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अाठ शंकाओंका समाधान
(श्री० १०५ सुल्लक सिद्धसागर ) समयसार की १५वीं गाथा और श्री कान जी स्वामी नामक लेखमें जो अनेकान्तकी गत किरण में प्रकाशित हाहै मुख्तार श्री जुगलकिशोर नोकी पाठ शंकाए प्रकाश में आई हैं जिनका म्माधान मेरी हरिसे निम्न प्रकार हैआठ शंका
में और सिद्धसेनाचार्यने स्वयम्भूस्तुति (प्रथमद्वात्रिं. (१) आत्माको प्रबद्धस्पृष्ट, अनन्य और अविशेषरूपसे शिका 1) में 'अनादिमध्यान्त' पदका प्रयोग किया
देखने पर सारे जिनशासनको कैसे देखा जाता है? है। समयसारके एक कलशमें अमृतचन्द्राचार्यने भी (२) उस जिनशासनका क्या रूप है जिसे उस द्रष्टाके
'मध्याद्यन्तावभागमुक्त' जैसे शब्दों द्वारा इसी बातका द्वारा पूर्णतः देखा जाता है?
उल्लेख किया है। इन सब बातोंको भी ध्यान में (३) वह जिनशासन श्रीकुन्दकुन्द, समन्तभद्र. उमास्वाति
लेना चाहिये पार तब यह निणय करना चाहिये कि और अकलंक जैसे महान् प्राचार्योंके द्वारा प्रतिपादित
क्या उक्त सुझाव ठाक है? याद ठीक नहीं हैं
तो क्या? अथवा संसूचित जिनशासनसे क्या कुछ भिन्न है ? (१) यदि भिन्न नहीं है तो इन सबके द्वारा प्रतिपादित (4) १४वीं गाथामें शुद्धनयके विषयभूत आत्माके लिए एवं संसूचित जिनशासनके साथ उसकी संगति कैसे
पाँच विशेषणोका प्रयोग किया गया है, जिनमें से बैठती है ?
कुल तीन विशेषणोंका ही प्रयोग १५ वी गाथामें (५) इस गाथामें 'अपदेमसंतमझ' नामक जो पद पाया
हुमा है, जिसका अर्थ करते हुए शेष दो विशेषणोंजाता है और जिसे कुछ विद्वान् अपदेससुत्तमझ'
'नियत और असंयुक्त' को भी उपलक्षणके रूप में रूपसे भी उल्लेखित करते हैं, उसे 'जिणशासणं'
ग्रहण किया जाता है; तब यह प्रश्न पैदा होता है पदका विशेषण बतलाया जाता है और उससे द्रव्य
कि यदि मूलकारका ऐसा ही भाशय था तो फिर श्रत तथा भावश्रुतका भी अर्थ लगाया जाता है, यह
इस १५ वी गाथामें उन विशेषणोंको क्रमभंग करके सब कहाँ तक संगत है अथवा पदका ठीक रूप, अर्थ
रखनेकी क्या जरूरत थी ! १४वीं गाथा ® के और सम्बन्ध क्या होना चाहिए?
पूर्वार्धको ज्योंका त्यों रख देने पर भी शेष दो विशे(६) श्रीअमृतचन्द्राचार्य इस पदके अर्थ विषयमें मौन हैं षणोंको उपलक्षणके द्वारा ग्रहण किया जा सकता
और जयसेनाचार्यने जो अर्थ किया है वह पदमें था। परन्तु ऐसा नहीं किया गया; तब क्या इसमें प्रयुक्त हुए शब्दोंको देखते हुए कुछ खटकता हुश्रा कोई रहस्य है, जिसके स्पष्ट होने की जरूरत है? जान पड़ता है, यह क्या ठीक है अथवा उस अर्थमें
अथवा इस गाथाके,अर्थ में उन दो विशेषणांको ग्रहण खटकने जैसी कोई बात नहीं है ?
करना युक्त नहीं है? । एक सुझाव यह भी है कि यह पद 'अपवेससंतमझ (अप्रवेशसान्तमध्य) है, जिसका अर्थ अनादि
१ उक्त १४ वीं गाथा इस प्रकार हैमध्यान्त होता है और यह 'अप्पाणं ( आत्मानं ) पदका विशेषण है, न कि जिणशासण पदका ।
जो पस्सदि अप्पाण अबबूपुट अणण्णय णियदं । शुद्धास्माके लिये स्वामी समन्तभद्रने रत्नकरण्ड (६) अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि ॥१४॥
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