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विषय में प्रमेयमलमार्तण्ड देखें उक्त दो चरण युनु शासन है जो कि संस्कृतमें उद्भुत है।
अनेकान्त
[ किरण
न हुआ तो ये सब समीचीन वास्त्र जम्मायके नेत्रों पर चश्मा लगाने के समान है—जो निरस्ताग्रह नहीं होता है वह प्रकृतमें जन्मान्य तुश्य है चूंकि स्याद्वाद रूप सफेद चश्मा उसको यथार्थ वस्तुस्थिति देखने में निमित्त कारण नहीं हो रहा है। यदि वह निमित्त कारण उसके देखने में है तो वह जन्मान्ध नहीं है। सम्पूर्ण द्वादशांग या उसके अवयव आदिक रूप समयसारादिक स्याद्वाद रूप हैं अतः बे सब महान श्राचार्यों द्वारा कहे गये ग्रन्थ सत्यके आधार पर ही हैं।
(३) समाधान - वह जिनशासन जिनशासन श्री कुन्दकुन्द समन्तभद्र, उमास्वाति- गृद्ध पिच्छाचार्य, और अकलङ्क जैसे महात् श्राचायोंके द्वारा प्रतिपादित अथवा संसूचित जिनशासनसे कोई भिन्न नहीं है ।
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(४) इन सबके द्वारा प्रतिपादित एवं संसूचित जिनशासन के साथ उसकी संगति बैठ जाती है चुकि कहीं पर किसीने संक्षिप्त रूपसे वर्णन किया है तो किसीने विस्तारसे, किसीने किसी विषयको गौरा और किसीको प्रधान रूपसे वर्णन किया है - जैसे कि समयसार में आत्माकी मुख्यता से वर्णन है यद्यपि शेष तत्वोंका भी प्रासंगिक रूप से गौणतया वर्णन है— जीव मध्यका विशद विवेचन जीवकाण्ड में मिलेगा । बन्धका श्रत्यन्त विस्तार पूर्वक वर्णन महाबन्ध में मिलेगा | किसीने किसी भट्टका छन्दके कारण पहले वर्णन किया तो किसीने बादमें, तो भी भंग तो सात ही माने है किसीने एव' कार लिखा है तो किसीने कहा कि उसे यसे जान लेना चाहिये या प्रतिज्ञासे जान लेना चाहिए 'स्याद्', पदके प्रयोगके विषय में भी उक्त मन्तव्य चरितार्थ होता है संग्रह व्यवहार और ऋजुसूत्र इन तीन नयोंके प्रयोग से सामान्य विशेष और अवाध्यकी या विधि निषेध और श्रवाच्यकी या नित्य, अनित्य और श्रवाच्यकी - या व्यापक, व्याप्य और श्रवाच्यकी योजना करना चाहिये न कि सर्वधा से उभव नामका भंग, नैगमनयसे योजित करना चाहिये संग्रह, व्यवहार और उभयके साथ में J जूनकी योजना करके शेष तीन संग्रह अवाप्य व्यवहारअवाच्य और उभय-श्रवाच्य भङ्ग, नययोगसे लगाना चाहिये न कि सर्वथा - विना सामान्यकी निष्ठाको समझे सामान्यका सच्चा ज्ञान नहीं होता है। चूंकि निर्विशेष सामान्य गधे सींग समान है। जब सामान्य है तो वह विशेष रूप श्राधार में --- निष्ठा में रहता है श्रतः संक्षिप्तसे वह सारा शासन सामान्य और विशेष श्रात्मक है उसीको प्रामाणिक श्राचार्योंने बतलाया है । अतः समयसार पढ़ कर निरस्ताग्रह होना चाहिये न कि दुराग्रही— उनमत्त । इसी प्रकार अन्य किसी भी न्याय या सिद्धान्तको पढ़ कर या किसी भी अनुयोगका पढ़ कर बुद्धिमें और आचरण में अपने योग्य समय और सौम्यता के दर्शन होना चाहिये। यदि दुरभिनिवेश का या सर्वधा श्राग्रहरूपभावका अन्त
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(२.६. समाधान 'अपदे समुत्तमम्झ सव्वं जिसासणं द्रव्य श्रुतमें रहने वाले सम्पूर्ण जिनशासनको यह उक्त पाठका अर्थ होनेसे पाठ शुद्ध ६ । अथवा द्रव्यश्रुतमें विवेचना रूपसे पाए जाने वाले सम्पूर्ण जिनशासनको' यह अर्थ ले लेवें। अथवा सप्तमी अर्थमें द्वितीयका प्रयोग मानकर उसको जिएसास का विशेषण न रख कर प्रकृत तीन विशेषणोंसे युक्त आत्माको बतलाने वाले इस गाथा रूप में या इसके निमित्तसे होने वाले भाव मे सम्पूर्ण जिनशासनको देखता है जो कि उक तीन विशेषकोसे विशिष्ट आत्माको सम्यग् प्रकार से जानता देखता या अनुभव करता है। अतः 'अपदेससुतम' पाठ सगत
और खरकने सरीखा नहीं है भले ही यहाँ 'अँपवेस सम्म वाले पाठकी संगति किसीने तात्पर्यभावसे रक्खी हो। किन्तु प्रचीनतम प्रतिमें जो 'श्रपदेससुत्तमज्म' पाठ है तो अन्य पाठकी संगति से क्या ?
(७) समाधान - इस विषय में मूल प्राचीनतम प्रतियोंकी देखना चाहिये और इस समयसार पर प्रा. प्रभाचन्द्रका समयसार प्रकाश नामक व्याख्यान देखना चाहिये - जो कि सेनगण मन्दिर का आमे है-जयसेनाचार्य के सामने 'सम' – यह पाठ था था. अमृचन्द्र के सामने यह पाठ नहीं था यह निश्चित रूपसे नहीं कहा जा सकता है । 'अपवेससन्त मज्भं' इस पाठको आत्माका भी विशेषण बनाया जा सकता है और जिनशासनका भी चूंकि जिनशासन भी प्रवाहकी अपेक्षाले अनादिमध्यान्त है। संभव है कि-सुत्तमे से 'उ' के नहीं लिखे जानेसे 'अप देवसंतम' पाठ हो गया हो और किसीने उसकी शुद्धि के लिये 'द' को व' पढ़ा हो तब वह 'अप वेस संतमज्म' हो गया हो। दोनों पाठ शुद्ध हैं च हे दोनोंमेंसे कोई हो किन्तु 'अपदेश सुत्तमज्यं' ही उसका मूल पाठ
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