Book Title: Anekant 1940 03
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | फाल्गुन, वीर नि० सं०२४४४ अनकान्त _वर्ष २, किरण ५ वार्षिक मूल्य ३ रु. मार्च १९४० 8 sheee Join Armanand Dulha harga PARDOSTORIES ODANANOONDEDNDIAGNOMOFOSELDHOOLPADHOONIORRODONIELOPINCHOOT सम्पादक सचालकजुगलकिशोर मुख्तार तनसुखराय जैन अधिष्ठाता वीर-सेवामन्दिर सरसावा (सहारनपुर) कनॉट सर्कस पो० बो० नं०४८ न्यू देहली। SINGEDIOVOIDVONIONIONLIRODAFONOTIFONO HINOONIFORGONOMETROETRAroman FOMMOFORG ONOM/NOOT Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची ३१८ ३१९ ३२५ ३२८ १. प्रभाचन्द्र-स्मरण... २. बढ़े चलो [ ले० श्री० माईदयाल बी. ए. (ऑनर्स) बी. टी. ३. अहिंसा-तत्त्व [पं० परमानन्दजी शास्त्री... ४. मनुष्य जातिके महान उद्धारक [श्री बी. एल. सराफ वकील ५. हरिभद्र सूरि [श्री० रतनलाल संघवी ... ६. वीर-नसुवा (कहानी)-[पं० मूलचन्द वत्सला ७. सरल योगाभ्यास [श्री हेमचन्द्र मोदी ... ८. होलीका त्योहार [सम्पादकीय ९. होली होली है (कविता) [ युगवीर ... १०. दर्शनोंकी आस्तिकता और नास्तिकताका आधार [पं० ताराचन्द । ११. होली है (कविता) [कुगवीर १२. जातियाँ किस प्रकार जीवित रहती हैं [श्री० ला० हरदयाल एम. ए.... १३. भगवान महावीर और उनका उपदेश [बा० सूरजभान जी वकील ... १४. साहित्य परिचय और समालोचन ३४१ ३५० ३५१. ३५२ ३५९ ३६० . ३६९ ३७४ अनेकान्तकी फाइल अनेकान्तके द्वितीय वर्षकी किरणोंकी कुछ फाइलोंकी साधारण जिल्द बंधवाली गई हैं । १२ वी किरण कम हो जाने के कारण फाइलें थोड़ी ही कध सकी हैं । अतः जो बन्धु पुस्तकालय या मन्दिरोंमेंट करना चाहें या अपने पास रखना चाहें वे २॥) रु० मनियार्डर भिजवा देंगे तो उन्हें समिल्द अनेकान्तकी फाइल भिजवाई जा सकेगी। जो सज्जन अनेकान्तके ग्राहक हैं और कोई किरण गुम हो जाने के कारण जिल्द बंधवानेमें असमर्थ हैं उन्हें १२ वी किरण छोड़कर प्रत्येक किरणके लिये चार आना और विशेषांकके लिए पाठ माना भिजवाना चाहिए सभी प्रादेशका पालन हो सकेगा। -व्यवस्थापक दो शब्द यदि अनेकान्तके पाठक दो-दो भी अनेकान्तके ग्राहक बनाने की कृपा करें को अनेकान्त बहुत कप उबत हो सकता है। प्राशा है उत्साही पाठक इस भोर अवश्य प्रयत्न करेंगे। -व्यवस्थापक Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहम् । TIMUR नीति-विरोध-ध्वंसी लोक-व्यवहार-वर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥ सम्पादन-स्थान-वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम), सरसावा, जि. सहारनपुर प्रकाशन-स्थान-कनॉट सर्कस, पो० बो० नं० ४८, न्यू देहली फाल्गुन-पूर्णिमा, वीरनिर्वाण सं० २४६६, विक्रम सं०१६६६ वप'३ किरण ५ अभिभूय निजविपक्षं निखिलमतोद्योतनो गुणाम्भोधिः । सविता जयतु जिनेन्द्रः शुभप्रबन्धः प्रभाचन्द्रः ॥-न्यायकुमुदचन्द्र-प्रशस्तिः अपने विपक्षम-महको पराजित करके जो समस्त मतोंके यथार्थ स्वरूपको प्रकाशित करनेवाले हैं वे गणसमुद्र, जितेन्द्रियों में अग्रगण्य और शुभप्रबन्ध-न्यायकुमुदचन्द्र जैसे पुण्य-प्रबन्धोंके विधाता-प्रभाचन्द्राचार्य नामके सूर्य जयवन्त हों-अपने वचन-तेज से लौकिकजनोंके हृदयान्धकारको दूर करनेमें समर्थ होवें ! चन्द्रांशुशुभ्रयशसं प्रभाचन्द्रकवि कत्वा चन्द्रोदयं येन शश्वदाल्हादितं जगत ॥-श्रादिपुराणे. जिनसेनाचार्य: जिन्होंने चन्द्रका उदय करके-'न्यायकुमुदचन्द्र' ग्रंथकी रचना करके--जगतको सदाके लिये श्रानन्दित किया है उन चन्द्र-किरण-समान उज्जवल यश के धारक विचारक मुनि प्रभाचन्द्रकी मैं स्तुति करता हूँ। माणिक्यनन्दी जिनराज वाणी-प्राणाधिनाथः परवादि-मर्दी । चित्रं प्रभाचन्द्र इह दमायां मातण्ड-वृद्धौ नितरां व्यदीपीत् ।। सुखिने न्यायकुमुदचन्द्रोदयकृते नमः। शाकटायन कृत्सूत्र न्यासकर्त्रे व्रती(प्रभेन्दवे ।।-शिमोगा-नगरतालुक-शिलालेख नं०४६ जो माणिक्य (प्राचार्य ) को आनन्दित करनेवाले--उनके परीक्षासुख ग्रंथपर प्रमेयकमलमार्तण्ड नामका महाभाष्य लिखकर उनकी प्रसन्नता सम्पादन करनेवाले–थे, जिनराजकी वाणीके प्राणाधार थे--जिन्हें पाकर एक बार जिनवाणी सनाथ हुई थी और जो परवादि पोंका मानमर्दन करनेवाले थे, वे प्रभाचन्द्र आश्चर्य है कि इस पृथ्वीपर निरन्तर ही मार्तण्डकी वृद्धि में प्रदीप्त रहे हैं ! अर्थात् प्रभापूर्ण चंद्रमा यद्यपि मार्तण्ड (सर्य) की तेजोवद्धि में कोई सहायक नहीं होता-उलटा उसके तेजके सामने हतप्रभ हो जाता है, परन्तु ये प्रभाचन्द्र मार्तण्ड (प्रमेयकमलमार्तण्ड) की तेजोवृद्धि में निरन्तर ही अव्याहतशक्ति रहे हैं एक विचित्रता है । जो न्यायकुमुदचन्द्रके उदयकारक-जन्मदाता हुए हैं और जिन्होंने शाकटायनके सत्र-व्याकरणशास्त्रपर न्यास रचा है, उन प्रभाचन्द्र मुनिको नमस्कार है। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ re+ [ ले०-श्री माईदयाल जैन, बी.ए.(आनर्स) बी.टी. बढ़े चलो । बढ़ते चलना उन्नति तथा प्रगतिकी उसपर पूरा प्रभुत्व तथा अधिकार जमानो । 'पागे दौड़ निशानी है । जो बढ़ता नहीं, वह धीरे धीरे अव- पीछे चौड़' वाली कहावत मत करो। नहीं तो, वर्षोंका नति करता है । इसलिए बढ़े चलो। काम पलमें मलियामेट हो जायेगा। ___ बढ़े चलो। सर्वाङ्गरूपसे बढ़ो । शारीरिक, आर्थिक, बढ़े चलो । दूसरों के अनुभवोंसे लाभ उठाते हुए, नैतिक, मानसिक, आध्यात्मिक, सामाजिक तथा राष्ट्रीय अरोंकी गलतियोंको छोड़ते हुए , तथा उनकी अच्छी आदि सभी दिशाओंमें बराबर बढ़ते चलो। किसी अंग . बातोंको अपनाते हुए बढ़ो । किन्तु मौलिकरूपसे बढ़ना को भूल जाना उतनी ही मात्रामें पीछे रहना है। कुछ निराली ही शान रखता है । दूसरोंका मार्ग,सम्भव बढ़े चलो। व्यक्तिगतरूपसे बढ़ो और सामूहिकरूप- है, अापके अनुकूल न पड़े। संसारमें कोई भी दो से बढ़ो । कुटुम्ब, गली, शहर, देश तथा विश्व के जीवों आदमी समानरूपसे नहीं बढ़े । प्रत्येक अपने ढंगसे को बढ़ाते हुए, साथ लेते हुए चलो। नहीं तो वे अपना मार्ग बनाकर बढ़ा है। तुम भी किसी नए मार्ग आपको पीछे खींचलेंगे। आत्मकल्याण तथा परमार्थ से ही बढ़ो तो अधिक अच्छा है। करते हुए बढ़े चलो। __बढ़े चलो। बढ़ने के जो साधन हैं, सबका उप___ बढ़े चलो। सात्विकरूपसे बढ़ो । न्याय तथा धर्म- योग करते हुए बढ़ो। जो साधन आज तक बने हैं, मार्गपर चलते हुए बढ़ो। दूसरोंको कुचलकर, किसीको उन्हें इस्तेमाल करो । तुम्हें कोई नए साधन सूझ पड़ें, पीछे धकेलकर, बढ़े हुओंको नीचे गिराकर या अन्या- उन्हें बनायो और उपयोग में लायो । साधन सच्चे तथा यसे मत बढ़ो। न्याययुक्त होने चाहिएँ । किंतु साधनोंमें फंसकर बढ़ने ____बढ़े चलो । प्रतिक्षण, प्रतिदिन और प्रतिवर्ष बढ़ते को मत भूल जाओ। ही चलो। इस जीवन में बढ़ो, दूसरे जीवनमें बढ़ो और बढ़े चलो। बढ़ कर घमण्ड, मद तथा अभिमान जीवनान्तरमें बढ़ो। मत करो । बढ़े हुए फलदार वृक्ष के समान नम्र बनकर ___ बढ़े चलो ! आपके मार्ग में जो संकट, विपत्तियाँ झुककर, दूसरोंको लाभ पहुँचायो । वरना जो बढ़े नहीं तथा जो रुकावटें श्राएँ, उनको जीतते हुए बढे चलो। हैं. वे तुमसे ईर्षा करेंगे और शायद तुम्हें हानि पहुँचावें बिना संकटों तथा विपत्तियोंका सामना किए, बढनेकी बढ़े चलो। बढ़नेकी सीमा नहीं है । भिखारीसे सच्ची क्षमता प्राप्त भी नहीं होती। ठोकरें खाकर ही भगवान् , सिपाही से कमाण्डर, हिस्सेदारसे डायरेक्टर, आदमी चलना सीखता है। इसलिए संकटोंसे मत घब- साधारण अादमीसे किसी प्रजातंत्र शासन के प्रधान राओ, उनका स्वागत करो और बढ़े चलो। मंत्री या सभापति, अनुयायीसे परमात्मा बन सकते हो। बढ़े चलो। यदि बढ़ते हुए आवश्यकता हो तो इसलिए संतुष्ट होकर न बैठते हुए, बढ़े चलो।। पीछे हटने में मत झिजको । किन्तु लक्ष्य-भ्रष्ट मत हो। बढ़े चलो। बढ़ने में दूसरोंकी सहायता मिले, तो पीछे हटकर भी आगे ही बढ़ो। उसका स्वागत करो, उससे लाभ ठाश्रो । परन्तु ____बढ़े चलो। बढ़नेकी-योजना ( स्कीम ) बनालो। दूसरोंकी सहायताकी प्रतिक्षा न करो और न परावलम्बी फिर उसके अनुसार इस प्रकार बढ़ते चलो, जैसे सेना- बनो । अपने पैरों पर खड़े होकर स्वयं चलते हुए बढ़ो। पतिकी योजनाके अनुसार सेना बढ़ती है और इंजिनी- बढ़े चलो। सोश्रो मत । सोच विचारमें समय मत यरकी योजना ( नकशे) के अनुसार मकान बढ़ता है। गँवाअो । तुम्हारे साथी, तुमसे आगे बढ़े जा रहे हैं, बढ़े चलो । ठोस तथा स्थायीरूपसे बढ़ो । जो कदम तुम पीछे क्यों हो, इसलिए उठो और आगे बढ़े चलो। पड़े दृढ़ हो । आगे बढ़नेसे पहिले, जो प्राप्त किया है Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा-तत्व [ले.- पं० परमानन्द जैन शास्त्री - संसार के समस्त धर्मोका मूल अहिंसा है; यदि इन भाव रूप-प्राणोंका वियोग करना होता है । अथवा "धर्मों में से अहिंसाको सर्वथा पृथक कर दिया . किसी जीवको बुरे भावसे शारीरिक तथा मानसिक कष्ट जाय तो वे धर्म निष्प्राण एवं अनुपादेय हो जाते हैं; देना, गाली प्रदानादिरूप अपशब्दोंके द्वारा उसके दिल इसी कारण अहिंसातत्त्वको भारत के विविध धर्म संस्था- को दुखाना, हस्त, कोड़ा, लाठी आदिसे प्रहार करना पकों ने अपनाया ही नहीं, किन्तु उसे अपने अपने इत्यादिको अर्थात् उसे प्राणरहित या प्राणपीडित करने के धर्मका प्रायः मुख्य अंग भी बनाया है । अहिंसा जीवन- लिये जो व्यापार किया जाता है उसे 'हिंसा' कहते हैं। प्रदायिनी शक्ति है, इसके बिना संसार में सुख शान्तिका जब हम किसी जीवको दुखी करने-सताने पीड़ा देने अनुभव नहीं हो सकता। जिस तरह सम्यग्निर्धारित का विचार करते हैं उसी समय हमारे भावोंमें और राज्यनीति के बिना राज्यका संचालन सुचारु गतिसे नहीं वचन-कायकी प्रवृत्तिमें एक प्रकारको विकृति आ जाती हो सकता उसी तरह अहिंसाका अनुसरण किये बिना है, जिससे हृदय में अशान्ति और शरीरमें बेचैनी उत्पन्न शान्तिका साम्राज्य भी स्थापित नहीं हो सकता । अहिंसा होती रहती है और जो आत्मिक शान्तिके विनाशका के पालनसे ही जीवात्मा पराधीनता के बन्धनोंस छूटकर कारण है, इसी प्रकार के प्रयत्नावेशको अथवा वास्तविक स्वाधीनताको प्राप्त कर सकता है । अहिंसाकी तज्जन्य संकल्प विशेषको संरम्भ कहते हैं । । पश्चात् भावना अाज भारतका प्राण है, परन्तु इसका पूर्ण रूप प्रमत्त योगास्प्राण व्यपरोणं हिंसा।। से पालन करना और उसे अपने जीवन में उतारना कुछ -तत्त्वार्थसूत्रे, उमास्वातिः कठिन अवश्य प्रतीत होता है । अहिंमासे अात्मनिर्भयता, वीरता, दया और शौर्यादि गुणोंकी वृद्धि होती है, उससे यस्खलु कषाययोगात् प्राणानां द्रव्यभावरूपाणां । ही प्राणि-समा जमें परस्पर प्रेम बढ़ता है और संसारमें व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ॥ सुख-शान्तिकी समृद्धि होती है। अहिंसा के इस गम्भीर -पुरुषार्थसिद्धयुपाये, अमृतचन्द्रः रहस्यको समझने के लिये उसके विरोधी धर्म हिंसाका "संरंभो संकप्पो' -भ.