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________________ करण ६ ] उपयु लिखित महाराज, सामंतराजा पदाधिकारी तो ऐसे हैं जो अपने दान पत्रादिकके कारण राष्ट्रकूट युग में जैन धर्म प्रसारक के रूपसे ज्ञात है, किन्तु शीघ्र ही ज्ञात होगा कि इनके अतिरिक्त अन्य भी अनेक जंन राजा इस युग में हुए थे। इस युगने जैन ग्रंथकार तथा उसके उपदेशकोंकी एक अखण्ड सुन्दर मानाही उत्पन्न की थी। यतः इन सबको राज्याश्रय प्राप्त था फलतः इनकी साहि fers एवं धर्म प्रचारकी प्रवृत्तियोंसे समस्त जनपद पर गम्भीर प्रभाव पड़ा था। बहुत सम्भव है इस युगमें रह जनपद की समस्त जनसंख्याका एक तृतीयांश भगवान महावीरकी दिव्यध्वनि (सिद्धांतोंका अनुयायी रहा हो। १ बरुनीके उद्धारण के श्राधारपर रसीद उद-दीनने लिखा है कि कोंकण तथा थाना निवासी ई० की ग्यारवीं शतीके प्रारम्भनं समनी (श्रमण अर्थात् बौद्ध) धर्मके अनुयायी थे । अल-इदसीने नहरवाला (अर्नाहल पट्टन के राजाको बौद्ध धर्मावलम्बी लिखा है। इतिहासका प्रत्येक विद्यार्थी । जानता है कि जिस राजाका उसने उल्लेख किया है वह जेन था, बीड नहीं। अत एव स्पष्ट है कि मुसलमान बहुधा जैनोंको बौद्ध समक लेते थे। फलतः उपयु लिखित रशीद-उद-दीनका वक्तव्य दक्षिणके कोंकण तथा थाना भागों में दशमी तथा म्यारहवीं शतीके जैन धर्म- प्रसारका सूचक है बौद्ध धर्मका नहीं । राष्ट्रकूट कालकी समाप्ति के उपरान्तही लिंगायत सम्प्रदायके उदयके कारण जैनधर्मको अपना बहुत कुछ प्रभाव खोना पड़ा था क्योंकि किसी हद तक यह सम्प्रदाय जैन धर्मको मिटाकर ही बढ़ाया। जैन संघ जोवन राष्ट्रकूट काल में जैन धर्म इस काम के अभिलेखोंसे प्राप्त सूचना के आधार पर उस समयके जैन मठोंके भीतरी जीवनकी एक फोकी मिलती । प्रारम्भिक कदम्ब२ वंशके अभिलेखोंसे पता लगता है कि वर्षा ऋतु में चतुर्मास अनेक जैन साधु एक स्थान पर रहा करते थे। इसीके (वर्षाके३) अन्तमें वे सुप्रसिद्ध जैन पण मनाते थे । जैन शास्त्रों में पर्यूषण बढ़ा महत्व है। दूसरा धार्मिक फाल्गुन शुक्ला अष्टमी से प्रारम्भ होता (1) firuz, 1. 8. 45, (२) इ. टी. भा. ७. २४, (३) एन. एपी टोम चोक ६०६७। Jain Education International [ २८५ था और एक सप्ताह तक चलता था। श्वेताम्बरोंमें वह चैत्र शुक्ला ममी से प्रारम्भ होता है। शत्रु अय४ पर्वत पर यह पर्व अब भी बड़े समारोहसे मनाया जाता है, क्योंकि उनकी मान्यतानुसार श्रीऋषभदेवके गणधर पुण्डरीकने पांच करोड़ अनुयायीयोके साथ इह तिथिको ही मुक्ति पायी थी। यह दोनों पर्व पष्ठशतीले दक्षिण में सुप्रचलित ये फलतः ये राष्ट्रकूट युगमें भी अवश्य बड़े उत्साहसे मनाये जाते होंगे। क्योंकि जैन शास्त्र इनकी विधि करता है और ये बाज भी मनाये जाते हैं। राष्ट्रकूट युगके मंदिर तो बहुत कुछ शौमें वैदिक मंदिर कलाकी प्रतिलिपि थे। भगवान महावीरकी पूजाविधि वैसी ही व्यय-साध्य तथा बिलासमय हो गयी थी जैसी कि विष्णु तथा शिवकी थी। शिलालेखों में भगवान महावीर के 'अंग भोग तथा रंगभोग' के लिये दान देनेके उल्लेख मिलते हैं जैसा कि वैदिक देवताओंके लिये चलन था । यह सब भगवान महावीर द्वारा उपदिष्ट सर्वांग आकिंचन्य धर्मकी व्याख्या नहीं थी। जैन मठोंमें भोजन तथा औषधियोंकी पूरी व्यवस्था रहती थी तथा धर्म शास्त्र के शिक्षण की भी पर्याप्त व्य वस्था थी ? अमोघवर्ष प्रथमका कोन्नूर शिलालेख तथा कर्क के सूरत ताम्रपत्र जैन धर्मायतनोंके लिये ही दिये गये थे । किन्तु दोनों लेखों में दानका उद्देश्य बलिचरुदान, वैश्वदेव तथा अग्निहोत्र दिये है। ये सबके सब प्रधान वैदिक संस्कार हैं । श्रापाततः इनको करनेके लिए जैन मंदिरोंको दिये गये दान को देखकर कोई भी व्यक्ति माश्चर्यमें पढ़ जाता है। सम्भव है कि राष्ट्रकूट युगमें जैन धर्म तथा वैदिकधर्मके बीच आजकी अपेक्षा अधिकतर समता रही हो । अथवा राज्य के कार्यालयकी असावधानीके कारण दान के उक्त हेतु शिलालेखों में जोड़ दिये गये हैं। कोन्नूर शिलालेखमें ये हेतु इतने अयुक्त स्थान पर हैं कि मुझे दूसरी व्याख्या ही अधिक उपयुक्त जंचती है। (४) भादोंके अंत में पयूषण होता है तथा चतुर्मासके अन्तमें कार्तिककी अष्टान्हिका पड़ती है। (२) इनसाइक्लोपीडिया ओफ रिलीजन तथा इषिकस भाग ५ पृ. ८७८ । (६) जनं बो. प्रा. रो. ए. सोसा. १०.२२० For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527323
Book TitleAnekant 1954 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1954
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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