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किरण ]
अर्हतोंकी पूजाके लिये तीन ग्रामों और अशर्फियोंके देने का उल्लेख है । इससे भी स्पष्ट है कि उक्त संवत्से पूर्व यस्तूपान्वच विद्यमान था ।
अपभ्रंश भाषाके अप्रकाशित कुछ ग्रन्थ
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पांडे रायमल्लने अपने जम्बू स्वामीचरितमें ५१४ स्तूपों का जीर्णोद्धार साहू टोडर द्वारा करानेका उल्लेख किया है । इससे १७वीं शताब्दी तक तो मथुराके स्तूपोंका समुद्धार दिगम्बर परम्पराकी ओरसे किया गया है यात्रादिके साधारण उल्लेखोंको छोड़ दिया गया है। सब विवेचनसे स्पष्ट है कि मथुरा दि० जैन समाजका समय से ही मान्य तीर्थस्थान था और वर्तमान में भी है। मुनि उदयकीर्तिने अपनी निर्वाण पूजामें मथुरा ५१५ स्तूपोंका उल्लेख किया है
इस
पुरातन
'महुराउरि वंदउं प्रासनाह, धुम पंचसयई ठिह पंदराई ।"
संवत् १६४० में ब्रह्मचारी भगवतीदास के शिष्य पांडे जिनदासन अपने जंबूस्वामिचरित्रमें साहु पारसके पुत्र टोडर द्वारा मथुरा के पास निसही बनानेका भी उल्लेख किया है। और भी अनेक उल्लेख यत्र तत्र बिखरे पड़े हैं जिन्हें फिर किसी समय संकलित किया जायगा । अतः नाहटाजीने आधुनिक तीर्थयात्रादिके सामान्य उल्लेखों परसे जो निष्कर्ष निकालने का प्रयत्न किया, वह समुचित
* देखो, एपि ग्राफिका इंडिका भाग २० पे० ५६ ।
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प्रतीत नहीं होता । दिगम्बर जैन परम्पराका मथुरासे बहुत पुरामा सम्बन्ध है ।
लेखकने श्वेताम्बरीय ग्रन्थोंमें मधुराके दक्षिण उत्तर मथुराका उल्लेख किया है। दिगम्बर साहित्य में भी उत्तर दक्षिण मधुराके उल्लेख निहित हैं। इतना ही नहीं उत्तर मथुरा तो दिगम्बर जैनोंका केन्द्र स्थल है ही. किन्तु दक्षिण मथुरा भी दिगंबर जैन संस्कृतिका केंद्र रहा है। मद्रासका वर्तमान मदुरा जिला ही दक्षिण मथुरा कहलाती है । उस जिले में दि० जैन गुफाएं और प्राचीन मूर्तियोंका अस्तित्व आज भी उनकी विशालताका द्योतक है। मदुराका पारड्य राज्यवंशभी जैनधर्मका पालक रहा है।
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हरिषेणकथाकोशके अनुसार पांढ्यदेश में दक्षिण मथुरा नामका नगर था। जो धन धान्य और जिनायतनोंसे मंडित था, वहां पाण्डु नामका राजा था और सुमति नामकी उसकी पत्नी । वहाँ समस्त शास्त्रज्ञ महातपस्वी आचार्य मुनिगुप्त थे। एक दिन मनोवेग नामके विद्याधर कुमारने जैनमंदिर और उक्त श्राचार्यकी भक्तिभावसहित वन्दना की । एक मुहूर्तके बाद कुमारने श्रावस्ति नगरके जिनकी वन्दनाको जानेका उल्लेख किया। तब गुप्ताचार्यने कुमारसे कहा कि तुम रेवती रानीसे मेरा आर्शीवाद कह देना । बस विद्याधर कुमारने रेवती रानीकी अनेक तरह से परीक्षा की और बादमें श्राचार्य गुप्तका आशीर्वाद कहा। इस सब कथनसे दोनों मथुराओंसे निर्माम्थ दिगम्बर सम्प्रदायका सम्बन्ध ही पुरातन रहा जान पड़ता है।
अपभ्रंश भाषाके अप्रकाशित कुछ ग्रन्थ
( परमानन्द जैन शास्त्री )
[ कुछ वर्ष हुए जब मुझे जैनशास्त्र भण्डारों का श्रन्वेषण कार्य करते हुए अपभ्रंश भाषाके कुछ ग्रन्थ मिले थे जिनका सामान्य परिचय पाठकोंको करानेके लिये मैंने दो वर्ष पूर्व एक लेख लिखा था, परन्तु वह लेख किसी अन्य कागजके साथ अन्यत्र रक्खा गया, जिससे वह अभी तक भी प्रकाशित नहीं हो सका । उसे तलाश भी किया गया परन्तु वह उस समय नहीं मिला किन्तु वह मुझे कुछ नोट्सके कागजोंको देखते हुए श्रम मिल गया । अतः उसे ६. स किरण में दिया जा रहा है । ]
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भारतीय भाषाओं में अपभ्रंश भी एक साहित्यिक भाषा रही है। लोकमें उसकी प्रसिद्धिका कारण भाषा सौष्ठव और मधुरता है। उसमें प्राकृत और देशीय भाषाके शब्दोंका सम्मिश्रण होनेसे प्रान्तीय भाषाओंके विकास में उससे बहुत सहायता मिली है । पर अपभ्रंशभाषाका पद्य साहित्य ही देखने में मिलता है गय-साहित्य नहीं । जैनकवियोंने प्रायः पद्य साहित्यकी सृष्टि की है । यद्यपि दूसरे कवियोंने भी ग्रन्थ लिखे हैं परन्तु उनकी संख्या त्यन्त विरल है । अपभ्रंश भाषाका कितना ही प्राचीन
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