पाराधनायां, शिवार्यः ८१२। स्वरूप जानना अत्यन्त आवश्यक है। प्राणव्यपरोपणादिषु प्रमादवतः प्रयत्नावेशः संरंभः । हिंसा शब्द हननार्थक 'हिंसि' धातुसे निष्पन्न होता -सर्वार्थसिद्धौ, पूज्यपादः, ६, ८। है; इस कारण उसका अर्थ-प्रमाद वा कषायके निमित्त प्राणव्यपरोणादौ प्रमादवतः प्रयत्नः संरंभः । से किसी भी सचेतन प्राणीको सताना या उसके द्रव्य -विजयोदयां, अपराजितः गा०८११ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० अनेकान्त [फाल्गुन, वीर-निर्वाण सं० २४६६ अपनी कुत्सित चित्तवृत्ति के अनुकूल उस प्राणिको चूँकि ये सब कार्य क्रोध, मान, माया, अथवा लोभके दुखी करने के अनेक साधन जुटाये जाते हैं; मायाचारी वश होते हैं । इसलिये हिंसाके सब मिला कर स्थलरूप से दूसरोंको उसके विरुद्ध भड़काया जाता है, विश्वास- से १०८ भेद हो जाते हैं। इन्हींके द्वारा अपनेको तथा पात किया जाता है-कपटसे उसके हितैषी मित्रोंमें दूसरे जीवोंको दुःखी या प्राणरहित करनेका उपक्रम किया फट डाली जाती है उन्हें उसका शत्रु बनानेकी चेष्टा जाता है। इसीलिये इन क्रियाओंको हिंसाकी जननी की जाती है, इस तरहसे दूसरोंको पीड़ा पहुँचाने रूप कहते हैं । हिंसा और अहिंसाका जो स्वरूप जैन ग्रन्थों में व्यापारके साधनोंको संचित करने तथा उनका अभ्यास बतलाया गया है, उसे नीचे प्रकट किया जाता हैबढ़ानेको समारम्भ कहा जाता है। फिर उस साधन- सा हिंसा व्यपरोप्यन्ते बसस्थावराङ्गिनाम् । सामग्रीके सम्पन्न हो जाने पर उसके मारने या दुखी प्रमत्तयोगतः प्राणा द्रव्य-भावस्वभावकाः ॥ करनेका जो कार्य प्रारम्भ कर दिया जाता है उस क्रिया -अनगारधर्मामृते, अाशाधरः ४, २२ को प्रारम्भ कहते हैं । ऊपरकी उक्त दोनों क्रियाएँ तो अर्थात्-क्रोध-मान-माया और लोभके अाधीन हो भावहिंसाकी पहली और दूसरी श्रेणी हैं ही, किन्तु कर अथवा अयत्नाचारपूर्वक मन-वचन-कायकी प्रवृत्तिसे तीसरी आरम्भक्रियामें द्रव्य-भाव रूप दोनों प्रकारको त्रमजीवोंके-पशु पक्षी मनुष्यादि प्राणियोंके--तथा हिंसा गर्भित है, अतः ये तीनों ही क्रियाएँ हिंसाकी स्थावर जीवोंके--पृथ्वी, जल, हवा और बनस्पति आदिमें जननी हैं । इन क्रियाओं के साथमें मन वचन तथा काय रहने वाले सूक्ष्म जीवोंके --द्रव्य और भाव प्राणोंका घात की प्रवत्तिके संमिश्रणसे हिंसाके नव प्रकार हो जाते हैं करना हिंसा कहलाता है । हिंसा नहीं करना सो अहिंसा और कृत-स्वयं करना, कारित-दूसरोंसे कराना, अनु- है अर्थात् प्रमाद व कषायके निमित्तले किसी भी सचेतन मोदन-किसी को करता हुआ देखकर प्रसन्नता व्यक्त प्राणीकों न सताना, मन वचन-कायसे उसके प्राणों के करना, इनसे गुणा करने पर हिंसाके २७ भेद होते हैं। घात करने में प्रवृत्ति नहीं करना न कराना और न करते x परिदावकदो हवे समारम्भो ॥ हुएको अच्छा समझना 'अहिंसा' है । अथवा-भग० अाराधनायां, शिवार्यः ८१२ रागादाणमणुप्पा अहिंसगत्तेति भासिदं समये । साधनसमभ्यासीकरणं समारम्भः । तेसिं चेदुप्पत्ती हिंमेति जिणेहि णिहिट्ठा ॥ -सवार्थसिद्धौ, पूज्यपादः, ६, ८। --सर्वार्थसिद्धौ, पूज्यपादेन उद्धतः । सान्यायाहिंसादिक्रियायाःसाधनानां समाहारःसमारंभः। अर्थात्-श्रात्मामें राग-द्वेषादि विकारोंकी उत्पत्ति -विजयोदयायां, अपराजितः,गा० ८११। नहीं होने देना 'अहिंसा' है और उन विकारोंकी अात्मामें भारंभो उहवमो, उत्पत्ति होना 'हिंसा' है। दूसरे शब्दोंमें इसे इस रूप में -भ० अाराधनायां शिवार्यः, ८१२। कहा जा सकता है कि आत्मा में जब राग-द्वेष-कामप्रक्रमा भारम्भः। –सर्वार्थसिद्धौ, पूज्यपादः ६, ८। क्रोध-मान-माया और लोभादि विकारोंकी उत्पत्ति होती संचितहिंसाधुपकरणस्य प्रायः प्रक्रम आरंभः। है तब ज्ञानादि रूप अात्मस्वभावका घात हो जाता है विजयोदयायां; अपराजितः, गा०८११ इसीका नाम भाव हिंसा है और इसी भाव हिंसासे Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा तव ६र्ष ३, किरण ५ ] - श्रात्म परिणामोंकी विकृतिसे – जो अपने अथवा दूसरोंके द्रव्यप्राणोंका घात हो जाता है उसे द्रव्यहिंसा कहते हैं । हिंसा दो प्रकारसे की जाती है – कषायसे और प्रमादसे । जब किसी जीवको क्रोध, मान, माया और लोभादिके कारण या किमी स्वार्थवश जान बूझकर सताया जाता है या सताने अथवा प्राणरहित करने के लिये कुछ व्यापार किया जाता है उसे कषायसे हिंसा कहते हैं । और जब मनुष्य की आलस्यमय असावधान एवं प्रयत्नाचारपूर्वक प्रवृत्तिसे किसी प्राणी का बधादिक हो जाता है तब वह प्रमादमे हिंसा कही जाती है इनसे इतनी बात और स्पष्ट हो जाती है कि यदि कोई मनुष्य बिना किसी कषाय अपनी प्रवत्ति यत्नाचारपूर्वक सावधानी से करता है उस समय यदि दैवयोग से चःनक कोई जीव आकर मर जाय तो भी वह मनुष्य हिंसक नहीं कहा जा सकता; क्योंकि उस मनुष्यकी प्रवृत्ति कषाययुक्त नहीं है और न हिंसा करनेकी उसकी भावना ही है । यद्यपि द्रव्यहिंसा जरूर होती है परन्तु तो भी वह हिंसक नहीं कहा जा सकता, और न जैनधर्म इस प्राणघातको हिंसा कहता | हिंसात्मक परि गति ही हिंसा है, केवल द्रव्यहिंमा हिंसा नहीं कहलाती, द्रव्यहिंसाको तो भावहिंसा के सम्बन्धमे ही हिंसा कहा जाता है वास्तव में हिंसा तब होती है जब हमारी परिपति प्रमदमय होती है अथवा हमारे भाव किसी जीवको दुःख देने या सताने के होते हैं। जैसे कोई समर्थ डाक्टर किसी रोगीको नीरोग करनेकी इच्छासे न करता है और उसमें दैवयोगसे रोगी की मृत्यु हो जाती है तो वह डाक्टर हिंसक नहीं कहला सकता, और न हिंसा अपराधका भागी ही हो सकता है । किन्तु यदि डाक्टर लोभादिके वश जान बूझकर मारने के इरादे से ऐसी क्रिया करता है जिससे रोगी की मृत्यु हो जाती परे ३२१ है तो ज़रूर वह हिंसक कहलाता है और दण्डका भागी भी होता है । इसी बातको जैनागम स्पष्ट रूपसे यों घोषणा करता है:उच्चालदम्मिपादे इरियासमिद स्स णिग्गमद्वाणे । श्रावादेज्ज कुलिङ्गो मरेज्जतं जोगमासेज्ज ॥ | यहि तस्स तरिणमित्तो बंधो सुहमोवि देसिदो समये । — सर्वार्थसिद्धौ पूज्यपादेन उद्धृतः अर्थात् - जो मनुष्य देख भालकर सावधानीसे मार्ग पर चल रहा है उसके पैर उठाकर रखने पर यदि कोई 'जन्तु कस्मात् पैर के नीचे श्रा जाय और दब कर मर जाय तो उस मनुष्यको उस जीवके मारनेका थोड़ा सा भी पाप नहीं लगता है । जो मनुष्य प्रमादी है – यत्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति करता है उसके द्वारा किसी प्राणीकी हिंसा भी नहीं हुई है तो भी वह 'प्रमादयुक्तस्तु सदैव हिंसकः' के वचनानुसार हिंसक अवश्य है -- उसे हिंसाका पाप ज़रूर लगता है । यथा- मरदु वो जीयदु जीवो पयदस्स णत्थि बंधो यदाचारस्ल पिच्छिदा हिंसा । हिंसामित्तेण समिदस्स ॥ - प्रवचनसारे कुन्दकुन्दः ३, १७ अर्थात् - जीव चाहे मरे, अथवा जीवित रहे, सावधानीसे काम करने वालेको हिंसाका पाप अवश्य लगता . है, किंतु जो मनुष्य यत्नाचारपूर्वक सावधानी से अपनी प्रवृत्ति करता है उससे प्राणिबंध हो जाने पर भी हिंसा का पाप नहीं लगता - वह हिंसक नहीं कहला सकता, क्योंकि भावहिंसा के बिना कोरी द्रव्यहिंसा हिंसा नहीं कहला सकती । । सकषायी जीव तो पहले अपना ही घात करता है, उसके दूसरोंकी रक्षा करने की भावना ही नहीं होती । वह तो दूसरोंका घात होनेसे पहले अपनी कलुषित Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ अनेकान्त चित्तवृत्तिके द्वारा अपना ही घात करता है, दूसरे जीवों का घात होना न होना उनके भवितव्यके श्राधीन है । हिंसा दो प्रकारकी होती है एक अन्तरंग हिंसा और दूसरी बहिरंग हिंसा । जब श्रात्मामें ज्ञानादि रूप भाव प्राणोंका घात करने वाली शुद्धोपयोगरूप प्रवृत्ति होती है तब वह अंतरंग हिंसा कहलाती है । और जब जीवके बाह्य द्रव्यप्राणोंका घात होता है तब बहिरंग हिंसा कहलाती है । इन्हींको दूसरे शब्दों में द्रव्यहिंसा और भाव हिंसा के नामसे भी कहते हैं । यदि तत्त्वदृष्टि से विचार किया जाय तो सचमुच में हिंसा क्रूरता और स्वार्थ की पोषक है । मनुष्यका निजी स्वार्थ ही हिंसाका कारण है । जब मनुष्य अपने धर्मसे च्युत हो जाता है तभी वह स्वार्थवश दूसरे प्राणियोंको सतानेकी चेष्टा किया करता है; श्रात्मविकृतिका नाम हिंसा है और उसका फल दुःख एवं अशान्ति है । और आत्मस्वभाव का नाम हिंसा है तथा सुख और शान्ति उसका फल है अर्थात् जब आत्मामें किसी तरहकी विकृति नहीं होती चित्त प्रशान्त एवं प्रसादादि गुणयुक्त रहता है उसमें क्षोभकी मात्रा नज़र नहीं आती, उसी समय श्रात्मा हिंसक कहा जाता है | द्रव्यहिंसा के होने पर भावहिंसा अनिवार्य नहीं है उसे तो भाव हिंसा के सम्बन्धसे ही हिंसा कहते हैं, वास्तवमें द्रव्यहिंमा तो भावहिंसासे जुदी ही है । यदि द्रव्यहिंसाको भावहिंसासे अलग न किया जाय तो कोई भी जीव हिंसक नहीं हो सकता, और इस तरहसे तो शुद्ध वीतराग परिणति वाले साधु महात्मा भी हिंसक कहे जाँयगे; क्योंकि पूर्ण हिंसाके पालक योगियों के शरीर से भी सूक्ष्म वायुकायिक आदि * स्वयमेवात्मनात्मानं हिनस्त्यात्मा प्रमादवान् । पूर्व प्राण्यंतरायान्तु पश्चात्स्याद्वान वा वधः ॥ —सर्वार्थसिद्धिमें उद्धृत, पृ०२३१ [फाल्गुन, वीर- निर्वाण सं० २४६६ जीवोंका वध होता ही है, जैसा कि श्रागमकी निम्न प्राचीन गाथासे स्पष्ट है: जदि सुद्धस्य बंधो होदि बाहिरवत्थुजोगेण । ute दु हिंगोणाम होदि वायादिवधहेदु ॥ विजयोश्यायां- अपराजितः-६ । ८०६ हिंसा और हिंसा के इस सूक्ष्म विवेचनसे जैनी अहिंसा के महत्वपूर्ण रहस्य से अपरिचित बहुतसे व्यक्तियोंके हृदय में यह कल्पना होजाती है कि जैनी अहिंसा का यह सूक्ष्मरूप व्यवहार्य है -- उसे जीवन में उतारना नितान्त कठिन ही नहीं किन्तु असम्भव है । अतएव इसका कथन करना व्यर्थ ही है । यह उनकी समझ ठीक नहीं है; क्योंकि जैनशासन में हिंसा और अहिंसाका जो विवेचन किया गया है वह अद्वितीय है, उसमें अल्प योग्यतावाले पुरुष भी बड़ी ग्रासानीके साथ उसका अपनी शक्ति के अनुसार पालन कर सकते हैं और अपने को हिंसक बना सकते हैं। साथ ही, जैनधर्ममं अहिंसाका जितना सूक्ष्मरूप है वह उतना ही अधिक व्यव हार्य भी है। इस तरहका हिंसा और अहिंसाका स्पष्ट विवेचन दूसरे धर्मों में नहीं पाया जाता, इसलिये उसका जैनधर्मकी अहिंसा के आगे बहुत कम महत्व जान पड़ता है । जैनशासन में किसीके द्वारा किसी प्राणीके मर जाने या दुःखी किये जानेसे ही हिंसा नहीं होती। संसार में सब जगह जीव पाये जाते हैं और वे अपने निमित्तसे मरते भी रहते हैं, परन्तु फिर भी, जैनधर्म इस प्राणिघातको हिंसा नहीं कहता; क्योंकि जैनधर्म तो भावप्रधान धर्म है इसीलिये जो दूसरों की हिंसा करने के भाव नहीं रखता प्रत्युत उनके बचाने के भाव रखता है उससे दैववशात् सावधानी करते हुए भी यदि किसी जीव के द्रव्य प्राणोंका वध होजाता है तो उसे हिंसाका पाप नहीं Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ५] अहिंसा-तत्त्व ३२३ लगता । यदि हिंसा और अहिंसाको भाव प्रधान न मान अथवा कुछ भी विरोध किये बिना सहलेना कायरता हैजाय तो फिर बंध और मोक्षकी व्यवस्था ही नहीं बन पाप है-हिंसा है । कायर मनुष्यका अात्मा पतित होता सकती। जैसे कि कहा भी है • है, उसका अन्तःकरण भय और संकोचसे अथवा शंका विष्वग्जीवचिते लोके क्व चरन कोप्यमोच्यत। से दबा रहता है । उसे श्रागत भयकी चिन्ता सदा भावैकसाधनौ बन्धमोक्षौ चेन्नाभविष्यताम् ॥ व्याकुल बनाये रहती है-मरने जीने और धनादि सम्प -सागारधर्मामृत; ४, २३ त्तिके विनाश होनेकी चिन्तासे वह सदा पीड़ित एवं अर्थात्-जब कि लोक जीवोंसे खचाखच भरा सचिन्त रहता है । इसीलिये वह आत्मबल और मनोहुआ है तब यदि बन्ध और मोक्ष भावोंके ऊपर ही बलकी दुर्बलता के कारण-विपत्ति आनेपर अपनी रक्षा निर्भर न होते तो कौन पुरुष मोक्ष प्राप्त कर सकता? भी नहीं कर सकता है । परंतु एक सम्यग्दृष्टि अहिंसक अतः जब जैनी अहिंसा भावोंके ऊपर ही निर्भर हैं तब पुरुष विपत्तियों के आनेपर कायर पुरुषकी तरह घबराता कोई भी बुद्धिमान पुरुष जैनी अहिंसाको अव्यवहार्य नहीं और न रोता चिल्लाता ही है किन्तु उनका स्वागत नहीं कह सकता। करता है और सहर्ष उनको सहनेके लिये तैय्यार रहता __ अब मैं पाठकोंका ध्यान इस विषयकी ओर आक- है तथा अपनी सामर्थ्य के अनुसारउनका धीरतासे मुकार्षित करना चाहता हूँ कि जिन्होंने अहिंसा तत्वको नहीं बिला करता है--प्रतीकार करता है--उसे अपने मरने समझकर- जैनी अहिंसापर कायरताका लांछन लगाया जीने और धनादि सम्पत्तिके समूल विनाश होनेका कोई है उनका कहना नितान्त भ्रममूलक है। डर ही नहीं रहता, उसका आत्मबल और मनोबल अहिंसा और कायरतामें बड़ा अन्तर है। अहिंसाका कायर मनुष्यकी भाँति कमज़ोर नहीं होता, क्योंकि सबसे पहला गुण अात्मनिर्भयता है । अहिंसामें कायरता उसका आत्मा निर्भय है-सप्तभयोंसे रहित है । जैनको स्थान नहीं। कायरता पाप है, भय और संकोचका सिद्धान्तमें सम्यग्दृष्टिको सप्तभय-रहित बतलाया गया परिणाम है । केवल शस्त्र संचालनका ही नाम वीरता है * । साथ ही, आचार्य अमृतचन्द्रने तो उसके विषय नहीं है किन्तु वीरता तो आत्माका गुण हैं। दुर्बल में यहाँतक लिखा है कि यदि त्रैलोक्यको चलायमान शरीरसे भी शस्त्रसंचालन हो सकता है । हिंसक वृत्तिसे कर देनेवाला वज्रपात आदिका घोर भय भी उपस्थित या मांसभक्षणसे तो क्रूरता आती है, वीरता नहीं; परंतु होजाय तो भी सम्यग्दृष्टि पुरुष निःशंक एवं निर्भय रहता अहिंसासे प्रेम, नम्रता, शान्ति, सहिष्णुता और शौर्यादि है-वह डरता नहीं है। और न अपने ज्ञानस्वमाषसे गुण प्रकट होते हैं। च्युत होता है, यह सम्यग्दृष्टिका ही साहस है। इससे ____ दुर्बल अात्माओंसे अहिंसाका पालन नहीं हो सकता स्पष्ट है कि आत्म निर्भयी-धीर-वीर पुरुष ही सच्चे अहिंउनमें सहिष्णुता नहीं होती। अहिंसाकी परीक्षा अत्या- सक हो सकते हैं, कायर नहीं । वे तो ऐसे घोर भयादिके चारीके अत्याचारोंका प्रतीकार करनका सामथ्य रखत ७ सम्मट्टिी जीवा हिस्संका होति शिन्भया तेय । हए भी उन्हें हँसते हँसते सहलेने में है किन्तु प्रतीकारकी सत्तभयविप्पमुक्का जम्हा तम्हा दुणिस्संका ॥ सामर्थ्य के अभावमें अत्याचारीके अत्याचारोंको चुपचाप समयसारे, कुन्दकुन्द २२८% Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ अनेकान्त [फाल्गुन, वीरनिर्वाण सं० २४६६ श्रानेपर भयसे पहले ही अपने प्राणोंका परित्याग कर और मंकेत अवश्य किया है जो कि अावश्यक है। क्योंदेते हैं। फिर भला ऐसे दुर्बल नष्योंसे अहिंमा जैसे कि गृहस्थ अवस्था ऐसी कोई क्रिया नहीं होती जिसमें गम्भीर तत्त्वका पालन कैसे हो सकता है ? अतः जैनी हिंसा न होती हो। अत: गहस्थ सर्वथा हिंसाका बागी अहिंसापर कायरताका इल्ज़ाम लगाकर उसे अव्यव नहीं हो सकता। इसके मिवाय, धर्म-देश-जाति और हार्य कहना निरी अज्ञानता है। अपनी तथा अपने प्रात्मीय कुटम्बी जनोंकी रक्षा करने ___जैन शासन में न्यूनाधिक योग्यतावाले मनुष्य में जो विरोधी हिंसा होती है उसका भी वह त्यागी नहीं अहिंसाका अच्छी तरहसे पालन कर सकते हैं, इसीलिये हो सकता। जैनधर्ममें अहिंसाके देशअहिंसा और सर्वअहिमा जिस मनुष्यका माँसारिक पदार्थोंसे मोह घट गया अथवा अहिंसा-अणुव्रत और अहिंसा-महाव्रत आदि है और जिसकी श्रात्मशक्ति भी बहुत कुछ वि काम प्राप्त भेद किये गये हैं। जो मनुष्य पूर्ण अहिंसा के पालन कर चुकी है वह मनुष्य उभय प्रकार के परिग्रहका त्याग करने में असमर्थ है, वह देश अहिंसाका पालन करता है, कर जैनी दीक्षा धारण करता है और तब वह पूर्ण इसीसे उसे गृहस्थ, अणुव्रती, देशव्रती या देशयतीके अहिंसा के पालन करने में समर्थ होता है । और इस तरह नामसे पुकारते हैं; क्योंकि अभी उसका साँसारिक देह- से ज्यों ज्यों अात्म-शक्तिका प्राबल्य एवं उनका विकास भोगोंसे ममत्व नहीं छूटा है-उसकी आत्म शक्तिका पूर्ण होता जाता है त्या त्यों अहिंमाकी पूर्णता भी होती जाती विकास नहीं हुआ है-वह तो असि, मषि, कृषि, शिल्प, है । और जब आत्माको पर्णशक्तियोंका विकास हो जाता वाणिज्य, विद्यारूप षट् कर्मों में शक्त्यानुसार प्रवृत्ति करता है, तब अात्मा पूर्ण अहिंसक कहलाने लगता है। अस्तु, हुश्रा एकदेश अहिंसाका पालन करता है । गृहस्थ- भारतीय धर्मों में अहिंसाधर्म ही सर्वश्रेष्ठ है । इसकी अवस्था में चार प्रकारकी हिंसा संभव है । संकल्पी, पूर्ण प्रतिष्ठा प्राप्त करनेवाला पुरुष परमब्रह्म परमात्म प्रारम्भी. उद्योगी और विरोधी । इनमेंसे गहस्थ सिर्फ कहलाता है। इसीलिये पाचर्य समन्तभद्रने अहिंसाको एक संकल्पी हिंसा-मात्रका त्यागी होता है और वह भी परब्रह्म कहा है *। अतः हमारा कर्तव्य है कि हम प्रस जीवों की । जैन आचार्योंने हिंसाके इन चार भेदों जैन शासन के अहिंसातत्त्वको अच्छी तरहसे समझे. को दो भेदोंमें समाविष्ट किया है और बताया है, कि और उसपर अमल करें । साथ ही, उसके गहस्थ-अवस्थामें दो प्रकारकी हिंसा हो सकती है. श्रा- अपनी सर्वशक्तियों को लगादें, जिससे जनता अहिंसाके रम्भजा और अनारम्भजा । श्रारम्भजा हिंसा कूटनें, रहस्यको समझे और धार्मिक अन्धविश्वाससे होनेवाली पीसने आदि गृहकार्योंके अनुष्ठान और श्राजीविकाके घेर हिंसाका-राक्षसी कृत्यका-परित्यागकर अहिंसाकी उपार्जनादिसे सम्बन्ध रखती है; परन्तु दूमरी हिंसागृही शरण में आकर निर्भयतासे अपनी श्रात्मशक्तियोंका कर्तव्यका यथेष्ट पालन करते हुए मन-वचन-कायसे होने विकास करने में समर्थ हो सके। वाले जीवोंके घातकी ओर संकेत करती है। अर्थात् दो वीर सेवामन्दिर, सरसावा, जि. सहारनपुर इंद्रियादि त्रसजीवोंको सँकल्पपूर्वक जान बूझकर गृहवास सेवन रतो मन्द कषाया प्रवर्तितारम्भः । सताना या जानसे मारना ही इसका विषय है, इसीलिये प्रारम्भजां स हिंसां शक्नोति न रक्षितुं नियमात् ॥ इसे संकल्पी हिंसा कहते है। गृहस्थ अवस्था में रहकर श्रावकाचारे, अमितगतिः, ६, ६, ७ श्रारम्भजा हिंसाका त्याग करना अशक्य है । इसीलिये * अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं, जैन ग्रन्थों में इस हिंसाके त्यागका आमतौरपर विधान न सा तत्रारम्भोस्त्यणुरपि च यत्राश्रमविधौ ॥ नहीं किया है * परन्तु यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करनेकी ततस्तसिद्धयर्थ परमकरुणो ग्रन्थमुभयं, * हिसा द्वेधा प्रोक्ताऽऽरंभानारंभजवतोदक्षः। भवानेवात्याक्षीन च विकृतवेषोपधिरतः ॥ ११॥ गृहवासतो निवृत्तो द्वेधाऽपि त्रायते ताँ च ॥ वहत्स्वयंभस्तोत्रे, समन्तभद्रः। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य जातिके महान् उद्धारक [ले०-श्री बी. एल. सराफ, बी. ए. एलएल. बी, वकील, सागर'] समाजके तत्कालीन हवन-कुण्डकी प्रचण्ड हुताशन की पुकार पर त्रिशला-नन्दन और शद्धोदन-अमारके दी तो नरमेधके वास्ते भी तैयार थी । यज्ञके अनर्थ- नोंने कुण्डग्राम और कपिल वस्तुकी त्रासोन्मुखी प्रवा कारों टीकाकारोंने गीताकी ओर आँख उठाकर देखनेकी को पुनीत किया तो क्या आश्चर्य ? " भावश्यकता तक नहीं समझी। मूक जीवोंके कलेवरसे आत्मान्वेषण तथा सत्यान्वेषणके दुर्गम पथके समय ही सन्तुष्ट होनेकी भावना तब अपनी चरम सीमा पर पथिक विघ्न वाधाओंके बीचमें भी अपनेको भने नहीं। थी। वैशाली, मल्ल, शाक्य, कौशल, मगध और मिथिला यद्यपि थोड़ा अन्तर भले ही रहा, एकने तात्कालिक जैसे गण राज्यों तथा प्रजातन्त्र शासनोंके होते हुए भी मात्रा-द्वारा चिकित्साकी तो दूसरेने शास्वतिक प्रयोगों समाजका वैषम्य सामने था । मनुष्यको हृदय झगानेमें का उपयोग किया। एक यदि प्रतिवयं पथानुगामी बाधाभूत अपनेको श्रेयस्कर समझनेवाले प्राणियोंकी हुए तो दूसरे 'चुरस्य चारा निशिता दुरत्यया' पर अमृत भावना उद्दण्डतासे सिर उठाये हुए थी। सत्यता चलकर वहाँ जनसमूहको ले जानेमें प्रयत्नशील हुए। के ऊपर भावश्यकतासे अधिक भावरण था, जो उसे विश्वको दुःखोंसे छुड़ानेका दोनोंने निष्कपट प्रयास प्रकाशित ही नहीं होने देता था। सब इस ढकी हुई किया । एकने यदि अचेल ब्रह्मचर्य व्रतधारण द्वारा माआडम्बरित वस्तुको ही नमन करने लग गये थे। सत्यता नवजीवनको अन्तिम दुर्बलताको तिलांजली देवी और और मोक्षकी ओर दौड़ लगानेवाले अपनी धुनमें मस्त उसपर विजयी हुए तो दूसरेने उनके शरीरपर होते थे। केवल तपस्या ही मोच सम्पादन भले ही न करा हुए भी उसमें सम्मोहको स्थान नहीं दिया । एकने व्यसके, निरा ज्ञान भी भले ही उस अनन्त के साथ संबंध वहारको भी अप्रधान बताते हुए मनसाकृत कर्ममें ही जोड़नेको पर्याप्त न हो, केवल दृश्यमान, खोखली भक्ति हिंसा देखी तो दूसरेने मन्शाके पैमानेको तिरस्कृत करते और चन्दन-चर्चन भी अक्षय' सत्यके साथमें साक्षात् हुए कार्यफल-मात्रमें हिंसा देखी। कराने में समर्थ न हो, जीवोंके प्राणपर पैर रख उनके निविड़ पाकुलित तिमिरके युगके अवसान के बाद अस्थि माँसले पुष्ट तथा समृद्धिशाली होनेकी वासना प्रभात-पत्नी उषाने जगद्वन्ध सिद्धार्थ सुत के अवतरित भले ही अमोक्ष-कर हो, पर अपनी दौड़ कम करके खड़े होनेपर अपने मुखारविन्दपर प्रसन्नता प्राप्त लालिमा हो पीछे देखनेका इन धावकोंको अवकाश नहीं था प्रदर्शित की तो क्या आश्चर्य ? यदि इन विभूतियों के यदि ऐसे समयमें प्रकृतिने स्वतः त्रस्त हो अबतारके सिद्धान्तों और कृतियोंने विश्वविजय की तो क्या लिये भावाज उठाई तो स्वाभाविक ही था । यदि प्रकृति आश्चर्य ? Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ अनेकान्त भगवान् सिद्धार्थ- कुलभानु न केवल अहिंसाके ब्रह्मा को लेकर अवतीर्ण हुए थे किन्तु जीवमात्रकी समानताको प्रत्यक्षीभूत कराने आये थे । विचार-वैषम्य द्वारा होनेवाले विरोध शमनको स्याद्वाद जैसी विभूति के साथ भगवानने दर्शन दिया था । भगवान वर्धमानका अहिंसा और विश्वशांतिका पाठ अज्ञान और लैव्यके छिपानेका विधान नहीं था । उसका जन्म नाथवंशी युद्ध वीर क्षत्रियकुल- पुंगव के परी - क्षित और विक्रान्त हृदयमें हुआ था । वीर जिनेन्द्रकी तपोश्त आत्माने वास्तवमें इन्द्रभूत, वायुभूत, अग्निभूत जैसे गणधरों श्रेणिक-बिम्बसार और अंगेश कुणिक-प्रजातशत्रु, कौशल-रक्षक प्रसेनजित जैसे नरेशोंके ही नहीं किन्तु लेष्ठा, चन्दना, चेलना जैसी धनाओं के हृदयों को भी श्रालोड़ित किया था और विश्वशांति तथा भ्रातृत्व फैलानेको दीक्षित किया था । " न गच्छेज्जैनमन्दिरम्' के शमन करनेकी शक्ति सौम्यमूर्ति जिनराज तुम्हारे हाथमें ही है, अर्थवादकी भोर क्षिप्रगति से दौड़नेवाले संसारको रुकाये बग़ैर विश्व कल्याण हो ही नहीं सकता, पर इसका सेहरा तुम्हारे जैसे सिरोंपर ही बाँधा जा सकता है। सिद्धान्तों के दिग्विजयको वाँछा जिनके हृदयों में उद्वेलित रहती है उनका शौर्य श्राजकलकी जैन समाज में प्राप्त कराना तुम्हारी ही कृपापर अवलम्बित है। भगवन् ! तुम्हारे द्वारा प्रचारित धर्म में भगवान बुद्ध की प्रश्न- अवहेलना वा श्रपलामको स्थान नहीं । प्रभु ईसाकी दया तुम्हारी जैसी तपस्याओं में निष्णात नहीं । वस्तुनिरूपणमें बात बातमें युद्ध होनेकी श्रावश्यकतको तुम्हारे सापेक्ष-वादने सदाके लिये दूर कर दिया । प्राणीमात्र जहाँ भ्रातृत्व हो सकता है वहाँ राष्ट्रकी स्वातन्त्र्यलिप्सा और एक उद्देश्याधिकृत बन्धुत्व ין [फाल्गुन, वीर- निर्वाण सं० २४६६ का प्रश्न उठानेकी आवश्यकता नहीं, वह तो स्वभावले ही उसमें गर्भित है किन्तु वहाँ राजनीतिकी ग्रंथियाँ खोलनेवाला कर्मयोगी गाँधी नहीं । सिधारी हाथ कृपाणरिक्त होते हुए भी विश्व नायकत्व सफलतापूर्वक कर सकते हैं, इसके तुमसे बढ़कर और कौन जीवित उदाहरण हो सकता है ? निरतिशय क्राँति के युवराजका हृदय इतनी श्रवाधशांतिसे शासित हो यह भारतवर्षके ही भाग्य और जलवायुकी विचित्रता है । क्षत्रियके नृशंस, दयाविहीन और कर्कश हृदयसे विश्वशांति की कल्लोल प्राणीदयाका श्रविरल श्रोत, राज्यलिप्सा से श्रोतप्रोत वक्षस्थलसे मानवसमताकी श्रावाज पचेन्द्रिय जीवोंको भी उद्धारका संदेश, कैसा विचित्र विरोध है । तुम्हारे सुन्दर शरीर सम्पत्ति-युत नव-हृदय में रूस तथा भयंकर तपनिगृहीत किन्तु स्वभाव सरल श्रात्मसंयम है। देवांगनाओंके मधुर हास्य तथा प्रलोभनोंमें भी मदनपर रुष्ट हो उसे दहन करनेको शिवशक्तिकी श्रावश्यकता नहीं । बिना भोग तथा तलवारके मदनविजय ही नहीं, विश्वविजय करनेवाले अतिवीरको क्यों बोधिसत्व आदर की दृष्टिसे देखते ? कुसीनारा के निर्माण पथगामी समवयस्क तथा गतऋषिने यदि तुम्हें सर्वज्ञ और सर्वदर्शी कहकर विभूषित किया तो इससे अधिक बुद्धभगवान् जैसे श्रापके प्रति और क्या कह सकते थे ? हृदयोंको द्रवित करनेवाले और वरवस श्राँसू बहा देनेवाले उपसर्गों के बीच में भी शाँति और क्षमाके अविचल अवतार यदि तुम्हारी तपस्या पूर्ववत् बनी रही तो क्या श्राश्वर्य ? यदि विश्व के सबसे बड़े शाँति के अवतार कहकर तुम्हारा आवाहन किया जाय तो क्या अत्युक्ति ? Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ५ ] तुम्हारे अखण्ड ब्रह्मचर्यने यदि देवांगनाओं को लजित् किया तो तुम्हारे चरित्रकी पवित्रताकी और कौनसी साक्षीकी श्रावश्यकता ? समकालीन दो महर्षियोंमें केवल दुर्धर्ष तथा निष्कलंक तपस्या ही तुमको समवसरण में श्राकाश श्रासन दिलानेको पर्याप्त थी । तुम्हारे पंच कल्याणकों में यदि दैवी हर्ष न हो तो और किन श्रात्माओंके श्रागमन में आनन्द दुंदुभि निनादित की जावेगी 1 मनुष्य जातिके महान् उद्धारक तुम्हारे अहिंसा और त्यागवतने यदि शेर बकरीको एक घाट पानी पिला दिया और समवशरण में खिरनेवाली वाणीका लाभ देकर उन्हें मोक्षोन्मुख बनाया तो इसमें क्या आश्चर्य ? बाल-सुलभ लीला में ही मदमत्त कुंजरो वशंवद किया और तत्वज्ञानके सिंहनाद- द्वारा यदि अभयताका संदेश प्राणिमात्रको तुमने भेजा तब वनराजके चिन्ह द्वारा तुम्हारे संकेकित होने में क्या अनौ चित्य | तुम्हारे सिंह गर्जन में माँस-भोजी जीवकी भक्षण प्राप्त आनन्द लिप्साका दम्भ नहीं, वहाँ प्राणियोंको भयभीत करनेका घोर निनाद नहीं । तुमने वास्तवमें सिंहके नाम में पवित्रता लादी, जिसके बिना सिंहके रूप में मोहकता ही नहीं, उसके सामने हंसते अपनेको मिटा देनेकी इच्छा ही नहीं हो सकता। तुम भले ही धर्म आदि संस्थापक न हो पर जिस अमर स्फूर्ति के तुम पिता हो, वह अमर स्फूर्ति तो तुम्हें श्रादि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के पास तक बरवस पहुँचा देती है । तुम्हारी तपस्या द्वारा दिलायेगये अधिकार छिनाये ३२७ जाने लगे- तुम्हारे द्वारा खोले गये मोक्षद्वार अब फिर सुंदने लगे । मनुष्यों के हृदयों में फिर वही संकुचित चित्तता वास करने लगी-प्रचार और विकाशका फिर रत्नखचित मन्दिरों के बाहिर थानेमें शंकित होने लगा नारिजातिके प्रति तुम्हारी पवित्र और सम्मान भावना का दुरुपयोग-काम-लिप्सा तृप्तिके रूपमें पुरुष और स्त्री समाजको न जाने किस बीहड़ पथकी थोर ले जा रहा है । मनुष्यको मनुष्य माननेकी रसायन तुम्हींतक परिमित थी, आत्मवादकी फिर अनावश्कता प्रतीत होने लगी और द्रव्थवादका सिंहासन फिर दृढ़ होने लगा ? जब कि अद्रव्यवान सतृष्णा नेत्रोंसे केवल जीवन-धारणार्थ भोजनोंके लिये हाथ फैलाये सामने खड़े हुए हैं। हिंसाका असली रूप फिर अनुकरणीय कहा जाने लगा बुद्ध भगवान्की मृतमाँस भक्षण मीमांसा में फिर मोहकता थाने लगी । महानिर्वाणके समय पावापुरी में छोड़ी गई तुम्हारी प्रतिनिधि ज्योति इस युगको आलोकित न कर सकी । तुम्हारे उपसर्गों पर आंसू बहा देनेवाले यदि साधारण परिषदोंसे भागने का प्रयत्न करनेलगे तो तुम्हें आमन्त्रित करनेका और कौन अच्छा अवसर प्राप्त हो सकता है ? tara हे वीतराग ! हे विश्वशांति, अहिंसा, भ्रातृत्व, और सत्यशोध में अग्रणी तथा सामाजिक शाँति के जनक मुक्तदेव दूत ! हे गरीबों और पतितों की सम्पत्ति ? हे त्रिशला त्रासत्राता ! इस पुण्यभूमिको अपने पुनीत पदरज चूमनेका फिर अवसर दो । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिभद्र-सूरि [ले. पं० रतनलाल संघवी, न्यायतीर्थ-विशारद ] (गत किरण से आगे) और कवि कल्पनोंके सहारे ही तथा कथित इतिहासोंकी भारतीय साहित्यकारों के पवित्र इतिहासमें यह एक रचना करनी पड़ी। वर्तमान कालीन इतिहासकारोंको 'दुःखद घटना है कि उनका विश्वनीय और भी उन्हीं तथा कथित इतिहासों, उपलब्ध कृतियों, और वास्तविक जीवन-चरित्र नहींके बराबर ही मिलता है। अस्तव्यस्तरूपसे पाये जानेवाले उद्धरणोंके आधारसे ही इसका कारण यही है कि प्राचीन काल में आत्मकथा चरित्र चित्रण करना पड़ रहा है। लिखनेकी प्रणाली नहीं थी, और आत्मश्लाघासे दूर रहने चरित्र-नायक हरिभद्र सूरिकी जीवन-सामग्री भी की इच्छाके कारण अपने सम्बन्धमें अपने ग्रन्थोंमें भी उपयुक्त निष्कर्ष के प्रति अपवादस्वरूप नहीं है । हरिभद्र लिखना नहीं चाहते थे। कुछेक साहित्यकारोंने अपनी सूरिकी जीवन-सामग्री वर्तमान में इतनी पाई जाती है:कृतियों में प्रशस्तिरूपसे थोड़ा सा लिखा है; किन्तु उससे (१) श्री मुनिचन्द्र सूरिने संवत् ११७४ में श्री हरिजन्म-स्थान, गुरु-नाम, माता पिता-नाम, एवं स्व-गच्छ भद्र सूरि कृत उपदेशपदकी टीकाके अन्तमें इनके जीव आदिके नामका सामान्य ज्ञान-मात्र ही हो सकता है, नके सम्बन्धमें अति संक्षेपात्मक उल्लेख किया है। . विस्तृत नहीं । पीछेके साहित्यकारोंने प्राचीन-साहित्यका- (२) संवत् १२६५ में श्री सुमतिगणिने गणधररोंके सम्बन्धमें इतिहासरूपसे लिखनेका प्रयास किया है; सार्धशतककी बृहद् टीकामें भी इनके सम्बन्धमें कुछ किन्तु उसमें इतिहास-अंश तो अति स्वल्प है और किं- थोड़ा सा लिखा है। वदन्तियाँ एवं कवि-कल्पना ही अधिक परिमाणमें है। (३) भद्रेश्वर सूरि कृत २३८०० श्लोक परिमाण यह सिद्धान्त केवल जैन साहित्यकारोंके सम्बन्धमें ही प्राकृत कथावली में भी हरिभद्र सूरि के सम्बन्धमें कुछ नहीं है, बा पर्ण भारतीय साहित्यकारोंके सम्बन्धमें परिचय मिलता है। श्री जिनविजयजीका कहना है कि पाया जाता है। इसका प्रणयन बारहवीं शताब्दीमें हुअा होगा। ___"जिन-शासनकी अधिकाधिक प्रभावना हो;' इसी (५) संवत् १३३४ में श्री प्रभाचन्द्र सूरि द्वारा विएक उद्देश्यने संग्रहकारोंको किंवदन्तियों और कवि-कल्प. रचित प्रभावक चरित्रमें चरित्र नायक के सम्बन्धमेंनाओंकी अोर वेगसे प्रवाहित किया है । इसके साथ २ विस्तृत काव्यात्मक पद्धतिसे जीवन कथा पाई जाती है। काल व्यवधानने भी इतिहास-सामग्रीको नष्ट-प्रायः कर (५) संवत् १४०५ में श्री राजशेखर सूरि द्वारा दिया; और इसीलिये उन्हें प्रभावनाके ध्येयकी पति के निर्मित प्रबन्ध कोषमें भी प्रभावक चरित्रके समान ही लिये अवशिष्ट चरित्र सामग्रीके बलपर तथा किंवदन्तियों अति विस्तृत जीवन चरित्र पाया जाता है। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ५] हरिभद्र-सरि ३२६ - ___ इसी प्रकार इसी प्राचीन सामग्रीके आधारपर कुछ सिद्धसेन दिवाकरके समान ही ये भी अपने इस मिथ्यानवीन जीवन सामग्रीका भी निर्माण हुअा है; उसमेंसे विश्वासके प्रदर्शन के लिये एक सोपान पंक्तिका (नीसपं० हरगोविन्ददासजी कृत 'श्री हरिभद्र सूरि चरित्र', रनी), एक कुदाला, एक जाल और जम्ब वृक्षकी एक पं० बेचरदास जी द्वारा लिखित 'जैन दर्शनकी विस्तृत लता अपने पास रखते थे । इसका तात्पर्य यही था कि भूमिका', श्री जिनविजयजी लिखित "हरिभद्र सूरिका यदि प्रतिवादी श्राकाशमें उड़ जायगा तो उसे इस समय निर्णय” और प्रोफेसर हरमन जेकोबी द्वारा सोपान-पंक्ति के द्वारा पकड़ लाऊँगा; जलमें प्रविष्ट हो लिखित “समराइच्चकहा कि भूमिका" श्रादि रचनाएँ जायगा तो जाल द्वारा खींच लूंगा, और इसी प्रकार भी मुख्य हैं । इसी सामग्रीके अाधारपर मैं अब श्री हरि- यदि पातालमें प्रवेश कर जायगा तो कुदाले द्वारा खोद भद्र सूरिका चरित्र-निर्णय करनेका प्रयास करता हूँ निकाल लंगा। जम्बलताका रहस्य यह था कि मेरे और उसपर कुछ निष्कर्षात्मक मीमाँसा भी करनेका सदृश विद्यावान् सम्पूर्ण जम्बूद्वीपमें कोई नहीं है । इसी प्रयास करूंगा। प्रकार कहा जाता है कि विद्या के भारसे पेट कहीं फट नहीं जाय, इसीलिये पेटपर एक स्वर्ण निर्मित पट भी प्रारम्भिक-परिचय बाँधकर रखते थे। साथमें यह भी प्रतिज्ञा थी कि जिसका भारतीय राजनैतिक इतिहासमें मेवाड़का महत्त्वपूर्ण कथित वाक्य नहीं समझ सकूँगा, उसका तत्काल शिष्य और गौरवपूर्ण स्थान है । इसी पवित्र भूमिपर महाराणा हो जाऊँगा। हमीरसिंह, महाराणा लक्ष्मणसिंह, म.राणा संग्रामसिंह एक दिनकी बात है कि हरिभद्र एक सुन्दर शिवि और महाराणा प्रतापसिंह सदृश शूरवीर एवं नररत्न कामें बैठकर बाजार में जा रहे थे, शिविकाके आगे आगे भामाशाह सरीखे पुरुष पुंगव उत्पन्न हुए हैं। हमारे उनके शिष्य उनकी विरुदावलीके रूपमें “सरस्वती चरित्रनायक हरिभद्रकी जन्ममूमि भी मेवाड़ ही है। कण्ठाभरण, वैयाकरणप्रवण, न्यायविद्याविचक्षण, वाकहा जाता है कि चित्तौड़ ही अापका जन्म स्थान है। दिमतंगजकेसरी, विप्रजननरकेसरी" इत्यादिरूपसे बोलते तत्कालीनं चित्तौड़ नरेश जितारिके हरिभद्र पुरोहित थे। हुए चल रहे थे । इतने में थोड़ी दूरपर “जनतामें घबराइस प्रकार श्राप जातिसे ब्राह्मण और कर्मसे पुरोहित हट और इधर उधर भागा दौड़ी हो रही" का थे । ये चौदह विद्याओं में निपुण और अजातप्रतिवादी दृश्य दिखलाई पड़ा। हरिभद्रके शिष्य और शिविकाथे । इसीलिये गज-प्रतिष्ठा और लोक प्रतिष्ठा दोनों ही वाहक मजदूर भी इधर उधर बिखर गये। इस परिस्थिइन्हें प्राप्त थीं । विद्याबल, राजबल और लोकप्रतिष्ठासे तिको देखकर विप्रवर हरिभद्रने भी बाहर दृष्टि दौड़ाई, हरिभद्रकी वृत्ति अभिमानमय हो चली थी, एवं तदनु- तो क्या देखते हैं कि एक मदोन्मत्त प्रचण्डकाय सार इन्हें यह मिथ्या आत्म-विश्वास सा हो गया था पागल हाथी जनतामें भय उत्पन्न करता हुआ तेजीसे कि मेरे बराबर प्रगाढ़ वैयाकरण, उत्कट नैयायिक, दौड़ा चला आ रहा है । मार्ग में ही शिविका-स्थित हरिप्रखर वादी और गम्भीर विद्वान् इस समय सम्पूर्ण पृथ्वी भद्र शिविकाको छोड़कर प्राण रक्षार्थ समीपके एक जैन पर कोई नहीं है । किंवदन्तियोंमें देखा जाता है कि मन्दिरपर चढ़ गय । तब उन्हें ज्ञात हुआ कि "हस्तिना Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० अनेकान्त [फाल्गुन, वीरनिर्वाण सं० २४६६ ताड्यमानोऽपि न गच्छेत् जैन मन्दिरम्" एक कल्पित जिसका कथित नहीं समझ सकूँगा, उसका तत्काल उक्ति हैं । सामने ही जिन प्रतिमा दिखलाई पड़ी और शिष्य हो जाऊंगा। उमी ममय नम्रता पूर्वक बोल कि जैन दर्शनके प्रति विद्वेषकी सहसा झटिति मुँह से "माताजी ! मुझे अपना शिष्य बना लीजियेगा और निकल पड़ा किः-- कृपया इस गाथाका अर्थ समझाइयेगा।" ज्ञान चारित्र वपुरेव तवाचष्टे स्पष्ट मिष्टान्न भोजनम् । सम्पन्न आर्याजीने समझाया कि “दीर्घ तपस्वी भगवान नहि कोटरसंस्थेऽग्नौ तरुर्भवति शादलः ॥ महावीर स्वामी के चारित्र क्षेत्रमें स्त्रियोंका पुरुषोंको दीक्षा अर्थात्-तुझारा शरीर स्पष्ट ही मिष्टान्न भोजनके देनेका श्राचार नहीं है । यदि आपको यह परम पवित्र प्रति ममत्वभावको बतला रहा है। क्योंकि यदि वनके आदर्श संयम धर्म ग्रहण करना है तो इसी नगर में स्थित कोटरमें अग्नि है, तो फिर वह हरा भरा कैसे रह सकता आचार्य प्रवर श्री जिनभट जी मुनिके पास पधारिये; वे आपको अनगार धर्मकी दीक्षा देंगे”। हरिभद्रने उनकी हाथीके निकल जानेपर तत्पश्चात् हरिभद्र अपने अाज्ञाको शिरोधार्य किया और आर्याजीके साथ साथ दीक्षा ग्रहणार्थ प्रस्थान किया। मार्गमें वही जैन मन्दिर घर पहुंचे। मिला जिसके शरण ग्रहणसे हरिभद्रका जीवन मदोविनीत हरिभद्र न्मत्त हाथीसे सुरक्षित रह सका था। पुनः वही जिन एक दिनकी बात है कि विप्रवर हरिभद्र राजमहल प्रतिमा दृष्टि गोचर हुई । दृष्टिभेदसे इस समय इन्हें उममें से निकलकर अपने घरकी अोर जारहे थे; मार्गमें एक बातमी पतीति दर्द वीतरागत्वमय शाँतरसकी प्रतीति हुई। तत्काल मुखसे जैन उपाश्रय पड़ता था । वहाँपर कुछ जैन साध्विएँ ध्वनि प्रस्फटित हुई कि "वपरेव तवाच भगवन । अपना स्वाध्याय कर रही थीं। स्वाध्यायकी ध्वनी हरि- वीतरागताम् ॥” वहाँपर कुछ समय ठहरकर हरिभद्रने भद्रके कर्णगोचर हुई और उन्हें सुनाई दिया कि एक भक्तिरससे परिपर्ण स्तुति की और तत्पश्चात ग्रार्या नीके साध्वीः साथ श्री जिनभट जीके समीप पहुँचे और मुनि धर्मकी "चक्की दुगं हरि षणगं, पणगं चक्कीण केसवो चक्की। जैन दीक्षा विधिवत् विशुद्ध हृदयसे ग्रहण की। केसव चक्की केसव दुचक्की, केसव चक्की य ॥ स्वयं हरिभद्र सूरिने अपनी यावश्यक सूत्रकी टीका इस प्रकार च-प्राचुर्यमय छन्दका उच्चारण कर के अन्तमें अपने गच्छ और गुरुके सम्बन्धमें इस प्रकार रही है । इन्हें यह छन्द कौतुकमय प्रतीत हुआ और उल्लेख किया है:अर्थका विचार करनेपर भी कुछ समझमें नहीं आया, "समाप्ता चेयं शिष्यहिता नामावश्यकटीका, कृतिः इसपर वे स्वयं उपाश्रयमें चले गये और आर्याजीसे सिताम्बराचार्यजिनभटनिगदानुसारिणो विद्याधरकुलबोले कि इस छन्दमें तो खूब चकचकार है । आर्याजीने तिलक-प्राचार्य जिनदत्तशिष्यस्य धर्मतो याकिनीमहउत्तर दिया कि भाई ! अबोध अवस्थामें तो इस प्रकार त्तरासूनोरल्पमतेराचार्य हरिभद्रस्य ।" इस उल्लेख परसे पहले पहल आश्चर्यमय नवीनता प्रतीत होती ही है। निश्चित रूपसे ज्ञात होता है कि हरिभद्र सूरिके जिनभटजी इसपर उन्हें अपनी वह भीष्म प्रतिज्ञा याद हो आई कि गच्छपति गुरु थे, जिनदत्तजी दीक्षाकारी गुरु थे, याकिनी Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण हरिभद्र-सूरि महत्तरा धर्मजननी माता थीं, विद्याधर गच्छ और श्वे- नामके दो भगिनी-पुत्र (भाणेज ) थे। ये दोनों किसी ताम्बर सम्प्रदाय था। कारण वशात् वैराग्यशील होकर अनगार-धर्मकी दीक्षा प्राचार्य हरिभद्र सूरिने याकिनी महत्तराजीके प्रति ग्रहणकर इनके शिष्य हो गये थे। प्राचार्य हरिभद्र अत्यन्त भक्ति, कृतज्ञता, लघुता, श्रद्धा और पुत्रभाव सूरिने व्याकरण, साहित्य, दर्शन एवं तत्त्वज्ञान आदि प्रदर्शित करने के लिये अपनी अनेक कृतियोंमें अपनेको विषयोंमें इन्हें पूर्ण निष्णात बना दिया था। किन्तु 'याकिनी महत्तरा सूनु' के नामसे अंकित किया है, फिर भी इनकी इच्छा बौद्ध विद्या पीठमें ही जाकर बौद्ध जैसा कि उनके द्वारा रचित श्री दशवैकालिकनियुक्ति दर्शनके गम्भीर अध्ययन करनेकी हुई । उस समयमें टीका, उपदेशपद, पंचसूत्रटीका, अनेकान्त जयपताका, मगध प्राँतकी अोर बौद्धोंका प्रबल प्रभाव था। मगध ललिताविस्तरा और आवश्यक नियुक्ति टीका आदि अादि प्राँतकी अोर अनेक विद्याकेन्द्र थे । एक विद्यापवित्र कृतियों द्वारा एवं अन्य ग्रन्थकारों द्वारा रचित पीठ तो इतना बड़ा था कि जिसमें १५०० अध्यापक ग्रन्थोंसे सप्रमाण सिद्ध है। और १५००० छात्र थे। उस समय में बौद्धोंने शुष्क : आचार्य हरिभद्र तर्क-क्षेत्रमें अपना अत्यधिक प्राधिपत्य जमा रक्खा था। हँस और परमहंस सदृश विद्वानोंका ऐसी स्थितिमें उस अब विप्रप्रवर हरिभद्रसे अनगार-प्रवर हरिभद्र हो ओर आकर्षित हो जाना स्वाभाविक ही था। यद्यपि गये । पहले राज पुरोहित थे, अब धर्म-पुरोहित हो गये ।। श्राचार्य हरिभद्र स्वयं बौद्ध दर्शनके महान् पण्डित और ये वैदिक साहित्य और भारतीय जैनेतर साहित्य-धाराके असाधारण अध्येता थे, जैसा कि उनके उपलब्ध ग्रंथों में तो पूर्ण पण्डित और अद्वितीय विद्वान थे ही। अतः उन द्वारा बौद्ध दर्शनपर लिखित अंशसे सप्रमाण सिद्ध जैन साहित्य और जैन दर्शनके आधार-भूत, ज्ञान, शाना है। फिर भी हँस और परमहँसकी बौद्ध विद्यापीठमें ही दर्शन और चारित्ररूप त्रिपदीके भी अल्प समयमें ही जाकर बौद्ध दर्शन के अध्ययन करनेकी प्रबल और और अल्प परिश्रमसे ही पूर्ण अध्येता एवं पूर्ण ज्ञाता उत्कृष्ट उत्कण्ठा जागृत हो उठी । हरिभद्र सूरिने बौद्धोंकी हो गये । शनैः शनैः जैन दर्शन के गम्भीर मननसे ये विद्वेषमय प्रवृत्तिके कारण ऐसा करनेके लिये निषेध . अाचार क्षेत्रमें भी एक उज्ज्वलनक्षत्रवत् चमक उठे किया; किन्तु पूर्वकर्मोदय वशात् भावी अनिष्ठ ही हँस और जैसे एक चक्रवर्ती अपने पुत्रको भार सौंपकर और परमहंसको उस ओर आकर्षित करने लगा। सच चिन्ता मुक्त हो उठता है, वैसे ही श्री जिनभट जी भी है भवितव्यताकी शक्ति सर्वोपरि है। अपने गच्छके सम्पूर्ण भारको हरिभद्र पर छोड़कर यह कहना अतिशयोक्ति पूर्ण नहीं होगा कि ये चिन्ता मुक्त हो गये । इस प्रकार मुनि हरिभद्र आचार्य दोनों शिष्य गुरुके अनन्य प्रेमी और असाधारण भक्त हरिभद्र हो गये और ज्ञान, दर्शन, चारित्रमें, अव्याहत थे। गुरुके वचनोंपर सर्वस्व होम कर देनेकी पवित्र गतिसे विकास करने लगे। भावनावाले थे। किन्तु भवितव्यतावश गुरुकी पुनीत हरिभद्रसरिके शिष्य श्राज्ञासे इस समय विमुख हो गये । भावी अनिष्ट इन्हें कहा जाता है कि हरिभद्र सूरिके हँस और परमहंस बौद्ध विद्यापीठकी ओर खींचता चला गया। अन्ततो Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ अनेकान्त गत्वा चलते चलते ये विद्यापीठमें पहुँच ही गये । जैसे आजकल सर्व धर्म सहिष्णुताका अथवा परधर्म प्रति उदारताका अभाव-सा है; वैसा ही उस समय में भी स्वपक्ष को येनकेन प्रकारेण सिद्धि करना और परपक्षका इसी प्रकार खण्डन करना ही धर्म प्रभावना अथवा धर्मरक्षा समझी जाती थी। बौद्ध साधुओं का चार विचार लोक कल्पनाकी भावनासे रहित हो चला था । महाकारुणिक भगवान बुद्धकी श्रादर्शता श्रौर लोक-कल्याणकी भावना विलुप्त सी हो गई थी । केवल तर्क -बल पर अन्य दर्शनोंको वाद विवाद के क्षेत्रमें पराजितकर अपनी प्रतिष्ठा जनसाधारण में स्थापित करते हुए, अपनी इहलौकिक तृष्णामय श्रावश्यकताओं की पूर्ति करते हुए अपने धर्मका आधिपत्य प्रतिष्ठित करना ही बौद्ध भिक्षुओं का एक मात्र उद्देश्य रह गया था । महावीर कालीन वैदिक स्वछंदताकी तरह इस समय भी बौद्ध स्वछंदताका साम्राज्य-सा था । विद्यापीठों की स्थापनाका ध्येय भी यही था और तदनुसार अनेक विक पात्मक शुष्क न्याय विषयोंका ही उनमें विशेष अध्य यन कराया जाता था। इस असहिष्णुतामय वातावरण में हंस और परमहंस जैन साधु के वेश में कैसे रह सकते थे ? बौद्ध भिक्षुत्रोंके समान वेश-परिवर्तन करना पड़ा। मुनिहंस और मुनि परमहंससे भिक्षु हंस और भिक्षु परमहंसकी उपाधि धारण करनी पड़ी। यह है विद्या व्यसन और विघ्नमोहकी प्रबल उत्कण्ठाका विकृत परिणाम । इस व्यसन और मोहकी कृपासे ही पवित्र श्राचार विचार छोड़ने पड़े, गुरुकी पुनीत आज्ञा की अवहेलना की और इस प्रकार आत्म- विचारोंकी हत्या करनी पड़ी। इन्हें बौद्ध भिक्षु समझकर विद्यापीठके कुलपतिने इनके लिये भोजन और अध्ययनकी सर्व सुलभता और [फाल्गुन, वीर- निर्वाण सं० २४६६ पूर्ण व्यवस्था कर दी । अब ये शाँति पूर्वक पूर्ण निर्भयताके साथ क्लिष्ठसे क्लिष्ट दर्शन शास्त्रोंका भी प्रति शीघ्रतासे अध्ययन करने लगे । उपयोगी भागको कंठस्थ भी करने लगे । साथमें जैन दर्शन के प्रतिवाद अंशका भी प्रतिवाद अत्यंत सूक्ष्म रीति से किन्तु मार्मिक रूप में दो एक पृष्ठोंपर इन्होंने लिख लिया । परीक्षा और कुलपति - कोप हंस और परमहंस उन पृष्ठों को गुप्तही रखते थे, किन्तु देवयोग से एक दिन ये पृष्ठ हवासे उड़ गये और एक बौद्ध भिक्षुके हाथ लग गये । पृष्ठों को उठाकर वह कुलपतिके समीप ले गया । कुलपति ध्यानपूर्वक उन पृष्ठों को पढ़ा। बौद्ध दर्शन के प्रति जैन दर्शनकी युक्तियों 1 गंभीरता, मौलिकता और अकाट्यतापर कुलपति मुग्ध हो उठा और इस बातार श्राश्वर्यजनक प्रसन्नता हुई कि मेरे विद्यापीठ में ऐसे प्रखर बुद्धिशील विद्वान् विद्यार्थी भी हैं । किन्तु थोड़ी ही देर में संप्रदायान्धताकी मादकता ने मस्तिष्क में विकृति की लहर दौड़ा दी। कुलपतिको यह जाननेकी उत्कण्ठा हुई कि इन पन्द्रहहजार छात्रों में से वे कौनसे छात्र हैं; जिन्होंने कि इतनी प्रखर बुद्धि का इतना सुन्दर परिचय दिया है । निश्चय ही वे जैन हैं; किन्तु ज्ञात होता है कि वे यहाँपर बौद्ध भिक्षुके रूप में रहते हैं । निष्करुण परीक्षाका दारुण समय उपस्थित हुआ और यह युक्ति निर्धारित की गई कि एक जिन-प्रतिमा मार्ग में रक्खी जाय और उसपर विद्यापीठका प्रत्येक ब्रह्मचारी पाँव रखते हुए आगे बढ़े। इस रीति अनुसार बौद्ध छात्र तो निर्भयता पूर्वक प्रतिमापर पैर रखते हुए आगे बढ़ गये । किन्तु जब हंस और परमहंसका क्रम या तो इन्होंने भी एक प्रतियुक्ति सोची। वह यह थी Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण १] कि प्रतिमा के कण्ठ- स्थानपर इन्होंने तीन रेखाएँ खींच दौं; जिससे कि यह प्रतिमा जिन की नहीं रहकर बौद्धकी बन गई और तदनुसार उसपर पैर रखकर ये दोनों भी आगे बढ़ गये । रेखा -प्रक्रिया से कुलपतिको विश्वास हो गया कि ये दोनों नवीन ब्रह्मचारी ही जैन हैं । " जैन हैं" ऐसा ज्ञात होते ही प्रतिशोधकी और प्रतिहिंसाकी भयंकर ज्वाला प्रज्वलित हो उठी और मृत्यु दण्ड देना ही कुलपतिको उचित दण्ड ज्ञात हुआ । हंस और परमहंस को जब ऐसे भयंकर दण्ड विधान के समाचार सुनाई पड़े तो वे वहाँ से गुप्त रीति से भाग निकले। कुलपतिको उनके भागनैके समाचारसे प्रचंड क्रोध आया और उसने तत्काल विद्यापीठमें उपस्थित किसी बौद्ध-राजाकी सेना के कुछ सैनिकों को उन्हें पकड़कर लानेका कठोर आदेश दिया । आदेश पालक सेना के 'कुछ पदाति और अश्वारोही उनका पीछा करनेके लिये चल पड़े और । जब यह बात हंस और परमहंसको पीछे की ओर मुड़कर देखनेपर ज्ञात हुई तो हंसने परमहंसको कहा कि देखो ! श्र अपनी रक्षा होनी कठिन है; अतः यही श्रेष्ठ होगा कि तुम तो सामने दिखलाई पड़नेवाले इस नगर में चले और यहाँ राजा सूरपालको संपूर्ण वृत्तान्तसे अवगत करके इसकी सहायतासे गुरुजी ( हरिभद्र सूरि जी) के पास चले जाना । सारा वृत्तान्त उनकी सेवा में सविनय निवेदन करना और श्राज्ञाकी अवहेलना करने प्राप्त पापके लिये प्रायश्चित्त करना; एवं मेरी ओर से भी श्राज्ञा अवज्ञा के लिये क्षमा माँगते हुए निवेदन करना कि हंस तो धर्मकी रक्षा करते हुए वीर-गतिको प्राप्त