुःख प्रकट कर रहा है। यह नगर 'तुलु' या तौलब देशमें वसा हुआ है। इस देशसड़कसे दूर होने के कारण यात्री वहाँ दर्शनार्थ बहुत ही के बोलचालकी आम भाषा भी 'तुलु' है परन्तु व्यावहाकम जाते हैं। हलेविडसे चल कर हम लोगोंने रात्रि उलि-रिक भाषा कनाड़ी होनेके कारण इसे कर्नाटकदेश भी यूरमें धर्मशाजाके पीछेके दहलानमें बिताई और सबेरे कहा जाता है। यह नगर किसी समय कर्नाटक देशके ४ बजेसे चल कर १०॥ बजेके करीब दुपहरके समय वेणूर कांची राज्यमें शामिल भी था, जिसकी राजधानी वादामी ( Venuru) पहुंचे। थी, जो बोजापुर जिले में अवस्थित है। उसके बाद उत्तर यह ग्राम दक्षिण कनारामें हलेविडसे ६० मील दूर है। कनाडा में स्थित कदम्बवंशी राजाओंने भी उस पर राज्य और गुरपुर नदीके किनारे बसा हा है। यहाँ तालाबमें शासन किया है और सम्भवतः छठी शताब्दीके लगभग हम लोगोंने स्नान किया. बाहुबली और अन्य चार मंदि- यह पूर्वी चालुक्य राजाओंके अधिकार में चला गया था। रोंके दर्शन किये, तथा थोड़ा सा नास्ता किया। भिंडी तथा उस समय तक इस देशका राजधर्म जैनधर्म बना रहा, रमाशकी फली खरीदी। यहा श्रवणबेलगोलके भट्टारक ___ जब तक होयसालवंशके राजा विष्णुवर्द्धन और बल्लालने चारुकीर्तिकी प्रेरणासे शक सं० १५२६ (वि० सं० १६६१) मैनधर्मका परित्यागकर वैष्णवधर्मको स्वीकार नहीं किया में चामुण्डरायके कुटुम्बी तिम्मराजने (Timmaraja) था। राजा विष्णुवर्धनके धर्मपरिवर्तन के कारण जैन राजा ने, जो अजलरका शासक था, बाहुबलीकी ३७ फुट ऊँची भेरसूड प्रोडीयर स्वतन्त्र हो गए, उस समय उनका शासन कार्योत्सर्ग मूर्तिकी प्रतिष्ठा कराई। इस मूतिका ६०. कुछ ऐसा रहा जो दूसरे सम्प्रदायके लोगों पर विपरीत वर्ष में एक बार मस्तिकाभिषेक होता है । इसके चारों ओर प्रभाव को श्रीकत कर रहा था। फलतः उस समय जैन ७-८ फुट ऊँचा एक कोर भी है। उक्त तिम्मराजने एक धर्मकी स्थिति अस्थिर एवं कमजोर हो गई। उस समय मन्दिर शान्तिनाथका भी बनवाया था। इस मन्दिर में शक उनके आधीन चौटर, बंगर और अजलर वगैरह प्रसिद्ध २ सं० १५२६ (वि० सं० १६६१) का एक शिलालेख भी राजा थे । मूलबिद्रीमें चौटर जैन राजाओंका राज्य था, तब श्रीकत है । गोम्मटेश्वरकी यह मूर्ति गुरुपुर नदीके बायें तट यह नगर चौटर राजाओंका प्रसिद्ध नगर कहा जाता था। पर प्राकारके अन्दर अत्यन्त मनोग्य जान पड़ती है। अब भी यहां चौटरवंशी रहते हैं जिन्हें अंग्रेजीराज्य में पेन्शन गोम्मेटेश्वरकी इस मूर्तिका पग ८ फुट ३ इंच लम्बा है। मिलती थी। नंदावरमें बंगर, अलदंगदीके अजलर और बाहुबलीकी मूर्तिके अतिरिक्त यहाँ चार मन्दिर और भी मुल्कीके सेवतर हुए। यहाँ राजाका पुराना महल भी है, हैं। इसे शक सं० १५२६ में स्थानीय रानीने बनवाया है। जिसमें लकड़ी की छत पर बढ़िया खुदाई की गई है और विभिन्न वस्ति २ अक्किनगलेवस्ति ३ तीर्थकर वस्ति- भीतों पर अनेक चित्र भी उस्कीर्णित हैं। इस मन्दिरके शक सं० १९४६ के शिलालेखसे ज्ञात होता दक्षिण तौलबदेशके अनेक राजाभोंने वहां पर बहुतसे है कि इसे यहाँ के स्थानीय राजाने बनवाया था । और जिन मंदिर बनवाए हैं जिनकी संख्या १८० के करीब शान्तिनाथ वस्ति । यहाँ के एक मन्दिर में एक सहस्त्र मूर्ति. बतलाई जाती है। उनमें से १८ मंदिर मूलबिगीमें और याँ विराजमान है, ऐसा वहांके पुजारीसं ज्ञात हुआ। वे १८ मंदिर कारकलके भी अन्तर्निहित हैं। इन सब मंदिरों देखनेमें भी प्राई, परन्तु जल्दी में कोई गणना नहीं की जा और उस समयके राज्यों का इतिवृत्त मालूम करनेसे इस सकी । यहाँसे चल कर हम लोग २ बजेके करीब मूलबिद्री बातका सहज ही पता लग जाता है कि उस समय वहां 1. xSee, Indian Antiquary V.36 जैनधर्मका कितना गहरा प्रभाव अंकित था। मूलविद्रीका See, mediaval Jainism P. 663 नाम दक्षिणके अतिशय जैनतीर्थ क्षेत्रोंमें प्रसिद्ध है। For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० ] गुरुवस्ति — यहां के स्थानीय १८ मन्दिरों में सबसे प्राचीन 'गुरुवस्ति' नामका मंदिरही जान पड़ता है । कहा जाता है कि उसे बने हुए एक हजार वर्षसे भी अधिकका समय हो गया है । इस मन्दिर में षट्खण्डागमधवला टीका सहित, कषायपाहुड जयधवला टीका सहित तथा महाबन्धादि सिद्धान्तग्रन्थ रहनेके कारण इसे सिद्धान्तवस्ति भी कहा जाता है। इस मन्दिरमें ३२ मूर्तियाँ रत्नोंकी और एक मूर्ति ताड़पत्रके जड़की इस तरह कुल ३३ अनर्घ्य मूर्तियाँ विराजमान हैं; जो चाँदी सोना, हीरा, पन्ना, नीलम, गरुत्मणि, वैडूर्यमणि, मूंगा, नीलम, पुखराज, मोती, माणिक्य, स्फटिक और गोमेधिक रत्नोंकी बनी हुई हैं । इस मंदिर में एक शिलालेख शक संवत् ६३६ ( वि० सं० ७७१) का है उससे ज्ञात होता है कि इस मन्दिरको स्थानीय जैन पंचोंने बनवाया था । इस मन्दिर के बाहर के 'गद्दके' मंडपको शक संवत् १५३७ (वि० सं० १६७२ ) में चोलसेट्ठि नामक स्थानीय श्र ेष्ठीने बनवाया था । इसी वस्तिके एक पाषाणपर शक सं० १३२० (वि. सं. १४६४ ) का एक उत्कीर्ण किया हुआ एक लेख है जिसमें लिखा है कि इसे स्थानीय राजाने दान दिया । तीर्थंकर वस्तिके पास एक पाषाण स्तम्भके लेखमें जो शक सं० १२२६ (वि० सं० १३६४ ) में उत्कीर्ण हुश्रा उक्त गुरुवस्तिको दान देनेका उल्लेख है । इस मंदिरकी दूसरी मंजिल पर भी एक वेदी है उसमें भी अनेक अनर्घ्य मूर्तियाँ विराजमान हैं । कहा जाता है कि कुछ वर्ष हुए जब भट्टारकजीने इसका जीर्णोद्धार कराया था, इसी कारण इसे 'गुरुर्वास्त' नाम से पुकारा जाने लगा है। मुख्तारश्रीने मैंने और बाबू पन्नालालजी अग्रवाल आदिने इन सब मूर्तियोंके सानन्द दर्शन किये हैं जिसे पं० नागराजजी शास्त्रीने कराये थे और ताडपत्रीय धवल गन्थकी वह प्रति भी दिखलाई थी जिसमें संत' पद मौजूद है, पं० नागराजजीने वह सूत्र पढ़कर भी बतलाया था। इसी गुरुवस्तिके सामनेही पाठशालाका मन्दिर है जिसमें मुनिसुव्रतनाथकी मूर्ति विराजमान है । दूसरा मन्दिर 'चन्द्रनाथ' का है जिसे त्रिलोकचूडामणि वस्ति' भी कहते हैं। यह मन्दिर भी सम्भवतः छहसौ वर्ष जितना पुराना है। यह मन्दिर तीन खनका है जिसमें एक हजार शिलामय स्तम्भ लगे हुए हैं । इसीसे इसे 'साबिर कमंदवसदी' भी कहा जाता है । इस मन्दिरके चारों ओर एक पक्का परकोटा भी बना हुआ है । रानी अनेकान्त [ किरण भैरादेवीने इसका एक मंडप बनवाया था जिसे भैरादेवी । मंडप' कहा जाता है उसमें भीतर के खम्भों में सुन्दर चित्रः । कारी उत्कीर्ण की गई है। चित्रादेवी मंडप और नमस्कार मंडप आदि छह मंडपोंके अनन्तर पंचधातुकी कायोत्सर्ग चन्द्रप्रभ भगवानकी विशाल प्रतिमा विराजमान है। दूसरे खडमें अनेक प्रतिमाएँ और सहस्त्रकूट चैत्यालय है। तीसरी मंजिल पर भी एक वेदी हैं जिसमें स्फटिकमणिकी अनेक मनोग्य मूर्तियाँ हैं । इस मन्दिर में प्रवेश करते समय एक उन्नत विशाल मानस्तम्भ है जो शिल्पकला की साक्षात् मूर्ति है। इस मन्दिरका निर्माण शकसंवत् १३५२ (वि० सं० १४८७) में श्रावकों द्वारा बनवाया गया है । तीसरा मंदिर 'बडगवस्ति' कहलाता है, क्योंकि वह उत्तर दिशामें बना हुआ है इसके सामन भी एक मानस्तम्भ बना हुआ है। इसमें सफेद पाषाणकी तीन फुट ऊँची चन्द्रप्रभ भगवानकी श्रति मनांग्यमूर्ति विराजमान है शेवस्ति — इसमें मूलनायक श्री वर्धमानकी धातुमय मूर्ति विराजमान है। इस मन्दिरके प्राकारमें एक मंदिर और है जिसमें काले पाषाण पर चौबीस तीर्थंकरोंकी मूर्तियां प्रतिष्ठित हैं। इसके दोनों ओर शारदा और पद्मावतीदेवी की प्रतिमाएँ हैं । हिरवेवस्ति — इस मंदिर में मूलनायक शान्तिनाथ हैं। इस मन्दिरके प्राकारके अन्दर पद्मावतीदेवीका मंदिर है, जिसमें मिट्टी से निर्मित चौवीस तीर्थंकर मूर्तियाँ हैं। पद्मावती और सरस्वति की भी प्रतिमाएँ हैं इसीसे इसे अभ्मनवरवस्ति कहा जाता है । बेटकेरिबस्ति — इसमें वर्धमान भगवानकी ५ फुट ॐ ची मूर्ति विराजमान है। कोटिवस्ति - इस मन्दिर को 'कोटि' नामक श्रष्ठीने बनवाया था । इसमें नेमिनाथ भगवानकी खड्गासन एक फुट ऊंची मूर्ति विराजमान है । विक्रम सद्विवस्ति — इस मंदिरका निर्माण विक्रमनामक सेठने कराया था। इसमें मूलनायक आदिनाथकी प्रतिमा । अन्दर एक चैत्यालय है और जिसमें धातुकी चौबीस मूर्तियाँ विराजमान हैं । लेप्यदवस्ति - इसमें मिट्टीकी लेप्य निर्मित चन्द्रप्रभकी मूर्ति विराजमान है । इस मूर्तिका अभिषेक वगैरह नहीं किया जाता । इस मंदिर में लेप बिमित ज्वालामालिनीकी For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ] हमारी जन तीथयात्राके संस्मरण [२८१ एक मूर्ति विराजमान है। मिट्टीकी मूर्तियोंके बनानेका कारकल-यह नगर मद्रास प्रान्तके दक्षिण कर्नाटक रिवाज कबसे प्रचलित हुभा यह विचारणीय है। जिले में अवस्थित है। कहा जाता है कि यह नगर विझमकी कल्लुवस्ति-इसमें चन्द्रप्रभभगवानकी दो फुट ऊँची १३ वीं शताब्दःसे १७ वीं शताब्दी तक जन-धनसे सम्पन्न मूर्ति विराजमान है। कहा जाता है कि पहले इस मंदिरके ५व खूब समृद्धशाली रहा है। इसकी समृद्धिमें जैनियोने भूगर्भ में ही सिद्धान्तग्रन्थ रखे जाते थे। अपना पूरा योगदान दिया था । उक्त शताब्दियामें कार कल भैररस नामक पाण्ड्य राजवंशके जैन राजाओंसे स्ति-इस मंदिरको 'देरम' नामक सेठने शासित रहा है। प्रारम्भमें यह राजवंश अपनी स्वतन्त्र बनवाया था । मूलनायक मूर्ति तीनफुट ऊँची है इस मूर्तिके नीचे भागमें चौवीप तीर्थकर मूर्तियाँ हैं। और ऊपरके सत्ता रखता था; परन्तु वह स्वतन्त्रता अधिक समय तक कायम न रह सकी। कारकलके इस पारड्यवंशको विजयखंड में भगवान मल्लिनाथकी पद्मासन मूर्ति विराजमान है। नगर और हायसन वंश तथा अन्य अनेक बलशाली शासक चोलसेटिवस्ति-इस मन्दिरको उक्त सेठने बनवाया राजाओंकी प्रधानता अथवा परतंत्रतामें रहना पड़ा। उस था। इस मंदिरमें सुमति पद्मप्रभ गौर सुपार्श्वनाथकी समय वहां जैनियोंका बहु संख्यामें निवास था और वहांके चार चार फुट ऊंची मूर्तियाँ विराजमान हैं। इस मंदिरके व्यापार आदिमें भी उनका विशेष हाथ था। भागे भागमें दायें बायें वाले कोठोंमें चौवीस तीर्थंकर कारकलमें सन् १२६१ से सन् १९८६ तक पाण्ड्यमूतियाँ विराजमान हैं। इसीसे इसे 'तीर्थंकरवस्ति' कहा चक्रवर्ती, रामनाथ, वीर पाख्य और इम्मति भैरवराय जाता है। आदि जैन राजाओंने उस पर शासन किया है। भैररस महादेवसेट्ठिवस्ति-इस वस्तिके बनवाने वाले उक्त राजा वीर पाण्ड्यन शक संवत् १३५३ (वि.सं. १४८८) सेठ हैं। इसमें मूलनायक ५ फुट ऊँची मूर्ति विराजमान है। में फाल्गुन शुक्ला द्वादशीके दिन वहांके तत्कालीन प्रसिद्ध बंकिवरित-इस किसी कम अधिकारीने वनवाया राजगुरु भट्टारक ललितकीर्ति जो मूलसंध कुन्दकुन्दान्वय था । इस अनन्तनाथ भगवानकी मूर्ति विराजमान है। देशीयगण पुस्तकगच्छके विद्वान, देवकीर्तिके शिष्य थे और केरेवस्ति-इस मन्दिरमें कालेपाषाणकी फट ऊंची पनसोगेके निवासी थे, उनके द्वारा स्थिरलग्नमें बाहुबलीकी मल्लिनाथं भगवानकी मूति विराजमान है। उस विशाल मूर्तिकी, जो ११ फुट ५ इंच ऊँची थो-- प्रतिष्ठा कराई गईथी। मूर्तिके इस प्रतिष्ठा महोत्सव में विजय पडुवस्ति-इसमें मूलनायक प्रतिमा अनंतनाथ की है नगरके तत्कालीन शासक राजादेवराय (द्वितीय) भी शामिल जो पद्मासन चार फुट ऊँची है। कहा जाता है कि पहले हुए थे । कविचन्द्रमने अपने 'गोम्मटेश्वर चरित' नामक शास्त्रभण्डार इसी मन्दिरके भूग्रहमें विराजमान था, जो प्रन्यमें बाहुबलीकी इस मूर्तिके निर्माण और प्रतिष्ठादि दीमकादिने भक्षणकर लुप्त प्राय: कर दिया था, उसीमसे का विस्तृत परिचय दिया है जिसमें बतलाया गया है अवशिष्ट थोकी सूचादिका कार्य प्रारा निवासी बाबू कि उक्त मूर्ति के निर्माणका यह कार्य युवराजकी देख-रेख में देवकुमारजीने अपने द्रव्यसं कराया था। बादमें वे सब ग्रन्थ मठमें विराजमान करा दिये गए हैं। भट्टारक ललितकीर्ति काव्य न्याय व्याकरणादि शास्त्रोंके अच्छे विद्वान एवं प्रभावशाली भहारक थे। इनके मठवस्ति-इस मन्दिरमें काले पाषाणकी पार्श्वनाथ बाद कारकलकी इस भट्टारकीय गही पर जो भी भट्टारक की सुन्दर मूर्ति है। प्रतिष्ठित हाता था, वह वद्वान ललितकीति नामस ही यहाँ सुपारी नारियल कालीमिर्च और काजूके वृक्षोंके उल्लेखित किया जाता है। उक्त भ. ललितकातिके अनेक अनेक बाग हैं। कालीमिर्चका भाव उस समय १) रुपया शिष्य थे। कल्याणकीर्ति, देवचन्द्र श्रादि । इनमें कल्याण सेर था। धान भी यहाँ अच्छा पैदा होता है। यहाँ के नीतिने. जिनयजफलोदय (१३५०) ज्ञानचन्दाभ्यव्य चावलभी बहुत अच्छे और स्वादिष्ट होते हैं। यहाँ से कामको प्रनले जिनमतति तदा माथि भोजनकर ११ बजेके करीब चलकर हम लोग कारकल शोधर चरित (श. १३७५) और फणिकुमारचरितका (श. १३६४) रचनाकाल पाया जाता है। For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२] अनेकान्त [किरणं सम्पन्न हुआ था। और बीच-बीच में राजा स्वयं भी उप- राजा इम्मडि भैरवराय समुदार प्रकृति था । उसने योगी सलाह देता रहता था मूर्ति तैयार होने पर बीस सन् १९८४ में शंकराचार्य के पट्टाधीश नरसिंह भारतीको पहियोंकी मजबूत एक गादी तय्यार करा कर दस हजार राजधानी में कुछ समय तक ठहरनेका भाग्रह किया था, मनुष्यों द्वारा मूर्तिको गाड़ी पर चढ़ाया गया था, जिसमें इस पर उन्होंने कहा कि यहाँ अपने कर्मनुष्ठानके लिये राजा; मंत्री, पुरोहित और सेनानायकके साथ जनसमुदायने कोई देव मन्दिर नहीं है, अतः मैं यहाँ नहीं ठहर सकता। जयघोषके साथ उस गादीको खींचा था । और कई दिनोंके इससे राजाके चित्त में कष्ट पहुँचा, और उसने वह अप्रतिलगातार परिश्रमके बाद मूतिको अभिलषित स्थान पर ष्ठित जैन मन्दिर जो नवीन उसने बनवया था और जिसमें बाईस खम्भोंके बने हुए अस्थायी मंडप में विराजमान कर उक्त नरसिंह भारतीको ठहराया गया था, उसीमें राजाने पाया था, मूर्तिकी रचनाका अवशिष्ट कार्य एक वर्ष तक बरा । 