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किरण]
हमारी जन तीथयात्रा संस्मरण
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हां, 'स्थल पुराण' के कथनसे इतना अवश्य ज्ञात की झांकीका भी दिग्दर्शन हो जाता है। विष्णुवर्द्धनने होता है कि विष्णुवर्द्धनके द्वारा जैनियों पर किये गए शक सं० १०३३ (वि.सं. १९६८ से शक संवत् १०६३ अत्याचारोंको पृथ्वी भी सहन करने में समर्थ नहीं हो (वि. स. १६५) तक राज्य किया है। हलेविरमें सकी। फलस्वरूप हलेविड के दक्षिणमें अनेकवार भूकम्प इस समय जैनियोंके तीन मन्दिर मौजूद हैं पार्श्वनाथवस्ति, हुए और उन भू-कम्पोंमें पृथ्वीका कुछ भू-भाग भी भू-गर्भ आदिनाथवस्ति और शान्तिनाथवस्ति, जिनका संक्षिप्त में विलीन हो गया, जिससे जनताको अपार जन-धनकी परिचय निम्न प्रकार है:हानि उठानी पड़ी। इन उपद्रवोंको शान्त करने के लिये १ पार्श्वनाथवस्ति-हलेविडकी इस पार्श्वनाथबस्तियद्यपि रामाने अनेक प्रयत्न किये, अनेक शान्ति-यज्ञ को शक सं० १०५५ (वि० सं० ११९०) में बोप्पाने अपने कराये और प्रचुर धन-व्यय करने पर भी राजा वहाँ जब
स्वर्गीय पिता गणराजकी पुण्य-स्मृतिमें बनवाया था। इस प्रकृतिके प्रकोपजन्य उपद्र्वाको शांत करने में समर्थ न हो
मन्दिरमें पार्श्वनाथ भगवानकी १४ फुट ऊँची काले सका। तब अन्तमें मजबूर होकर विष्णुवर्द्धनको श्रवण
पाषाणकी मनोज्ञ एवं चित्ताकर्षक तथा कलापूर्ण मूर्ति बेल्गोलके तत्कालीन प्रसिद्ध प्राचार्य शुभचन्द्र के पास जा विराजमान है। इस मूर्तिके दोनों ओर धरणेन्द्र और कर क्षमा याचना करनी पड़ी। प्राचार्य शुभचन्द्र राजाके
पद्मावती उत्कीर्णित हैं। मन्दिर ऊपरसे साधारणसा द्वारा किये गए अत्याचारोंको पहलेसे ही जानते थे। प्रथम
प्रतीत होता है; परन्तु अन्दर जाकर उसकी बनावटको तो उन्होंने राजाकी उस अभ्यर्थनाको स्वीकार नहीं किया;
देखनेसे उसकी कलात्मक कारीगरीका सहजही बोध हो किन्तु बहुत प्रार्थना करने या गिड़गिड़ानेके पश्चात् राजा
जाता है इस मन्दिरमें कसौटी पाषाणके सुन्दर चौदह को क्षमा किया। राजाने जैनधर्मके विरोध न करनकी
खम्भे लगे हुए हैं उनमें से भागेके दो खम्भोंपर पानी प्रतिज्ञा की और राज्यकी ओरसे जैनमन्दिरों एवं मठोंको
डालनेसे उनका रंग कालेसे हरा हो जाता है। मुख्य पूजादि निमित्त जो दानादि पहले दिया जाता था उसे
द्वारके दाहिनी ओर एक यक्षकी मूर्ति और बाई भोर पूर्ववत् देनेका श्राश्वासन दिलाया तथा उक्त कार्योंके अन
कूष्मांडिनीदेवीकी मूर्ति है। तर शान्तिविधान भी किया गया।
इस मन्दिरके बाहरकी दीवालके एक पाषाण पर विष्णुवद्धनके मंत्री और सेनापति गंगराज तथा
संस्कृत और कनदी भाषाका एक विशाल शिलालेख अंकित हल्लाने उस समय जैनधर्मका बहेत उद्योत किया, अनेक
है जिसमें इस मन्दिरके निर्माण कराने और प्रतिष्ठादि जिन मन्दिर बनवाए और मन्दिरोंकी पूजादिके निमित्त
कार्य सम्पन्न किये जाने भादिका कितनाही इतिहास दिया भूमिके दान भी दिये । श्रवणबेल्गोल आदिके अनेक
हुआ है। उसमें गंगवंशके पूर्वजोंका आदि स्रोत प्रकट शिलालेखोंसे गंगराज और हुक्लाकी धर्मनिष्ठा और कर्तव्य
करते हुए उनके 'पोवसल' नाम रूढ होनेका उल्लेख परायणताके उल्लेख प्राप्त है जिनसे उनके वैयक्तिक जीवन
भी किया गया है। उसी वंशमें विनयादिस्य राजाका पुत्र यह शुभचन्द्राचार्य सम्भतः वे ही जान पड़ते हैं जो एरेयंग था उसकी पत्नी एचलदेवीसे ब्रह्मा विष्णु और मूबसंघ कुन्दकुन्दन्वय देशीगण और पुस्तकगच्छके कुक्क. शिवकी तरह बक्साल, विष्णु और उदयादिस्य नामके तीन टासन मनधारिदेवके शिष्य थे और जिन्हें मंडलिनाड्के पुत्र हुए इनमें विष्णुका नाम लोकमें सबसे अधिक प्रसिद्ध भुजबल गंग पेमार्दिदेवकी काकी एडवि देमियक्कने श्रुत- हमा। उसकी दिग्विजयों और उपाधियोंका वर्णन करनेके पंचमीके उद्यापनके समय, जो बलिकेरेके उत्तौंग चैत्यालयः पश्चात् तलकाड, कोक, नङ्गलि, गङ्गवाडि, नोलम्बवाडि, में विराजमान थे । धवलाटीकाको प्रति समर्पित की गई मासवाडि, हुलिगेटे, हलसिगे बनवसे, हानुगल. अङ्ग, थी। इन शुभचन्द्राचार्यका स्वर्गारोहण शक सं० १०४५ कुन्तल, मध्यदेश, काम्ची, विनीत और मंदुरापर भी (वि० सं० १८०) श्रावण शुक्ला १० मी शुक्रवारको उनके अधिकारको सूचित किया है। हुना था।
विष्णुवर्द्धनका पादपद्मोपजीवी महादंडनायक गंगराज . देखो, जैन शिलालेख संग्रह भा० . ले. नं० ४३। था, जो अनेक उपाधियोंसे अलंकृत था, उसने अनेक ध्वस्त.
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