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________________ २८६] अनेकान्त [किरण । राष्ट-कूट युगका जैन साहित्य विख्यात 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' टीका लिखी थी । इन्होंने जैसा कि पहले पा चुका है अमोघवर्ष प्रथम कृष्ण मार्तण्ड के अतिरिक्त 'न्यायकुमुदचन्द्रभी लिखा था। जैन तर्कशास्त्रके दूसरे प्राचार्य जो कि इसी युगमें हुए थे वे द्वितीय तथा इन्द्र तृतीय या तो जैन धर्मानुयायी थे अथवा जैनधर्मके प्रश्रय दाता थे । यही अवस्था उनके मल्लवादी थे, जिन्होंने नवसारीमें दिगम्बर जैन मठकी अधिकतर सामन्तोंकी भी थी। श्रतएव यदि इस युगमें स्थापना की थी जिसका अब कोई पता नहीं है ? कक्क जैन साहित्यका पर्याप्त विकास हुआ तो यह विशेष स्वर्णवर्षकै ४ सूत पत्रमें इनके शिष्यके शिष्यको २१ ई. आश्चर्यकी बात नहीं है। ८वीं शतीके मध्यमें हरिभद्रसूरि में दत्तदानका उल्लेख है इन्होंने धर्मोत्तराचार्यकी न्यायहुए हैं तथापि इनका प्रांत अज्ञात होनेसे इनकी कृतियोंका बिन्दुटीकापर टिप्पण लिखे थे जो कि धर्मोत्तर टिप्पण यहां विचार नहीं करेंगे । स्वामी समन्तभद्र यद्यपि राष्ट्र नामसे ख्यात है। बौद्धग्रन्थके ऊपर जैनाचार्य द्वारा टीका लिखा जाना राष्ट्रकूटकालके धार्मिक समन्वय तथा सहिकूट कालके बहुत पहले हुए हैं तथापि स्याद्वादकी सर्वो ष्णुताकी भावनाका सर्वथा उचित फल था । त्तम व्याख्या तथा तत्कालीन समस्त दर्शनोंकी स्पष्ट तथा अमोघवर्षकी राजसभातो अनेक विद्वानरूपी मालासे सयुक्तिक समीक्षा करनेके कारण उनकी प्राप्त मीमांसा मामाला सुशोभित थी यही कारण है कि आगामी अनेक शतियों में इतनी लोकप्रिय हो चुकी थी कि इस राज्यकालमें ८वीं वह महान-साहित्यिक प्रश्रयदाताके रूपमें ख्यात था । शती के प्रारम्भसे लेकर आगे इस पर अनेक टीकायें उसके धर्मगुरु जिनसेनाचाय हरिवशपुराणके रचयिता थे, दक्षिण में लिखी गयी थी। वह प्रन्थ ७८३ ई० में समाप्त हुआ था। अपनी कृतिकी राष्ट्रकूट युगके प्रारम्भमें अकलंक भट्टने इस पर प्रशस्तिमें उस वर्ष में विद्यमान राजाओंके नामाका उल्लेख अपनी अष्टशती टीका लिखी थी । श्रवणबेलगोलाके करके उनके प्राचीन भारतीय इतिहासके शोधक विद्वानों ६७ शिलालेखमें अकलंकदेव राजा साहसतङ्गसे अपनी पर बड़ा उपकार किया है वह अपनी कृति प्रादि पुराणको महत्ता कहते हुए चित्रित किये गये हैं । ऐसा अनुमान समाप्त करने तक जीवित नहीं रह सके थे। जिसे उनके किया जाता है कि ये साहसतुङ्ग दन्तिदुर्ग द्वितीय थे । इस शिष्य गुणचन्द्रने ८६७ ई० में समाप्त किया था; जो शिलालेखमें बौद्धोंके विजेता रूपमें अकल भट्टका वर्णन विजता रूपमे अकल कभट्टका वर्णन बनवासी १२००० के शासक लोकादित्यके धर्मगुरु थे। है। ऐसी भी दन्तोक्ति है कि प्रकलङ्क भट्ट राष्ट्रकूप सम्राट अादि पुराण जैनगन्थ हैं जिसमें जैनतीर्थे र आदि शलाका कृष्ण प्रयमके पुत्र थे।। किन्तु इसे ऐतिहासिक सत्य पुरुषोके जीवन चरित्र है। प्राचार्य जिनसेनन अपने पार्शम्युबनाने के लिये अधिक प्रमाणोंकी आवश्यकता है । प्राप्त• दय काम्यमें शृङ्गारिक खण्डकाव्य मेघदूतकी प्रत्येक श्लोककी मीमांसाकी सर्वांगसुन्दरटीकाके रचयिता श्रीविद्यानन्द अंतिम पक्ति (चतुर्थ भरण) को तपस्वी तीर्थंकर पार्श्वनाथ इसके थोड़े समय बाद हुए थे। इनके उल्लेख श्रवणवेल- के जीवन वर्णनमें समाविष्ट करनेकी अद्भुत बौद्धिक कुश गोलाके शिलालेखोंमें है। लताका परिचय दिया है। पाश्र्वाम्युदयके प्रत्येक पद्यकी न्याय-शास्त्र अन्तिम पंक्ति मेघदूतम् के उसी संख्याके श्लोकसे ली गई - इस युगमें जैन तर्क शास्त्रका जो विकास हुआ है वह है । व्याकरण ग्रंय शाकटायनकी अमोघत्ति तथा भी साधारण न था ? ८वीं शतीके उत्तरार्धमें हुए प्रा- वीराचार्यका गणित ग्रन्थ 'गणितसार संग्रह' भी अमोघमाणिक्यनंदिने 'परीक्षामुखसूत्र'३ की रचना की थी। नौवीं वर्ष प्रथमके राज्यकालने समाप्त हुए थे। शतीके पूर्वाद्ध में इस पर प्राचार्य प्रभाचन्द्र ने अपनी (1) एपी०ए० भाग २१, (४भा० न्या० पृ. १६४-११ (१) पिटरसनकी रिपोर्ट सं २,७६ । ज० ब० ब्रा. रो.ए. (१) इ० एण्टी० १६०४ पृ० १७, (६)इ० एण्टी० भा० १२ पृ.२१६ सो. भा. १८ पृ० २१३ । (७) इसमें अपनेको लेखक अमोघवर्षका परमगुरु'कहता है (२) एपी० कर्ना. भा.२सं. २५४ (5)इ. एण्टी० ६११४ पृ. २०५ (३) भारतीय न्यायको इतिहास पृ० १७१, (8)विण्ठर निस्श गज टी. भा० ३.५७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527323
Book TitleAnekant 1954 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1954
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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