'शेषशायी अनन्तेश्वर विष्णु' की सुन्दर मूर्ति स्थापित करा. पर वहीं होता रहा वहाँ ही मूर्ति पर लता बेल और । दो थी। इससे भट्टारक जी रुष्ट हो गये थे अतः उनसे नासादृष्टि आदिका वह कार्य सम्पन्न हुआ था । इस मूर्ति राजाने क्षमा माँगी, और एक वर्ष में उससे भी अच्छा जिन का कोई आधार नहीं है । मूति सुन्दर और कलापूर्ण तो मन्दिर बनवाने की प्रतिज्ञा ही नहीं की, किन्तु 'त्रिभुवनहै ही, अतः अब इसकी सुरक्षाका पूरा ध्यान रखनेकी तिलक' नामक चैत्यालय एक वर्षके भीतर ही निमाण करा श्रावश्यकता है। क्योंकि यह राजा वीरपाण्ड्यकी भक्तिका दिया। यह मन्दिर जैनमठके सामने उत्तर दिशामें मौजूद सुन्दर नमूना है। है। मठकी पूर्व दिशामें पार्श्वनाथ वस्ति है। राजा इम्मडि भैरवरायने जो अपने समयका एक वोर कारकलमें बाहबलीकी उस विशाल मूर्ति के अतिरिक्त पराक्रमी शासक था अपने राज्यको पूर्ण स्वतन्त्र बनानेके १- मन्दिर और हैं। जिनकी हम सब लोगोंने सानन्द प्रयत्नमें सफल नहीं हो सका । यह राजा भी जिन भक्तिमें यात्रा की। उक्त पर्वत पर बाहुबलीक सामने दाहिनी ओर कम नहीं था। इसने शक सं० १५०८ (वि० सं० १६४३) वाई ओर दो मन्दिर हैं उनमें एक शीतलनाथका और में 'चतुमुखवसदि' नामका एक मन्दिर बनवाया था। यह दूसरा पाश्वनाथका है। मन्दिर कलाकी दृष्टिसे अनुपम है और अपनी खास विशे. कारकलका वह स्थान जहां बाहुबलीकी मूति विराजपता रखता है । इस मन्दिरका मूल नाम 'त्रिभुवन तिलक मान है बड़ा ही रमणीक है। यह नगर भी किसी समय चैत्यालय' है। इस मन्दिरके चारों तरफ एक एक द्वार है वैभवकी चम सीमा पर पहुँचा हुअा था। यहां इस वंशमें जिनमेंसे तीन द्वारोंमें पूर्व, दक्षिण, उत्तरमें प्रत्येकमें अरह अनेक राजा हुए हैं जिन्होंने समयसमय पर जैनधर्मका उद्योत नाथ मल्लिनाथ और मुनिसुव्रत इन तीन तीर्थंकरोंकी तीन किया है । इन राजाओंकी सभामें विद्वानोंका सदा श्रादर मूर्तियाँ विराजमान हैं। और पश्चिम द्वारमें चतुर्विशति रहा है। कई. राजा तो अच्छे कवि भी रहे हैं । पाण्ड्य तीर्थंकरोंकी २४ मूर्तियां स्थापित हैं। इनके सिवाय दोनों धमापतिने 'भव्यानन्द' नामका सुभाषित ग्रन्थ बनाया था मण्डपोम भी अनेक प्रतिमाएं प्रतिष्ठित हैं। दक्षिण और और वीर पाण्ड्य क्रियानिघण्टु' नामका ग्रन्थ रचा था। वाम भागमें ब्रह्मयक्ष और पद्मावतीकी सुन्दर चित्तार्षक इनके समयमें इस देशमें अनेक जैन कवि भी हुए हैं, ललितमूतियां हैं। मन्दिरकी दीवानों पर और खंभों पर भी पुष्प कीर्ति देवचन्द, काल्याणकीर्ति और नागचन्द्रादि । लता आदिके अनेक चित्र उत्कीर्णित हैं, जो उक्त राजाके इन कवियों और इन कृतियोंके सम्बन्धमें फिर कभी अवकला प्रेमके अभिव्यंजक है। जैन राजाओंने सदा दूसरे काश मिलने पर प्रकाश डाला जायगा। धर्म वालोंके साथ समानताका व्यवहार किया है । राजाओं का वास्तविक कर्तव्य है कि वह दूसरे धर्मियोंके साथ समा कारकल में अनेक राजा ही शासक नहीं रहे हैं, किन्तु नताका व्यवहार करें, इससे उनकी लोकप्रियता बढ़ती है उक्त वशका अनेक वाराङ्गनाओने भी राज्यका भार वहन और राज्यमें सुख शान्तिकी समृद्धि भी होती है। करते हुए धर्म और देशकी सेवा की है। -क्रमशः For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राष्ट्रकूटकालमें जैनधर्म (ले० डा. अ. स. अल्लेकर, एम. ए. डी. लिट.) दक्षिण और कर्नाटक अब भी जैनधर्मके सुदृढ़ गढ़ हैं। धर्मके अनुयायी तथा अभिवर्द्धक थे। लक्ष्मेश्वरमें कितने वह कैसे हो सका ? इस प्रश्नका उत्तर देनेके लिये राष्ट्रकूट ही कल्पित अभिलेख ( ताम्रपत्रादि) मिले३ हैं जो सम्भवंशके इतिहासकी पर्यालोचन अनिवार्य है। दक्षिणभारत- वतः ईसाकी १० वी अथवा ११ वीं शतीमें दिये गये होंगे के इतिहास में राष्ट्रकूट राज्यकालका (सं० ७५३-६७३ ई.) तथापि उनमें वे धार्मिक उल्लेख हैं जो प्रारम्भिक चालुक्यसबसे अधिक समृद्धिका युग था। इस काल में हो जैन- राजा विनयादित्य, विजयादित्य तथा विक्रमादित्य द्वितीयने धर्मका भी दक्षिण भारतमें पर्याप्त विस्तार हुआ था। जैन धर्मायतनोंको दिये थे। फलतः इतना तो मानना ही राष्ट्रकूटोंके पतनके बाद ही नये धार्मिक सम्प्रदाय लिङ्गा- पड़ेगा कि उक्त चालुक्य नृपति यदा कदा जैनधर्मके पृष्ठयतोंको उत्पति तथा तीव्र विस्तारके कारण जैनधर्मको पोषक अवश्य रहे होंगे अन्यथा जब ये पश्चात् लेख लिखे प्रबल धक्का लगा था। राष्ट्रकूटकालमें जैनधर्मका कोई गये तब उक्त चालुक्य राजा ही क्यों दातार' रूपमें चुने सक्रिय विरोधी सम्प्रदाय नहीं था फलतः वह राज्यधर्म गये तथा दूसरे अनेक प्रसिद्ध राजाओंके नाम क्यों न दिये तथा बहुजन धर्मके पद पर प्रतिष्ठित था। इस युगमें गये इस समस्याको सुलझाना बहुत ही कठिन हो जाता जनाचार्योंने जैन साहित्यकी असाधारण रूपसे वृद्धि की है। बहुब संभव है कि ये अभिलेख पहिले प्रचारित हुए थी। तथा ऐसा प्रतीत होता है कि वे जनसाधारणको तथा छाल कर मिटा दिये गये मूल लेखोंकी उत्तरकालीन शिक्षित करनेके सत्प्रयत्नमें भी संलग्न थे। वर्णमाला प्रतिलिपि मात्र थे। और भावी इतिहासकारोंके उपयोगके सीखनेके पहले बालकको श्री गणेशाय नमः' कण्ठस्थ लिये पुनः उत्कीर्ण करा दिये गये थे, जोकि वर्तमानमें करा देना वैदिक सम्प्रदायों में सुप्रचलित प्रथा है, किन्तु उन्हें मनगढ़त कह रहे हैं। तलवादके गंग दक्षिण भारतमें अब भी जैन नमस्कार, वाक्य 'श्रीम् नमः ___ कांश राजा जैन धर्मानुयायी तथा अभिरक्षक थे। जैनसिद्धेभ्यः' (ोनामासीधं १) व्यापक रूपसे चलता । धर्मायतनोंको गंगराज राचमल्ल द्वारा प्रदत्त दानपत्र श्री. चि. वि. वैद्यने बताया है कि उक्त प्रचलनका यही कुर्गमें मिले हैं। जब इस राजाने वलमलाई पर्वत पर तात्पर्य लगाया जा सकता है कि हमारे काल ( राष्ट्रकूट) अधिकार किया था तो उस पर एक नमन्दिरका निर्माण मे जैन गुरुवोंने - देशको शिक्षामें पूण रूपसे भाग लेकर कराके विजयी स्मृतिको अमर किया था। प्रकृत राज्यकालइतनी अधिक अपनी छाप जमाई थी कि जैनधर्मका में लक्ष्मेश्वरमें 'राय-राचमन बसदि. गंगापरमादि चैस्यादक्षिणमें संकोच हो जाने के बाद भी वैदिक सम्प्रदायोंके लय, तथा गंग-कन्दर्प चैत्यमन्दिर नामोंसे विख्वात जैनलोग अपने बालकोंको उक्त जैन नमस्कार बाक्य सिखाते मन्दिर६ वर्तमान थे। जिन राजाओंके नामानुसार उक्त ही रहें । यद्यपि इस जन नमस्कार वाक्यके अज नमान्यता मन्दिरोंका नामकरण हुअा था वे सब गंगवंशीय राजा पर रन अर्थ भी किये जा सकते हैं तथापि यह सुनिश्चित वोग मैनधर्मके अधिष्ठाता थे; ऐसा निष्कर्ष उक लेख परसे है कि इसका मूलस्रोत जन-संस्कृति ही थी। निकालना समुचित है। महाराज मारसेन द्वितीय तो परम भूमिका जैन थे। प्राचार्य अजितसेन उनके गुरु थे। जैनधर्म में " राष्ट्रकूट युगमें हुए जैनधर्म के प्रसार की भूमिका पूर्ववर्ती उनकी इतनी प्रगाढ़ श्रद्धा थी कि उसोके वश होकर राज्यकालोंमें भली भांति तैयार हो चुकी थी। कदम्बवंश उन्होंने ६७६ ई. में राज्य स्याग करके समाधि मरण (ल.५ वी. ६ठी शती ई०) के कितने ही राजा २ जन ३ इण्डियन एण्टौक्वायरी ७-पृ० १११ तथा आगे। १ मध्यभारत तथा उत्तरभारतके दक्षिणी भागमें इस ४ इ. एण्टी०६ पृ० १०३ . रूपमें अब भी चलता है। 'इण्डियन एण्टीक्वायरी ६-पृष्ठ २२ तथा आगे ५ एपी ग्राफिका इण्डिका, ४ पृ० १४० इण्डियन एण्टीक्वायरी -पृ. ३४ ६ इ० एण्टी० ७ पृ. १०५-६ For Personal Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ ] अनेकान्त [किरण : (सल्लेखना) पूर्वक प्राण विसर्जन किया था। मारसिंहके यह बताता है कि वह कितना सच्चा जैन था। क्योंकि मन्त्री चामुण्डराय चामुण्डरायके रचयिता स्वामिभक्त सम्भवतः कुछ समय तक 'अकिञ्चिन' धर्मका पालन करने प्रबल प्रतापी सेनापति थे। श्रवणबेलगोलामें गोम्मटेश्वर के लिये ही उसने यह राज्य स्याग किया होगा। यह (प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवके द्वितीय पुत्र बाहुबली) की अमोघवर्षकी जैन-धर्म-आस्था ही थी जिसने आदिपुरावके लोकोत्तर, विशाल तथा सर्वाङ्ग सुन्दर मूर्तिकी स्थापना अन्तिम पांच अध्यायोंके रचयिता गुणभद्राचायको अपने इन्होंने करवाई थी। जैनधर्मकी प्रास्था तथा प्रसारकताके पुत्र कृष्ण द्वितीयका शिक्षक नियुक्त करवाया था । मूलकारण ही चामुण्डरायकी गिनती उन तीन महापुरुषोंमें गुण्डमें स्थित जैन मन्दिरको कृष्णराज द्वितीयने भी दान की जाती है जो जनधर्मके महान प्रचारक थे। इन महा- दिया था । फलतः कहा जा सकता है कि यदि वह पूर्णपुरुषों में प्रथम दो वो श्रीगंगराज तथा हुल्ल थे जो कि रूपसे जैनी नहीं था तो कमसे कम जैन धर्मका प्रश्रयदाता होयसलवंशीय महाराज विष्णुवर्द्धन तथा मारसिंह प्रथमके तो था ही। इतना ही इसके उत्तराधिकारी इन्द्र तृतीयके मन्त्री थे | नोलम्बावाडीमें जैनधर्मकी खूब वृद्धि हो रही विषयमें भी कहा जा सकता है। दानवुलपदु६ शिलालेख में थी। एक ऐसा शिलालेख मिला है जिसमें लिखा है कि लिखा है कि महाराज श्रीमान नित्यवर्ष (इन्द्र तृ० ने नोलम्बावाडी प्रान्तमें एक ग्रामको सठने राजासे खरीदा अपनी मनोकामनाओकी पूर्तिकी भावनासे श्रीमहन्तदेवके था। तथा उसे धर्मपुरी । वर्तमान सलेम जिले में पड़ती अभिषेक मंगलके लिये पाषाणकी वेदी (सुमेरु पर्वतका है) में स्थित जैन धर्मायतनको दान कर दिया था। उपस्थापन) बनवायी थी। अंतिम राष्ट्रकूट राजा इन्द्रजैन-राष्ट्रकूट-राजा चतुर्थ भी सच्चा जैन था जब वह बारंबार प्रयत्न करके भी तैल द्वितीयसे अपने राज्यको वापस न कर पाया तब राष्टकूट राजामोंमें अमोघवर्ष प्रथम वैदिक धर्मानु । उसने अपनी धार्मिक आस्थाके अनुसार सरले जना व्रत यायीकी अपेक्षा जैन ही अधिक था। प्राचार्य जिनसेनने । धारण करके प्राण त्याग कर दिया था । अपने 'पार्वाम्युदय' काव्यमें 'अपने आपको नृपतिका जैन सामंतराजापरमगुरु लिखा है, जो कि अपने गुरु पुण्यात्मा मुनिराजका राष्ट्रकूट नृपतियोंके अनेक सामंत राजा भी जैन धर्मानाम मात्र स्मरण करके अपने अपको पवित्र मानता था" बलम्बी थे । सौनदत्तिके रदृशासकोंमें लगभग सब सबही गणित शास्त्रके प्रन्थ सारसग्रह' में इस बातका उल्लेख जैन धर्मावलम्बी थे। जैसा कि राष्ट्रकूट इतिहासमें लिख है कि 'अमोघवर्ष' स्याद्वादधर्मका अनुयायी था२। अपने चुका हूँ। अमोघ वर्ष प्रथमका प्रतिनिधि शासक केपः राज्यको किसी महामारीसे बचाने के लिए अमोधवर्षने भी जैन था। यह वनवासीका शासक था। अपनी राजअपनी एक अंगुलीकी बलि महालक्ष्मीको चढ़ाई थी३। धानीके जैन धर्मापतनोंको एक ग्राम दान करने के लिए इसे यह बताता है कि भगवान महावीरके साथ साथ वह वैदिक राज ज्ञा प्राप्त हुई थी। देवताओं को भी पूजता था वह जैन धर्मका सक्रिय तथा बधेयका पुत्र लोकादित्य जिनेन्द्रदेव द्वारा उपदिष्ट जागहक अनुयायी था। स्व. प्रा. राखालदास बनर्जीने धर्मका प्रचारक था; ऐसा उसके धर्मगुरु श्रीगुणचन्द्र ने भी मुझे बताया था कि बनवासी में स्थित जैनधर्मायतनोंने लिखा है। इन्द्रतृतीयके सेनापति श्रीविजयी भी जैन थे अमोघवर्षका अपनी कितनी ही धार्मिक क्रियाओंके प्रवर्तक इनकी छत्रछायाम जेन साहित्यका पर्याप्त विकास हुआ था। रूपमें उक्लेख किया है। यह भी सुविदित है कि अमोघ- (४) जर्नल ब. बा. रो० ए० सो०, भा० २२ पृ० ८५, वर्ष प्रथमने अनेकबार राजसिंहासन त्यागकर दिया था। (५) जर्नल ब.मी. रो० ए० सो०भा०१० पृ. १८२, ४ एपी० इ० भा० १० पृ० १७ (६) आर्के. सर्वे.रि. १९०५६ पृ० १२१-१, (७)इ० एण्टी. भा० २३ पृ. १२४, (१). एण्टी . भा० ७ पृ. २१६-८, (6) हिष्ट्री प्रो. राष्ट्रकूटस पृ० २७२३, (२) विएटर निस्शका प्रैशीचटी' भा० ३ पृ० ५७५, (8) एपी० इ० भा० ६ पृ. २६ । (३) एपी० इ. भा० १८ पृ. २४८ (१०) एपी.इ. भा. १० पृ. १४६, For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करण ६ ] उपयु लिखित महाराज, सामंतराजा पदाधिकारी तो ऐसे हैं जो अपने दान पत्रादिकके कारण राष्ट्रकूट युग में जैन धर्म प्रसारक के रूपसे ज्ञात है, किन्तु शीघ्र ही ज्ञात होगा कि इनके अतिरिक्त अन्य भी अनेक जंन राजा इस युग में हुए थे। इस युगने जैन ग्रंथकार तथा उसके उपदेशकोंकी एक अखण्ड सुन्दर मानाही उत्पन्न की थी। यतः इन सबको राज्याश्रय प्राप्त था फलतः इनकी साहि fers एवं धर्म प्रचारकी प्रवृत्तियोंसे समस्त जनपद पर गम्भीर प्रभाव पड़ा था। बहुत सम्भव है इस युगमें रह जनपद की समस्त जनसंख्याका एक तृतीयांश भगवान महावीरकी दिव्यध्वनि (सिद्धांतोंका अनुयायी रहा हो। १ बरुनीके उद्धारण के श्राधारपर रसीद उद-दीनने लिखा है कि कोंकण तथा थाना निवासी ई० की ग्यारवीं शतीके प्रारम्भनं समनी (श्रमण अर्थात् बौद्ध) धर्मके अनुयायी थे । अल-इदसीने नहरवाला (अर्नाहल पट्टन के राजाको बौद्ध धर्मावलम्बी लिखा है। इतिहासका प्रत्येक विद्यार्थी । जानता है कि जिस राजाका उसने उल्लेख किया है वह जेन था, बीड नहीं। अत एव स्पष्ट है कि मुसलमान बहुधा जैनोंको बौद्ध समक लेते थे। फलतः उपयु लिखित रशीद-उद-दीनका वक्तव्य दक्षिणके कोंकण तथा थाना भागों में दशमी तथा म्यारहवीं शतीके जैन धर्म- प्रसारका सूचक है बौद्ध धर्मका नहीं । राष्ट्रकूट कालकी समाप्ति के उपरान्तही लिंगायत सम्प्रदायके उदयके कारण जैनधर्मको अपना बहुत कुछ प्रभाव खोना पड़ा था क्योंकि किसी हद तक यह सम्प्रदाय जैन धर्मको मिटाकर ही बढ़ाया। जैन संघ जोवन राष्ट्रकूट काल में जैन धर्म इस काम के अभिलेखोंसे प्राप्त सूचना के आधार पर उस समयके जैन मठोंके भीतरी जीवनकी एक फोकी मिलती । प्रारम्भिक कदम्ब२ वंशके अभिलेखोंसे पता लगता है कि वर्षा ऋतु में चतुर्मास अनेक जैन साधु एक स्थान पर रहा करते थे। इसीके (वर्षाके३) अन्तमें वे सुप्रसिद्ध जैन पण मनाते थे । जैन शास्त्रों में पर्यूषण बढ़ा महत्व है। दूसरा धार्मिक फाल्गुन शुक्ला अष्टमी से प्रारम्भ होता (1) firuz, 1. 