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अनेकान्त
चूंकि ग्रन्थकर्ताक गुरु भट्टारक पद्मनन्दि हैं जो भट्टारक प्रभाचन्द्र के पट्टधर x थे जैसा कि 'मल्लिनाथचरिङ' की अन्तिम प्रशस्तिके निम्न वाक्यसे प्रकट है जिसमें पद्मनन्दिको प्रभाचन्दके पट्टधर होनेका स्पष्ट उल्लेख है:'मुणि] पहचंद पट्ट सु पहावण, पउमगंदि गुरु विरिय उपावण' जिनका समय विक्रमको १४ वीं शताब्दीका अन्तिम चरण और १२ वीं शताब्दीका प्रारम्भिक समय है; क्योंकि पट्टावलियों में पद्मनन्दीके गुरु प्रभाचन्दके पट्ट पर प्रतिष्ठित होने का समय संवत् १३७५ बतलाया गया है ।
पद्मनन्दी मूलसंघ, नन्दिसंघ, बलात्कारगण और सर - स्वती गच्छके विद्वान थे । यह उस समयके अत्यन्त प्रभाव शाली विद्वान भट्टारक थे। इनकी कई कृतियाँ उपलब्ध हुई हैं। जिनमें पद्मर्नान्दश्रावकाचार प्रमुख है, दूसरी कृति 'भावन पद्धति' जिसका दूसरा नाम 'भावनाचतुस्त्रिंशतिका', तीसरी कृति वर्धमान चरित' है जो संवत् १५२२ फागुण सुदि सप्तमीका लिखा हुआ है और गोपीपुरा सूरतके शास्त्रभंडार में सुरक्षित है। इनके सिवाय 'जीरापल्ली' 'पाश्र्वनाथ स्तवन' और अनेक स्तवन, पद्मनन्दि मुनि द्वारा बनाए हुए उपलब्ध हुए हैं। इनके अनेक शिष्य थे, जिनमें अनेक शिष्य तो बड़े कवि और ग्रन्थ कर्ता हुये हैं। जिनमें भ० सकलकोर्ति और भ० शुभचन्द्रके नाम उहहं खनीय हैं। इनके एक शिष्य विशालकीर्ति भी थे जिनके द्वारा सं० १४७० में प्रतिष्ठित २६ मूर्तियाँ टोंक X श्रीमत्प्रभा चन्दमुनींद्र पट्टे शश्वत्प्रतिष्ठा प्रतिभा गरिष्टः । विशुद्ध सिद्धान्तरहस्यरत्नरत्नाकरो नन्दतु पद्मनन्दी -बिजोलिया शिलालेख हँसो ज्ञानमरालिका समसमाश्लेषप्रभूताद्भुतानन्दं क्रीडति मानसेति विशदे यस्यानिशं सर्वतः । स्याद्वादामृतसिन्धुवर्धनविधौश्रीमत्प्रभे दुप्रभाः, पट्ट े सूरिमल्लिका स जयतात् श्रीपद्मनन्दी मुनिः ॥१॥ महावतपुरन्दरःऽशमदग्ध रागाङ्कः । स्फुरत्परमपौरुषः स्थितिर शेषशास्त्रार्थवित् । यशोभरमनोहरी कृतसमस्त विश्वम्भरः, परोपकृतितत्परो जयति पद्मनन्दीश्वरः ॥
- शुभचन्द्र गुर्वावली
[ किरण
राजस्थान में प्राप्त हुई हैं । इस सब विवेचनसे स्पष्ट है कि उक्त दोनोंके कर्ता कवि हरिचन्द या जयमित्रहल विक्रमकी १२ वीं शताब्दीके प्रारम्भिक विद्वान है ।
८ आराधनासार - इस ग्रन्थके कर्ता कवि वीर हैं ये कब हुए हैं और उनकी गुरु परम्परा क्या है ? यह ग्रन्थ परसे कुछ भी ज्ञात नहीं होता। यह वीर कवि 'जम्बूस्वा मी चरित' के कर्तासे संभवतः भिन्न जान पड़ते हैं जिसका रचनाकाल विक्रम संवत् १०७६ है प्रस्तुत ग्रन्थ में दर्शन ज्ञान, चारित्र, और तप रूप चार आराधनाओंका स्वरूप २० कडवकों में बतलाया गया है। जो श्रामैर भंडारके एक बड़े गुटके पत्र ३३३ से ३३८ तक दिया हुआ है ।
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इन ग्रन्थोंके अतिरिक्त और भी अनेक ग्रन्थ अपभ्रंशभाषाके रासा अथवा 'रास' नाम से सूचियों में दर्ज मिलते हैं, परन्तु उनके अवलोकनका अवसर न मिलने से यहाँ परिचय नही दिया जा सका ।
६ दोहानुप्रेक्षा- -इस अनुप्रेक्षा ग्रन्थके कर्ता ग्रन्थ प्रतिमें लक्ष्मीचन्द्र बतलाए गये हैं, परन्तु उनकी गुरु परम्पराका कोई परिज्ञ न नहीं हो सका । ग्रन्थमें ४७ दोहे हैं। जिनमें १२ भावनाओंके अतिरिक्त अध्यात्मका संक्षिप्त वर्णन दिया हुआ है । यह ग्रंथ अनेकान्तकी इसी किरण में अन्यत्र दिया जा रहा है !
दिगम्बर शास्त्र भण्डारोंमें अभी सहस्त्रों ग्रन्थ पढ़े हुए हैं जिनके देखने या नोट करनेका कोई अवसर ही नहीं आया है । जैन समाजका इस ओर कोई लक्ष्य भी नहीं है । खेद है कि इस उपेक्षा भावसे अनेक बहुमूल्य कृतियाँ नष्ट हो गई हैं और हो रही हैं। क्या समजके साधर्मी भाई अब भी अपनी उस गाढ़ निद्राको दूर करनेका यत्न करेंगे ।
- सरसावा (सहारनपुर), ता० १२-११-२१ * संवत् १५७० ज्येष्ट सुदि ११ गुरौ श्रीमूल संघे गुणे (गच्छे) लोकगण उद्धारक श्री प्रभाचन्द्रदेवः (तत्) पट्ट े पद्मनन्द देवाः शिष्यः वशालकीर्तिदेवः तयोरुपदेशेन महासंघ खंडेलवाल गंगवाल गोत्रस्य खेता भार्या खिवासिरी तयो पुत्र धर्मा भार्या ललु तयो पुत्रत्रयः सा० भोजा, राजा, देलू प्रणमंति [ नित्यम् ] ।
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