होगया है । परमहंस बड़े भाई की इस करुण रसपूर्ण बातसे विह्वल हो उठा, किन्तु भयानक स्थिति और समय देखकर बड़े भाईको श्रद्धा पूर्वक प्रणामकर नगर हरिभद्र- सूरि की ओर प्रस्थान कर दिया । आक्रमणकारियोंके समीप आते ही हंस उनसे अभिमन्युकी तरह युद्ध करता हुआ वहीं वीर गतिको प्राप्त होगया । परमहंसका वाद विवाद और अवसान परमहंस वहाँसे शीघ्रगतिसे भागता हुआ राजा सूरपालकी राज सभा में पहुँचा और सारा वृत्तान्त कह सुनाया । राजाने शरणागतको अभयदान दिया । तत्पश्चात् हंसको मारकर वे आक्रमणकारी भी सूरपालकी सभा में पहुँचे और परमहंसकी माँगणी की। सूरपालने देने से इंकार कर दिया । सेनाकी टुकड़ीके अध्यक्षने अनेक प्रकार के भय बतलाये, किन्तु सुरपाल अचल रहा । अंत में यह निश्चय हुआ कि परमहंसके साथ बौद्धों वाद विवाद हो और यदि परमहंस पराजित हो जाय तो उसे बौद्धोंको सौंप दिया जाय । तदनुसार इस प्राणघातक परीक्षा में भी परमहंस स्वर्णवत् प्रामाणिक ठहरा और विजयी हुआ । आक्रमणकारी अपना सा मुँह लिये हुए लौट गये । परमहंस सूरपालके हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता हुआ वहाँसे चल दिया । तेज़ गति से चलता हुआ और अनेक कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करता हुआ अन्तमें परमहंस अपने गुरु हरिभद्रसूरि के समीप पहुँचा । सारा इतिहास - जनक भाषा में बतलाया और गुरु श्राज्ञांकी अवहेलना करने के लिये अपनी ओरसे एवं बड़े भाई हंसकी प्रोरसे क्षमा माँगते हुए दैव दुर्विपाकसे वार्तालाप करते हुए ही तत्काल स्वर्गवासी होगया । ३३३ बौद्धों के प्रति हरिभद्रसूरिका प्रचण्ड प्रकोप 3 हरिभद्र सूरिको इस प्रकार बौद्ध-कुकृत्यों और दुराचारोंका ज्ञान होते ही भयंकर क्रोधका समुद्र उमड़ श्राया । यद्यपि हरिभद्र सूरि एक योगी और श्राध्यात्मिक Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त . [फाल्गुन वीर निर्वाण सं० २४६६ महापुरुष थे; किन्तु फिर भी जिस प्रकार शीतल चन्दन करते हुए दीन वचनों में प्रार्थना करो कि हम शृगाल हैं के आल्हादक बनमें भी दावानल सुलग जाता है, वैसे सिंह नहीं। बाचाल दूतकी दर्पपूर्ण कटुक्तियों पर कुलही चरित्र नायकके भी उदार एवं शीतल हृदयमें क्रोध- पतिको उत्तेजनात्मक रोष हो पाया और क्रोधसे दांतों ज्वाला प्रज्वलित हो उठी। मोहकी माया बड़ी प्रबल द्वारा श्रोष्ठको दबाता हुअा बोल उठा कि "अरे मूर्ख हुश्रा करती है; शिष्य मोह और बौद्ध-मदान्धताने समु- दूत ! जानो, हमें उस उद्धत प्रतिवादीका निमन्त्रण ज्जवल सुधाकरकी सुमधुर सुधाको विकराल विषधरके स्वीकार है । हे अभिमानी सन्देश वाहक ! उस धृष्ट विषम विषके रूपमें परिणत कर दिया । हरिभद्र सूरि प्रतिवादीको साथमें यह शर्त भी कह देना कि जो पराउठे और वेग पूर्वक वायुकी चालसे चलते हुए वौद्धों जित होगा; उमे प्राण दण्ड दिया जावेगा। यह शर्त से बदला लेने के लिये राजा सूरपालकी सभ में पहुँचे। स्वीकार हो तो हम वाद-विवादमें सम्मिलित हो सकते राजाको तदनुरूप आशीर्वाद दिया और परम हंसकी हैं; अन्यथा नहीं"। दूतने तत्काल उत्तर दिया कि रक्षाके लिये भूरि भूरि प्रशंसा करते हुए धन्यवाद दिया; "पराजितको जलते हुए तेलके कड़ाहेमें कूदना होगा; एवं बौद्धोंसे वाद विवाद कर प्रतिशोधकी प्रज्वलित यही प्राण-दंडकी रूप रेखा होगी। यदि आपको पूरा २ विकराल ज्वालाको शांत करनेकी अपनी अभिलाषा आत्म विश्वास हो कि मैं ही विजयी होऊँगा; तो ही प्रकट की। राजाने नम्रता पूर्वक निवेदन किया कि अापको वाद-विवादके क्षेत्रमें उतरना चाहिये, अन्यथा बौद्ध प्रतिवादी तो अनेक हैं और आप केवल एक ही पराजयके भीषण कलंक के साथ प्राणोंसे हाथ धोना हैं, अतः यह सामञ्जस्य कैसे हो सकेगा ? हरिभद्रसूरिने पड़ेगा और साथ साथ बौद्ध शासन के सौभाग्य श्रीको सिंहवत् निर्भयता पूर्वक उत्तर दिया कि अाप भी भीषण धक्का लगेगा; एवं बौद्ध-शासन-प्रभावना पर निश्चित रहें। मैं अकेला ही उन प्रतिवादी रूप हाथियों कलंक-मुद्राकी अमिट छाप लग जायगी"। इन वचनों के समूहमें सिंहवत् पराक्रमी सिंह होऊँगा। इस पर राजा से कुलपतिको मार्मिक आघात पहुँचा और चोट खाये ने एक वाचाल किन्तु बुद्धिमान दूतको बौद्ध कुलपति हुए सर्पकी भांति दूतको भर्त्सना देता हुअा बोला कि के समीप शास्त्रार्थका निमन्त्रण स्वीकार करनेके लिये “हे मूर्खाधिराज ! हमारी चिन्ता न कर और अधिक भेजा। सन्देश वाहकने जाकर कठोर भाषामें गर्जना प्रलाप मत कर । जा; हम शास्त्रार्थ के लिये आते हैं; की कि “हे बौद्ध-शिरोमणि तर्क-पंचानन" आप अपनेको राजासे कह देना कि सब व्यवस्था करे, किसी बातकी न्याय वन-सिंह समझ बैठे हो; किन्तु अभी तक प्रति- त्रुटि नहीं होने पावे ।" वादी मतंगज स्वछंदता पूर्वक विचरण कर रहे हैं; उन- विवाद-सभाकी सर्व प्रकारेण पूरी व्यवस्था की गई । का दमन क्यों नहीं करते हो ? ऐसा ही कोई दुर्दमनीय सभापति, सभ्य, मध्यस्थ, दर्शक और श्रोताओंसे सारी मतंगज राजा सूरपालकी राज-सभामें आया हुआ है; सभा सुशोभित होने लगी। समय होते ही राजाभी उसने प्रतिमल्लवत् ललकारा है कि यदि अपनी मान- उपस्थित हुा । प्राण-घातक शर्त के कारण प्रत्येक मर्यादाकी रक्षा करना चाहते हो तो विवादात्मक युद्ध- व्यक्ति के हृदयमें उत्सुकता और व्याकुलताका आश्चर्य क्षेत्रमें श्राश्रो; अन्यथा बौद्ध-धर्मकी पराजय स्वीकार जनक संमिश्रण था। संपूर्ण सभामें सूची भेद्य नीर Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिभद्र - सूरि वर्ष ३, किरण 27 वता थी । दोनों वादी प्रतिवादी भी नियमानुसार शास्त्रार्थ के लिये तैयार हो गये और वाद-विवाद प्रारंभ हुआ । प्रथम बौद्ध कुलपतिने पूर्व पक्ष के रूप में "क्षणवाद" का प्रबल युक्तियों, हेतुनों और अनुमानों द्वारा पूर्ण समर्थन किया और जेयरूप देनेका भरपूर प्रयास किया । तदन्तर हरिभद्रसूरि उठे और मंगलाचरण करने एवं राजा तथा सभाको आशीर्वाद देनेके बाद शांतिपूर्वक किन्तु प्रखर तर्कों द्वारा क्रमशः क्षणवाद का खंडन करते हुए कुलपतिकी सारी शब्दाडम्बरमय तर्कों को इस प्रकार अस्त व्यस्त कर दिया, जिस प्रकार कि वायु मेवोंके प्रवाहको कर देता है । अन्त में " वस्तु स्थिति नित्यानित्यात्मक है" इसी सिद्धान्तको सर्वोपरि ठहराया । अपने पक्षको प्रबल रीतिसे सिद्ध कर दिया । अन्ततोगत्वा प्रतिपक्षी इस सम्बन्ध में अपने आपको अनाथ र असहाय सा अनुभव करने लगा; एवं “मौनं स्वीकृति-लक्षणं” के अनुसार पराजय स्वीकार कर ली । सम्पूर्ण सभा स्तब्ध और शांत थी । " कुलपतिः पराभूतः” सभासदों के इन शब्दों द्वारा वह नीरव शांति भंग हुई | कुलपति उठा और पूर्व प्रतिज्ञानुसार उसने गरम २ तेलके कड़ाहेमें गिरकर मृत्युका आलिंगन कर लिया । इस प्रकार जब पांच छः के लगभग बौद्धोंका तेलके कड़ाहे में गिर कर होमं हो गया, तब सम्पूर्ण बौद्ध संसारमें हाहाकार मच गया। बौद्ध शासन - रक्षिका तारादेवी बुलाई गई; उसने यही कहा कि हंस और परमहंसकी हत्याका ही यह परिणाम है; अतः इसीमें कल्याण है कि सब बौद्ध यहांसे चले जाँय | हरिभद्र सूरिका क्रोध अभी तक शाँत नहीं हुआ था; वे क्रोधसे प्रज्वलित हो रहे थे और और भी बौद्धोंका ३३५ नाश करना चाहते थे । किन्तु कहा जाता है कि जब यह घटना आचार्य जिनमेंट सूरिजीको ज्ञात हुई तो उन्होंने क्रोधको शांत करने के लिये अपने दो शिष्यों के साथ तीन प्राकृत गाथाएँ भेजीं। कहा जाता है कि वे गाथाएँ इस प्रकार हैं: - गुण - लेण श्रग्गिसमा, सीहाऽणन्दा य तह पिया उत्ता । सिहि जालिणि माइसुया धणधणसिरिमो य पइ-भज्जा ॥ जय विजयाय सहोयर धरणो लच्छी य तह पई भज्जा । सेणविसेणापित्तियउत्ता जम्मम्मि सत्तमए ॥ २ ॥ गुणचंद - वाणमंतर समराइच्च - गिरिसेणपाणो उ । एक्कस्स तो मोक्खो बीयस्स भणन्त संसारो ॥ ३ ॥ इन गाथाओं का यही तात्पर्य है कि क्रोधके प्रतापसे दो जीव नौ जन्म तक साथमें रहने पर भी अंत में एक को तो मुक्ति प्राप्त होती है और दूसरेका अनन्त संसार बढ़ जाता है । अतः क्रोध के बराबर दूसरा कोई शत्रु नहीं है । इसलिये कषायगणना के प्रारम्भमें ही इसका नाम निर्देष है । गाथाओं का मनन करते ही हरिभद्रसूरिका क्रोध तत्काल शाँत होगया; उन्हें अपने इस हिंसाकाँडसे भयंकर पश्चात्ताप हुआ और वहाँसे वे तत्काल चित्रकूटकी ओर मुड़े । तीव्रगति से चलते हुए गुरुजी के समीप पहुँचे और चरणों में गिरकर प्रायश्चित्त लेते हुए पापों की श्रालोचना की । उन तीन गाथाओं के आधारसे ही बाद में हरिभद्रसूरिने प्रशमरसपूर्ण "समराइच्च कहा" नामक कथा - ग्रंथ की रचना की; जोकि कथा-साहित्य में विशिष्ट गौरव पूर्ण ग्रंथ-रत्न है । राजशेखरसूरिने अपने प्रबंधकोश में शास्त्रार्थ होने की बात न लिखकर केवल मंत्र बलद्वारा ही बौद्धोंका नाश करने के संकल्पकी बात लिखी है । इसी प्रकार सम्वत् १८३४ में हुये अमृतधर्म गणि Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ अनेकान्त [फाल्गुन, वीरनिर्वाण सं०२४६६ के शिष्य श्री क्षमाकल्याण मुनिने भी राजशेखर सूरि- जन्म-स्थान “पिर्वगुई” नामक कोई ब्रह्मपुरी बतलाई वत् ही उल्लेख किया है। और यह भी विशेषता बत- गई है । माताका नाम गंगा और पिताका नाम शंकर. लाई है कि हरिभद्र सूरिके क्रोधको शांत करनेवाले भट्ट बतलाया गया है । इसी प्रकार याकिनी महत्तराजी श्री जिनभट सूरिजी नहीं थे; किन्तु “याकिनी महत्तराजी" । के साथ चरित्र नायक श्री जिनभटजीकी सेवा में नहीं ही थी। गये थे, किन्तु श्री जिनदत्त. सूरिजीके समीप गये थे; ___ सुना जाता है कि इन्होंने १४४४ अथवा १४४० ऐसा उल्लेख है। श्री जिनदत्त सूरिजीसे हरिभद्रसूरिने बौद्धोंको नाश करनेका संकल्प किया था; अतः उस प्रश्न किया था कि “धर्म कैसा होता है" ? इसपर संकल्पजा हिंसाकी निवृत्तिके लिये १४४४ अथवा गुरुजीने उत्तर दिया कि धर्म दो प्रकारका होता है:१४४० ग्रंथोंके रचने की आदर्श प्रतिज्ञा ली थी। अपने १ सकामवृत्तिस्वरूप धर्म और २ निष्कामवृत्तिस्वरूप उज्वल जीवनमें ये इतने ग्रंथ रच सके थे या नहीं; इस धर्म । प्रथमसे स्वर्गादिकी प्राप्ति होती है और द्वितीयसे सम्बन्धमें कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं पाया जाता है। "भव-विरह” होता है । इसपर भद्र-प्रकृति हरिभद्र सूरिने केवल इतने ग्रन्थोंके रचनेवाले कहे जाते हैं एवं माने सविनय निवेदन किया कि "हे करुणासिंधो ! मुझे तो जाते हैं। "भव-विरह" ही प्रिय है । इसपर श्री जिनदत्त सूरिजीने हरिभद्र सूरिने अपने कुछेक ग्रन्थोंके अन्तमें 'विरह' । प्रसन्न होकर उन्हें साधु-धर्मकी पवित्र दीक्षा दी। शब्दको अपने विशेषण रूपसे संयोजित किया है। यह शिष्योंके सम्बन्धमें कथावलिमें इस प्रकार उल्लेख है कि इनके दो शिष्य थे, जिनके नाम क्रमसे जिनभद्र शब्द हंस और परमहंसकी अकाल मृत्युका द्योतक है. ऐसी मान्यता है । उनके दुःखसे उत्पन्न वेदना स्वरूप और वीरभद्र थे। इन दोनोंको बौद्धोंने किसी कारणही एवं उनकी स्मृति के लिये ही "विरह" शब्द लिखा वशात् एकान्तमें मार डाला था, इससे हरिभद्र सूरिको भार्मिक आघात पहुँचा एवं आत्मघात करने के लिये ये तैयार होगये। किन्तु ऐसा नहीं करने दिया गया। ____ श्री प्रभाचन्द्र सूरिने अपने प्रभावक चरित्र में अन्त में हरिभद्र सूरिने ग्रंथ-रचना ही शिष्य अस्तित्व लिखा है कि प्राचार्य हरिभद्र सूरिने अपने ग्रंथोंका समझा और तदनुसार इन्होंने अनेक ग्रन्थोंकी रचना व्यापक और विशाल प्रचारार्थ तथा ग्रन्थोंकी अनेक प्रतियाँ तैयार करनेके लिये “कार्पासिक" नामक किसी इसी प्रकार कथावलिमें यह भी देखा जाता है कि भव्य श्रात्माको व्यौपारमें लाभकी भविष्यवाणी की थी: हरिभद्र सूरिको लल्लिग"नामक एक सद्गृहस्थने ग्रन्थऔर तदनुसार उसने व्यौपारकर पुष्कल द्रव्य-लाभ किया था, जिससे उसने अनेक प्रतियाँ तैयार कराई रचनामें बाह्य सामग्रीकी बहुत सहायता प्रदान की थी। यह जिनभद्र वीरभद्रका चाचा (पितृव्य) था । इसे और स्थान २ पर पुस्तक भंडारोंमें उन्हें भिजवाई थी। चरित्र नायकजीकी द्रव्य-विषयक भविष्य वाणीसे पुष्कल कथा-भिन्नता लाभ हुआ था । इसने उपाश्रयमें एक ऐसा रत्न रख श्री महेश्वर सरि कृत कथावालिमें हरिभद्र सूरिका दिया था कि जिसका प्रकाश रात्रिमें दीपकवत् फैलता की। