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________________ २८२] अनेकान्त [किरणं सम्पन्न हुआ था। और बीच-बीच में राजा स्वयं भी उप- राजा इम्मडि भैरवराय समुदार प्रकृति था । उसने योगी सलाह देता रहता था मूर्ति तैयार होने पर बीस सन् १९८४ में शंकराचार्य के पट्टाधीश नरसिंह भारतीको पहियोंकी मजबूत एक गादी तय्यार करा कर दस हजार राजधानी में कुछ समय तक ठहरनेका भाग्रह किया था, मनुष्यों द्वारा मूर्तिको गाड़ी पर चढ़ाया गया था, जिसमें इस पर उन्होंने कहा कि यहाँ अपने कर्मनुष्ठानके लिये राजा; मंत्री, पुरोहित और सेनानायकके साथ जनसमुदायने कोई देव मन्दिर नहीं है, अतः मैं यहाँ नहीं ठहर सकता। जयघोषके साथ उस गादीको खींचा था । और कई दिनोंके इससे राजाके चित्त में कष्ट पहुँचा, और उसने वह अप्रतिलगातार परिश्रमके बाद मूतिको अभिलषित स्थान पर ष्ठित जैन मन्दिर जो नवीन उसने बनवया था और जिसमें बाईस खम्भोंके बने हुए अस्थायी मंडप में विराजमान कर उक्त नरसिंह भारतीको ठहराया गया था, उसीमें राजाने पाया था, मूर्तिकी रचनाका अवशिष्ट कार्य एक वर्ष तक बरा । 'शेषशायी अनन्तेश्वर विष्णु' की सुन्दर मूर्ति स्थापित करा. पर वहीं होता रहा वहाँ ही मूर्ति पर लता बेल और । दो थी। इससे भट्टारक जी रुष्ट हो गये थे अतः उनसे नासादृष्टि आदिका वह कार्य सम्पन्न हुआ था । इस मूर्ति राजाने क्षमा माँगी, और एक वर्ष में उससे भी अच्छा जिन का कोई आधार नहीं है । मूति सुन्दर और कलापूर्ण तो मन्दिर बनवाने की प्रतिज्ञा ही नहीं की, किन्तु 'त्रिभुवनहै ही, अतः अब इसकी सुरक्षाका पूरा ध्यान रखनेकी तिलक' नामक चैत्यालय एक वर्षके भीतर ही निमाण करा श्रावश्यकता है। क्योंकि यह राजा वीरपाण्ड्यकी भक्तिका दिया। यह मन्दिर जैनमठके सामने उत्तर दिशामें मौजूद सुन्दर नमूना है। है। मठकी पूर्व दिशामें पार्श्वनाथ वस्ति है। राजा इम्मडि भैरवरायने जो अपने समयका एक वोर कारकलमें बाहबलीकी उस विशाल मूर्ति के अतिरिक्त पराक्रमी शासक था अपने राज्यको पूर्ण स्वतन्त्र बनानेके १- मन्दिर और हैं। जिनकी हम सब लोगोंने सानन्द प्रयत्नमें सफल नहीं हो सका । यह राजा भी जिन भक्तिमें यात्रा की। उक्त पर्वत पर बाहुबलीक सामने दाहिनी ओर कम नहीं था। इसने शक सं० १५०८ (वि० सं० १६४३) वाई ओर दो मन्दिर हैं उनमें एक शीतलनाथका और में 'चतुमुखवसदि' नामका एक मन्दिर बनवाया था। यह दूसरा पाश्वनाथका है। मन्दिर कलाकी दृष्टिसे अनुपम है और अपनी खास विशे. कारकलका वह स्थान जहां बाहुबलीकी मूति विराजपता रखता है । इस मन्दिरका मूल नाम 'त्रिभुवन तिलक मान है बड़ा ही रमणीक है। यह नगर भी किसी समय चैत्यालय' है। इस मन्दिरके चारों तरफ एक एक द्वार है वैभवकी चम सीमा पर पहुँचा हुअा था। यहां इस वंशमें जिनमेंसे तीन द्वारोंमें पूर्व, दक्षिण, उत्तरमें प्रत्येकमें अरह अनेक राजा हुए हैं जिन्होंने समयसमय पर जैनधर्मका उद्योत नाथ मल्लिनाथ और मुनिसुव्रत इन तीन तीर्थंकरोंकी तीन किया है । इन राजाओंकी सभामें विद्वानोंका सदा श्रादर मूर्तियाँ विराजमान हैं। और पश्चिम द्वारमें चतुर्विशति रहा है। कई. राजा तो अच्छे कवि भी रहे हैं । पाण्ड्य तीर्थंकरोंकी २४ मूर्तियां स्थापित हैं। इनके सिवाय दोनों धमापतिने 'भव्यानन्द' नामका सुभाषित ग्रन्थ बनाया था मण्डपोम भी अनेक प्रतिमाएं प्रतिष्ठित हैं। दक्षिण और और वीर पाण्ड्य क्रियानिघण्टु' नामका ग्रन्थ रचा था। वाम भागमें ब्रह्मयक्ष और पद्मावतीकी सुन्दर चित्तार्षक इनके समयमें इस देशमें अनेक जैन कवि भी हुए हैं, ललितमूतियां हैं। मन्दिरकी दीवानों पर और खंभों पर भी पुष्प कीर्ति देवचन्द, काल्याणकीर्ति और नागचन्द्रादि । लता आदिके अनेक चित्र उत्कीर्णित हैं, जो उक्त राजाके इन कवियों और इन कृतियोंके सम्बन्धमें फिर कभी अवकला प्रेमके अभिव्यंजक है। जैन राजाओंने सदा दूसरे काश मिलने पर प्रकाश डाला जायगा। धर्म वालोंके साथ समानताका व्यवहार किया है । राजाओं का वास्तविक कर्तव्य है कि वह दूसरे धर्मियोंके साथ समा कारकल में अनेक राजा ही शासक नहीं रहे हैं, किन्तु नताका व्यवहार करें, इससे उनकी लोकप्रियता बढ़ती है उक्त वशका अनेक वाराङ्गनाओने भी राज्यका भार वहन और राज्यमें सुख शान्तिकी समृद्धि भी होती है। करते हुए धर्म और देशकी सेवा की है। -क्रमशः Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527323
Book TitleAnekant 1954 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1954
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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