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अनेकान्त
[किरण।
वबप्पभट्टि वीं शताब्दी में इये हैं। प्रभावक चरित्रमें इस गाथामें व्यवहारभाष्यको पूर्व दी गई अनुश्रति वीरसूरिके भी यहाँ पधारनेका उल्लेख है।
का उल्लेख दिया गया है। अचलगच्छ पहावलीमें इस युगप्रधानाचार्य गुर्वावलीके अनुसार सं० १२१४ से तीर्थमालाके रचयिता महेन्द्रसिंहसूरिका गच्छनायक १७ के बीच मणिधारी जिनचन्द्र सूरिने मथुराकी यात्रा काल सं० १२६६ से १३०६ तकका बतलाया है। इस की थी।
तीर्थमालामें आबूके वस्तुपालका रचित मन्दिरका भी सं०1३७५ में हस्तिनापुर और मथुरा महातीर्थकी उल्लेख होनेसे इसकी रचना सं० १३०० से १३०६ के यात्राका संघ खरतरगच्छाचार्य जिनचन्द्रसूरिके नेतृत्व में बीचमें हुई प्रतीत होती है। ठाकुर अचलने निकाला। इस बड़े सपने मथुराके पार्श्व, १४ वीं शतीकी अंचलगच्छके संघ यात्राका उल्लेख सुपारव व महावीरकी यात्रा की । इस संघका विस्तृत पूर्व किया जा चुका है। वर्णन उपयुक्त युगप्रधानाचार्य गुर्वावलीमें मिलता है। १५ वीं शताब्दीके खरतर गच्छाचार्य जिनवर्धनसूरि___'मत्यपूज्यः । सुश्रावकसघमहामेलापकेन श्रीमथुरायां जीने पूर्वदेशके जैनतीर्थों की यात्रा करके 'पूर्वदेशचैत्य श्रीपार्श्व, श्रीमहावीरतीर्थकराणां व राजाणां च महता परिपाटी; की रचना की। इसकी ८ वीं गाथामें लिखा हैविस्तरेण यात्रा कृता.
त पासु सुपासह थूम • नमउं, सिरिमथुरा नयरंमि । पाटण भंडारके ताडपत्रीय ग्रंथोंको सूचिके पृष्ठ १५५में त सौरीपूर सिरिनेमिजिण, समुदविजय संमि ॥८॥ सिद्धसेनसूरि रचित सकलतीर्थस्तोत्रमें ऐतिहासिक जैन इसी शतीके मुनि प्रभसूरिके अष्टोतरी तीर्थमालाके तीथों सम्बन्धि गाथायें प्रकाशित हैं। उनमें मथुरा सम्बंधी २०वें पद्यमें 'महरानयरी थम सुपासह इन शब्दों में गाथा इस प्रकार है
उल्लेख मिलता है। सिरि पासनाह सहियं रम्मं सिरिनिम्मियं महाथूमं । १७ वीं शताब्दीके भयरव रचित 'पूर्व देश चैत्यकलिकालवि सुतिस्थं महुरानयरीङ (ए)वंदामि ॥२॥ परिपाटी' की ११वीं गाथामें मथुरा यात्राका उल्लेख इस
यद्यपि इस स्तोत्रके रचनाकालका ठीक समय ज्ञात प्रकार हैनहीं, पर ताडपत्रीय प्रतिको देखते हुए यह १२वीं १३वीं तिह तीरथ यात्रा करि, पहुता मथुरा ठाम शताब्दीकी रचना अवश्य होगी।
दुई जिण हर थी रिषमना, थूम सिरि प्रभवा स्वामी ॥११॥ ' संस्कृतमें संगमसरि रचित 'तीर्थमाला' की एक प्रति मन्त्रीश्वर कर्मचन्द्र वंशोत्कीर्तन काग्यके अनुसार हमारे संग्रहमें हैं। इसमें मथुराके स्तूपादिका उल्लेख इस बीकानेरके महाराजा रायसिंहके मन्त्री कर्मचन्द्रने मथुराके प्रकार है
चैत्योंका जीर्णोद्धार करवाया था। यथामथुरापुरि प्रतिष्ठितः सुपार्वजिमकाल संभवो जर्यात । शत्रजये मधुपये जीर्णोद्धार चकार यः अद्यापि सूराऽभ्यर्य श्रीदेवी विनिर्मित स्तूप :... येनैतत्सदृशं पुण्यं कारणं नास्ति किंचन ।। ३१४ ।
इस तीर्थ मालामें भी रचनाकाल दिया हुश्रा नहीं है व्याख्या-यो मंत्री शत्र अये पुण्डरीकाक्षे तथा मधुपपर इसमें प्राबूके जैन मन्दिरका उल्लेख करते हुये केवल छमथरानां जीणोद्वार-जीर्ण पतितं चैत्य समारचनं चकार । विमलवाहके रचित युगादिमन्दिरका ही उल्लेख है, इसी शताब्दीके कवि व्याकुशलने सं० १९४६ में वस्तुपाल तेजपाल कारित नेमिजिनालयका नहीं है। इस अनेक जनतीर्थोंकी यात्रा करके 'तीर्थमाली बनाई। इसकी खिये इसकी रचना संवत् १०८६ से १२८९ के बीचकी प्रारम्भिक २८ गाथायें प्राप्त नहीं है पर प्राप्त पयोंमें से निश्चित है।
४० वें में मथुराके १०० स्तूपों और स्थान-स्थान पर जिन इसके पश्चात् अंचलगच्छके महेन्द्रसूरि रचित प्रतिमाओंके होनेका उल्लेख इस प्रकार है:'प्रष्टोतरी तीर्थमाला' में मथुराके सुपार्श्वस्तूप सम्बन्धी मथुरा देखिउ मन उक्लसइ, मनोहर थुम्भ जिहां पांचसइं। गाथा इस प्रकार मिलती है।
गौतम जंबू प्रभवो साम, जिणवर प्रतिमा ठामोठाम ॥४०॥ तुच्चं नियाणवाये, सेय पड़ागा निसाइ जहिं जाया. इस शताब्दीके सुप्रसिद्ध प्राचार्य हीरविजय सूरिजीने खवग पभावा तं थुणि, महुराई सुपामजिण थूमं... मथुराके १२७ स्तूपोंकी यात्रा की, जिसका उल्लेख उनके भर
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