8. 45, (२) इ. टी. भा. ७. २४, (३) एन. एपी टोम चोक ६०६७। [ २८५ था और एक सप्ताह तक चलता था। श्वेताम्बरोंमें वह चैत्र शुक्ला ममी से प्रारम्भ होता है। शत्रु अय४ पर्वत पर यह पर्व अब भी बड़े समारोहसे मनाया जाता है, क्योंकि उनकी मान्यतानुसार श्रीऋषभदेवके गणधर पुण्डरीकने पांच करोड़ अनुयायीयोके साथ इह तिथिको ही मुक्ति पायी थी। यह दोनों पर्व पष्ठशतीले दक्षिण में सुप्रचलित ये फलतः ये राष्ट्रकूट युगमें भी अवश्य बड़े उत्साहसे मनाये जाते होंगे। क्योंकि जैन शास्त्र इनकी विधि करता है और ये बाज भी मनाये जाते हैं। राष्ट्रकूट युगके मंदिर तो बहुत कुछ शौमें वैदिक मंदिर कलाकी प्रतिलिपि थे। भगवान महावीरकी पूजाविधि वैसी ही व्यय-साध्य तथा बिलासमय हो गयी थी जैसी कि विष्णु तथा शिवकी थी। शिलालेखों में भगवान महावीर के 'अंग भोग तथा रंगभोग' के लिये दान देनेके उल्लेख मिलते हैं जैसा कि वैदिक देवताओंके लिये चलन था । यह सब भगवान महावीर द्वारा उपदिष्ट सर्वांग आकिंचन्य धर्मकी व्याख्या नहीं थी। जैन मठोंमें भोजन तथा औषधियोंकी पूरी व्यवस्था रहती थी तथा धर्म शास्त्र के शिक्षण की भी पर्याप्त व्य वस्था थी ? अमोघवर्ष प्रथमका कोन्नूर शिलालेख तथा कर्क के सूरत ताम्रपत्र जैन धर्मायतनोंके लिये ही दिये गये थे । किन्तु दोनों लेखों में दानका उद्देश्य बलिचरुदान, वैश्वदेव तथा अग्निहोत्र दिये है। ये सबके सब प्रधान वैदिक संस्कार हैं । श्रापाततः इनको करनेके लिए जैन मंदिरोंको दिये गये दान को देखकर कोई भी व्यक्ति माश्चर्यमें पढ़ जाता है। सम्भव है कि राष्ट्रकूट युगमें जैन धर्म तथा वैदिकधर्मके बीच आजकी अपेक्षा अधिकतर समता रही हो । अथवा राज्य के कार्यालयकी असावधानीके कारण दान के उक्त हेतु शिलालेखों में जोड़ दिये गये हैं। कोन्नूर शिलालेखमें ये हेतु इतने अयुक्त स्थान पर हैं कि मुझे दूसरी व्याख्या ही अधिक उपयुक्त जंचती है। (४) भादोंके अंत में पयूषण होता है तथा चतुर्मासके अन्तमें कार्तिककी अष्टान्हिका पड़ती है। (२) इनसाइक्लोपीडिया ओफ रिलीजन तथा इषिकस भाग ५ पृ. ८७८ । (६) जनं बो. प्रा. रो. ए. सोसा. १०.२२० For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६] अनेकान्त [किरण । राष्ट-कूट युगका जैन साहित्य विख्यात 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' टीका लिखी थी । इन्होंने जैसा कि पहले पा चुका है अमोघवर्ष प्रथम कृष्ण मार्तण्ड के अतिरिक्त 'न्यायकुमुदचन्द्रभी लिखा था। जैन तर्कशास्त्रके दूसरे प्राचार्य जो कि इसी युगमें हुए थे वे द्वितीय तथा इन्द्र तृतीय या तो जैन धर्मानुयायी थे अथवा जैनधर्मके प्रश्रय दाता थे । यही अवस्था उनके मल्लवादी थे, जिन्होंने नवसारीमें दिगम्बर जैन मठकी अधिकतर सामन्तोंकी भी थी। श्रतएव यदि इस युगमें स्थापना की थी जिसका अब कोई पता नहीं है ? कक्क जैन साहित्यका पर्याप्त विकास हुआ तो यह विशेष स्वर्णवर्षकै ४ सूत पत्रमें इनके शिष्यके शिष्यको २१ ई. आश्चर्यकी बात नहीं है। ८वीं शतीके मध्यमें हरिभद्रसूरि में दत्तदानका उल्लेख है इन्होंने धर्मोत्तराचार्यकी न्यायहुए हैं तथापि इनका प्रांत अज्ञात होनेसे इनकी कृतियोंका बिन्दुटीकापर टिप्पण लिखे थे जो कि धर्मोत्तर टिप्पण यहां विचार नहीं करेंगे । स्वामी समन्तभद्र यद्यपि राष्ट्र नामसे ख्यात है। बौद्धग्रन्थके ऊपर जैनाचार्य द्वारा टीका लिखा जाना राष्ट्रकूटकालके धार्मिक समन्वय तथा सहिकूट कालके बहुत पहले हुए हैं तथापि स्याद्वादकी सर्वो ष्णुताकी भावनाका सर्वथा उचित फल था । त्तम व्याख्या तथा तत्कालीन समस्त दर्शनोंकी स्पष्ट तथा अमोघवर्षकी राजसभातो अनेक विद्वानरूपी मालासे सयुक्तिक समीक्षा करनेके कारण उनकी प्राप्त मीमांसा मामाला सुशोभित थी यही कारण है कि आगामी अनेक शतियों में इतनी लोकप्रिय हो चुकी थी कि इस राज्यकालमें ८वीं वह महान-साहित्यिक प्रश्रयदाताके रूपमें ख्यात था । शती के प्रारम्भसे लेकर आगे इस पर अनेक टीकायें उसके धर्मगुरु जिनसेनाचाय हरिवशपुराणके रचयिता थे, दक्षिण में लिखी गयी थी। वह प्रन्थ ७८३ ई० में समाप्त हुआ था। अपनी कृतिकी राष्ट्रकूट युगके प्रारम्भमें अकलंक भट्टने इस पर प्रशस्तिमें उस वर्ष में विद्यमान राजाओंके नामाका उल्लेख अपनी अष्टशती टीका लिखी थी । श्रवणबेलगोलाके करके उनके प्राचीन भारतीय इतिहासके शोधक विद्वानों ६७ शिलालेखमें अकलंकदेव राजा साहसतङ्गसे अपनी पर बड़ा उपकार किया है वह अपनी कृति प्रादि पुराणको महत्ता कहते हुए चित्रित किये गये हैं । ऐसा अनुमान समाप्त करने तक जीवित नहीं रह सके थे। जिसे उनके किया जाता है कि ये साहसतुङ्ग दन्तिदुर्ग द्वितीय थे । इस शिष्य गुणचन्द्रने ८६७ ई० में समाप्त किया था; जो शिलालेखमें बौद्धोंके विजेता रूपमें अकल भट्टका वर्णन विजता रूपमे अकल कभट्टका वर्णन बनवासी १२००० के शासक लोकादित्यके धर्मगुरु थे। है। ऐसी भी दन्तोक्ति है कि प्रकलङ्क भट्ट राष्ट्रकूप सम्राट अादि पुराण जैनगन्थ हैं जिसमें जैनतीर्थे र आदि शलाका कृष्ण प्रयमके पुत्र थे।। किन्तु इसे ऐतिहासिक सत्य पुरुषोके जीवन चरित्र है। प्राचार्य जिनसेनन अपने पार्शम्युबनाने के लिये अधिक प्रमाणोंकी आवश्यकता है । प्राप्त• दय काम्यमें शृङ्गारिक खण्डकाव्य मेघदूतकी प्रत्येक श्लोककी मीमांसाकी सर्वांगसुन्दरटीकाके रचयिता श्रीविद्यानन्द अंतिम पक्ति (चतुर्थ भरण) को तपस्वी तीर्थंकर पार्श्वनाथ इसके थोड़े समय बाद हुए थे। इनके उल्लेख श्रवणवेल- के जीवन वर्णनमें समाविष्ट करनेकी अद्भुत बौद्धिक कुश गोलाके शिलालेखोंमें है। लताका परिचय दिया है। पाश्र्वाम्युदयके प्रत्येक पद्यकी न्याय-शास्त्र अन्तिम पंक्ति मेघदूतम् के उसी संख्याके श्लोकसे ली गई - इस युगमें जैन तर्क शास्त्रका जो विकास हुआ है वह है । व्याकरण ग्रंय शाकटायनकी अमोघत्ति तथा भी साधारण न था ? ८वीं शतीके उत्तरार्धमें हुए प्रा- वीराचार्यका गणित ग्रन्थ 'गणितसार संग्रह' भी अमोघमाणिक्यनंदिने 'परीक्षामुखसूत्र'३ की रचना की थी। नौवीं वर्ष प्रथमके राज्यकालने समाप्त हुए थे। शतीके पूर्वाद्ध में इस पर प्राचार्य प्रभाचन्द्र ने अपनी (1) एपी०ए० भाग २१, (४भा० न्या० पृ. १६४-११ (१) पिटरसनकी रिपोर्ट सं २,७६ । ज० ब० ब्रा. रो.ए. (१) इ० एण्टी० १६०४ पृ० १७, (६)इ० एण्टी० भा० १२ पृ.२१६ सो. भा. १८ पृ० २१३ । (७) इसमें अपनेको लेखक अमोघवर्षका परमगुरु'कहता है (२) एपी० कर्ना. भा.२सं. २५४ (5)इ. एण्टी० ६११४ पृ. २०५ (३) भारतीय न्यायको इतिहास पृ० १७१, (8)विण्ठर निस्श गज टी. भा० ३.५७ For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६ ] तद्देशीय साहित्य कनारी भाषामें प्रथम लक्षणशास्त्र 'कविराजमार्ग' लिखे जानेका श्र ेय भी सम्राट् अमोघवर्षके राज्यकालको है । किन्तु वह स्वयं रचयिता थे या केवल प्रेरक थे यह अब भी विवादग्रस्त है। प्रश्नोत्तरमालाका रचयिता भी विवादका विषय है क्योंकि इसके लिये श्री शंकराचार्य, विमल तथा अमोघवर्ष प्रथमके नाम लिये जाते हैं। डा० एफ० डबल्यू. थोमसने तिब्बती भाषाके इसके अनुवादकी प्रशस्तिके आधार पर लिखा है कि इस पुस्तिकाके तिब्बती २ भाषा अनुवादके समय अमोघवर्षं प्रथम इसका कर्त्ता माना जाता था । अतः बहुत सम्भव है कि वही इसका कर्त्ता रहा हो । दशवीं शतीके मध्य तक दक्षिण कर्नाटकके चालुक्यवंशीय सामन्तोंकी राजधानी गंगधारा भी साहित्यिक प्रवृत्तियोंका बढ़ा केन्द्र हो गई थी। यहीं पर सोमदेवसूरि ३ ने अपने 'यशस्तिलकचम्पू' तथा 'नीतिवाक्यामृत' का निर्माण किया था । यशस्तिल्लक यद्यपि धार्मिक पुस्तक है तथापि लेखक ने इसको सरस चम्पू बनाने में अद्भुत साहित्यिक सामर्थ्यका परिचय दिया है। द्वितीय पुस्तक राजनीतिकी है। कौटिल्य के अर्थशास्त्रकी अनुगामिनी होनेके कारण इसका स्वतन्त्र महत्त्व नहीं थांका जा सकता है तथापि यह साम्प्रदायिकतासे सर्वथा शून्य है तथा कौटिल्य अर्थशास्त्र से भी ऊँची नैतिक दृष्टिसे लिखा गया है। राष्ट्रकूटकालमें जैनधर्म महाकवि पम्प इस राज्यकाल में कर्नाटक जैनधर्मका सुदृढ़ गढ़ था । तथा जैनाचार्यों को यह भली भांति स्मरण था कि उनके (1) इ० एण्टी ११०४ पृ० १६६ (२) ज० ब० प्रा० रो० ए० सो० १२ पृ० ६८० (३) यशस्तिलक चम्पू पृ० ४१६ [ २८७ परमगुरु तीर्थंकरने जनपद की भाषाओंमें धर्मोपदेश दिया था । परिणामस्वरूप १० वीं शती में हम कनारी लेखकोंकी भरमार पाते हैं । जिनमें जैनी ही अधिक थे । इनमें प्राचीनतम तथा प्रधानतम महाकवि पम्प थे इनका जन्म ६०२ ई० में हुआ था । मान्ध्रदेशके निवासी होकर भी कनारी भाषा आदि कवि हुए थे। इन्होंने अपनी कृति आदि पुराणको १४१ ई० में समाप्त किया था, यह जैन ग्रन्थ है । अपने मूल ग्रन्थ 'विक्रमाजु'न विजय' में इन्होंने अपने श्राश्रयदाता 'अरिकेशरी '४ द्वितीयको अर्जुन रूपले उपस्थित किया है । अतः यह ग्रन्थ ऐतिहासिक रचना है। इसी ग्रन्थसे हमें इन्द्र तृतीयके उत्तर भारत पर किये गये उन आक्रमणोंकी सूचना मिलती है जिनमें उसका सामन्त अरिकेशरी द्वितीय भी जाता था । इस कालके दूसरे ग्रन्थकार 'असंग' तथा 'जिनभद्र' थे जिनका उल्लेख है । पून कवि १० वीं शतीके तृतीय चरण में पूनने किया है यद्यपि इनकी एक भी कृति उपलब्ध नहीं हुए । यह संस्कृत तथा कनारी भाषामें कविता करनेमें इतने अधिक दक्ष थे कि इन्हें कृष्ण तृतीयने उभयकुल चक्रवर्तीकी उपाधि दी थी। इनकी प्रधान कृति 'शांतिपुराण'५ है । महाराज मारसिंह द्वितीयके सेनापति चामुण्डरायने 'चामु डराय पुराण' को दसवीं शतीके तीसरे६ चरण में लिखा था६ रन्न भी प्रसिद्ध कनारी कवि थे। इनका जम्म १४६ ई० में हुआ था। इनका अजितनाथ पुराण ७, ३३३ में समाप्त हुआ था जैनधर्म ग्रन्थोंका पुराण रूपमें रचा जाना बताता है कि राष्ट्रकूट युगमें जैनधर्मका प्रभाव तथा मान्यता दक्षिण में असीम थी । -(व अभिनन्दन ग्रंथसे ) (४) कर्नाटक भाषाभूषण, भूमिका० पृ० १३-४ ५) कर्नाटक भाषाभूषण भूमिका० पृ० १५ (६) एपी० इ० भा० १ पृ० १७५ (७) एपी० इ० भाग ६ पृ० ७२ । For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुराके जैनस्तुपादिकी यात्राके महत्वपूर्ण उल्लेख (श्री अगरचन्द नाहटा) ___ मथुराकी खुदाईसे जो प्राचीन सामग्री प्राप्त हुई है वह सूची में शौरसेन देशको राजधानीके रूप में मथुराका उल्लेख जैन इतिहास और मूर्तिपूजा आदिको प्राचीनताकी दृषिसे पाया जाता है तत्परवर्ती साहित्य 'वसुदेवहिण्डी' श्वीx बहुत ही महत्वपूर्ण है, मथुराका देवनिर्मित स्तूप तो जैन शताब्दीका प्राचीनतम प्राकृत कथा ग्रन्थ है, इसके श्यामासाहित्यमें बहुत ही प्रसिद्ध रहा है, प्रस्तुत लेख में हम विजय लंभकमें कंस अपने श्वसुरसे मधुराका राज्य मांगता प्राचीन जैन साहित्यसे ई० १७वीं शताब्दी तकके ऐसे है, और अपने पिता उग्रसेनको कैद कर स्वय मथुराका उल्लेखोंको संगृहीतकर प्रकाशित कर रहे हैं, जो मथुरासे शासक बन जाता है । उद्धरण है-इस ग्रंथके प्रारंभमें जंबू जैनोंके दीघ कालीन संबंध पर नया प्रकाश डालेंगे, उनसे स्वामोका चरित्र दिया गया है। उसमें मथुराकी कुबेरदत्ता पता चलेगा कि कब-कब किस प्रकार इन स्तूपादि- वेश्याका १८ नातों वाला विचित्र कथानक है फिर की यात्राके लिये जैन यात्री मथुरा पहुँचे। इन उल्लेखोंसे आगमोंकी चूर्णियां और भाष्योंमें भी मथुराके सम्बन्धमें मथुराके जैन स्तूपों व तीर्थ के रूप में कब तक प्रसिद्धि रहो, महत्वपूर्ण उल्लेख मिलते है। डा. जगदीशचन्द्र जैनने इसका हम भली-भांति परिचय पा जाते हैं सर्व-प्रथम जैन इन उल्लेखों का संक्षिप्त अपने 'जैन ग्रन्थोंमें भौगोलिक साहित्यमें मथुरा सम्बन्धी उल्लेखोंकी चर्चा की जाती है। सामग्री और भारतवर्ष में जैनधर्मका प्रचार' नामक लेखमें जैन-साहित्यमें मथुरा दिया गया है, जिसे यहां उद्धृत कर देना आवश्यक समश्वे. जैनागमों में एकदश अंग सत्र सबसे प्राचीन ग्रन्थ मता हूँ माने जाते हैं। भगवान महावीरकी वाणीका प्रामाणिक __ 'मथुराके पास-पासका प्रदेश शूरसेन' कहा जाता है, संह इन ग्रंथों में मिलता है जहां तक मेरे अध्ययन,मथुराका मथुरा अत्यन्त प्राचीन नगरी मानी जाती है। जहां जैनसबसे प्राचीन उक्लेख इन " अंग सूत्रोंमेंसे छ? ज्ञाता श्रमणोंका बहुत प्रचार था। (उत्तराध्ययन चुणी)। सूत्र में जाता है, प्रसंग है द्रौपदीके स्वयंवर मंडपका उत्तरापथमें मथुरा एक महत्व पूर्ण नगर था। जिसके स्वयंवर मंडपमें आनेके लिये अनेक देशके राजाओंको अन्तर्गत १६ ग्रामोंमें लाग अपन