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________________ किरण ] मथुराके जैन स्तूपादिकी यात्राके महत्वपूर्ण उल्लेख २६१] कवि ऋषभदासने 'हीरविजयहरिरास' में इस प्रकार कराया। तथा इन स्तूपोंके पास ही १२ द्वारपाल आदि किया है: की भी स्थापना की। प्रतिष्ठा कार्य विक्रम सं० १६३० के हीरै कर्यो जै विहारवाला, हीरे कर्यो जै विहार। ज्येष्ठ शुक्ला १२ बुधवारके दिन नौ घड़ी व्यतीत होने मथुरापुर नगरीमें आवे, जुहारया ज पास कुवार वाला।। पर सूरिमन्त्र पूर्वक निर्विघ्न सानन्द समाप्त हुआ। यात्रा करि सुपासनी रे, पूठे बहु परिवार। साहु टोडरने चतुर्विध संघको आमन्त्रित किया। सबने संघ चतुर्विध विहां मिल्यो, पूरसे तीरथ सुसार वाल ॥२॥ परम आनन्दित होकर टोडरको पाशीर्वाद दिया। और जम्बू परमुख ना वलीरे, थूम ते अतिहि उदार । गुरुने उसके मस्तक पर पुष्प वृष्टि की। तत्पश्चात् साहुपांचसे सताविस सूतो, जुहारता हर्ष अपार वाला ॥३॥ टोडरने सभामें खड़े होकर शास्त्रज्ञ कवि राजमल्लसे इस यात्राका विस्तृत वर्णन हीरसौभाग्यकान्यके प्रार्थना की, कि मुझे नंबुस्वामिपुराण सुननेकी बड़ी १४३ सर्गमें मिलता है। पार्श्वनाथ सुपार्श्व एवं १२७ उत्कण्ठा है। इस प्रार्थनासे प्रेरित हो कवि राजमल्लने स्तूपोंकी यात्राका ही उसमें उल्लेख है। यह रचना की। उपयुक सभी उल्लेख श्वेताम्बर जैन साहित्यके हैं विशाल जैन साहित्यके सम्यक् अनुशीलनसे और भी दिगम्बर साहित्यमें भी कुछ उल्लेख खोजने पर अवश्य बहुत सामग्री मिलनेकी सम्भावना है पर अभी तो जो . मिलना चाहिए । १७ वीं शतीके दि. कवि राजमल्लके उल्लेख ध्यानमें थे, उन्हें ही संग्रहित कर प्रकाशित कर जंबूस्वामी चरित्रके प्रारम्भमें यह ग्रन्थ, जिस शाह- रहा हूँ । इनसे भी निम्नोक्त हुई नये ज्ञातव्य प्रकाशमें टोडरके अनुरोधसे रचा गया उसका ऐतिहासिक परिचय देते हुए सं. १६३० में उसके द्वारा मथुराके स्तूपोंके १. मथुरा सम्बन्धी उल्लेखोंकी प्रचुरता श्वेताम्बर जीर्णोद्धारका महत्वपूर्ण विवरण दिया है। साहित्यमें ही अधिक है। अतः उनका संबंध यहाँसे प्रस्तुत ग्रन्थ जगदीशचन्द्र शास्त्री द्वारा संपादित, अधिक रहा है । जैन तीर्थके रूपमें मथुराकी यात्रा मानिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमालासे प्रकाशित है। १७ वीं शती तक श्वे० मुनि एवं श्रावकगण निरन्तर जगदीशचन्द्रजीने उपयुक्त प्रसंगका सार इस प्रकार करते रहे। दिया है २. देव निर्मित स्तूप सम्बन्धी अनुभूतियाँ दोनों 'अगरवाल जातिके गर्गगोत्री साधु टोडरके लिये सम्प्रदायके साहित्यमें मिलती हैं, अतः वह स्तूप दोनोंके राजमन्लने संवत् १६३२ के चैत वदि को यहाँ जबू. लिए समान रूपसे मान्य-पूज्य रहा होगा। यह स्तूप स्वामि चरित्र बनाया। टोडर भाटनियाके निवासी थे। पार्श्वनाथका था। एक बारकी बात है कि साधु टोडर सिद्धक्षेत्रकी यात्रा ३. कुछ शताब्दियों तक तो जैनोंके लिये मथुरा एक करने मथुरामें पाये । वहाँ पर बीचमें जंबू स्वामिका स्तूप विशिष्ट प्रचार केन्द्र रहा है। जैनोंका प्रभाव यहाँबहुत (निःसही स्थान ) बना हुआ था और उसके चों में अधिक रहा। जिसके फलस्वरूप मथुरा व उसके १६ गांवों विद्य रचर मुनिका स्तूप था। पास पास अन्य मोक्ष जाने में भी प्रत्येक घरमें मंगलचत्य स्थापित किये जाने लगे, वाले अनेक मुनियोंके स्तूप भी मौजूद थे। इन मुनियोंके जिसमें जन मूर्तियाँ होती थी। विविधतीर्थकरूपके भनुस्तूप कहीं पांच कहीं पाठ, कहीं दस और कहीं बीस, सार यहाँके राजा भी जैन रहे हैं। इस तरह बने हुये थे । साहु टोडरको इन स्तूपोंके जीर्ण- ४. जैनागमोंकी 'माथुरी वाचना' यहाँकी एक चिरशीर्ण अवस्थामें देख कर इनका जीर्णोद्धार करनेकी प्रवल स्मरणीय घटना है। भावना जागृत हुई । फलतः टोडरने शुभ दिन और शुभ १.वीं शतीके प्राचार्य बप्पभट्टसरिने यहाँ पार्व नग्न देखकर अत्यन्त उत्साहपूर्वक इस पवित्र कार्यका जिनालयको प्रतिष्ठित किया व महावीर बिम्ब भी भेजा। प्रारम्भ किया। साह टोडरको इस पुनीत कार्य में बहुत सा ६. पहले यहाँ एक देवनिर्मित स्तूप ही था फिर धन व्यय करके १.१ स्तूपोंका एक समूह और १३ स्तूपों- पाँच स्तूप हुये, क्रमशः स्तूपोंकी संख्या १२० तक पहुँच का दूसरा समूह इस तरह कुल ५१४ स्तूपोंका निर्माण गई, जो १७ वीं शती तक पूज्य रहे हैं । २२७ स्तूपोका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527323
Book TitleAnekant 1954 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1954
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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