SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किरण ] हमारी जन तीथयात्राके संस्मरण [२८१ एक मूर्ति विराजमान है। मिट्टीकी मूर्तियोंके बनानेका कारकल-यह नगर मद्रास प्रान्तके दक्षिण कर्नाटक रिवाज कबसे प्रचलित हुभा यह विचारणीय है। जिले में अवस्थित है। कहा जाता है कि यह नगर विझमकी कल्लुवस्ति-इसमें चन्द्रप्रभभगवानकी दो फुट ऊँची १३ वीं शताब्दःसे १७ वीं शताब्दी तक जन-धनसे सम्पन्न मूर्ति विराजमान है। कहा जाता है कि पहले इस मंदिरके ५व खूब समृद्धशाली रहा है। इसकी समृद्धिमें जैनियोने भूगर्भ में ही सिद्धान्तग्रन्थ रखे जाते थे। अपना पूरा योगदान दिया था । उक्त शताब्दियामें कार कल भैररस नामक पाण्ड्य राजवंशके जैन राजाओंसे स्ति-इस मंदिरको 'देरम' नामक सेठने शासित रहा है। प्रारम्भमें यह राजवंश अपनी स्वतन्त्र बनवाया था । मूलनायक मूर्ति तीनफुट ऊँची है इस मूर्तिके नीचे भागमें चौवीप तीर्थकर मूर्तियाँ हैं। और ऊपरके सत्ता रखता था; परन्तु वह स्वतन्त्रता अधिक समय तक कायम न रह सकी। कारकलके इस पारड्यवंशको विजयखंड में भगवान मल्लिनाथकी पद्मासन मूर्ति विराजमान है। नगर और हायसन वंश तथा अन्य अनेक बलशाली शासक चोलसेटिवस्ति-इस मन्दिरको उक्त सेठने बनवाया राजाओंकी प्रधानता अथवा परतंत्रतामें रहना पड़ा। उस था। इस मंदिरमें सुमति पद्मप्रभ गौर सुपार्श्वनाथकी समय वहां जैनियोंका बहु संख्यामें निवास था और वहांके चार चार फुट ऊंची मूर्तियाँ विराजमान हैं। इस मंदिरके व्यापार आदिमें भी उनका विशेष हाथ था। भागे भागमें दायें बायें वाले कोठोंमें चौवीस तीर्थंकर कारकलमें सन् १२६१ से सन् १९८६ तक पाण्ड्यमूतियाँ विराजमान हैं। इसीसे इसे 'तीर्थंकरवस्ति' कहा चक्रवर्ती, रामनाथ, वीर पाख्य और इम्मति भैरवराय जाता है। आदि जैन राजाओंने उस पर शासन किया है। भैररस महादेवसेट्ठिवस्ति-इस वस्तिके बनवाने वाले उक्त राजा वीर पाण्ड्यन शक संवत् १३५३ (वि.सं. १४८८) सेठ हैं। इसमें मूलनायक ५ फुट ऊँची मूर्ति विराजमान है। में फाल्गुन शुक्ला द्वादशीके दिन वहांके तत्कालीन प्रसिद्ध बंकिवरित-इस किसी कम अधिकारीने वनवाया राजगुरु भट्टारक ललितकीर्ति जो मूलसंध कुन्दकुन्दान्वय था । इस अनन्तनाथ भगवानकी मूर्ति विराजमान है। देशीयगण पुस्तकगच्छके विद्वान, देवकीर्तिके शिष्य थे और केरेवस्ति-इस मन्दिरमें कालेपाषाणकी फट ऊंची पनसोगेके निवासी थे, उनके द्वारा स्थिरलग्नमें बाहुबलीकी मल्लिनाथं भगवानकी मूति विराजमान है। उस विशाल मूर्तिकी, जो ११ फुट ५ इंच ऊँची थो-- प्रतिष्ठा कराई गईथी। मूर्तिके इस प्रतिष्ठा महोत्सव में विजय पडुवस्ति-इसमें मूलनायक प्रतिमा अनंतनाथ की है नगरके तत्कालीन शासक राजादेवराय (द्वितीय) भी शामिल जो पद्मासन चार फुट ऊँची है। कहा जाता है कि पहले हुए थे । कविचन्द्रमने अपने 'गोम्मटेश्वर चरित' नामक शास्त्रभण्डार इसी मन्दिरके भूग्रहमें विराजमान था, जो प्रन्यमें बाहुबलीकी इस मूर्तिके निर्माण और प्रतिष्ठादि दीमकादिने भक्षणकर लुप्त प्राय: कर दिया था, उसीमसे का विस्तृत परिचय दिया है जिसमें बतलाया गया है अवशिष्ट थोकी सूचादिका कार्य प्रारा निवासी बाबू कि उक्त मूर्ति के निर्माणका यह कार्य युवराजकी देख-रेख में देवकुमारजीने अपने द्रव्यसं कराया था। बादमें वे सब ग्रन्थ मठमें विराजमान करा दिये गए हैं। भट्टारक ललितकीर्ति काव्य न्याय व्याकरणादि शास्त्रोंके अच्छे विद्वान एवं प्रभावशाली भहारक थे। इनके मठवस्ति-इस मन्दिरमें काले पाषाणकी पार्श्वनाथ बाद कारकलकी इस भट्टारकीय गही पर जो भी भट्टारक की सुन्दर मूर्ति है। प्रतिष्ठित हाता था, वह वद्वान ललितकीति नामस ही यहाँ सुपारी नारियल कालीमिर्च और काजूके वृक्षोंके उल्लेखित किया जाता है। उक्त भ. ललितकातिके अनेक अनेक बाग हैं। कालीमिर्चका भाव उस समय १) रुपया शिष्य थे। कल्याणकीर्ति, देवचन्द्र श्रादि । इनमें कल्याण सेर था। धान भी यहाँ अच्छा पैदा होता है। यहाँ के नीतिने. जिनयजफलोदय (१३५०) ज्ञानचन्दाभ्यव्य चावलभी बहुत अच्छे और स्वादिष्ट होते हैं। यहाँ से कामको प्रनले जिनमतति तदा माथि भोजनकर ११ बजेके करीब चलकर हम लोग कारकल शोधर चरित (श. १३७५) और फणिकुमारचरितका (श. १३६४) रचनाकाल पाया जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527323
Book TitleAnekant 1954 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1954
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy