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________________ किरण ६] मथुराके जैन स्तूपादिकी यात्राके महत्वपूर्ण उल्लेख जैन सूत्रोंका संस्कार करनेके लिये मथुरामें अनेक कथा कोश' के अन्तरगत वैरकुमारकी कथामें मथुराके जैन श्रमणोंका संघ उपस्थित हुअा था। वह सम्मेलन पंच स्तूपोंका वर्णन पाया है। इस प्रन्थका रचनाकाल 'माथुरी वाचना' के नामसे प्रसिद्ध है। ( नन्दीचूर्णी) ई. सं. १३२ है। तदनंतर ई० सं० १५६ में रचित मथुरा भंडारयज्ञकी यात्राके लिये प्रसिद्ध था। (श्राव- सोमवसूरिके यशस्तिलकचंपूमें कुछ हेर फेरके साथ श्यक चूर्णी ।। देवनिर्मित स्तूपकी अनुश्रुति दी है। सोमदेवने जब एक यह मगर व्यापारका बड़ा केन्द्र था. और विशेष कर स्तूप होना बतलाया है तो हरिषेणने स्तूपोंकी संख्या ५ वस्त्रके लिए प्रसिद्ध था। (आवश्यक टीका)। बतलाई है । इन अनुश्रुतियोंके सम्बन्धमें विशेष विचार __ यहाँके लोग व्यापार पर ही जीवित रहते थे, डा0 मोतीचंद्रजीने अपने उक्त लेखमें भली प्रकार किया खेती-बाड़ी पर नहीं' (वृहद्कल्प भाष्य १) यहां है। उन्होंने जिमप्रभुसूरिके 'विविधतीर्थकल्प' की स्थल मार्गसे माल पाता जाता था। प्राचारांग चूर्णी)। अनुश्रुतिका सारांश भी दिया है। मथुराके क्षिण पश्चिमकी ओर महोली नामक ग्रामको अभी तक विद्वानोंके सन्मुख उपयुक्त उल्लेख ही प्राचीन ग्रन्थों में मथुरा बतलाया जाता है। (मुनि कल्याण- आये हैं। अब मैं अपनी खोजके द्वारा मथुराके जैन स्तूपाविजयजीका श्रमण भगवान महावीर, पृ० ३७६)। दिके बारे में जो महत्वपूर्ण उल्लेख प्राप्त हुये हैं उन्हें इसमें प्राधारित मथुराके देवनिर्मित जैन स्तूपकी क्रमशः दे रहा हूँअनुश्रति व्यवहारभाष्यमें सर्वप्रथम पाई जाती है । डा. आचार्य भगवाहुकी प्रोपनियुक्तिमें मुनि कहां कहां 'मोतिचन्द्र के 'कुछ जैन अनुश्रुतियाँ और पुरातत्व' शीर्षक विहार करें। इनका निर्देश करते हुए 'चक्के थुमे' पाठ लेखमें उस अनुश्रतिका सारांश इस प्रकार है श्राता है। टीकाकारने इसका 'स्तूपमथुरायां' इन शब्दों एक समय एक जैनमुनिने मथुरामें तपस्या की। द्वारा स्पष्टीकरण किया है। तपस्यासे प्रसन्न होकर एक जैनदेवीने मुनिको वरदान . १३३४ में प्रभावक चरित्रके अनुसार प्रार्यरक्षित. देना चाहा, जिसे मुनिने स्वीकार नहीं किया। रुष्ट होकर सूरि मथुरामें पधारे थे तब इन्द्रने पाकर निगोद सम्बन्धी देवीने रन्नमय देवनिर्मितस्तूपकी रचना की । स्तूपको पृच्छा की थी, जिसका सही उत्तर पाकर उसने सन्तोष देखकर बौद्ध भिक्षु वहां उपस्थित हो गये और स्तूपको पाया । इसी ग्रन्थके पादलिप्तसूरि . प्रबंधानुसार वे भी अपना कहने लगे। बौद्ध और जैनोंको स्तूप सम्बन्धि यहां पधारे थे व 'सुपार्श्वजिनस्तपकी यात्रा की थी। लदाई ६ महीने तक चलता रही। जैन साधुओंने ऐसी यथा• गड़बड़ी देखकर उस देवीकी पाराधना की। जिसका वरदान लेना पहले अस्वीकार कर चुके थे। देवीने उन्हें राजाके 'अथवा मथायां समुरिर्गवा महायशी पास जाकर यह अनुरोध करनेकी सलाह दी कि राजा इस श्रीसुपार्श्वजिन-स्तुपेऽनमत् श्रीपालमजुसु... शर्त पर फैसला करे कि अगर स्तूप बौद्धोंका है तो उस प्रभावकचरित्र' एवं 'प्रबन्धकोश' दोनों अन्योंके पर गैरिक झंडा फहराना चाहिये, अगर वह जैनका है तो बप्पभट्टसूरि प्रबन्धके अनुसार यहां पाम राजाने पार्श्वनाथ सफेद मंडा। रातों रात देवीने बौद्धोंका केशरिया झंडा मंदिर बनवाया था जिसकी प्रतिष्ठा बप्पट्टिसूरिजीने की बदलकर नोंका सफेद मण्डा स्तूप पर लगा दिया और थी। भाम रानाके कहनेसे वाक्पतिराजको प्रबोध देनेको सबेरे जब राजा स्तूप देखने आया तो उस पर सफेद मंडा वे मथुरा पाये तब वाक्पति राजा 'वराह मंदिर' में ध्यानस्थ फहराते देखकर उसने उसे जैन स्तूप मान लिया। था। सरिजीने इसे प्रबोध देकर जैन बनाया, उसका . इसके पश्चात् दिगम्बर हरिषेणाचार्य रचित 'वृहत् _स्वर्गवास भी यहीं हुआ। बप्पभट्टसूरिसे लेपमय ४ बिम्ब कलाकारसे बनवाये थे। उनमेंसे एक मथुरामें स्थापित १. बृहद्कल्पभाष्यगत उल्लेखोंके लिये मुनि पुण्य- किया गया। विविध तीर्थ कल्पानुसार बप्पट्टिसरिजीने विजयजी सम्पादित संस्करणके छठे भागका परिशिष्ट जीर्णोद्धार करवाया एवं महावीर बिम्बकी स्थापना की। इनमें प्रार्यरक्षित प्रथम शती, पादलिप्त पांचवीं, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527323
Book TitleAnekant 1954 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1954
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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