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ५] हरिभद्र-सूरि था और उस प्रकाशकी सहायतासे प्राचार्यश्री रात्रिमें यह भी पूर्ण सत्य है कि विद्याधरगच्छ और श्वेभी ग्रंथ रचनाका कार्य भलीभाँति कर सकते थे और ताम्बर संप्रदायमें श्री याकिनी महत्तराजीकी किसी करते थे। अज्ञात प्रेरणासे श्री जिनदत्त सूरिजीके पास दीक्षा ग्रहण ___ हरिभद्र सूरि जब भोजन करने बैठते थे, उस समय की थी। और श्री जिनभट जी के साथ इनका सम्बन्ध लल्लिग शंख बजाता था, जिसे सुनकर याचकगण वहाँ गच्छपति गुरुरूपसे था। एकत्रित हो जाते थे। याचकोंको उस समय भोजन जन्म-स्थान और माता पिताके नामके सम्बन्धमें कराया जाता था और तदनन्तर याचकोंके हरिभद्रसरि ऐतिहासिक सत्यरूपसे कुछ कह सकना कठिन है । को नमस्कार करने पर प्राचार्यश्री यही आशीर्वाद देते किन्तु ये ब्राह्मण थे, अतः कथावलिका उल्लेख सत्य धे कि “भवविरह करने में उद्यमवन्त हो।" इसपर याचक हो सकता है। प्रभावक-चरित्र के अनुसार चित्तौड़ नरेश गरण पुनः “भवविरह सूरि चिरंजीवी हो" ऐसा जयघोष जितारिका पुरोहित बतलाना सत्य नहीं प्रतीत होता है, करते थे । इसीलिये जिन-शासन शृंगार आचार्य हरि क्योंकि चित्तौड़के इतिहास में हरिभद्र-कालमें "जितारि" भद्र सूरिका अपर नाम "भवविरह सरि', भी प्रसिद्ध हो नामक किसी राजाका पता नहीं चलता है । इसी प्रकार गया था। हाथीवाली घटना भी कितना तथ्याँश रखती है, यह भी सम्पूर्ण कथा-मीमांसा एक विचारणीय प्रश्न है; क्योंकि इस घटना की श्रीयह तो सत्य है कि कथाका कुछ अंश कल्पित है, मुनिचन्द्र सूरि कृत उपदेशपदकी टीकाके उल्लेखमें कोई कुछ अंश विकृत है और कुछ अंश रूपक अलंकारसे चर्चा नहीं है । यह कथाभाग पीछेसे जोड़ा गया है, संमिश्रित है । साधु-शिरोमणि श्राचार्य हरिभद्र सूरिके ऐसा ज्ञात होता है। पांडित्य-प्रदर्शन और तत्सम्बन्धी गुज्वल और श्रादर्श जीवन चरित्रका अधिकाँश भाग अंशका इतना ही तात्पर्य प्रतीत होता है कि इनकी विस्मृति के गर्भमं विलुप्त होगया है; जिसे अब हमारी वृत्ति प्रारंभमें अभिमानमय होगी और ये अपनेको सबसे अधिक विद्वान् समझते होंगे तथा शेषके संबंधमें कल्पनाएँ ठीक ठीकरूपमें ढंढ निकालने में शायद ही हीन-कोटिकी धारणा होगी । इसी धारणाका यह रूप समर्थ हो सकेंगी। प्रतीत होता है। जो कि कवि-कल्पना द्वारा इस प्रकार ___ ये प्रकृतिसे भद्र, उदार, सहिष्णु, गम्भीर और कथाके रूपमें परिणत हो गया है। विचारशील थे; यह तो पूर्ण सत्य है और इनकी सुन्दर कृतियोंसे यह बात पूर्णतया प्रामाणिक है। दार्शनिक श्री याकिनी महत्तरा जोके साथ इनका सम्पर्क और क्षेत्रमें इनके जोड़का शाँत विद्वान् और लोकहितकर इतना भक्ति-पूर्ण सम्बन्ध कैसे हुआ ? यह एक अज्ञात उपदेष्टा शायद ही कोई दूसरा होगा । पं० बेचरदास- किन्तु गम्भीर रहस्यपूर्ण बात है । एक श्लोक अथवा जीके शब्दोंमें ये वादियोंके वादज्वरको, हठियोंके हठ- गाथा के आधार से ही इतना प्रचण्ड गम्भीर दार्शनिक ज्वरको और जिज्ञासुओंके मोहज्वरको शांत करने में एक वैदिक दर्शनको छोड़कर एकदम जैन-साधु बनकर जैनआदर्श रामबाण रसायन-समान थे । दर्शन भक्त बन जाय; यह एक आश्चर्य-जनक बात Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३५ अनेकान्त [फाल्गुन, वीरनिर्वाण सं०२४६६ प्रतीत होती है । यह सम्भावना हो सकती है कि कोई यह कोई अस्वाभाविक बात नहीं है । बौद्धोंसे इन्होंने अति जटिल दार्शनिक समस्या इनके मस्तिष्कमें चक्कर अवश्य शास्त्रार्थ किया होगा और उन्हें अपमान पूर्वक लगाती रही होगी और उसका समाधान इन्हें बराबर पराजय की कलक-कालिमासे चोट पहुँचाई होगी। किन्तु नहीं हुआ हो; ऐसी स्थितिमें सम्भव है कि अनेकान्त- बौद्धोंका इस प्रकार नाश किया हो; यह कुछ विश्वसिद्धान्त द्वारा पूज्य याकिनी महत्तराजीसे इनका समा- सनीय प्रतीत नहीं होता है। यह हो सकता है कि धान हो गया होगा और इस दशामें स्याद्वादकी महत्ता मानवप्रकृति अपूर्व है और इसलिए बौद्धोंका नाश करने और दार्शनिक समस्याके समाधानसे इन्हें परम प्रसन्नता का संकल्प कर लिया हो और उस संकल्पजा हिंसाकी हुई होगी और इस प्रकार यह प्रसन्नता ही इन्हें जैन-द- निवृत्तिके लिये ही एवं शिष्यमोहकी निवृत्ति के लिये ही र्शनके प्रति अनुरक्त बनाने में एवं साधु बनानेमें कारण १४४४ या १४४० ग्रन्थोंको रचनेका विचार किया हो । भूत हुई होगी, ऐसा ज्ञात होता है । यही श्री याकिनी- और यथा शक्ति इस संख्याको पूर्ण करनेका प्रयास महत्तराजीके प्रति इनकी भक्ति और श्रद्धाका रहस्य किया हो, इस सत्य पर अवश्य पहुँचा जा सकता है कि प्रतीत होता है। बौद्धों और इनके बीचमें कोई न कोई तुमुल युद्ध अवस्याद्वाद या अनेकान्तवाद जैनदर्शनका हृदय है। श्य मचा है और वह कटुताकी चरम-कोटि तक अवश्य इसकी मौलिक विशेषता यही है कि इसके बलसे जटिल पहुँचा होगा । बौद्धोंकी तत्कालीन नृशंसतापूर्ण निरं. से जटिल दार्शनिक समस्याका भी सरल रीत्या पूर्ण कुशता और उत्तरदायित्वहीन स्वछंदता पर हरिभद्रसमाधान हो जाता है । अतः हो सकता है कि असाधा- सूरिको अवश्य क्रोध आया होगा और संभव है कि वह रण दार्शनिक हरिभद्रकी दार्शनिक समस्याएँ इस सिद्धांत क्रोध हिंसाकी अक्रियात्मक अवस्थाओं में से अवश्य के बल पर हल होगई हों और इस प्रकार ये जैन धर्मा- गुजरा होगा । इस प्रकार तज्जनित पापकी निवृत्तिके नुरागी बन गये हों। लिये ग्रंथ रचनाकी प्रतिज्ञाकी हो । अतः इस विस्तृत शिष्य-संबंधी कथा-भागका आधार. यही हो आद्योपाँत घटनाका यही मूल अाधार प्रतीत होता है। सकता है कि इनके शिष्य तो दो अवश्य ही हुए होंगे यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि बौद्धोंकी स्वच्छंइनका गृहस्थ नाम शायद हँस और परमहंस होगा दतापर ये अकुंश लगानेवाले और उनकी उन्मत्तताका और दीक्षा नाम संभव है कि जिनभद्र और वीरभद्रके दमन करने वाले थे । अतः भारतीय संस्कृति के और रूपमें हो । प्रभावक चरित्र और कथावलिमें पाये जाने खास तौर पर जैन संस्कृति के ये प्रभावक संरक्षक और वाले नाम-भेदसे यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है। विकासक महापुरुष थे; इसमें कोई संदेह नहीं है । कथा-अंशसे यह भी सत्य हो सकता है कि बौद्धोंने इनकी प्रतिभा संपन्न कृतियों और साहित्य सेवाके इन दोनोंको कोई महान् कष्ट पहुँचाया हो और इन्हें संबंधमें अगली किरणमें लिखनेका प्रयत्न करूंगा। भयंकर प्रताड़ना दी हो; जिससे संभव है कि ये दोनों शिष्य काल कर गये हों । इस पर प्राचार्य हरिभद्र सरिको यदि प्रचंड क्रोध आ जाय तो मानव-प्रकृति में (अपूर्ण) Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-व [ लेखक पं० मूलचन्दजी जैन " वत्सल " ] ( १ ) भेरी बज रही है, लोकसमूह इस नवीन उत्पन्न वह स्वधर्म अनुरक्त, सत्यभक्त और मातृभूमि - हुई परिस्थितिमें अपने अपने योग्य कार्यको हस्त प्रेमासक्त था । उज्वल अहिंसासे उसका हृदय परिप्त था । गत कर लेने के लिए शीघ्रता से एकत्रित हो रहे हैं । जिसका आत्मभाव सदैव जागृत है ऐसे नतुवाके लिए नवीन परिस्थितिको अनुभव करनेमें कुछ भी समय न लगा । मातृभूमि संरक्षण के लिए, वीर माताकी आज्ञानुसार प्रतिस्पर्धीका निमंत्रण स्वीकार कर भीषण रण स्थलमें अपने अटल कर्तव्यको पूर्ण करनेवाला स्वधर्मनिरूपित अंतिम उत्कृष्ट क्रियाओंको उल्लास पूर्ण अवस्थामें परिपूर्ण कर स्वर्ग प्राप्त करनेवाला, वह था एक 'वारहव्रत धारी जैन श्रावक ।' वह घरमें आया और बातकी बातमें अस्त्रशस्त्र सुसज्जित होगया । शरीर पर लोहेका कवच और मुकुट, कमर में तलवार, उसके ऊपर तथा पीछे ढाल, तीरोंसे भरा तरकस और हाथमें धनुष । उसका नाम था 'वैराग नाग नतुवा ।' (२) कल उपवासका दिन था और आज था उसके पारणे का दिन । नतुवा आसन पर पारणा करने को बैठा ही था कि उसी समय भेरी की ध्वनि उसके कानोंमें पड़ी । नगर के शान्तिपूर्ण वातावरण में कुछ असाधारण उपद्रव जगने की उसे आशंका उत्पन्न हुई । भोजन त्याग कर वह उसी समय For और बाहर आया । नगर पर किसी शत्रु सैन्यने आक्रमण किया है, आक्रमणका प्रतिकार करने के लिए स्वदेश और स्वजनोंके रक्षणार्थ राजाने समस्त वीर क्षत्रिय सैनिकों को अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित होनेका निमंत्रण दिया है । यह उसने ज्ञात किया । योद्धाका साज सजकर, इष्ट देवका स्मरण कर, माता पिता के आशीर्वाद और वीर पत्नीके वीरोत्तेजक शब्दोंसे उत्तेजित नतुवा शत्रु दलका सामना करने के लिए बाहर निकल पड़ा। (३) वीरता के कारण सेनामें उसका पद ऊँचा था, वह रथी था । बाहर रथ तैयार था, अधीर हुए उन्मत्त घोड़े चारों पैरोंसे हवामें उड़ने को तैयार हो रहे थे । सारथी कठिनाई से उन्हें स्वाधीन रख रहा था । शासन देवका स्मरणकर वीर नतुवा रथपर सवार हुआ । पृथ्वीको कंपाते हुए घोड़े प्रबल वेगसे उड़ने लगे । वह क़िले के बाहर अपनी सेना में सम्मिलित Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० अनेकान्त [फाल्गुन वीर-निर्वाण सं० २४६६ हुआ। सामने शत्रु दल कटिवद्ध था, रणभेरी निकलने लगीं, वीरत्व उमड़ आया, नसोंको तोड़ फिरसे भारी उत्साहके साथ बजी और युद्धका कर बाहिर पड़ने के लिए रक्त उभरने लगा । डोर भीषण वेग प्रारम्भ हुआ। को कान पर्यंत खेंचकर उसने सामने एक भीषण ___ युद्ध नवीन नहीं था, पैदलसे पैदल, हाथीसे बाणका प्रहार किया, बाणके वेगके साथ साथ हाथी और रथीसे रथी लड़ने लगे। मीलों तक उसका भीषण परिणाम हुआ। प्रतिस्पर्धीका रथ गोला फेंकनेवाली तोपों, जहरीली गैसों और टूटा, घोड़ा मरा, रथवाह कभिदा और सवारको घातक यंत्रोंका वर्तमानमें जितना मान है इससे छातीको तोड़ता हुआ तीर उस पार निकल गया। कहीं अधिक मान प्राचीन युद्ध पद्धतिमें मनुष्यको नतुवाका कर्तव्य पूर्ण हो चुका । उसने मातप्राप्त था। भूमिका ऋण चका दिया, छाती में से तीर निका लते ही प्राण निकल जायेंगे । अब युद्धको आगे हमारा रथी नायक यद्ध विद्यामें निपुण निर्भय चलाने के लिए वह असमर्थ हो चका था। प्रकृति शूरवीर और अपना कर्तव्य पालन करने में सदा सावधान रहनेवाला धार्मिक योद्धा था। युद्ध भूमिके समीप एक वृक्ष था, वह रथसे सामने दूसरा रथी था, मोरचा माँडकर नतुवा उतरा और शस्त्रास्त्र उतार डाले । पद्मासन उसके सन्मुख डट गया। लगाया, सन्यास ग्रहण किया और जागत आत्मा ___ "इस यद्धके कारण हम नहीं, तुम्हारे राजाका के ज्वलंत भावोंमें तन्मय होगया । उसने तीर राज्य-लोभ है, तुम