घरोंमें और चौराहों पर द्रौपदीके पिता अपने दूतोंके द्वारा आमंत्रण पत्र भेजता है, जिन मूर्तिकी स्थापना करते थे। अन्यथा घर गिर पड़ते इनमें एक दूत मथुराके 'घर नामक राजाके पास भी जाता थे। (वृहद् कल्पभाष्य)। इं, इससे उस समय मथुराका शासक 'धर' नामक कोई मथुरा में एक देवनिर्मित स्तूप था। जिसके लिये जैनों राजा रहा था, ऐसा ज्ञात होता है। इसी द्रौपदी अध्ययनके और बौद्धोमें झगड़ा हुआ था। कहा जाता था कि इसमें श्रागे चलकर दक्षिण में पांडवोंने मथुरा मगरी बसाई. इनका जैनोंकी जीत हुई और स्तूप पर उनका अधिकार हो भी उल्लेख मिलता है, इसलिये बृहद्कल्पसूत्रमें उत्तर गया. (म्यवहार भाष्य) मथुरा और दक्षिण मथुरा, इन दो मथुराओं का नाम मथुरा आर्यमंगू व आर्यरक्षित आदि जैन श्रमणोंका मिलता है, वहांके उल्लेखानुसार शालिवाहनका दडनायक विहार स्थल था। यहां अनेक पाखंडी साधु रहते थे, अतदोनों मथुरा पर अधिकार करता है, परवतीं प्रबंधकोषमें एव मथुराको 'पाखडी गर्भ कहा गया है। (भावश्यक भी यह अनुश्रुति सी मिलती है। चूर्णी, आचारांग-चूर्णी श्रावकचरित्र) अंगसूत्रोंके बाद उपांगसत्रोंका स्थान है। इनकी - xयह ग्रन्थ ७वीं शताब्दीका है, विना किसी प्रामासंख्या १२ मानी गई है, जिनमें से पन्नवणा (प्रज्ञापनासूत्र) में साढ़े पच्चीस प्रार्य देशोंकी सूची दी गई है। इन णिक अनुसंधान के अनुमानसे श्वीं शती लिख दिया गया है। उसकी रचना ७वीं शताब्दीसे पूर्वकी नहीं है। लेखकका यह कथन अभी बहुत ही विवादापन्न -प्रकाशक . -प्रकाशक १. इसके कारणके लिये देखिये विविध तीर्थकरूप । For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६] मथुराके जैन स्तूपादिकी यात्राके महत्वपूर्ण उल्लेख जैन सूत्रोंका संस्कार करनेके लिये मथुरामें अनेक कथा कोश' के अन्तरगत वैरकुमारकी कथामें मथुराके जैन श्रमणोंका संघ उपस्थित हुअा था। वह सम्मेलन पंच स्तूपोंका वर्णन पाया है। इस प्रन्थका रचनाकाल 'माथुरी वाचना' के नामसे प्रसिद्ध है। ( नन्दीचूर्णी) ई. सं. १३२ है। तदनंतर ई० सं० १५६ में रचित मथुरा भंडारयज्ञकी यात्राके लिये प्रसिद्ध था। (श्राव- सोमवसूरिके यशस्तिलकचंपूमें कुछ हेर फेरके साथ श्यक चूर्णी ।। देवनिर्मित स्तूपकी अनुश्रुति दी है। सोमदेवने जब एक यह मगर व्यापारका बड़ा केन्द्र था. और विशेष कर स्तूप होना बतलाया है तो हरिषेणने स्तूपोंकी संख्या ५ वस्त्रके लिए प्रसिद्ध था। (आवश्यक टीका)। बतलाई है । इन अनुश्रुतियोंके सम्बन्धमें विशेष विचार __ यहाँके लोग व्यापार पर ही जीवित रहते थे, डा0 मोतीचंद्रजीने अपने उक्त लेखमें भली प्रकार किया खेती-बाड़ी पर नहीं' (वृहद्कल्प भाष्य १) यहां है। उन्होंने जिमप्रभुसूरिके 'विविधतीर्थकल्प' की स्थल मार्गसे माल पाता जाता था। प्राचारांग चूर्णी)। अनुश्रुतिका सारांश भी दिया है। मथुराके क्षिण पश्चिमकी ओर महोली नामक ग्रामको अभी तक विद्वानोंके सन्मुख उपयुक्त उल्लेख ही प्राचीन ग्रन्थों में मथुरा बतलाया जाता है। (मुनि कल्याण- आये हैं। अब मैं अपनी खोजके द्वारा मथुराके जैन स्तूपाविजयजीका श्रमण भगवान महावीर, पृ० ३७६)। दिके बारे में जो महत्वपूर्ण उल्लेख प्राप्त हुये हैं उन्हें इसमें प्राधारित मथुराके देवनिर्मित जैन स्तूपकी क्रमशः दे रहा हूँअनुश्रति व्यवहारभाष्यमें सर्वप्रथम पाई जाती है । डा. आचार्य भगवाहुकी प्रोपनियुक्तिमें मुनि कहां कहां 'मोतिचन्द्र के 'कुछ जैन अनुश्रुतियाँ और पुरातत्व' शीर्षक विहार करें। इनका निर्देश करते हुए 'चक्के थुमे' पाठ लेखमें उस अनुश्रतिका सारांश इस प्रकार है श्राता है। टीकाकारने इसका 'स्तूपमथुरायां' इन शब्दों एक समय एक जैनमुनिने मथुरामें तपस्या की। द्वारा स्पष्टीकरण किया है। तपस्यासे प्रसन्न होकर एक जैनदेवीने मुनिको वरदान . १३३४ में प्रभावक चरित्रके अनुसार प्रार्यरक्षित. देना चाहा, जिसे मुनिने स्वीकार नहीं किया। रुष्ट होकर सूरि मथुरामें पधारे थे तब इन्द्रने पाकर निगोद सम्बन्धी देवीने रन्नमय देवनिर्मितस्तूपकी रचना की । स्तूपको पृच्छा की थी, जिसका सही उत्तर पाकर उसने सन्तोष देखकर बौद्ध भिक्षु वहां उपस्थित हो गये और स्तूपको पाया । इसी ग्रन्थके पादलिप्तसूरि . प्रबंधानुसार वे भी अपना कहने लगे। बौद्ध और जैनोंको स्तूप सम्बन्धि यहां पधारे थे व 'सुपार्श्वजिनस्तपकी यात्रा की थी। लदाई ६ महीने तक चलता रही। जैन साधुओंने ऐसी यथा• गड़बड़ी देखकर उस देवीकी पाराधना की। जिसका वरदान लेना पहले अस्वीकार कर चुके थे। देवीने उन्हें राजाके 'अथवा मथायां समुरिर्गवा महायशी पास जाकर यह अनुरोध करनेकी सलाह दी कि राजा इस श्रीसुपार्श्वजिन-स्तुपेऽनमत् श्रीपालमजुसु... शर्त पर फैसला करे कि अगर स्तूप बौद्धोंका है तो उस प्रभावकचरित्र' एवं 'प्रबन्धकोश' दोनों अन्योंके पर गैरिक झंडा फहराना चाहिये, अगर वह जैनका है तो बप्पभट्टसूरि प्रबन्धके अनुसार यहां पाम राजाने पार्श्वनाथ सफेद मंडा। रातों रात देवीने बौद्धोंका केशरिया झंडा मंदिर बनवाया था जिसकी प्रतिष्ठा बप्पट्टिसूरिजीने की बदलकर नोंका सफेद मण्डा स्तूप पर लगा दिया और थी। भाम रानाके कहनेसे वाक्पतिराजको प्रबोध देनेको सबेरे जब राजा स्तूप देखने आया तो उस पर सफेद मंडा वे मथुरा पाये तब वाक्पति राजा 'वराह मंदिर' में ध्यानस्थ फहराते देखकर उसने उसे जैन स्तूप मान लिया। था। सरिजीने इसे प्रबोध देकर जैन बनाया, उसका . इसके पश्चात् दिगम्बर हरिषेणाचार्य रचित 'वृहत् _स्वर्गवास भी यहीं हुआ। बप्पभट्टसूरिसे लेपमय ४ बिम्ब कलाकारसे बनवाये थे। उनमेंसे एक मथुरामें स्थापित १. बृहद्कल्पभाष्यगत उल्लेखोंके लिये मुनि पुण्य- किया गया। विविध तीर्थ कल्पानुसार बप्पट्टिसरिजीने विजयजी सम्पादित संस्करणके छठे भागका परिशिष्ट जीर्णोद्धार करवाया एवं महावीर बिम्बकी स्थापना की। इनमें प्रार्यरक्षित प्रथम शती, पादलिप्त पांचवीं, For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६०] अनेकान्त [किरण। वबप्पभट्टि वीं शताब्दी में इये हैं। प्रभावक चरित्रमें इस गाथामें व्यवहारभाष्यको पूर्व दी गई अनुश्रति वीरसूरिके भी यहाँ पधारनेका उल्लेख है। का उल्लेख दिया गया है। अचलगच्छ पहावलीमें इस युगप्रधानाचार्य गुर्वावलीके अनुसार सं० १२१४ से तीर्थमालाके रचयिता महेन्द्रसिंहसूरिका गच्छनायक १७ के बीच मणिधारी जिनचन्द्र सूरिने मथुराकी यात्रा काल सं० १२६६ से १३०६ तकका बतलाया है। इस की थी। तीर्थमालामें आबूके वस्तुपालका रचित मन्दिरका भी सं०1३७५ में हस्तिनापुर और मथुरा महातीर्थकी उल्लेख होनेसे इसकी रचना सं० १३०० से १३०६ के यात्राका संघ खरतरगच्छाचार्य जिनचन्द्रसूरिके नेतृत्व में बीचमें हुई प्रतीत होती है। ठाकुर अचलने निकाला। इस बड़े सपने मथुराके पार्श्व, १४ वीं शतीकी अंचलगच्छके संघ यात्राका उल्लेख सुपारव व महावीरकी यात्रा की । इस संघका विस्तृत पूर्व किया जा चुका है। वर्णन उपयुक्त युगप्रधानाचार्य गुर्वावलीमें मिलता है। १५ वीं शताब्दीके खरतर गच्छाचार्य जिनवर्धनसूरि___'मत्यपूज्यः । सुश्रावकसघमहामेलापकेन श्रीमथुरायां जीने पूर्वदेशके जैनतीर्थों की यात्रा करके 'पूर्वदेशचैत्य श्रीपार्श्व, श्रीमहावीरतीर्थकराणां व राजाणां च महता परिपाटी; की रचना की। इसकी ८ वीं गाथामें लिखा हैविस्तरेण यात्रा कृता. त पासु सुपासह थूम • नमउं, सिरिमथुरा नयरंमि । पाटण भंडारके ताडपत्रीय ग्रंथोंको सूचिके पृष्ठ १५५में त सौरीपूर सिरिनेमिजिण, समुदविजय संमि ॥८॥ सिद्धसेनसूरि रचित सकलतीर्थस्तोत्रमें ऐतिहासिक जैन इसी शतीके मुनि प्रभसूरिके अष्टोतरी तीर्थमालाके तीथों सम्बन्धि गाथायें प्रकाशित हैं। उनमें मथुरा सम्बंधी २०वें पद्यमें 'महरानयरी थम सुपासह इन शब्दों में गाथा इस प्रकार है उल्लेख मिलता है। सिरि पासनाह सहियं रम्मं सिरिनिम्मियं महाथूमं । १७ वीं शताब्दीके भयरव रचित 'पूर्व देश चैत्यकलिकालवि सुतिस्थं महुरानयरीङ (ए)वंदामि ॥२॥ परिपाटी' की ११वीं गाथामें मथुरा यात्राका उल्लेख इस यद्यपि इस स्तोत्रके रचनाकालका ठीक समय ज्ञात प्रकार हैनहीं, पर ताडपत्रीय प्रतिको देखते हुए यह १२वीं १३वीं तिह तीरथ यात्रा करि, पहुता मथुरा ठाम शताब्दीकी रचना अवश्य होगी। दुई जिण हर थी रिषमना, थूम सिरि प्रभवा स्वामी ॥११॥ ' संस्कृतमें संगमसरि रचित 'तीर्थमाला' की एक प्रति मन्त्रीश्वर कर्मचन्द्र वंशोत्कीर्तन काग्यके अनुसार हमारे संग्रहमें हैं। इसमें मथुराके स्तूपादिका उल्लेख इस बीकानेरके महाराजा रायसिंहके मन्त्री कर्मचन्द्रने मथुराके प्रकार है चैत्योंका जीर्णोद्धार करवाया था। यथामथुरापुरि प्रतिष्ठितः सुपार्वजिमकाल संभवो जर्यात । शत्रजये मधुपये जीर्णोद्धार चकार यः अद्यापि सूराऽभ्यर्य श्रीदेवी विनिर्मित स्तूप :... येनैतत्सदृशं पुण्यं कारणं नास्ति किंचन ।। ३१४ । इस तीर्थ मालामें भी रचनाकाल दिया हुश्रा नहीं है व्याख्या-यो मंत्री शत्र अये पुण्डरीकाक्षे तथा मधुपपर इसमें प्राबूके जैन मन्दिरका उल्लेख करते हुये केवल छमथरानां जीणोद्वार-जीर्ण पतितं चैत्य समारचनं चकार । विमलवाहके रचित युगादिमन्दिरका ही उल्लेख है, इसी शताब्दीके कवि व्याकुशलने सं० १९४६ में वस्तुपाल तेजपाल कारित नेमिजिनालयका नहीं है। इस अनेक जनतीर्थोंकी यात्रा करके 'तीर्थमाली बनाई। इसकी खिये इसकी रचना संवत् १०८६ से १२८९ के बीचकी प्रारम्भिक २८ गाथायें प्राप्त नहीं है पर प्राप्त पयोंमें से निश्चित है। ४० वें में मथुराके १०० स्तूपों और स्थान-स्थान पर जिन इसके पश्चात् अंचलगच्छके महेन्द्रसूरि रचित प्रतिमाओंके होनेका उल्लेख इस प्रकार है:'प्रष्टोतरी तीर्थमाला' में मथुराके सुपार्श्वस्तूप सम्बन्धी मथुरा देखिउ मन उक्लसइ, मनोहर थुम्भ जिहां पांचसइं। गाथा इस प्रकार मिलती है। गौतम जंबू प्रभवो साम, जिणवर प्रतिमा ठामोठाम ॥४०॥ तुच्चं नियाणवाये, सेय पड़ागा निसाइ जहिं जाया. इस शताब्दीके सुप्रसिद्ध प्राचार्य हीरविजय सूरिजीने खवग पभावा तं थुणि, महुराई सुपामजिण थूमं... मथुराके १२७ स्तूपोंकी यात्रा की, जिसका उल्लेख उनके भर For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ] मथुराके जैन स्तूपादिकी यात्राके महत्वपूर्ण उल्लेख २६१] कवि ऋषभदासने 'हीरविजयहरिरास' में इस प्रकार कराया। तथा इन स्तूपोंके पास ही १२ द्वारपाल आदि किया है: की भी स्थापना की। प्रतिष्ठा कार्य विक्रम सं० १६३० के हीरै कर्यो जै विहारवाला, हीरे कर्यो जै विहार। ज्येष्ठ शुक्ला १२ बुधवारके दिन नौ घड़ी व्यतीत होने मथुरापुर नगरीमें आवे, जुहारया ज पास कुवार वाला।। पर सूरिमन्त्र पूर्वक निर्विघ्न सानन्द समाप्त हुआ। यात्रा करि सुपासनी रे, पूठे बहु परिवार। साहु टोडरने चतुर्विध संघको आमन्त्रित किया। सबने संघ चतुर्विध विहां मिल्यो, पूरसे तीरथ सुसार वाल ॥२॥ परम आनन्दित होकर टोडरको पाशीर्वाद दिया। और जम्बू परमुख ना वलीरे, थूम ते अतिहि उदार । गुरुने उसके मस्तक पर पुष्प वृष्टि की। तत्पश्चात् साहुपांचसे सताविस सूतो, जुहारता हर्ष अपार वाला ॥३॥ टोडरने सभामें खड़े होकर शास्त्रज्ञ कवि राजमल्लसे इस यात्राका विस्तृत वर्णन हीरसौभाग्यकान्यके प्रार्थना की, कि मुझे नंबुस्वामिपुराण सुननेकी बड़ी १४३ सर्गमें मिलता है। पार्श्वनाथ सुपार्श्व एवं १२७ उत्कण्ठा है। इस प्रार्थनासे प्रेरित हो कवि राजमल्लने स्तूपोंकी यात्राका ही उसमें उल्लेख है। यह रचना की। उपयुक सभी उल्लेख श्वेताम्बर जैन साहित्यके हैं विशाल जैन साहित्यके सम्यक् अनुशीलनसे और भी दिगम्बर साहित्यमें भी कुछ उल्लेख खोजने पर अवश्य बहुत सामग्री मिलनेकी सम्भावना है पर अभी तो जो . मिलना चाहिए । १७ वीं शतीके दि. कवि राजमल्लके उल्लेख ध्यानमें थे, उन्हें ही संग्रहित कर प्रकाशित कर जंबूस्वामी चरित्रके प्रारम्भमें यह ग्रन्थ, जिस शाह- रहा हूँ । इनसे भी निम्नोक्त हुई नये ज्ञातव्य प्रकाशमें टोडरके अनुरोधसे रचा गया उसका ऐतिहासिक परिचय देते हुए सं. १६३० में उसके द्वारा मथुराके स्तूपोंके १. मथुरा सम्बन्धी उल्लेखोंकी प्रचुरता श्वेताम्बर जीर्णोद्धारका महत्वपूर्ण विवरण दिया है। साहित्यमें ही अधिक है। अतः उनका संबंध यहाँसे प्रस्तुत ग्रन्थ जगदीशचन्द्र शास्त्री द्वारा संपादित, अधिक रहा है । जैन तीर्थके रूपमें मथुराकी यात्रा मानिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमालासे प्रकाशित है। १७ वीं शती तक श्वे० मुनि एवं श्रावकगण निरन्तर जगदीशचन्द्रजीने उपयुक्त प्रसंगका सार इस प्रकार करते रहे। दिया है २. देव निर्मित स्तूप सम्बन्धी अनुभूतियाँ दोनों 'अगरवाल जातिके गर्गगोत्री साधु टोडरके लिये सम्प्रदायके साहित्यमें मिलती हैं, अतः वह स्तूप दोनोंके राजमन्लने संवत् १६३२ के चैत वदि को यहाँ जबू. लिए समान रूपसे मान्य-पूज्य रहा होगा। यह स्तूप स्वामि चरित्र बनाया। टोडर भाटनियाके निवासी थे। पार्श्वनाथका था। एक बारकी बात है कि साधु टोडर सिद्धक्षेत्रकी यात्रा ३. कुछ शताब्दियों तक तो जैनोंके लिये मथुरा एक करने मथुरामें पाये । वहाँ पर बीचमें जंबू स्वामिका स्तूप विशिष्ट प्रचार केन्द्र रहा है। जैनोंका प्रभाव यहाँबहुत (निःसही स्थान ) बना हुआ था और उसके चों में अधिक रहा। जिसके फलस्वरूप मथुरा व उसके १६ गांवों विद्य रचर मुनिका स्तूप था। पास पास अन्य मोक्ष जाने में भी प्रत्येक घरमें मंगलचत्य स्थापित किये जाने लगे, वाले अनेक मुनियोंके स्तूप भी मौजूद थे। इन मुनियोंके जिसमें जन मूर्तियाँ होती थी। विविधतीर्थकरूपके भनुस्तूप कहीं पांच कहीं पाठ, कहीं दस और कहीं बीस, सार यहाँके राजा भी जैन रहे हैं। इस तरह बने हुये थे । साहु टोडरको इन स्तूपोंके जीर्ण- ४. जैनागमोंकी 'माथुरी वाचना' यहाँकी एक चिरशीर्ण अवस्थामें देख कर इनका जीर्णोद्धार करनेकी प्रवल स्मरणीय घटना है। भावना जागृत हुई । फलतः टोडरने शुभ दिन और शुभ १.