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किरण]
अपभ्रंश भाषाके अप्रकाशित कुछ ग्रन्थ
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इस ग्रन्थकी एक प्रति सं० १५८३ को लिखी हुई भट्टारक शुभचन्द्र के शिष्य एवं पट्टधर भट्टारक जिनचन्द्रके ऐलक पनालाल दिगम्बर जैन सरस्वती भवन ब्यावर समयमें लिखी गई है। भ. जिनचन्द्रका पट्टसमय सं०. मौजद है. जिससे स्पष्ट है कि इस ग्रन्थका रचनाकाल उक्त १५०७ पट्टावलियों में पाया जाता है। इससे यह स्पष्ट जान सं० १५८३ से बांदका नहीं है यह सुनिश्चित है, किन्तु पड़ता है कि इस ग्रन्थका निर्माण सं० १५ २ से पूर्व हुश्रा वह उससे किसने पूर्वका है यह ऊपरके कथनसे स्पष्ट ही है. परन्तु पूर्व सीमा अभी अनिश्चित है। ग्रन्थमें दो है, अर्थात् यह अन्य संभवतः १५०० के पास पासकी सन्धियाँ हैं जिनमें श्रीपाल नामक राजाका चरित्र और रचना है।
सिद्धचक्रवतके महत्वका दिग्दर्शन कराया गया है। ___ इनकी दूसरी कृति 'वरांगचरिउ' है। यह ग्रन्थ इनकी दूसरी कृति 'जिनत्तिविहाणकहा' नामकी है, नागौरके भट्टारकीय शास्त्र भण्डारमें सुरक्षित है। उसमें जिसमें शिवरात्रिके ढंग पर 'वीरजिननिवाणरात्रिकथा' चार संधियाँ हैं। यह ग्रंथ इस समय सामने नहीं है, इस को जन्म दिया गया है और उसकी महत्ता घोषित की गई कारण उसके सम्बन्धमें अभी कुछ भी नहीं कहा है। यह एक छोटा सा खण्ड ग्रन्थ है जो भट्टारक महेन्द्रजा सकता।
कीर्तिके भामेर के भण्डारमें सुरक्षित है। ३ सुकमालचरिउ-इस ग्रंथके कर्ता मुनि पूर्णभद्र हैं
५-६ णेमिणाहचरिउ, चंदप्पहचरिउ-इन दोनों जो मुनि गुणभद्र के प्रशिष्य और कुसुमभद्रके शिष्य थे। यह
ग्रन्थोंके कर्ता जिनदेवके सुत कवि दामोदर हैं। ये दोनोंही गुजरात देशके नागर मंडल' नामक नगरके निवासी थे। ग्रन्थ नागौर भण्डारमें सुरक्षित हैं, अभ्य सामने न होने से ग्रन्थकी अन्तिम प्रशस्तिमें मुनि पूर्णभद्र ने अपनी गुरु पर- इस समय इनका विशेष परिचय देना सम्भव नहीं है। म्पराका उल्लेख करते हुए निम्न मुनियोंके नाम दिये हैं। ७ मल्लिनाथकाव्य-इस ग्रन्थके कर्ता मूलसंघके वीरसूरि, मुनिभद्र, कुसुमभद्र, गुणभद्र, और पूर्णभद्र । भट्टारक प्रभाचन्द्रके प्रशिष्य और भट्टारक पद्मनन्दिके शिष्य ग्रन्थकर्ताने अपनेको शीलादिगुणोंसे अलंकृत और 'गुण- कवि जयमित्रहल या कवि हरिचन्द्र हैं जो सहदेवके पुत्र समुद्र' बतलाया है।
थे यह ग्रन्थ अभीतक अपूर्ण है। भामेर भंडार में इसकी इनको एकमात्र कृति 'सुकमालचरिउ' है, जिसमें एक खण्डित प्रति प्राप्त हुई है। इस ग्रन्थ प्रतिमें शुरुके अवन्तीके राजा सुकमालका जीवन परिचय छह सधियों चार पत्र नहीं हैं और अन्तिम १२२ वां पत्र भी नहीं है। अथवा परिच्छेदोंमें दिया हुआ है जिससे मालूम होता है ग्रन्थकी उपलब्ध प्रशस्तिमें उसका रचना काल भी दिया कि वे जितनं सुकोमल थे, परीषहों तथा उपसर्गोंके जीतने- हा नहीं है जिससे कवि हरिचन्द्रका समय निश्चित किया में उतने ही कठोर एवं गम्भीर थे और उपसर्गादिक कटोके जा सके । यह ग्रंथ पुह मे (पृथ्वी) देशके राजाके राज्यमें सहन करने में दक्ष थे। ग्रन्थ में उसका रचनाकाल दिया थाल्हासाहुके अनुरोधसे बनाया गया था। प्रारहासाहुके ४ हुधा नहीं है जिससे निश्चियतः यह कहना कठिन है कि पुत्र थे जिन्होंने इस ग्रंथको लिखाकर प्रसिद्ध किया है। यह ग्रंथ कब बना? अामेर भण्डारकी इस प्रतिमें लेखक इनकी दूसरी कृति 'वड्ढमाणकव्व अथवा श्रोणक पुष्पिका वाक्य नहीं है। किन्तु देहली पंचायती मन्दिरकी चरित है। यह ग्रन्थ सन्धियामें पूर्ण हुआ है जिसमें प्रति सं० १६३२ की लिखी हुई है और इसकी पत्र संख्या जैनियोंके चौवीसवें तीर्थंकर महावीर और तत्कालीन माध४३ है। जिससे स्पष्ट है कि यह ग्रंथ सं० १६३२ से पूर्व देशके सम्राट बिम्पसार या श्रेणिकका चरित वर्णन किया की रचना है कितने पूर्व को यह अभी अन्वेषणीय है। गया है। इस ग्रन्थको देवरायके पुत्र संधाधिप होलिवम्मु'
४ सिरिंपाल चरिउ-इस ग्रन्थके कर्ता कवि नरसेन के अनुरोधसे बनाया गया है और उन्हींके कर्णाभरण हैं कविने इस ग्रन्थमें अपना काई परिचय नहीं दिया किया गया है । इस ग्रन्थको कई प्रतियाँ कई शारत्र
और न ग्रन्थका रचनाकाल ही दिया है, जिससे उस पर भंडारोंमें पाई जाती हैं। इस ग्रंथमें भी रचनाक ल दिया विचार किया जा सकता । इस ग्रन्थकी एक प्रति संवत् हुअा नहीं है। यह प्रति जैन सिद्धान्त भवन प्राराकी है १६०२ चैत्रवदि ११ मंगलवारका रावर पत्तनके राजाधि- संवत् १६०० की लिखी हुई है जिससे इस ग्रन्थकी उत्तरा राज डूंगरसिंहके राज्यकालमें बलात्कारगण सरस्वति गच्छके वधि तो निश्चित है कि वह १६०. से पूर्व रचा गया है।
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