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अनेकान्त
[किरण :
(सल्लेखना) पूर्वक प्राण विसर्जन किया था। मारसिंहके यह बताता है कि वह कितना सच्चा जैन था। क्योंकि मन्त्री चामुण्डराय चामुण्डरायके रचयिता स्वामिभक्त सम्भवतः कुछ समय तक 'अकिञ्चिन' धर्मका पालन करने प्रबल प्रतापी सेनापति थे। श्रवणबेलगोलामें गोम्मटेश्वर के लिये ही उसने यह राज्य स्याग किया होगा। यह (प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवके द्वितीय पुत्र बाहुबली) की अमोघवर्षकी जैन-धर्म-आस्था ही थी जिसने आदिपुरावके लोकोत्तर, विशाल तथा सर्वाङ्ग सुन्दर मूर्तिकी स्थापना अन्तिम पांच अध्यायोंके रचयिता गुणभद्राचायको अपने इन्होंने करवाई थी। जैनधर्मकी प्रास्था तथा प्रसारकताके पुत्र कृष्ण द्वितीयका शिक्षक नियुक्त करवाया था । मूलकारण ही चामुण्डरायकी गिनती उन तीन महापुरुषोंमें गुण्डमें स्थित जैन मन्दिरको कृष्णराज द्वितीयने भी दान की जाती है जो जनधर्मके महान प्रचारक थे। इन महा- दिया था । फलतः कहा जा सकता है कि यदि वह पूर्णपुरुषों में प्रथम दो वो श्रीगंगराज तथा हुल्ल थे जो कि रूपसे जैनी नहीं था तो कमसे कम जैन धर्मका प्रश्रयदाता होयसलवंशीय महाराज विष्णुवर्द्धन तथा मारसिंह प्रथमके तो था ही। इतना ही इसके उत्तराधिकारी इन्द्र तृतीयके मन्त्री थे | नोलम्बावाडीमें जैनधर्मकी खूब वृद्धि हो रही विषयमें भी कहा जा सकता है। दानवुलपदु६ शिलालेख में थी। एक ऐसा शिलालेख मिला है जिसमें लिखा है कि लिखा है कि महाराज श्रीमान नित्यवर्ष (इन्द्र तृ० ने नोलम्बावाडी प्रान्तमें एक ग्रामको सठने राजासे खरीदा अपनी मनोकामनाओकी पूर्तिकी भावनासे श्रीमहन्तदेवके था। तथा उसे धर्मपुरी । वर्तमान सलेम जिले में पड़ती अभिषेक मंगलके लिये पाषाणकी वेदी (सुमेरु पर्वतका है) में स्थित जैन धर्मायतनको दान कर दिया था। उपस्थापन) बनवायी थी। अंतिम राष्ट्रकूट राजा इन्द्रजैन-राष्ट्रकूट-राजा
चतुर्थ भी सच्चा जैन था जब वह बारंबार प्रयत्न करके
भी तैल द्वितीयसे अपने राज्यको वापस न कर पाया तब राष्टकूट राजामोंमें अमोघवर्ष प्रथम वैदिक धर्मानु
। उसने अपनी धार्मिक आस्थाके अनुसार सरले जना व्रत यायीकी अपेक्षा जैन ही अधिक था। प्राचार्य जिनसेनने ।
धारण करके प्राण त्याग कर दिया था । अपने 'पार्वाम्युदय' काव्यमें 'अपने आपको नृपतिका
जैन सामंतराजापरमगुरु लिखा है, जो कि अपने गुरु पुण्यात्मा मुनिराजका
राष्ट्रकूट नृपतियोंके अनेक सामंत राजा भी जैन धर्मानाम मात्र स्मरण करके अपने अपको पवित्र मानता था"
बलम्बी थे । सौनदत्तिके रदृशासकोंमें लगभग सब सबही गणित शास्त्रके प्रन्थ सारसग्रह' में इस बातका उल्लेख
जैन धर्मावलम्बी थे। जैसा कि राष्ट्रकूट इतिहासमें लिख है कि 'अमोघवर्ष' स्याद्वादधर्मका अनुयायी था२। अपने चुका हूँ। अमोघ वर्ष प्रथमका प्रतिनिधि शासक केपः राज्यको किसी महामारीसे बचाने के लिए अमोधवर्षने भी जैन था। यह वनवासीका शासक था। अपनी राजअपनी एक अंगुलीकी बलि महालक्ष्मीको चढ़ाई थी३। धानीके जैन धर्मापतनोंको एक ग्राम दान करने के लिए इसे यह बताता है कि भगवान महावीरके साथ साथ वह वैदिक राज ज्ञा प्राप्त हुई थी। देवताओं को भी पूजता था वह जैन धर्मका सक्रिय तथा बधेयका पुत्र लोकादित्य जिनेन्द्रदेव द्वारा उपदिष्ट जागहक अनुयायी था। स्व. प्रा. राखालदास बनर्जीने धर्मका प्रचारक था; ऐसा उसके धर्मगुरु श्रीगुणचन्द्र ने भी मुझे बताया था कि बनवासी में स्थित जैनधर्मायतनोंने लिखा है। इन्द्रतृतीयके सेनापति श्रीविजयी भी जैन थे अमोघवर्षका अपनी कितनी ही धार्मिक क्रियाओंके प्रवर्तक इनकी छत्रछायाम जेन साहित्यका पर्याप्त विकास हुआ था। रूपमें उक्लेख किया है। यह भी सुविदित है कि अमोघ- (४) जर्नल ब. बा. रो० ए० सो०, भा० २२ पृ० ८५, वर्ष प्रथमने अनेकबार राजसिंहासन त्यागकर दिया था। (५) जर्नल ब.मी. रो० ए० सो०भा०१० पृ. १८२, ४ एपी० इ० भा० १० पृ० १७
(६) आर्के. सर्वे.रि. १९०५६ पृ० १२१-१,
(७)इ० एण्टी. भा० २३ पृ. १२४, (१). एण्टी . भा० ७ पृ. २१६-८,
(6) हिष्ट्री प्रो. राष्ट्रकूटस पृ० २७२३, (२) विएटर निस्शका प्रैशीचटी' भा० ३ पृ० ५७५,
(8) एपी० इ० भा० ६ पृ. २६ । (३) एपी० इ. भा० १८ पृ. २४८
(१०) एपी.इ. भा. १० पृ. १४६,
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