वीं शतीके प्राचार्य बप्पभट्टसरिने यहाँ पार्व नग्न देखकर अत्यन्त उत्साहपूर्वक इस पवित्र कार्यका जिनालयको प्रतिष्ठित किया व महावीर बिम्ब भी भेजा। प्रारम्भ किया। साह टोडरको इस पुनीत कार्य में बहुत सा ६. पहले यहाँ एक देवनिर्मित स्तूप ही था फिर धन व्यय करके १.१ स्तूपोंका एक समूह और १३ स्तूपों- पाँच स्तूप हुये, क्रमशः स्तूपोंकी संख्या १२० तक पहुँच का दूसरा समूह इस तरह कुल ५१४ स्तूपोंका निर्माण गई, जो १७ वीं शती तक पूज्य रहे हैं । २२७ स्तूपोका For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ] अनेकान्त सम्बन्ध जंबूस्वामी, प्रभवस्वामी आदि ५२७ व्यक्तियोंसे जो साथ ही दीचित हुए थे जोड़ा गया प्रतीत होता है। ७. भवरवकी चैत्य परिपाटी के अनुसार १७ वीं शती से पहले यहाँ ऋषभदेव के भी दो मन्दिर स्थापित हो चुके थे। ८. सं० १६३० में यहाँ दि० साहु टोडर द्वारा ५१४ स्तूपोंकी प्रतिष्ठा उल्लेखनीय है । प्राप्त सभी उल्लेख अकबरके राज्यकाल तकके हैं। यहाँ तक तो स्तूपादि सुरक्षित और पूज्य थे। इसके बाद इनका उल्लेख नहीं मिलता । अतः औरंगजेब के समय यहाँ अन्य हिंदू प्राचीन मन्दिरोंके साथ जैन स्मारक भी विनाशके शिकार बन गये होंगे । मथुरासे प्राप्त जैन पुरातत्व और इन साहित्यगत उल्लेखोंके प्रकाशमें मथुराके जैन इतिहास पर पुनः विचार करना आवश्यक है | यहांके जैन प्रतिमालेखोंका संग्रह स्व० पूर्णचन्द्र जी नाहटा, हिंदी अंग्रेजी अनुवाद व टिप्प णियों सहित छपाना चाहते थे। पर उनके स्वर्गवास हो जाने से वह संग्रहग्रन्थ यों ही पड़ा रह गया । इसे किसी योग्य ब्यांक से संपादित कराके शीघ्र ही प्रकाशित करना श्रावश्यक है । जन मूर्तिकला पर श्री उमाकान्त शाहने हालही में 'डाक्टरेट' पद प्राप्त किया है उन्होंने मथुराकी जनकला पर भी अच्छा अध्ययन किया होगा। उसका भी शीघ्र प्रकाशित होना आवश्यक है 1 जैन साहित्यकी विशद जानकारी वाले विद्वानोंसे मथुरा सम्बन्धी और भी जहाँ कहीं उल्लेख मिलता है। उसका संग्रह करवाया जाना चाहिए। भाशा है जैन समाज इस ओर शीघ्र ध्यान देगी दि० विद्वानों विशेष रूपसे अनुरोध है कि उनकी निर्वाणकांड-भक्ति श्रादिमें जो जो उल्लेख हों शीघ्र प्रकाशित कर हमारी जानकारी बढ़ावें । नोट : श्री श्रगरचन्जी नाहटाने अपने इस लेख में मथुरा के सम्बन्ध में जो अपनी धारणानुसार निष्कर्ष निकाला है वह ठीक मालूम नहीं होता । क्यक दिगम्बर साहित्यके मथुरा सम्बन्धी सभी उल्लेख प्रकाशित हो चुके हैं ? यदि नहीं तो फिर जो कुछ थोड़े से समुल्लेख प्रकाशित हुए हैं उन परसे क्या निम्न निष्कर्ष निकालना उचित कहा जा [ किरण है. सकता है कि- 'मथुरा सम्बन्धी उल्लेखोंकी प्रचुरता श्वेत पर साहित्य में ही है। अतः उनका सम्बन्ध यहाँ से अधिक रहा है।' दिगम्बर ग्रन्थोंमें मथुरा सम्बन्धी अनेक उल्लेख निहित । इतना ही नहीं किन्तु मथुरा और उसके घासपासके नगरों में दिगम्बर जैनोंका प्राचीन समयसे निवास है । अनेक मंदिर और शास्त्र भण्डार हैं, बादशाही समयमें जो नष्टभ्रष्ट किये गये हैं और अनेक शास्त्र भरद्वार जला दिये गये। थोड़ी देर के लिये यदि यह भी मान लिया जाय कि उल्लेख कम है और यह भी हो सकता है कि दिगम्बर विद्वान् इस विषय में आजकी तरह उपेक्षित भी रहे हों तो इससे क्या उनकी मान्यताकी कमीका अंदाज लगाया जा सकता है। . मथुरा राजा उदितोदयके राज्यकालमें अर्हद्दास सेठके कथानक में कार्तिकमास की शुक्लपक्षकी ममीसे पूर्णिमा तक कौमुदी महोत्सव मनानेका उल्लेख हरिषेण कथाकोष में विद्यमान है जिनमें उक्त सेठकी आठ स्त्रियोंके सम्यक्त्व प्राप्त करनेके उल्लेख के साथ उस समय मथुरामें प्राचार्यों और साधुसंघका भी उल्लेख किया गया है। इसके सिवाय तीर्थस्थानरूपसे निर्वाण काण्डकी 'महुराए अहिङित्ते' नामक गाथामें मथुराका स्पष्ट उल्लेख है। इस कारण सार्थक्षेत्रकी यात्रा के लिये भी वे आते जाते रहे और वर्तमान में तीर्थ यात्रा के लिये भी आते रहते हैं । इनके सिवाय मथुराके देवनिर्मित स्तूपका उल्लेख श्राचार्य सोमदेवने अपने यशस्तिलकचम्पूमें किया है और श्राचार्य हरिषेणने अपने कथाकोषमें वैरमुनिकी कथा निम्नपद्यमें मथुराम पंचस्तूपोंके बनाये जानेका उल्लेख किया है। 'महारजतनिर्मणान् खचितान् मरिणनायकैः । पञ्चस्तूपान् विधायामे समुच्चजिनवेश्मनाम् ॥१३२॥ पंचस्तूपान्वयकी यह दिगम्बर परम्परा बहुत पुरानी है । श्राचार्य वीरसेनने धवलामें और उनके शिष्य जिनसेनने जयधवलटीक। प्रशस्तिमें पं वस्तूपा· वयके चन्द्रसेन श्रार्यनन्दि नामके दो श्राचार्यों का नामोल्लेख किया है जो वीरसेनके गुरु व प्रगुरु थे । इससे स्पष्ट है कि श्राचार्य चन्द्रसेनसे पूर्व उक्त परंपरा प्रचलित थी इसके सिवाय पंचस्तूप निकाय के प्राचार्य गुहनन्दीका उलेख पहादपुरके ताम्रपत्र में पाया जाता है, जिसमें गुप्त संवत् १५६ सन् ४७८ में नाथशर्मा ब्राह्मणके द्वारा गुहनन्दीके विहार में For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ] अर्हतोंकी पूजाके लिये तीन ग्रामों और अशर्फियोंके देने का उल्लेख है । इससे भी स्पष्ट है कि उक्त संवत्से पूर्व यस्तूपान्वच विद्यमान था । अपभ्रंश भाषाके अप्रकाशित कुछ ग्रन्थ - पांडे रायमल्लने अपने जम्बू स्वामीचरितमें ५१४ स्तूपों का जीर्णोद्धार साहू टोडर द्वारा करानेका उल्लेख किया है । इससे १७वीं शताब्दी तक तो मथुराके स्तूपोंका समुद्धार दिगम्बर परम्पराकी ओरसे किया गया है यात्रादिके साधारण उल्लेखोंको छोड़ दिया गया है। सब विवेचनसे स्पष्ट है कि मथुरा दि० जैन समाजका समय से ही मान्य तीर्थस्थान था और वर्तमान में भी है। मुनि उदयकीर्तिने अपनी निर्वाण पूजामें मथुरा ५१५ स्तूपोंका उल्लेख किया है इस पुरातन 'महुराउरि वंदउं प्रासनाह, धुम पंचसयई ठिह पंदराई ।" संवत् १६४० में ब्रह्मचारी भगवतीदास के शिष्य पांडे जिनदासन अपने जंबूस्वामिचरित्रमें साहु पारसके पुत्र टोडर द्वारा मथुरा के पास निसही बनानेका भी उल्लेख किया है। और भी अनेक उल्लेख यत्र तत्र बिखरे पड़े हैं जिन्हें फिर किसी समय संकलित किया जायगा । अतः नाहटाजीने आधुनिक तीर्थयात्रादिके सामान्य उल्लेखों परसे जो निष्कर्ष निकालने का प्रयत्न किया, वह समुचित * देखो, एपि ग्राफिका इंडिका भाग २० पे० ५६ । [ २६३ प्रतीत नहीं होता । दिगम्बर जैन परम्पराका मथुरासे बहुत पुरामा सम्बन्ध है । लेखकने श्वेताम्बरीय ग्रन्थोंमें मधुराके दक्षिण उत्तर मथुराका उल्लेख किया है। दिगम्बर साहित्य में भी उत्तर दक्षिण मधुराके उल्लेख निहित हैं। इतना ही नहीं उत्तर मथुरा तो दिगम्बर जैनोंका केन्द्र स्थल है ही. किन्तु दक्षिण मथुरा भी दिगंबर जैन संस्कृतिका केंद्र रहा है। मद्रासका वर्तमान मदुरा जिला ही दक्षिण मथुरा कहलाती है । उस जिले में दि० जैन गुफाएं और प्राचीन मूर्तियोंका अस्तित्व आज भी उनकी विशालताका द्योतक है। मदुराका पारड्य राज्यवंशभी जैनधर्मका पालक रहा है। • हरिषेणकथाकोशके अनुसार पांढ्यदेश में दक्षिण मथुरा नामका नगर था। जो धन धान्य और जिनायतनोंसे मंडित था, वहां पाण्डु नामका राजा था और सुमति नामकी उसकी पत्नी । वहाँ समस्त शास्त्रज्ञ महातपस्वी आचार्य मुनिगुप्त थे। एक दिन मनोवेग नामके विद्याधर कुमारने जैनमंदिर और उक्त श्राचार्यकी भक्तिभावसहित वन्दना की । एक मुहूर्तके बाद कुमारने श्रावस्ति नगरके जिनकी वन्दनाको जानेका उल्लेख किया। तब गुप्ताचार्यने कुमारसे कहा कि तुम रेवती रानीसे मेरा आर्शीवाद कह देना । बस विद्याधर कुमारने रेवती रानीकी अनेक तरह से परीक्षा की और बादमें श्राचार्य गुप्तका आशीर्वाद कहा। इस सब कथनसे दोनों मथुराओंसे निर्माम्थ दिगम्बर सम्प्रदायका सम्बन्ध ही पुरातन रहा जान पड़ता है। अपभ्रंश भाषाके अप्रकाशित कुछ ग्रन्थ ( परमानन्द जैन शास्त्री ) [ कुछ वर्ष हुए जब मुझे जैनशास्त्र भण्डारों का श्रन्वेषण कार्य करते हुए अपभ्रंश भाषाके कुछ ग्रन्थ मिले थे जिनका सामान्य परिचय पाठकोंको करानेके लिये मैंने दो वर्ष पूर्व एक लेख लिखा था, परन्तु वह लेख किसी अन्य कागजके साथ अन्यत्र रक्खा गया, जिससे वह अभी तक भी प्रकाशित नहीं हो सका । उसे तलाश भी किया गया परन्तु वह उस समय नहीं मिला किन्तु वह मुझे कुछ नोट्सके कागजोंको देखते हुए श्रम मिल गया । अतः उसे ६. स किरण में दिया जा रहा है । ] भारतीय भाषाओं में अपभ्रंश भी एक साहित्यिक भाषा रही है। लोकमें उसकी प्रसिद्धिका कारण भाषा सौष्ठव और मधुरता है। उसमें प्राकृत और देशीय भाषाके शब्दोंका सम्मिश्रण होनेसे प्रान्तीय भाषाओंके विकास में उससे बहुत सहायता मिली है । पर अपभ्रंशभाषाका पद्य साहित्य ही देखने में मिलता है गय-साहित्य नहीं । जैनकवियोंने प्रायः पद्य साहित्यकी सृष्टि की है । यद्यपि दूसरे कवियोंने भी ग्रन्थ लिखे हैं परन्तु उनकी संख्या त्यन्त विरल है । अपभ्रंश भाषाका कितना ही प्राचीन For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४] अनेकान्त [किरण। साहित्य नष्ट हो गया है और कितना ही साहित्य जैन- वह उपलब्ध हो जाय । कविने इस ग्रन्थको भाषाढ़ शुक्ला शास्त्रभण्डारों में अभी दबा पड़ा है जिसके प्रकाशमें लाने- त्रयोदशीको प्रारम्भ करके चैत्र कृष्णा त्रयोदशीको ।। की खास आवश्यकता है। यही कारण है कि अपभ्रंश महीने में समाप्त किया है। इस ग्रन्थकी एक प्रति जयपुर भाषाका अभी तक कोई प्रामाणिक इतिहास तय्यार नहीं में मैंने सं० १५५६ की लिखी हुई सन् ४४ के मई महीने किया जा सका । प्रस्तु, इस लेख में निम्न ग्रन्थोंका परि में देखी थी, और डाक्टर हीरालालजी एम. ए. डी. चय दिया जाता है जो विद्वानोंकी दृष्टिसे अभी तक प्रोझल लिटको इस ग्रन्थकी एक प्रति सं० १११. में प्राप्त हुई थे। उनके नाम इस प्रकार हैं-णेमिणाहचरिउ लचमण-, थी। सम्भव है अन्य ग्रंथभण्डारोंमें इससे भी प्राचीन देव सम्भवणाहचरिउ और वरांगचरिउ कवि तेजपाल. प्रतियाँ उपलब्ध हो जायं। सुकमालचरिउके कर्ता मुनि पूर्णभद्र, सिरिपालचरिउ और २. सम्भवणाहचरिउ-इस ग्रंथके कर्ता कवि तेजजिनरत्तिकथाके कर्ता कवि नरसेन, णेमिणाहचरिड और पाल हैं, जो काष्ठासंघान्तर्गत माथुरान्वयके भट्टारक चन्दप्पहचरिउके कर्ता कवि दामोदर, बाराहवासारके सहस्त्रकीर्ति, गुणकीर्ति. यशःकीर्ति मलयकीर्ति और गुणकर्ता कवि वीर। भद्रकी परम्पराके विद्वान थे। यह भहारक देहली, ग्वालि. यर, सोनीपत और हिसार आदि स्थानों में रहे हैं। पर यह १. णेमिणाहचरिउ-इस ग्रन्थ के कर्ता कवि लक्ष्म यह पट्ट कहाँ था इस विषयमें अभी निश्चयतः कुछ नहीं णदेव हैं। इनका वंश पुरवार था और पिताका नाम रयण कहा जा सकता है, पर उक्त पट्टके स्थान वही हैं जिनका या रत्नदेव था । इनकी जन्मभूमि मालवदेशके अन्तर्गत नामोल्लेख ऊपर किया गया है। कवि तेजपालने अपने गोनन्द नामके नगरमें थी, जहाँ पर अनेक उत्तुंग जिन- जीवन और माता-पितादिक तथा वंश एवं जाति आदिका मदिर और मे जिनालय भी था । वहीं पर कविने कोई लेन । पहले किसी व्याकरण ग्रन्थका निर्माण किया था जो बुध- हैं जिनमें जैनियोंके तीसरे तीर्थंकर सम्भवनाथजीका जीवन जनोंके कण्ठका श्राभरण रूप था, परन्तु वह कौनसा परिचय दिया हाना है। इस ग्रन्थकी रचना भादानक ग्याकरण ग्रन्थ है, उसका कोई उल्लेख देखनेमें नहीं पाया देशके श्रीनगरमें दाऊदशाहके राज्यकालमें की गई है। और न अभी तक उसके अस्तित्वका पता हो चला है। श्रीप्रभनगरके अग्रवाल वंशीय मित्तलगोत्रीय साहू गोनन्द नगर कहाँ बसा था. इसके अस्तित्वका ठीक पता लखमदेवके चतुर्थ पुत्र थोल्हा, जिनकी माताका नाम नहीं चलता; परन्तु इतना जरूर मालूम होता है कि यह महादेवी और प्रथम धर्मपत्नीका नाम 'कोल्हाही; और नगरी उज्जैन और भेलमाके मध्यवर्ती किसी स्थान पर दूसरी पत्नीका नाम प्रासारही था, जिससे त्रिभुवनपाल रही होगी। कवि लक्ष्मण उसी गोनन्द नगरमें रहते थे, और रणमल नामके दो पुत्र उत्पब हुए थे। थीमहाके पाँच वे विषयोंसे विरक्त और पुरवार वंशके तिलक थे, तथा भाई और भी थे, जिनके नाम शिडसी, होलु, दिवसी, रात दिन जिनवाणीके रसका पान किया करते थे । कविके मल्लिदास और कुन्थदास थे । ये सभी भाई और उनकी भाई अम्बदेव भी कवि थे, उन्होंने भी किसी ग्रन्थकी संतान जैनकि उपासक थे। रचना की थी, उस ग्रन्थका नाम, पारमाण भार रचना- लखमदेवके पितामह साह हलुने जिन विम्ब प्रतिष्ठा काल आदि क्या था यह सब अन्वेषणीय है। भी कराई थी. उन्हींके वंशज थीवहाके अनुरोधसे कवि ___ कविवर लक्ष्मणकी एक मात्र कृति 'णेमिणाहचरिउ' तेजपालने उक्त सम्भवनाथ चरितकी रचना की है । ग्रन्थमें ही इस समय उपलब्ध है जिसमें जैनियोंके बाईसवें तीर्थ- रचनाकालका कोई समुल्लेख नहीं है, भट्टारकोंकी नामावली कर श्रीकृष्णके चचेरे भाई भगवान नेमिनाथका जीवन- जो ऊपर दी गई है उनमें सबसे अन्तिम नाम भट्टारक परिचय दिया हुआ है। इस ग्रन्थमें ७ परिच्छेद