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________________ २८० ] गुरुवस्ति — यहां के स्थानीय १८ मन्दिरों में सबसे प्राचीन 'गुरुवस्ति' नामका मंदिरही जान पड़ता है । कहा जाता है कि उसे बने हुए एक हजार वर्षसे भी अधिकका समय हो गया है । इस मन्दिर में षट्खण्डागमधवला टीका सहित, कषायपाहुड जयधवला टीका सहित तथा महाबन्धादि सिद्धान्तग्रन्थ रहनेके कारण इसे सिद्धान्तवस्ति भी कहा जाता है। इस मन्दिरमें ३२ मूर्तियाँ रत्नोंकी और एक मूर्ति ताड़पत्रके जड़की इस तरह कुल ३३ अनर्घ्य मूर्तियाँ विराजमान हैं; जो चाँदी सोना, हीरा, पन्ना, नीलम, गरुत्मणि, वैडूर्यमणि, मूंगा, नीलम, पुखराज, मोती, माणिक्य, स्फटिक और गोमेधिक रत्नोंकी बनी हुई हैं । इस मंदिर में एक शिलालेख शक संवत् ६३६ ( वि० सं० ७७१) का है उससे ज्ञात होता है कि इस मन्दिरको स्थानीय जैन पंचोंने बनवाया था । इस मन्दिर के बाहर के 'गद्दके' मंडपको शक संवत् १५३७ (वि० सं० १६७२ ) में चोलसेट्ठि नामक स्थानीय श्र ेष्ठीने बनवाया था । इसी वस्तिके एक पाषाणपर शक सं० १३२० (वि. सं. १४६४ ) का एक उत्कीर्ण किया हुआ एक लेख है जिसमें लिखा है कि इसे स्थानीय राजाने दान दिया । तीर्थंकर वस्तिके पास एक पाषाण स्तम्भके लेखमें जो शक सं० १२२६ (वि० सं० १३६४ ) में उत्कीर्ण हुश्रा उक्त गुरुवस्तिको दान देनेका उल्लेख है । इस मंदिरकी दूसरी मंजिल पर भी एक वेदी है उसमें भी अनेक अनर्घ्य मूर्तियाँ विराजमान हैं । कहा जाता है कि कुछ वर्ष हुए जब भट्टारकजीने इसका जीर्णोद्धार कराया था, इसी कारण इसे 'गुरुर्वास्त' नाम से पुकारा जाने लगा है। मुख्तारश्रीने मैंने और बाबू पन्नालालजी अग्रवाल आदिने इन सब मूर्तियोंके सानन्द दर्शन किये हैं जिसे पं० नागराजजी शास्त्रीने कराये थे और ताडपत्रीय धवल गन्थकी वह प्रति भी दिखलाई थी जिसमें संत' पद मौजूद है, पं० नागराजजीने वह सूत्र पढ़कर भी बतलाया था। इसी गुरुवस्तिके सामनेही पाठशालाका मन्दिर है जिसमें मुनिसुव्रतनाथकी मूर्ति विराजमान है । दूसरा मन्दिर 'चन्द्रनाथ' का है जिसे त्रिलोकचूडामणि वस्ति' भी कहते हैं। यह मन्दिर भी सम्भवतः छहसौ वर्ष जितना पुराना है। यह मन्दिर तीन खनका है जिसमें एक हजार शिलामय स्तम्भ लगे हुए हैं । इसीसे इसे 'साबिर कमंदवसदी' भी कहा जाता है । इस मन्दिरके चारों ओर एक पक्का परकोटा भी बना हुआ है । रानी अनेकान्त [ किरण भैरादेवीने इसका एक मंडप बनवाया था जिसे भैरादेवी । मंडप' कहा जाता है उसमें भीतर के खम्भों में सुन्दर चित्रः । कारी उत्कीर्ण की गई है। चित्रादेवी मंडप और नमस्कार मंडप आदि छह मंडपोंके अनन्तर पंचधातुकी कायोत्सर्ग चन्द्रप्रभ भगवानकी विशाल प्रतिमा विराजमान है। दूसरे खडमें अनेक प्रतिमाएँ और सहस्त्रकूट चैत्यालय है। तीसरी मंजिल पर भी एक वेदी हैं जिसमें स्फटिकमणिकी अनेक मनोग्य मूर्तियाँ हैं । इस मन्दिर में प्रवेश करते समय एक उन्नत विशाल मानस्तम्भ है जो शिल्पकला की साक्षात् मूर्ति है। इस मन्दिरका निर्माण शकसंवत् १३५२ (वि० सं० १४८७) में श्रावकों द्वारा बनवाया गया है । Jain Education International तीसरा मंदिर 'बडगवस्ति' कहलाता है, क्योंकि वह उत्तर दिशामें बना हुआ है इसके सामन भी एक मानस्तम्भ बना हुआ है। इसमें सफेद पाषाणकी तीन फुट ऊँची चन्द्रप्रभ भगवानकी श्रति मनांग्यमूर्ति विराजमान है शेवस्ति — इसमें मूलनायक श्री वर्धमानकी धातुमय मूर्ति विराजमान है। इस मन्दिरके प्राकारमें एक मंदिर और है जिसमें काले पाषाण पर चौबीस तीर्थंकरोंकी मूर्तियां प्रतिष्ठित हैं। इसके दोनों ओर शारदा और पद्मावतीदेवी की प्रतिमाएँ हैं । हिरवेवस्ति — इस मंदिर में मूलनायक शान्तिनाथ हैं। इस मन्दिरके प्राकारके अन्दर पद्मावतीदेवीका मंदिर है, जिसमें मिट्टी से निर्मित चौवीस तीर्थंकर मूर्तियाँ हैं। पद्मावती और सरस्वति की भी प्रतिमाएँ हैं इसीसे इसे अभ्मनवरवस्ति कहा जाता है । बेटकेरिबस्ति — इसमें वर्धमान भगवानकी ५ फुट ॐ ची मूर्ति विराजमान है। कोटिवस्ति - इस मन्दिर को 'कोटि' नामक श्रष्ठीने बनवाया था । इसमें नेमिनाथ भगवानकी खड्गासन एक फुट ऊंची मूर्ति विराजमान है । विक्रम सद्विवस्ति — इस मंदिरका निर्माण विक्रमनामक सेठने कराया था। इसमें मूलनायक आदिनाथकी प्रतिमा । अन्दर एक चैत्यालय है और जिसमें धातुकी चौबीस मूर्तियाँ विराजमान हैं । लेप्यदवस्ति - इसमें मिट्टीकी लेप्य निर्मित चन्द्रप्रभकी मूर्ति विराजमान है । इस मूर्तिका अभिषेक वगैरह नहीं किया जाता । इस मंदिर में लेप बिमित ज्वालामालिनीकी For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527323
Book TitleAnekant 1954 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1954
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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