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अनेकान्त
सम्बन्ध जंबूस्वामी, प्रभवस्वामी आदि ५२७ व्यक्तियोंसे जो साथ ही दीचित हुए थे जोड़ा गया प्रतीत होता है। ७. भवरवकी चैत्य परिपाटी के अनुसार १७ वीं शती से पहले यहाँ ऋषभदेव के भी दो मन्दिर स्थापित हो चुके थे।
८. सं० १६३० में यहाँ दि० साहु टोडर द्वारा ५१४ स्तूपोंकी प्रतिष्ठा उल्लेखनीय है ।
प्राप्त सभी उल्लेख अकबरके राज्यकाल तकके हैं। यहाँ तक तो स्तूपादि सुरक्षित और पूज्य थे। इसके बाद इनका उल्लेख नहीं मिलता । अतः औरंगजेब के समय यहाँ अन्य हिंदू प्राचीन मन्दिरोंके साथ जैन स्मारक भी विनाशके शिकार बन गये होंगे ।
मथुरासे प्राप्त जैन पुरातत्व और इन साहित्यगत उल्लेखोंके प्रकाशमें मथुराके जैन इतिहास पर पुनः विचार करना आवश्यक है | यहांके जैन प्रतिमालेखोंका संग्रह स्व० पूर्णचन्द्र जी नाहटा, हिंदी अंग्रेजी अनुवाद व टिप्प णियों सहित छपाना चाहते थे। पर उनके स्वर्गवास हो जाने से वह संग्रहग्रन्थ यों ही पड़ा रह गया । इसे किसी योग्य ब्यांक से संपादित कराके शीघ्र ही प्रकाशित करना श्रावश्यक है ।
जन मूर्तिकला पर श्री उमाकान्त शाहने हालही में 'डाक्टरेट' पद प्राप्त किया है उन्होंने मथुराकी जनकला पर भी अच्छा अध्ययन किया होगा। उसका भी शीघ्र प्रकाशित होना आवश्यक है 1
जैन साहित्यकी विशद जानकारी वाले विद्वानोंसे मथुरा सम्बन्धी और भी जहाँ कहीं उल्लेख मिलता है। उसका संग्रह करवाया जाना चाहिए। भाशा है जैन
समाज इस ओर शीघ्र ध्यान देगी दि० विद्वानों विशेष रूपसे अनुरोध है कि उनकी निर्वाणकांड-भक्ति श्रादिमें जो जो उल्लेख हों शीघ्र प्रकाशित कर हमारी जानकारी बढ़ावें ।
नोट : श्री श्रगरचन्जी नाहटाने अपने इस लेख में मथुरा के सम्बन्ध में जो अपनी धारणानुसार निष्कर्ष निकाला है वह ठीक मालूम नहीं होता । क्यक दिगम्बर साहित्यके मथुरा सम्बन्धी सभी उल्लेख प्रकाशित हो चुके हैं ? यदि नहीं तो फिर जो कुछ थोड़े से समुल्लेख प्रकाशित हुए हैं उन परसे क्या निम्न निष्कर्ष निकालना उचित कहा जा
[ किरण है.
सकता है कि- 'मथुरा सम्बन्धी उल्लेखोंकी प्रचुरता श्वेत पर साहित्य में ही है। अतः उनका सम्बन्ध यहाँ से अधिक रहा है।' दिगम्बर ग्रन्थोंमें मथुरा सम्बन्धी अनेक उल्लेख निहित । इतना ही नहीं किन्तु मथुरा और उसके घासपासके नगरों में दिगम्बर जैनोंका प्राचीन समयसे निवास है । अनेक मंदिर और शास्त्र भण्डार हैं, बादशाही समयमें जो नष्टभ्रष्ट किये गये हैं और अनेक शास्त्र भरद्वार जला दिये गये। थोड़ी देर के लिये यदि यह भी मान लिया जाय कि उल्लेख कम है और यह भी हो सकता है कि दिगम्बर विद्वान् इस विषय में आजकी तरह उपेक्षित भी रहे हों तो इससे क्या उनकी मान्यताकी कमीका अंदाज लगाया जा सकता है।
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मथुरा राजा उदितोदयके राज्यकालमें अर्हद्दास सेठके कथानक में कार्तिकमास की शुक्लपक्षकी ममीसे पूर्णिमा तक कौमुदी महोत्सव मनानेका उल्लेख हरिषेण कथाकोष में विद्यमान है जिनमें उक्त सेठकी आठ स्त्रियोंके सम्यक्त्व प्राप्त करनेके उल्लेख के साथ उस समय मथुरामें प्राचार्यों और साधुसंघका भी उल्लेख किया गया है। इसके सिवाय तीर्थस्थानरूपसे निर्वाण काण्डकी 'महुराए अहिङित्ते' नामक गाथामें मथुराका स्पष्ट उल्लेख है। इस कारण सार्थक्षेत्रकी यात्रा के लिये भी वे आते जाते रहे और वर्तमान में तीर्थ यात्रा के लिये भी आते रहते हैं ।
इनके सिवाय मथुराके देवनिर्मित स्तूपका उल्लेख श्राचार्य सोमदेवने अपने यशस्तिलकचम्पूमें किया है और श्राचार्य हरिषेणने अपने कथाकोषमें वैरमुनिकी कथा निम्नपद्यमें मथुराम पंचस्तूपोंके बनाये जानेका उल्लेख
किया है।
'महारजतनिर्मणान् खचितान् मरिणनायकैः । पञ्चस्तूपान् विधायामे समुच्चजिनवेश्मनाम् ॥१३२॥
पंचस्तूपान्वयकी यह दिगम्बर परम्परा बहुत पुरानी है । श्राचार्य वीरसेनने धवलामें और उनके शिष्य जिनसेनने जयधवलटीक। प्रशस्तिमें पं वस्तूपा· वयके चन्द्रसेन श्रार्यनन्दि नामके दो श्राचार्यों का नामोल्लेख किया है जो वीरसेनके गुरु व प्रगुरु थे । इससे स्पष्ट है कि श्राचार्य चन्द्रसेनसे पूर्व उक्त परंपरा प्रचलित थी इसके सिवाय पंचस्तूप निकाय के प्राचार्य गुहनन्दीका उलेख पहादपुरके ताम्रपत्र में पाया जाता है, जिसमें गुप्त संवत् १५६ सन् ४७८ में नाथशर्मा ब्राह्मणके द्वारा गुहनन्दीके विहार में
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