या गुणभद्रका है, जो भट्टारक मलयकीर्तिके शिष्य थे, और संधियाँ हैं, जिसके श्लोकोंकी आनुमानिक संख्या १३०५ सं० १९०० के बाद किसी समय पट्ट पर प्रतिष्ठित हुए थे, है। ग्रन्थकी अन्तिम प्रशस्तिमें रचनाकाल दिया हुआ उनका समय विक्रमकी १५ वीं शताब्दीका अन्तिम चरण नहीं है। सम्भव है ग्रन्थकी किसी अन्य प्राचीन प्रतिमें और सोलहवीं शताब्दीका प्रारम्भिक काल जान पड़ता है। For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण] अपभ्रंश भाषाके अप्रकाशित कुछ ग्रन्थ [२६५ इस ग्रन्थकी एक प्रति सं० १५८३ को लिखी हुई भट्टारक शुभचन्द्र के शिष्य एवं पट्टधर भट्टारक जिनचन्द्रके ऐलक पनालाल दिगम्बर जैन सरस्वती भवन ब्यावर समयमें लिखी गई है। भ. जिनचन्द्रका पट्टसमय सं०. मौजद है. जिससे स्पष्ट है कि इस ग्रन्थका रचनाकाल उक्त १५०७ पट्टावलियों में पाया जाता है। इससे यह स्पष्ट जान सं० १५८३ से बांदका नहीं है यह सुनिश्चित है, किन्तु पड़ता है कि इस ग्रन्थका निर्माण सं० १५ २ से पूर्व हुश्रा वह उससे किसने पूर्वका है यह ऊपरके कथनसे स्पष्ट ही है. परन्तु पूर्व सीमा अभी अनिश्चित है। ग्रन्थमें दो है, अर्थात् यह अन्य संभवतः १५०० के पास पासकी सन्धियाँ हैं जिनमें श्रीपाल नामक राजाका चरित्र और रचना है। सिद्धचक्रवतके महत्वका दिग्दर्शन कराया गया है। ___ इनकी दूसरी कृति 'वरांगचरिउ' है। यह ग्रन्थ इनकी दूसरी कृति 'जिनत्तिविहाणकहा' नामकी है, नागौरके भट्टारकीय शास्त्र भण्डारमें सुरक्षित है। उसमें जिसमें शिवरात्रिके ढंग पर 'वीरजिननिवाणरात्रिकथा' चार संधियाँ हैं। यह ग्रंथ इस समय सामने नहीं है, इस को जन्म दिया गया है और उसकी महत्ता घोषित की गई कारण उसके सम्बन्धमें अभी कुछ भी नहीं कहा है। यह एक छोटा सा खण्ड ग्रन्थ है जो भट्टारक महेन्द्रजा सकता। कीर्तिके भामेर के भण्डारमें सुरक्षित है। ३ सुकमालचरिउ-इस ग्रंथके कर्ता मुनि पूर्णभद्र हैं ५-६ णेमिणाहचरिउ, चंदप्पहचरिउ-इन दोनों जो मुनि गुणभद्र के प्रशिष्य और कुसुमभद्रके शिष्य थे। यह ग्रन्थोंके कर्ता जिनदेवके सुत कवि दामोदर हैं। ये दोनोंही गुजरात देशके नागर मंडल' नामक नगरके निवासी थे। ग्रन्थ नागौर भण्डारमें सुरक्षित हैं, अभ्य सामने न होने से ग्रन्थकी अन्तिम प्रशस्तिमें मुनि पूर्णभद्र ने अपनी गुरु पर- इस समय इनका विशेष परिचय देना सम्भव नहीं है। म्पराका उल्लेख करते हुए निम्न मुनियोंके नाम दिये हैं। ७ मल्लिनाथकाव्य-इस ग्रन्थके कर्ता मूलसंघके वीरसूरि, मुनिभद्र, कुसुमभद्र, गुणभद्र, और पूर्णभद्र । भट्टारक प्रभाचन्द्रके प्रशिष्य और भट्टारक पद्मनन्दिके शिष्य ग्रन्थकर्ताने अपनेको शीलादिगुणोंसे अलंकृत और 'गुण- कवि जयमित्रहल या कवि हरिचन्द्र हैं जो सहदेवके पुत्र समुद्र' बतलाया है। थे यह ग्रन्थ अभीतक अपूर्ण है। भामेर भंडार में इसकी इनको एकमात्र कृति 'सुकमालचरिउ' है, जिसमें एक खण्डित प्रति प्राप्त हुई है। इस ग्रन्थ प्रतिमें शुरुके अवन्तीके राजा सुकमालका जीवन परिचय छह सधियों चार पत्र नहीं हैं और अन्तिम १२२ वां पत्र भी नहीं है। अथवा परिच्छेदोंमें दिया हुआ है जिससे मालूम होता है ग्रन्थकी उपलब्ध प्रशस्तिमें उसका रचना काल भी दिया कि वे जितनं सुकोमल थे, परीषहों तथा उपसर्गोंके जीतने- हा नहीं है जिससे कवि हरिचन्द्रका समय निश्चित किया में उतने ही कठोर एवं गम्भीर थे और उपसर्गादिक कटोके जा सके । यह ग्रंथ पुह मे (पृथ्वी) देशके राजाके राज्यमें सहन करने में दक्ष थे। ग्रन्थ में उसका रचनाकाल दिया थाल्हासाहुके अनुरोधसे बनाया गया था। प्रारहासाहुके ४ हुधा नहीं है जिससे निश्चियतः यह कहना कठिन है कि पुत्र थे जिन्होंने इस ग्रंथको लिखाकर प्रसिद्ध किया है। यह ग्रंथ कब बना? अामेर भण्डारकी इस प्रतिमें लेखक इनकी दूसरी कृति 'वड्ढमाणकव्व अथवा श्रोणक पुष्पिका वाक्य नहीं है। किन्तु देहली पंचायती मन्दिरकी चरित है। यह ग्रन्थ सन्धियामें पूर्ण हुआ है जिसमें प्रति सं० १६३२ की लिखी हुई है और इसकी पत्र संख्या जैनियोंके चौवीसवें तीर्थंकर महावीर और तत्कालीन माध४३ है। जिससे स्पष्ट है कि यह ग्रंथ सं० १६३२ से पूर्व देशके सम्राट बिम्पसार या श्रेणिकका चरित वर्णन किया की रचना है कितने पूर्व को यह अभी अन्वेषणीय है। गया है। इस ग्रन्थको देवरायके पुत्र संधाधिप होलिवम्मु' ४ सिरिंपाल चरिउ-इस ग्रन्थके कर्ता कवि नरसेन के अनुरोधसे बनाया गया है और उन्हींके कर्णाभरण हैं कविने इस ग्रन्थमें अपना काई परिचय नहीं दिया किया गया है । इस ग्रन्थको कई प्रतियाँ कई शारत्र और न ग्रन्थका रचनाकाल ही दिया है, जिससे उस पर भंडारोंमें पाई जाती हैं। इस ग्रंथमें भी रचनाक ल दिया विचार किया जा सकता । इस ग्रन्थकी एक प्रति संवत् हुअा नहीं है। यह प्रति जैन सिद्धान्त भवन प्राराकी है १६०२ चैत्रवदि ११ मंगलवारका रावर पत्तनके राजाधि- संवत् १६०० की लिखी हुई है जिससे इस ग्रन्थकी उत्तरा राज डूंगरसिंहके राज्यकालमें बलात्कारगण सरस्वति गच्छके वधि तो निश्चित है कि वह १६०. से पूर्व रचा गया है। For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ] अनेकान्त चूंकि ग्रन्थकर्ताक गुरु भट्टारक पद्मनन्दि हैं जो भट्टारक प्रभाचन्द्र के पट्टधर x थे जैसा कि 'मल्लिनाथचरिङ' की अन्तिम प्रशस्तिके निम्न वाक्यसे प्रकट है जिसमें पद्मनन्दिको प्रभाचन्दके पट्टधर होनेका स्पष्ट उल्लेख है:'मुणि] पहचंद पट्ट सु पहावण, पउमगंदि गुरु विरिय उपावण' जिनका समय विक्रमको १४ वीं शताब्दीका अन्तिम चरण और १२ वीं शताब्दीका प्रारम्भिक समय है; क्योंकि पट्टावलियों में पद्मनन्दीके गुरु प्रभाचन्दके पट्ट पर प्रतिष्ठित होने का समय संवत् १३७५ बतलाया गया है । पद्मनन्दी मूलसंघ, नन्दिसंघ, बलात्कारगण और सर - स्वती गच्छके विद्वान थे । यह उस समयके अत्यन्त प्रभाव शाली विद्वान भट्टारक थे। इनकी कई कृतियाँ उपलब्ध हुई हैं। जिनमें पद्मर्नान्दश्रावकाचार प्रमुख है, दूसरी कृति 'भावन पद्धति' जिसका दूसरा नाम 'भावनाचतुस्त्रिंशतिका', तीसरी कृति वर्धमान चरित' है जो संवत् १५२२ फागुण सुदि सप्तमीका लिखा हुआ है और गोपीपुरा सूरतके शास्त्रभंडार में सुरक्षित है। इनके सिवाय 'जीरापल्ली' 'पाश्र्वनाथ स्तवन' और अनेक स्तवन, पद्मनन्दि मुनि द्वारा बनाए हुए उपलब्ध हुए हैं। इनके अनेक शिष्य थे, जिनमें अनेक शिष्य तो बड़े कवि और ग्रन्थ कर्ता हुये हैं। जिनमें भ० सकलकोर्ति और भ० शुभचन्द्रके नाम उहहं खनीय हैं। इनके एक शिष्य विशालकीर्ति भी थे जिनके द्वारा सं० १४७० में प्रतिष्ठित २६ मूर्तियाँ टोंक X श्रीमत्प्रभा चन्दमुनींद्र पट्टे शश्वत्प्रतिष्ठा प्रतिभा गरिष्टः । विशुद्ध सिद्धान्तरहस्यरत्नरत्नाकरो नन्दतु पद्मनन्दी -बिजोलिया शिलालेख हँसो ज्ञानमरालिका समसमाश्लेषप्रभूताद्भुतानन्दं क्रीडति मानसेति विशदे यस्यानिशं सर्वतः । स्याद्वादामृतसिन्धुवर्धनविधौश्रीमत्प्रभे दुप्रभाः, पट्ट े सूरिमल्लिका स जयतात् श्रीपद्मनन्दी मुनिः ॥१॥ महावतपुरन्दरःऽशमदग्ध रागाङ्कः । स्फुरत्परमपौरुषः स्थितिर शेषशास्त्रार्थवित् । यशोभरमनोहरी कृतसमस्त विश्वम्भरः, परोपकृतितत्परो जयति पद्मनन्दीश्वरः ॥ - शुभचन्द्र गुर्वावली [ किरण राजस्थान में प्राप्त हुई हैं । इस सब विवेचनसे स्पष्ट है कि उक्त दोनोंके कर्ता कवि हरिचन्द या जयमित्रहल विक्रमकी १२ वीं शताब्दीके प्रारम्भिक विद्वान है । ८ आराधनासार - इस ग्रन्थके कर्ता कवि वीर हैं ये कब हुए हैं और उनकी गुरु परम्परा क्या है ? यह ग्रन्थ परसे कुछ भी ज्ञात नहीं होता। यह वीर कवि 'जम्बूस्वा मी चरित' के कर्तासे संभवतः भिन्न जान पड़ते हैं जिसका रचनाकाल विक्रम संवत् १०७६ है प्रस्तुत ग्रन्थ में दर्शन ज्ञान, चारित्र, और तप रूप चार आराधनाओंका स्वरूप २० कडवकों में बतलाया गया है। जो श्रामैर भंडारके एक बड़े गुटके पत्र ३३३ से ३३८ तक दिया हुआ है । इन ग्रन्थोंके अतिरिक्त और भी अनेक ग्रन्थ अपभ्रंशभाषाके रासा अथवा 'रास' नाम से सूचियों में दर्ज मिलते हैं, परन्तु उनके अवलोकनका अवसर न मिलने से यहाँ परिचय नही दिया जा सका । ६ दोहानुप्रेक्षा- -इस अनुप्रेक्षा ग्रन्थके कर्ता ग्रन्थ प्रतिमें लक्ष्मीचन्द्र बतलाए गये हैं, परन्तु उनकी गुरु परम्पराका कोई परिज्ञ न नहीं हो सका । ग्रन्थमें ४७ दोहे हैं। जिनमें १२ भावनाओंके अतिरिक्त अध्यात्मका संक्षिप्त वर्णन दिया हुआ है । यह ग्रंथ अनेकान्तकी इसी किरण में अन्यत्र दिया जा रहा है ! दिगम्बर शास्त्र भण्डारोंमें अभी सहस्त्रों ग्रन्थ पढ़े हुए हैं जिनके देखने या नोट करनेका कोई अवसर ही नहीं आया है । जैन समाजका इस ओर कोई लक्ष्य भी नहीं है । खेद है कि इस उपेक्षा भावसे अनेक बहुमूल्य कृतियाँ नष्ट हो गई हैं और हो रही हैं। क्या समजके साधर्मी भाई अब भी अपनी उस गाढ़ निद्राको दूर करनेका यत्न करेंगे । - सरसावा (सहारनपुर), ता० १२-११-२१ * संवत् १५७० ज्येष्ट सुदि ११ गुरौ श्रीमूल संघे गुणे (गच्छे) लोकगण उद्धारक श्री प्रभाचन्द्रदेवः (तत्) पट्ट े पद्मनन्द देवाः शिष्यः वशालकीर्तिदेवः तयोरुपदेशेन महासंघ खंडेलवाल गंगवाल गोत्रस्य खेता भार्या खिवासिरी तयो पुत्र धर्मा भार्या ललु तयो पुत्रत्रयः सा० भोजा, राजा, देलू प्रणमंति [ नित्यम् ] । For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य के विकास में जैन विद्वानोंका सहयोग (डा० मंगलदेव शास्त्री, एम. ए., पी. एच. डी. ) भारतीय विचारधाराकी समुन्नति और विकास में अन्य श्राचार्योंके समान जैन श्राचार्यों तथा ग्रन्थकारोंका जो बड़ा हाथ रहा है उससे आजकलकी विद्वान मंडली साधारणतया परिचित नहीं है । इस लेखका उद्देश्य यही है कि उक्त विचार धाराकी समृद्धि में जो जैन विद्वानोंने सहयोग दिया है उसका कुछ दिग्दर्शन कराया जाय जैन विद्वानोंने प्राकृत, अपभ्रंश, गुजराती हिन्दी, राजस्थानी, तेजगु, तामिल श्रादि भाषाओंके साहित्यकी तरह संस्कृत भाषा साहित्यकी समृद्धि में बढ़ा भाग लिया है। सिद्धान्त, श्रागम, न्याय, व्याकरण, काव्य, नाटक, चम्बू, ज्योतिष श्रावुर्वेद, कोष, अलंकार, छन्द, गणित, राजनीति, सुभाषित आदि क्षेत्र में जैन. लेखकोंकी मूल्यवान संस्कृत रचनाएँ उपलब्ध हैं । इस प्रकार खोज करने पर जैन संस्कृत साहित्य विशालरूपमें हमारे सामने उपस्थित होता है । उस विशाल साहित्यका पूर्ण परिचय कराना इस अल्पकाय लेखमें संभव नहीं है। यहाँ हम केवल उन जैन रचनाओंकी सूचना देना चाहते हैं जो महत्वपूर्ण हैं। जैन सैद्धान्तिक तथा श्रारं भिक ग्रन्थोंकी चर्चा हम जानबूझकर छोड़ रहे हैं । जैन न्याय जैन के मौलिक तत्वोंको मरल और सुबोधरीति से प्रतिपादन करने वाले मुख्यतया दो ग्रन्थ हैं। प्रथम श्रभि नव धर्मभूषयति-विरचित न्यायदीपिका दूसरा माणि क्यनन्दिका परीक्षामुख, न्यायदीपिकामें प्रमाण और नयका बहुत ही स्पष्ट और व्यवस्थित विवेचन किया गया है । यह एक प्रकरणात्मक संक्षिप्त रचना है जो तीन प्रकाशों में समाप्त हुई है । गौतम न्यायसूत्र' और दिग्नागके 'न्यायप्रवेश' की are माणिक्यनन्दिका 'परीक्षामुख' जैन न्यायका सर्व प्रथम सूत्र ग्रंथ है। यह छः परिच्छेदोंमें विभक्त है और समस्तसूत्र संख्या २०७ है । यह नवमी शतीकी रचना है और इतनी महत्वपूर्ण है कि उत्तरवर्ती ग्रन्थकारोंने इसपर अनेक विशालटीकाएँ लिखी हैं प्राचार्य प्रभाचन्द्र [ ७८०१०६५ ई०] ने इस पर बारह हजार श्लोक परिमाण 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' नामक विस्तृत टीका लिखी है । १२वीं शती के लघुश्रनन्तवीर्यंने इसी ग्रन्थ पर एक 'प्रमेयरत्नमाला' नामक विस्तृत टीका लिखी है। इसकी रचनाशैली इतनी विशद और प्रान्जल है और इसमें चर्चित किया गया प्रमेय इतने महत्वका है कि श्राचार्य हेमचन्द्रने अनेक स्थलोंपर अपनी 'प्रमाणमीमांसा' में इसका शब्दशः और अर्थशः अनुकरण किया है। लघु श्रनन्तवीर्यने तो माणिक्यनन्दीके | परीक्षामुखको अकलङ्कके वचनरूपी समुद्रके मन्थन से उद्भूत न्यायविद्यामृत १ बतलाया है । उपर्युक्त दो मौलिक ग्रन्थोंके अतिरिक्त अन्य प्रमुख न्य ग्रन्थोंका परिचय देना भी यहाँ अप्रासंगिक न होगा । अनेकान्तवादको व्यवस्थित करनेका सर्वप्रथम श्र ेय स्वामी समन्तभद्र, (द्वि० या तृ० शदी ई०) और सिद्धसेन दिवाकर (छठी शती ई०) को प्राप्त है स्वामी समन्तभद्रकी श्राप्तमीमांसा और युक्त्यनुशासन महत्व पूर्ण कृतियां हैं । श्राप्त मीमांसा में एकान्तवादियोंके मन्तव्योंकी गम्भीर श्रालोचना करते हुए श्राप्तकी मीमांसा की गई है और युक्तियोंके साथ स्वाद्वाद सिद्धान्तकी व्याख्या की गई है। इसके ऊपर भट्टाकलंक (६२०-६८० ई० ) का अष्टशती विवरण उपलब्ध है तथा प्राचार्य विद्यानंदि (हवीं श. ई०) का 'अष्टसहस्री' नामक विस्तृत भाष्य और वसुनन्दिकी (देव (गम वृत्ति) नामक टीका प्राप्य है । युक्त्यनुशासन में जैन शासनकी निर्दोषता सयुक्तिक सिद्ध की गई है। इसी प्रकार सिद्धसेन दिवाकर द्वारा अपनी स्तुति प्रधान बत्तीसियों में और महत्वपूर्ण सम्मतितर्कभाष्य में बहुतही स्पष्ट रीति से तत्कालीन प्रचलित एकान्तवादोंका स्याद्वाद सिद्धातके साथ किया गया समन्वय दिखलाई देता है । भट्टाकलङ्कदेव जैन न्यायके प्रस्थापक माने जाते हैं और इनके पश्चाद्भावी समस्त जैनतार्किक इनके द्वारा व्यवस्थित न्याय मार्गका अनुसरण करते हुए ही दृष्टिगोचर होते हैं। इनकी भ्रष्टशती, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय लघीस्त्रय और प्रमाणसंग्रह बहुत ही महत्वपूर्ण दार्शनिक रचनाएँ हैं। इनकी समस्तरचनाएँ जटिल और दुर्बोध १. 'अकलङ्कवचोऽम्भोधेरुद्ध बेन धीमता । न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्येंनन्दिने ॥' 'प्रमेयरत्नमाला' पृ० २ For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ ] हैं । परन्तु वे इतनी गम्भीर हैं कि उनमें 'गागरमें सागर' की तरह पढे- पदे जैन दार्शनिक तत्त्वज्ञान भरा पड़ा 1 आठवीं शतीके विद्वान आचार्य हरिभद्रकी 'अनेकांत जयपताका' तथा षट्दर्शन समुच्चय मूल्यवान और सारपूर्ण कृतियाँ हैं । ईसाकी नवीं शतीके प्रकाण्ड श्राचार्य विद्यानन्दके अष्टसहस्त्री, श्राप्तपरीक्षा और तस्वार्थश्लोकवार्तिक, आदि रचनाओंमें भी एक विशाल किन्तु अलोचना पूर्ण विचारराशि बिखरी हुई दिखलाई देती है । इनकी प्रमाणपरीक्षा नामक रचनामें विभिन्न प्रामाणिक मान्यताओंकी आलोचना की गई है और अकलङ्क सम्मत प्रमाणोंका सयुक्तिक समर्थन किया गया है । सुप्रसिद्ध तार्किक प्रमाचन्द्र आचार्यने अपने दीर्घकाय प्रमेयकमल मार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र में जैन प्रमाण शास्त्र सम्बन्धित समस्त विषयोंकी विस्तृत और व्यवस्थित विवे चना की है। तथा ग्यारवीं शतीके विद्वान अभय देवने सिद्धसेन दिवाकर कृत सम्मतितर्ककी टीकाके व्याजसे समस्त दार्शनिक वादोंका संग्रह किया है। बारवीं शती के विद्वान् वादी देवराज सूरिका स्याद्वादरत्नाकर भी एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं । तथा कलिकाल सवज्ञ श्राचर्य हेम चन्द्रकी प्रमाणमीमांसा भी जैन न्यायकी एक अनूठी रचना है। अनेकान्त उक्त रचनाएँ नव्य न्यायकी शैलीसे एक दम अस्पष्ट है । हाँ, विमलदासकी सप्तभंगतरंगिणी और वाचक यशोविजयजी द्वारा लिखित अनेकान्तव्यवस्था शास्त्रवार्तासमुच्चय तथा अष्टसहस्रीकी टीका अवश्य ही नव्य न्यायकी से लिखित प्रतीत होती हैं। 1 व्याकरण - प्राचार्य पूज्यपाद ( वि छटीं श० ) का 'जैनेन्द्रव्याकरण' सर्वप्रथम जैनभ्याकरण माना जाता है । महाकवि धनन्जय ( ८ वीं शती) ने इसे अपश्चिमरत्न बतलाया है ? इस ग्रन्थ पर निम्नलिखित टीकाएँ उपलब्ध हैं: ( १ ) अभयनन्दिकृत महावृत्ति ( २ ) प्रभाचन्द्रकृत शब्दाम्भोजभास्कर (३ श्राचार्य श्रुतकीर्तिकृत पंचवस्तुप्रक्रिया, (४) पं० महाचन्द्रकृत लघुजैनेन्द्र | १ प्रमाणमकलङ्कस्य पूज्यपादस्य लक्षणं । धनजयकः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम् ॥ [ किरण प्रस्तुत जैन व्याकरणके दो प्रकारके सूत्र पाठ पाये जाते हैं । प्रथम सूत्रपाठके दर्शन ऊपरि लिखित चार टीकाग्रंथों में होते हैं और दूसरे सूत्रपाठके शब्दार्णवचन्द्रिका तथः शब्दार्णवप्रक्रियामें । पहले पाठमें ३००० सूत्र हैं । यह सूत्रपाठ पाणिनीयकी सूत्र पद्धतिके समान है। इसे सर्वाङ्ग सम्पन्न बनानेकी दृष्टिसे महावृत्ति में अनेक वातिक और उपसंख्याओंका निवेश किया गया है। दूसरे सूत्रपाठ - में ३७०० सूत्र । पहले सूत्रपाठकी अपेक्षा इसमें ७०० सूत्र अधिक हैं और इसी कारण इसमें एक भी वार्तिक श्रादिका उपयोग नहीं हुआ है । इस संशोधित और परिवद्धित संस्करणका नाम शब्दार्णव है । इसके कर्ता गुणनन्दि (वि० १० श० ) आचार्य है । शब्दार्णव पर भी दो टीकाएँ उपलब्ब हैं: - ( १ ) शब्दाणवचन्द्रिका और (२) शब्दार्णव प्रक्रिया शब्दाणवचन्द्रिका सांमदेव मुनिने वि० सं० १२६२ में लिख कर समाप्त की है और शब्दावप्रक्रियाकार भी बारवीं२ शती. चारुकीर्ति पण्डिताचार्य अनुमानित किये गये हैं । - धनंजय नाममाला महाराज अमोघवर्ष प्रथम ) के समकालीन शाकटायन या पाल्यकीर्तिका शाकटायन ( शब्दानुशासन ) व्याकरण भी महत्वपूर्ण रचना । प्रस्तुत व्याकरण पर निम्नाकित सात टोकाऍ उपलब्ध हैं (१) श्रमोधवृत्ति - शाकटायनके' शब्दानुशासन पर स्वयं सूत्रकार द्वारा लिखी गयी यह सर्वा धक विस्तृत और महत्वपूर्ण टीका है। राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्षको लक्ष्य में रखते हुए ही इसका उक्त नामकरण किया गया प्रतीत होता है (२) शाकटायनन्यास अमोघवृत्ति पर प्रभाचन्द्राचार्य द्वारा विरचित यह न्यास है । इसके केवल दो.. अध्याय ही उपलब्ध हैं । (३) चिंतामण टीका ( लघीयसीवृत्ति ) इसके रचयिता यक्षवर्मा हैं और श्रमोधवृत्तिको संक्षिप्त करके ही इसकी रचना की गयी है। (४) मणिप्रकाशिका - इसके कर्ता श्रजित सेनाचार्य हैं। (५) प्रक्रियासंग्रह - भट्टोजीदीक्षितकी सिद्धांतकौमुदी की पद्धति पर लिखी गया यह एक प्रक्रिया टीका है, इसके कर्ता अभयचन्द्र आचार्य हैं । (६) शाकटायन टीका२ जैन साहित्य और इतिहास ( पं० नाथूराम प्रेमी ) का 'देवनन्दि और उनका जैनेन्द्र व्याकरण' शीर्षक निबन्ध | For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण & ] भावसेन? त्रैविद्यदेवने इसकी रचना की है यह कातन्त्र रूपमाला टीकाके भी रचयिता हैं । (७) रूपसिद्धि - लघुकौमुदीके समान यह एक अल्पकाय टीका है। इसके कर्ता दयापान वि० ११ वीं श० ) मुनि हैं । संस्कृत-साहित्यके विकास में जैन विद्वानोंका सहयोग प्राचार्य हेमचन्द्रका सिद्धम शब्दानुशासन भी महत्व पूर्ण रचना है । यह इतनी आकर्षक रचना रही है कि इसके आधार पर तैयार किये गये अनेक व्याकरण ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं । इनके अतिरिक्त अन्य अनेक जैन व्याकरण ग्रंथ जैनाचार्योंने लिखे हैं और अनेक जैनेतर व्याकरण ग्रन्थों पर महत्वपूर्ण टीकाएँ भी लिखी हैं। पूज्यपादने पा यानी व्याकरण पर शब्दावतार' नामक एक न्यास लिखा था जो सम्प्रति श्रप्राय है। और जैनाचार्यों द्वारा सारस्वत व्याकरण पर लिखित विभिन्न बीस टीकाएं आज भी उपलब्ध हैं । ' शर्ववर्मा कातंत्र व्याकरण भी एक सुबोध और संक्षिप्त errकरण है तथा इस पर भी विभिन्न चौदह टीकाएँ प्राप्य 1 अलङ्कार अलङ्कार विषय में भी जैनाचार्योंकी महत्वतूर्णं रचनाएँ उपलब्ध हैं । हेमचन्द्र और वाग्भटके काव्यानुशासन तथ बाग्भटका वाग्भटालंकार महत्वकी रचनाएँ हैं श्रजितसेन आचार्यकी अलंकार चिन्तामणि और श्रमरचन्द्रकी काव्यकक्पलता बहुत ही सफल रचनाय हैं । जैनेतर अलंकार शास्त्रों पर भी जैनाचार्योंकी तिपय टीकाएँ पायी जाती हैं । काव्यप्रकाश के ऊपर भानुचन्द्रगणि जयनन्दिसूरि और यशोविजयगणि (तपागच्छ की टीकाए उपलब्ध हैं। इसके सिवा दण्डीके काव्यदर्श पर त्रिभुवनचंद्रकृत टीका पायी जाती है और रुद्रटके काव्यालकार पर नमिसाधु (११२१ वि०सं०) के टिप्पण भी सारपूर्ण है। नाटक नाटकीय साहित्यसृजनमें भी जैन साहित्यकारोंने अपनी प्रतिभाका उपयोग किया है । उभय-भाषा-कविचक्रवर्ति इस्तिमक्ल ( १३ वीं श० ) के विक्रांतकौरव, जयकुमार सुलोचना) सुभद्राहरण और श्रंजनापवनंजय १ जिनरत्नकोश ( भ० ० रि० इ० पूना ) * जिनरत्नकोश (म० ० रि० इ०, पूना) । [ २६६ उल्लेखनीय नाटक हैं। आदिके दो नाटक महाभारतीय कथा के आधारपर रचे गये हैं और उत्तरके दो रामकथाके आधारपर | हेमचन्द्र आचार्यके शिष्य रामचन्द्रसूरिके अनेक नाटक उपलब्ध हैं जिसमें नलविवाह, सत्यहरिश्चंद्र, कौमुदी मित्रानंद, राघवाभ्युदय, निर्भय भी मण्यायोग आदि नाटक बहुत ही प्रसिद्ध हैं । श्रीकृष्ण मिश्र के 'प्रबोध चंद्रोदय' की पद्धतिपर रुपकात्मक ( Allegorical ) शैलीमें लिखा गया यशपाल ( १३ वीं शती० )' का 'मोहराज पराजय' एक सुप्रसिद्ध नाटक है। इसी शैलीमें लिखे गये वादिचन्द्र सूरकृत ज्ञानसूर्योदय तथा यशश्चंद्रकृत मुदितकुमुदचंद्र साम्प्रदायिक नाटक हैं । इनके अतिरिक्त जयसिंहका हम्मीरमदमर्दन नामक एक ऐतिहासिक नाटक भी उपलब्ध है । काव्य जैन काव्य - साहित्य भी अपने ढ़ंगका निराला है । काव्य साहित्य से हमारा आशय गद्य काव्य, महा काव्य, चरित्रकाव्य, चम्पृकाव्य, चित्रकाव्य और दूतकाव्योंसे है । गद्यकाव्य में तिलकमंजरी (१७० ई०) और प्रोडयदेव (वादीभसिंह ११ वीं सदी) की गद्यचिन्तामणि महाकवि बाणकृत कादम्बरी के जोड़की रचनाएँ हैं । महाकाव्य में हरिचंद्रका धर्मशर्माभ्युदय, वीरनन्दिका चन्द्रप्रभचरित अभयदेवका जयन्तविजय, अर्हासका मुनिसुव्रत काव्य, वादिराजका पार्श्वनाथचरित्र, भटका नेमिनर्वाणकाव्य मुनिचन्दका शान्तिनाथचरित और महासनका प्रद्युम्नचरत्र, आदि उत्कृष्ट कोटिके महाकाव्य तथा काव्य हैं। चरित्र काव्यमें जटासिंहनन्दिका वर - चरित, रायमल्लका जम्बूस्वामीचरित्र, असग कविका महावीर चरित, आदि उत्तम चरित काव्य माने जाते हैं । चम्पू काव्य में आचार्य सोमदेवका यशस्तिलकचम्पू (वि० १०१६) बहुत ही ख्याति प्राप्त रचना है । अनेक विद्वानोंके विचार में उपलब्ध संस्कृत साहित्यमें इसके जोड़ का एकभी थम्पू काव्य नहीं है। हरिश्चन्द्र महाकविका जीवन्धरचम्पू तथा श्रईद्दासका पुरुदेवचम्पू (१३वीं शती) भी उच्च कोटिकी रचनाएँ हैं । चित्रकाव्य में महाकवि धनंजय (८वीं श०) का द्विसन्धान शान्तिराजका पञ्चसंधान, हेमचन्द्र तथा मेघविजयगणीके सप्तसन्धान, जगन्नाथ (१६६६ वि० सं०) का चतुर्विंशति सन्धान तथा For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३००] अनेकान्त [किरण. जिनसेनाचार्यका पार्श्वभ्युदय उत्तम कोटिके चित्र काव्य हैं। का यथेष्ट कौशल प्रदर्शित किया है। अमरसिंहगणीकृत दूत काव्यमें मेघदूतकी पद्धति पर लिखे गये वादि- अमरकोष संस्कृतज्ञ समाजमें सर्वोपयोगी और सर्वोत्तम कोष माना जाता है। उसका पठन-पाठनभी अन्य कोषोंकी चन्द्रका प्रवनदूत, चारित्र सुन्दरका शीलदूत, विनयप्रभका चन्द्रदत, विक्रमका नेमिदूत और जयतिलकसूरिका धर्मदूत अपेक्षा सर्वाधिक रूपमें प्रचलित है । धनञ्जयकृत धनञ्जयउल्लेखनीय दूत-काव्य हैं। नाममाला दो सौ श्लोकोंकी अल्पकाय रचना होने परभी इनके अतिरिक्त चन्द्रप्रभसूरिका प्रभावक चरित, बहुत ही उपयोगी है। प्राथमिक कक्षाके विद्यार्थियों के लिये मेरुतुङ्गकृत प्रबन्ध चिन्तामणि (१३०६ ई.) राजशेखर जेन समाजमें इसका खूब प्रचलन है। का प्रबन्ध कोष (१३४२ ई.) आदि प्रबन्ध काव्य ऐति अमरकोषकी टीका (पाख्यासुधाख्या) की तरह इस पर भी अमरकीर्तिका एक भाष्य उपलब्ध है । इस हासिक दृष्टिसे बड़ेही महत्व पूर्ण हैं। 'प्रसगमें प्राचार्य हेमचन्द्रविरचित अभिधानचिन्तामणि छन्दशास्त्र नाममाला एक उल्लेखनीय कोशकृति है। श्रीधरसेनका बन्द शास्त्र पर भी जैन विद्वानोंकी मूल्यवान रचनाएँ विश्वलोचनकोष, जिसका अपर नाम मुक्तावली है एक उपलब्ध हैं। जयकीति (१११२)का स्वोपज्ञ छन्दोऽनु- विशिष्ट और अपने ढंगकी अनूठी रचना है। इसमें ककाशासन तथा प्राचार्य हेमचन्द्रका स्वोपज्ञ छन्दोऽनुशासन रांतादि व्यंजनोंके क्रमसे शब्दोंकी संकलना की गयी है.. महत्वकी रचनाएं हैं । जयकीर्तिने अपने छन्दोऽनुशासनके जो एकदम नवीन है। अन्तमें लिखा है कि उन्होंने माण्डव्य. पिङ्गल, जनाश्रय, · मन्त्रशास्त्रशैतव, श्रीपूज्यपाद और जयदेव आदिके छन्दशास्त्रोंके मन्त्रशास्त्र पर भी जैन रचनाएँ उपलब्ध हैं। विक्रममाधारपर अपने छन्दोऽनुशासनकी रचना की है। । वाग्भट- की ५ वीं शतीके अन्त और बारवीके श्रादिके विद्वान का आन्दोऽनुशासन भी इसी कोटिकी रचना है और इस मल्लिषेणका 'भैरवपद्मावतिकल्प, सरस्वतीमन्त्रकल्प और पर इनकी स्वोपज्ञ टीका भी है। राजशेखरसूरि ज्वालामालिनीकल्प महत्वपूर्ण रचनाएं हैं। भैरव पद्मावति(११४६ वि.)का छन्दःशेखर और रस्नमंजूषा भी उल्लेख- कल्पमें। मन्त्रीलक्षण, सकलीकरण, देण्यर्चन, द्वादशनीय रचनाएं हैं। रंजिकामन्त्रोद्धार, क्रोधादिस्तम्भन, अङ्गनाकर्षण, वशीइसके अतिरिक्त जैनेतर छन्दः शास्त्र पर भी जैना- करणयन्त्र, निमित्तवशीकरणतन्त्र और गारुडमन्त्र नामक चार्योंकी टीकाएं पायी जाती हैं। केदारभट्टके वृत्तरत्ना दस अधिकार हैं तथा इस पर बन्धुषणका एक संस्कृत विवरण भी उपलब्ध है। ज्वालामालिनी कप नामक कर पर सोमचन्द्रगयी, क्षेमहंसगणी, समयसुन्दरउपा एक अन्य रचना इन्द्र नन्दिकी भी उपलब्ध है जो शक ध्याय, प्रासह और मेरुमुन्दर आदिकी टीकायें उपलब्ध सं०८६१ में मान्यखेटमें रची गयी थी। विद्यानुवाद हैं। इसी प्रकार कालिदासके श्रतबोध पर भी हर्षकीर्ति, या विद्यानुशासन नामक एक और भी महत्वपूर्ण रचना है और कांतिविजयगणीकी टीकाएँ प्राप्य हैं। संस्कृत भाषा जो २४ अध्यायोंमें विभक्त है। वह मल्लिषेणाचार्यकी कृति के छन्द-शास्त्रोंके सिवा प्राकृते और अपभ्रन्श भाषाके छंद बतलायी जाती है परन्तु अन्तः परीक्षणसे प्रतीत होता है शास्त्रों पर भी जैनाचार्योंकी महत्वपूर्ण टीकाएँ उप कि इसे मल्लिषेणके किसी उत्तरवर्ति विद्वानने प्रथित किया है । इनके अतिरिक्त हस्तिमल्लका विद्यानुवादाज तथा कोश भक्तामरस्तोत्र मन्त्र भी उल्लेखनीय रचनाएँ हैं। कोशके क्षेत्र में भी जैन साहित्यकारोंने अपनी लेखनी इस ग्रन्थको श्री साराभाई मणिलाल नवाब (1) मांडव्य-पिंगल-जनाश्रय-सैतवाख्य, अहमदाबादने सरस्वतीकल्प तथा अनेक परिशिष्टोंश्रीपूज्यपाद-जयदेवबुधादिकानां । में गुजराती अनुवाद सहित प्रकाशित किया है। छन्दासि वीचय विविधानपि, सस्प्रयोगान् , २ जैन साहित्य और इतिहास (श्री पं. नाथूरामछन्दोनुशासनमिदं जयकीर्तिनोक्तम् ॥ . जी प्रमी) पृ० ४ा। For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ] सुभाषित और राजनीति - सुभाषित और राजनीति से सम्बंधित साहित्यके सृजनमें जैन लेखकोंने पर्याप्त योगदान किया है । इस प्रसंग आचार्य श्रमितगतिका सुभाषित रत्नसन्दोह (१०५० वि० ) एक सुन्दर रचना है इसमें सांसारिकविषयनिराकरण, मायाहंकार निराकरण इन्द्रियनिग्रहोपदेश, स्त्रीगुणदोषविचार, देवनिरूपण श्रादि बत्तीस प्रकरण हैं । प्रत्येक प्रकरण बीस बीस, पच्चीस पच्चीस पद्योंमें समाप्त हुआ है । सोमप्रभकी सूक्तिमुक्तावली. सकलकीर्तिकी सुभाषितावली श्राचार्य शुभचन्द्रका ज्ञानार्णव, हेमचन्द्राचार्यका योग शास्त्र आदि उच्च कोटिके सुभाषित ग्रन्थ हैं। इनमें से अन्तिम दोनों ग्रन्थों में योगशा का महत्वपूर्ण निरूपण है। राजनीति में सोमदेवसूरिका नीतिवाक्यामृत बहुत ही महत्वपूर्ण रचना है । सोमदेवसूरिने अपने समय में उपलब्ध होने वाले समस्त राजनैतिक और अर्थशास्त्रीय साहित्यका मन्थन करके इस सास्वत् नीतिवाक्यामृतका सृजन किया है । अतः यह रचना अपने ढंगकी मौलिक और मूल्यवान है । आयुर्वेद संस्कृत-साहित्यके विकास में जैन विद्वानोंका सहयोग श्रायुर्वेद सम्बन्ध में भी कुछ जैन रचानाएं उपलब्ध हैं। उग्रादित्यका कल्याणकारक, पूज्यपादवैद्यसार अच्छी रचनाएँ हैं। पण्डितप्रवर श्राशावर ( १२ वीं सदी) ने बाग्भट्ट या चरक सहितापर एक अष्टाङ्ग हृदयोद्योतिनी नामक टाका लिखी थी परन्तु सम्प्रति वह श्रप्राप्य है । चामुण्डरायकृत नरचिकित्सा, मलिषेणकृत बालग्रह चिकित्सा, तथा सोमप्रभाचार्यका रसप्रयोग भी उपयोगी रचनाएं हैं। कला और विज्ञान जैनाचार्योंने वैज्ञानिक साहित्य के ऊपर भी अपनी लेखनी चलायी । हंसदेव ( १३ वीं सदी ) का मृगपक्षी - शास्त्र एक उत्कृष्ट कोटिकी रचना मालूम होती है । इसमें १७१२ पद्य हैं और इसकी एक पाण्डु ल' पत्रिवें द्रमुके राजकीय पुस्तकागारमें सुरक्षित है। इसके प्रति रिक्त चामुण्डरायकृत कूपजलज्ञान, वनस्पतिस्वरूप, विधानादि परीक्षाशास्त्र, धातुसार, धनुर्वेद रत्नपरीक्षा, विज्ञानाव आदि ग्रन्थ भी उल्लेखनीय वैज्ञानिक रचनाएँ हैं । Jain Education Intimational ३०१ ] ज्योतिष, सामुद्रिक तथा स्वप्नशास्त्र ज्योतिष शास्त्र के सम्बन्धमें जैनाचार्योंकी महत्वपूर्ण रचनाएँ उपलब्ध | गणित और फलित दोनों भागोंके ऊपर ज्योति पाये जाते हैं। जैनाचार्योंने गणित ज्योतिष सम्बन्धि विषयका प्रतिपादन करनेके लिये पाटीगणित, बीजगणित, रेखागणित, त्रिकोणमिति, गोलीय - रेखागणित, चापीय एवं वक्रीय त्रिकोणमिति, प्रतिभागणित, गोन्नतिगणित, पंचांग निर्माण गणित, जन्मपत्रनिर्माण गणित ग्रहयुति उदयास्तसम्बन्धी गणित एवं यन्त्रादिसाधनसम्बन्धितगणितका प्रतिपादन किया है। जैन गणित के विकासका स्वर्णयुग छठवींसे बारवीं तक है । इस बीच अनेक महत्वपूर्ण गणित ग्रंथोंका प्रथन हुआ हैं । इसके पहलेकी कोई स्वतन्त्र रचना उपलब्ध नहीं है । कतिपय श्रागमिक ग्रन्थोंमें अवश्य गणितसम्बन्धि कुछ बीजसूत्र जाते हैं । सूर्यप्रज्ञप्ति तथा चन्द्रप्रज्ञप्ति प्राकृतकी रचनायें होने पर भी जैन गणित की अत्यन्त महत्वपूर्ण तथा प्राचीन रचनाएं हैं। इनमें सूर्य और चन्द्रसे तथा इनके ग्रह, तारा मण्डल आदि से सम्बन्धित गणित तथा विद्वानोंका उल्लेख ष्टगोचर होता है । इनके अतिरिक्त महावीराचार्य (हवीं सदी) का गणितसारसंग्रह श्रीधरदेवका गणितशास्त्र, हेमप्रभसूरिका त्रैलोक्यप्रकाश और सिंहतिलकसूरिका गणिततिलक आदि ग्रन्थ सारगर्भित और उपयोगी हैं । फलित ज्योतिष से सम्बन्धित होराशास्त्र, संहिताशास्त्र, मुहूर्तशास्त्र, सामुद्रिकशास्त्र. प्रश्नशास्त्र और स्वप्नशास्त्र आदि पर भी जैनचार्योंने अपनी रचनाओं में पर्याप्त प्रकाश डाला है और मौलिक ग्रंथ भी दिये हैं। इस प्रसंग में चन्द्रसेन मुनिका केवलज्ञान होरा दामनंदिके शिष्य भट्टवासरिका श्रायज्ञानतिलक, चंद्रोन्मीलनप्रश्न, भद्रबाहुनिमित्तशास्त्र, अर्घकाण्ड, मुहूर्तदर्पण, जिनपालगणीका स्वप्नचिंतामणि आदि उपयोगी ग्रन्थ • 1 जैसा ऊपर कहा गया है, इस लेख में संस्कृत साहित्य के विषय में जैनविद्वानोंके मूल्यवान सहयोगका केवल दिग्दर्शन ही कराया गया है। संस्कृत साहित्यके प्र ेमियोंको उन आदरणीय जैन विद्वानोंका कृतज्ञ ही होना चाहिए । हमारा यह कर्तव्य है कि हम हृदयसे इस महान् साहित्य से परिचय प्राप्त करें और यथा सम्भव उसका संस्कृत समाजमें प्रचार करें । ( वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थसे ) For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोहाणुपेहा ( कवि लक्ष्मीचंद) पणविवि सिद्ध महारिसिहिं, जो परभावह मुक्कु । आसउ संसारह मुणहिं, कारणु अएणु ण कोइ । परमाणंद परिठियउ, चउ-गइ-गमणहं चुक्कु ॥ १॥ इम जाणे विणु जी तुहुँ, अप्पा अप्पउ जोइ ।।१८ जइ बीहउ चउ-गइ-गमण, तो जिणउत्तु करेहि। जो परियाणंइ अप्प-परु, जो परभाव चएइ । दो दह अणुवेहा मुणहि, लहु सिव-सुक्खु लहेहि ॥२॥ सो संवर जाणे वि तुहुँ, जिणवर एम भणेइ ॥१॥ अद्भुय असरणु जिणु भणई, संसारु वि दुह-खाणि । जइ जिय संवरु तुहु करहि, भो ! सिव सुक्खु लहेहिं । एकत्तुवि अण्णत्तु मुणि, असुइ सरीरु वियाणि ॥३ अण्णु वि सयलु परिचयहिं, जिणवर एम भणेहिं ॥२०॥ आसव संवर णिज्जर वि, लोया भावविसेसु। सहजाणंद परिट्ठियउं, जे परभाव ण लिति । धम्मुवि दुल्लह बोहिजिय,, भावें गलइ किलेसु ॥४॥ ते सुहु असुहु वि णिज्जरहिं, जिणवरु एम भणंति ॥२१॥ जलबुब्बउ जोविउ चवलु, धणु जोव्वण तडि-तुल्लु। स-सरीरु वि तइलोउ मुणि, अण्णु ण बीयउ कोइ । इसउ वियाणि वि मा गहि माणुस-जम्मु अमुल्लु ॥॥ जहिं आधार परिट्टियउ, सो तुहूं अप्पा ज़ोइ ॥२२॥ जइ णिच्चु वि जाणियइ, तो परिहरहिं अणिच्चु । सो दुल्लह लाहु वि मुणहिं, जो परमप्पय लाहु । . . तं काई णिच्चुवि मुणहिं, इम सुय केवलि वुत्तु ॥६ अण्णु ण दुल्लह किंपि तुहुँ, णाणी बोलहिं साहु ।।२३ असरणु जाणहिं सयलु जिय, जीवहं सरणु ण कोइ। पुणु पुणु अप्पा झाइयइ, मण-वय-काय-ति-सुद्धि । दंसण-णाण-चरित्तमउ, अप्पा अप्पउ जोइ ।।७ राय रोस-वे परिहरि वि, जइ चाहहि सिव-सिद्धि ॥२४॥ दसण-णाण-चरित्तमउ. अप्पा सरणु मुणेइ। राय-रोस-जो परिहरि वि, अप्पा अप्पहिं जोइ। अण्णु ण सरणु वियाणि तुहु जिणवरु एम भणेइ ।। जिणसामिउ एमइ भणई, सहजि उपज्जइ सोइ ।।२।। तइ लो उ वि महु मरणु बुहु, हउं कहु सरण हु जाम । जो जोवइसो जोइयइ, अण्णु ण जोयहिं कोइ । इम जाणे विगु थिरु रहइ, जो तइ लोयकु साम । इम जाणेविणु सम-रहं, सई पहु पइयउ होइ॥ ६॥ पंच पयारह परिभमइ पंचह बंधिउ सोइ । को जोवइ को जोइयइ, अण्णु ण दीसइ कोइ। जाम ण अप्पु मुणेहि फुडु, एम भणंति हु जोइ ॥१०॥ सो अखंडु जिण उत्तियउ, एम भणंतिहु जोइ ।।२७ इकिल्लउ गुणगणनिलउ, बीयउ अस्थि ण कोइ। जो सुण्णु वि सो सुण्णु मुणि, अप्पा सुण्णु ण होइ । मिच्छादंसणु मोहियउ, चउगइ हिंडई सोइ ।।११ सल्लु सहावें परिहवई, एम-भणंति हु जोइ ॥२८ जइ सहसणु सो लहइ, तो परभाव चएइ । परमाणंद परिट्ठियहिं, जो उपजइ कोइ। इकिल्लउ सिव-सुहु लहइ, जिणवरु एम भणेइ ॥१२॥ सो अप्पा जोणेवि तुई, एम भणंति हु जोइ ।।२६| अण्णु सरीरु मुंणेहिं जिय, अप्पउ केवलि अण्णु। सुधु सहावें परिणवइ, परभावहं जिण उत्तु । तो अणु विसयलु विचयहि, अप्पा अप्पउ मण्णु ।। ३।। अप्प सहावें सु णु णवि, इम सुइ केवलि उत्तु ॥३०॥ जिम कट्ठह डहणहं मुणहिं वइसानरु फुडु होइ। अप्प सरूवह लइ रहहि, छंडइ सयल-उपाधि तिम कम्मह डहणहं भविय, अप्पा अण्णु क होइ ॥१४ भणई जोइ जोइहिं भणउ, जीवह एह समाधि ॥३१॥ सत्त धाउमउ पुग्गालु वि, किमि-कुलु-असुइ निवासु। सो अप्पा मुणि जीच तुहुं, केवलणाण सहावु । तहिं णाणिउं किमई करइ, जो छंडइ तव पासु ॥१५॥ भणइ जोई जोईहि जिउ, जइ चाहहि सिवलाहु ॥३. असुइ सरीरु मुणेहिं जइ, अप्पा णिम्मलु जाणि। जोइय जोउ निवारि, समरसताइ परिट्ठियउ । तो असुइ वि पुग्गलु चयहि,एम भणंति हु णाणि ॥१६|अप्पा अण्णु विचारि, भणई जोइहि भणिउ ॥३३ जो स-सहाव चए वि मुणि, परभावहिं परणेइ। जोइ य जोयइ जीओ, जो जोइज्जइ सो जि तुहूं। सो आसउ जाणे हि तुहुं, जिणवर एम भणेइ ॥१७॥ अण्णु ण बीयउ कोइ, भणइं जोइ जोइहिं भणिउ ।३४ For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६ ] । सोहं सोहं जि हर्ड, पुणु पु पु मुइ । मोक्खहं कारण जोइया, अणु म सो चिंतेइ ||३५ धम्मु मुजिहि इक्कु पर, जइ चेयण परिणाम | अप्पा पर झाइयइ, सो सासय-सुहु-धामु || ३६ ताई भूप विवि, गो इत्थहि ( व्वि तो न समीहि तत्तु तुहुं, जो तइलोय- पहाणु ॥३७ हत्थ दुट्ठ जु देवलि, तह सिव संतु मुणेइ । मूढा देवल देव, भुल्लर काई भमेइ ||३८ जो जाइ ति जाणिय, अणु ग म जागइ कोइ । धंधइ पडियउ सयल्लु जगु एम भांति हु जोइ ॥ ३६ ॥ जो जाइ सो जायिई यहु सिद्धं तहं सारु । सो भाइज्जइ इक्कु पर, जो तइलोयह सारु ॥४०॥ भवसारण णिमित्तइरण, जो बंधिज्जइ कम्मु । सो मुच्चिज्जइ तो जिपरु, जइ लब्भइ जिरण धम्मु ॥४१ दोहा [ ३०३ जो हु-हु विवज्जयउ, सुद्ध सचेयण भाउ । सो धम्मुवि जाणेहिं जिय, गाणी बोल्लहि साहु ॥४२॥ यहं धारण परिहरिउ, जासु पट्टइ भाउ । सो कम्मे हि बंधयई, जहिं भावइ तहिं जाउ ॥४३ सो दोहउ अप्पारण हो, अप्पा जो मुणेइ । सो झायंत हं परम पड, जिरणवरु एम भणेइ ||४४ उ-उ-रियम करंत यहं जो ण मुरगइ अप्पा | सो मिच्छादिट्ठि हवइ राहु पावहि गिव्वा ॥ ४५ जो अप्पा गिम्मलु मुणइ, वय-तव-सील समाणु । सो कम्मरनउ फुडु करइ, पावइ लहु णिव्वाणु ॥४६ ए अणुवेहा जिण भरणय, गाणी बोलहिं साहु । ताविज्जहिं जीव तुहुँ, जइ चाहहि सिव-लाहु ||४७|| इति वेहा वीर सेवामन्दिरका नया प्रकाशन पाठकोंको यह जानकर अत्यन्त हर्ष होगा कि श्राचार्यं पूज्यपादका 'समाधितन्त्र और इष्टोपदेश' नामकी दोनों आध्यात्मिक कृतियाँ संस्कृतटीका के साथ बहुत दिनोंसे अप्राप्य थीं, | तथा मुमुक्षु श्राध्यात्म प्रेमी महानुभावोंकी इन ग्रन्थोंकी मांग होनेके फलस्वरूप वीरसेवामन्दिर ने 'समाधितन्त्र और इष्टोपदेश' नामक ग्रन्थ पं० परमानन्द शास्त्री कृत हिन्दी टीका और प्रभाचन्द्राचार्यकृत समाधितन्त्र टीका और आचार्य कल्प पं० आशाधरजी कृत इष्टोपदेशकी संस्कृत टीका भी साथ में लगा दी है। स्वाध्याय प्रेमियोंके लिये यह ग्रन्थ खास तौर से उपयोगी है । पृष्ठ संख्या सब तीन सौ से ऊपर है । सजिल्द प्रतिका मूल्य ३) रुपया और बिना जिन्दका (२) रुपया है। वाइडिंग होकर ग्रन्थ एक महीने में प्रकाशित हो जायगा । ग्राहकों और पाठकों को अभी से अपना आर्डर भेज देना चाहिये । मैनेजर - वीरसेवा मन्दिर, १ दरियागंज, देहली For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. No. D.211 अनेकान्तके संरक्षक और सहायक संरक्षक 101) बा० मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता 1500 ) बा० नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता 101) बा० बद्रीप्रसादजी सरावगी, 251) बा० छोटेलालजी जैन सरावगी, 101) बा० काशीनाथजी, ... 251) बा० सोहनलालजी जैन लमेचू 101) बा० गोपीचन्द रूपचन्दजी 251) ला० गुलजारीमल ऋषभदासजी , 101) बा० धनंजयकुमारजी 251) बा० ऋषभचन्द (B.R.C. जैन , 101) बा० जीतमल जी जैन 251) बा० दीनानाथजी सरावगी 101) बा० चिरंजीलालजी सरावगी 251) वा० रतनलालजी झांमरी , 101) बा० रतनलाल चांदमलजी जैन, राँची 251) बा० बल्देवदासजी जैन सरावगी , 10.) ला० महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली 255) सेठ गजराजजी गंगवाल 101) ला० रतनलालजी मादीपुरिया, देहली 251) सेठ सुआलालजी जैन 101) श्री फतेहपुर जैन समाज, कलकत्ता 251) बा० मिश्रीलाल धर्मचन्दजी 101) गुप्तसहायक, सदर बाजार, मेरठ 251) सेठ मांगीलालजी 101) श्री शीलमालादेवी धर्मपत्नी डा०श्रीचन्द्रजी, एटा 251) सेठ शान्तिप्रसादजी जैन 101) ला०मक्खनलाल मोतीलालजी ठेकेदार, देहली 251) बा० विशनदयाल रामजीवनजी, पुरनिया 101) बा० फूलचन्द रतनलालजी जैन, कलकत्ता 251) ला० कपूरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर 101) बा० सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जैन, कलकत्ता 251) बा० जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, देहली 101) बा० वंशीधर जुगलकिशोरजी जैन, कलकत्ता 251) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहली 101) बा० बद्रीदास आत्मारामजी सरावगी, पटना 251) बा० मनोहरलाल नन्हेंमल जी, देहली 101) ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर 251) ला० त्रिलोकचन्दजी, सहारनपुर १०१)-बा० महावीरप्रसादजी एडवोकेट, हिसार 251) सेठ छदामीलालजी जैन, फीरोजाबाद 101) ला० बलवन्तसिंहजी, हांसी जि० हिसार 251) ला० रघुवीरसिंहजी, जैनावाच कम्पनी, देहली 101) कुँवर यशवन्तसिहजी, हांसी जि. हिसार 051) रायबहादुर सेठ हरखचन्दजी जैन, रांचो 101) सेठ जोखाराम बैजनाथ सरावगी, कलकत्ता 251) सेठ वधीचन्दजी गंगवाल, जयपुर 101) श्रीमती ज्ञानवतीदेवी जैन, धर्मपत्नी सहायक . 'वैद्यरत्न' आनन्ददास जैन, धर्मपुरा, देहली 101) बा० राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली 101) बाबू जिनेन्द्रकुमार जैन, सहारनपुर 101) ला० परसादीलाल भगवानदासजी पाटनी देहली 101) वंद्यराज कन्हैयालालजी चाँद औषधालय,कानपुर 101) बा० लालचन्दजी बो० सेठी, उज्जैन 101) रतनलालजी जैन कालका वाले देहली 101) बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता अधिष्ठाता 'वीर-सेवामन्दिर 101) बा० लालचन्दजी जैन सरावगी , सरसावा, जि० सहारनपुर प्रकाशक-परमानन्दजी जैन शास्त्री 1. दरियाज देहली। मुद्रक-रूप-वाणी प्रिटिंग हाऊस 23, दरियागंज, देहली।