हमारे ऊपर आक्रमण करने निकाला, रक्त की धार बह उठी । मानव-जीवन आए हो, तुम्हारी युद्ध तृष्णाका प्रतिकार और कृतार्थ करने वाले दृढ़ प्रणी-कर्मठ, वीर नतुवाने अपना संरक्षण करनेके लिए हमें इस युद्ध में कर्तव्य परायणताकी जागृत ज्योतिकं सामने, उपप्रवृत्त होना पड़ा है । राजाज्ञासे निर्दोष सैनिकोंका वासका पारणा पूर्ण किए बिना ही, खुशी खुशी वध करनेवाले ओ वीर ! सावधान हो, आयध ले इस नश्वर शरीर का त्याग किया। और मेरे ऊपर वार कर” दाएँ हाथपर लटकते हुए सुख सम्पत्ति को लात मारने वाले, शरीरसे तरकसमेंसे एक बाण निकालकर धनुषपर चढ़ाते ममत्व हटा अपने कर्तव्य पालनमें अटल रहने हुए प्रतिद्वंदीको लक्षितकर नतुवाने कहा। वाले, उज्वल अहिंसाकै लच्च आदर्श पर निश्चल शब्दका उच्चारण समाप्त होनेके प्रथम ही रह स्वदेश संरक्षणकी आज्ञा शिरोधार्य करने सनसनाष्ट करता हुआ एक बाण कवचको छेदकर और युद्ध भूमिमें-कर्मभूमिमें प्राण त्यागने वाले मतुवाको छातीमें भिद गया, प्रचंड ज्वालसे वीरका अओ विजेता जैन वीर ! तुझे सहस्रों धन्यवाद हैं। रक्त खौलने लगा, नेत्रोंसे ज्वलंत अग्निकी लपटें Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरल योगाभ्यास [ लेखक – श्री हेमचन्द्रजी मोदी ] 'नेकान्त' के प्रथम वर्ष की संयुक्त किरण नं० ८०६ १० में मैंने ' योगमार्ग' शीर्षक एक लेख लिखा था और उसमें योगविद्या के महत्व और उसके इतिहास पर कुछ प्रकाश डाला था । अब मैं 'अनेकान्त' के पाठकों को योगाभ्यासके कुछ ऐसे सरल उपाय बतलाना चाहता हूँ जिनसे इस विषय में रुचि रखनेवाले सजन ठीक मार्गका अनुसरण करते हुए योगाभ्यास में अच्छी प्रगति कर सकें और फलतः शारीरिक तथा मानसिक शक्तियोंका विकासकर अपने इटकी सिद्धि करने में समर्थ हो सकें । लेख में इस बातका विशेष ध्यान रखा गया है कि हरेक श्रेणी के लोग गहस्थ, ब्रह्मचारी, मुनि यदि सब ही इससे लाभ उठा सकें। गृहस्थोंके लिये ऐसे अभ्यास दिये जायेंगे जिन्हें वे बिना अड़चन के और बिना कोई खास समय दिये कर सकें; तथा जिनके पास समय है उनके लिये ऐसे अभ्यास दिये गये हैं जिनसे कमसे कम समय में अधिक से अधिक लाभ उठाया जा सके । साथ ही, मौके मौकेपर मैंने अपने अल्प समय के अनुभवोंका हाल भी लिख दिया है, जिनसे कि मुमुक्षुत्रोंको सहायता मिल सके । वास्तव में योग ही एक ऐसी विधा है जिसकी सबको समानरूपसे आवश्यकता है । भारतवर्ष के सभी विज्ञानों-सभी शास्त्रों का अन्तिम लक्ष्य और यहाँ तक कि जीवनका भी अंतिम लक्ष्य मोक्ष है, और योग वह सीढ़ी है जिससे होकर ही हरेकको चाहे वह मुनि हो या गृहस्थी, वैया करण हो या नैयायिक और चाहे वैद्य हो अथवा अन्य और कोई - गुज़रना पड़ता है । योगका ही मोक्षसे सीधा सम्बन्ध है । श्री हरिभद्रसूरि कहते हैं: विद्वत्तायाः फलं नान्यत्सद्योगाभ्यासतः परम् । तथा च शास्त्रसंसार उक्तो विमलबुद्धिभिः ॥ ५०७ — योगबिन्दु अर्थात् – योगाभ्यास से बढ़कर विद्वत्ताका और कोई फल नहीं है; इसके बिना संसारकी अन्य वस्तुनोंके समान शास्त्र भी मोहके कारण हैं, ऐसा विमल बुद्धियोंने कहा है । सम्यग्ज्ञानकी विरोधिनी तीन वासनायें हैं और ये वासनायें बिना योगाभ्यास के नष्ट नहीं होतीं । जैसा कि कहा है लोकवासनया जन्तोः शास्त्रवासनयापि च । देहवासनया ज्ञानं यथा वचैव जायते ॥ ४ । २ जन्मान्तरशताभ्यस्ता मिथ्या संसारवासना । चिराभ्यासयोगेन विना न चीयते क्वचित् ॥१६॥ शुक्ल यजुर्वेदान्तर्गतमुक्तिकोपनषिद् अर्थात् - लोकवासनासे, शास्त्रवासनासे और देहवासनासे जीवको ज्ञान नहीं होता । जन्म-जन्मान्तरोंसे अभ्यास की हुई संसारवासना बिना योगके चिरकालीन अभ्यासके क्षीण नहीं होती । इस प्राक्कथन के बाद अब योगके प्रथम और सर्व प्रधान अभ्यासकी चर्चा की जाती है । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ अनेकान्त [फाल्गुन, वीरनिर्वाण सं० २४६६ प्रथम अभ्यास अवस्थामें ही सताती हैं; क्योंकि यदि उसे अपने स्वरूप का पूरा बोध हो और यह मालूम रहे कि मैं क्या कर सदा जाग्रत रहना रहा हूँ।तो वह कषायोंके फेरमें कभी न फंसे । अक्सर यह सदा जाग्रत एवं सावधान रहना, यह योगकी पहली देखा जाता है कि मनुष्य कोई काम करके उसी प्रकार सीढ़ी और प्रथम शर्त है। इस विषयमें कुछ योग- पछताता है जिस प्रकार कि स्वप्न में बुरी बातें देख कर निपुण प्राचार्यों के वाक्य जानने योग्य हैं: 'जागृत होने पर दुःखी होता है। वह सोचता है कि उस भवभुवणविभ्रान्ते नष्टमोहास्तचेतने । समय किसीने मुझे जगा क्यों न दिया ? सावधान क्यों एक एव जगत्यस्मिन् योगी जागर्त्यहर्निशम् ॥ न कर दिया ? हाय ! मुझे ऐसे विचार क्यों उत्पन्न हुए। _ -श्रीशुभचंद्राचार्य-ज्ञानर्णव यही बात वह तब सोचता है जब कि काम-क्रोधादिके अर्थात्-जन्म जन्मके भ्रमणसे भ्राँत हुए तथा आवेशमें कुछ कर बैठता है। मोहसे नष्ट और अस्त होगई है चेतना जिसकी, ऐसे यदि सूक्ष्मतासे देखा जाय तो संसारके बीजरूप जगत् में केवल योगी ही रातदिन जागता है। कर्मोंकी जड़ यह असावधानता ही है । यदि यह निकल कालानलमहाज्वालाकलापि परिवारिताः। जाय तो नवीन कर्मोंका आस्रव बिल्कुल रुक जाय मोहांधाः शेरते विश्वे नरा.जाग्रति योगिनः॥१० तथा पुराने कर्म बिना किमी प्रतिक्रियाके नष्ट होते चले -श्रीनंदिगुरुविरचित योगसारसंग्रह जायँ । यह सावधानी या जाग्रति सबसे प्रधान योग है, अर्थात्-कालरूपी महा अग्निकी ज्वालाकी कला- इसके बिना और सब योग वृथा है; क्योंकि अक्सर ओंसे घिरे हुए इस विश्वमें मोहाँध लोग सोते हैं और देखा जाता है कि बहुत से योगियोंमें संवर-निर्जराकी, योगी लोग जाग्रत रहते हैं। अपेक्षा प्रास्रव-बन्ध ही बढ़ जाता है । जा णिसि सयलह देहियह जोगिहु तहिं जग्गेइ। अनेक बार यह ही देखने में आया है कि बहुतसे जहिं पुणु जग्गइ सयलु जगु सा णिसि मणिवि सुवेह॥१७३ लोग काम-क्रोधादिका कारण न मिलने देने के लिये -श्री योगीन्दुदेव-परमात्मप्रकाश जंगल-पहाड़ आदिका आश्रय लेते हैं; परन्तु स्वप्नोंके अर्थात्-जो सब देहधारिजीवोंकी रात्रि है उसमें समय वे भी असंख्य कर्मोका बन्ध कर लेते हैं। इस योगी जागता है और जहाँ सारा जगत् जागता है वहाँ लिये योगीको चाहिए कि वह रात्रिको भी सावधान रहे। योगी उसे रात्रि समझकर (योगनिद्रामें) सोता है। दिनकी अपेक्षा काम-क्रोधादि रिपु रातको ही अधिक __योगका सर्वप्रथम उद्देश्य कर्म के परमाणुओंका सताते हैं । वैज्ञानिकोंका कथन है कि इसका सूर्यसे संवर-अर्थात् उन्हें लगने से रोकना है । ये कर्मके पर- सम्बन्ध है । माणु मनुष्यको अपने स्वरूपकी असावधानी-सुषुप्तिकी योगके ग्रन्थोंमें जो यह जाग्रत रहनेकी क्रियाका अवस्थामें ही लगते हैं । जबसे यह जीव संसारमें जन्मता उपदेश दिया है इसकी खोज में मैंने बहुत दिन सोचहै तबसे मृत्युपर्यन्त वह जागनेकी अपेक्षा सोता ही विचार और प्रयोगोंमें बितायें और तब वह क्रिया बड़ी अधिक है। काम-क्रोधादि कषायें पप्त मुश्किलसे मेरे हाथ लगी। यह क्रिया मैंने आज तक Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३. किरण ५ ] किसी ग्रन्थ में नहीं देखी; क्योंकि योगग्रन्थोंमें अधिकांश बातें गुरुगम्य और अनुभवगम्य ही रक्खी गई हैं; पढ़ कर कोई अभ्यास नहीं कर सकता तथा राजयोग के सच्चे गुरु मिलना एक तरह से असंभवसा है । इस क्रिया के बतलाने के पहले निद्राका सूक्ष्म विश्लेकरना आवश्यक है । यह विश्लेषण सांख्य-पद्धतिसे होगा । निद्रा तीन प्रकारकी होती है-सात्विक, राजसिक तामसिक । इन सब प्रकारकी निद्राओं में तमोगुणकी प्रबलता रहती है। जिसमें सत्वगुणकी ही पूर्ण प्रचलता हो उसे योगनिद्रा कहते हैं, वह इन तीन प्रकारोंसे दी है। सरल योगाभ्यास t सत्वगुण श्रात्माका चैतन्यगुण है, इसमें निर्मलता और व्यवस्थिति रहती है । रजोगुण क्रियाशीलताका गुण है और तमोगुण निष्क्रियता, जड़ता और अँधकार गुण है। जिस निद्रा में तमोगुणका नम्बर पहला और सत्वगुणका दूसरा होता है उसे सात्विक निद्रा कहते हैं । जिस निद्रा में तमोगुणका नम्बर वही प्रथम, परन्तु रजोगुणका नंबर दूसरा होता है उसे राजसिक निद्रा कहते हैं, और जिसमें तमोगुणका नम्बर प्रथम तथा द्वितीय दोनों ही रूप है उसे तामसिक निद्रा कहते हैं । सात्विक निद्राको सुषुप्ति कहते हैं, इसमें स्वप्न नहीं ते तथा 'मैं हूँ' इसका मान रहता है तथा जीव विश्रांति और सुखका अनुभव करता है: सुषुप्ति काले सकले विल्लीने तमोभिभूतः सुखरूपमेति । — कृष्णयजुर्वेदीय कैवल्योपनिषद् | अर्थात् - सुषुप्ति के समय में तमोगुणसे अभिभूत होकर सब कुछ विलीन हो जाता है और जीव अपनेको ३४३ सुखरूप अनुभव करता है । राजसिक निद्रा में स्वप्न देखता है परन्तु इन स्वप्नों में वह दृष्टा स्वप्न लोकके सृष्टा के रूपमें होता है और देख देखकर सुख-दुखका अनुभव करता है । स्वप्ने स जीवः सुखदुःखभोक्ता स्वमाययाकल्पितविश्वलोके । -- कैवल्योपनिषद् अर्थात् - यह जीव स्वप्न में अपनी मायासे बनाये हुए विश्वलोक में सुख-दुःखका भोग करता है । तामसिक सुषुप्ति में मनुष्य को यह खयाल ही नहीं रहता कि मैं कौन हूँ और क्या कर रहा हूँ । उस समय विषयों के आक्रमण होने पर वह विमूढ़ जड़के समान आचरण करता है । राजसिक सुषुप्ति में अच्छे बुरेका कुछ ज्ञान रहता है परन्तु तामसिक निद्रामें वह नहीं रहता । सात्विक निद्राके बाद मनुष्य में फुर्ती रहती है और वह खुश होता है | राजसिक निद्राके वाद मनुष्य कुछ अन्यमनस्क रहता है तथा उसे विश्रांति के लिये अधिक सोनेकी आवश्यकता होती है । परन्तु तामसिक निद्राके बाद मनुष्य को ऐसा अनुभव होता है मानो वह किसी वजनदार शिला के नीचे रात्रि भर दबा पड़ा रहा हो । योगग्रंथों में मनुष्य शरीर के तीन विभाग किये हैं, जिन्हें तीन लोकका नाम दिया गया है तथा कहा गया है कि मन या लिंगात्मा के सहित प्राण जिस लोक में जाते हैं श्रात्मा वहां सुख-दुःखोंका अनुभव करता है । इस विषय में ' योगमार्ग' शीर्षक लेख देखें । स्वप्न के समय प्राण इन भिन्न भिन्न लोकों में विहार करता है, जिससे विचित्र विचित्र दृश्य देखता है:पुरत्रयो क्रीडति यश्च जीवस्ततस्तु जातं सकलं विचित्रम् । - कैवल्योपनिषद् Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ अनेकान्त सोने के पहले उत्तम विचारोंसे तथा शीर्षासन के अभ्याससे अथवा कमरके नीचे तकिया रखकर सोने से भी स्वप्न नहीं आते, क्योंकि इनसे प्राणोंकी गति ऊर्ध्व होती है, यह मेरा खुदका अनुभव है । प्राणोंकी गति निम्न होने से कामुक स्वप्न आते हैं और उत्तेजना होती है। हमेशा जाग्रत होने के अभ्यासके लिये सबसे पहले जाग्रत अवस्था में भी जो असावधानी रहती है उसे दूर करना चाहिए। क्योंकि पुनश्च जन्मतिरकर्मयोगात्स एव जीवः स्वपिति प्रबुद्धः । — कैवल्योपनिषद् अर्थात्-जन्मांतरोंके कर्मयोगके कारण वही जीव जमा हुआ भी सोता है। सदा सतत् जाग्रत रहनेका अभ्यास करनेके लिये मनुष्यको चाहिये कि वह सुबह उठने के बादसे रात्रिको सोने तक हर एक काम करते समय मनन- पूर्वक इस बातका खयाल करता रहे कि वह क्या कर रहा है। उठते समय मन ही मन जाप करे कि मैं उठ रहा हूँ। बैठते समय जाप किया करे कि मैं बैठ रहा हूँ । इतने पर भी यदि खयाल भूल जाय, तो यह जाप ज़ोर ज़ोर से बोला जाना चाहिए, जिसमें सबको सुन सड़े; परन्तु मन ही मन जाप करने का फल अधिक है । इस जपका शुभ परिणाम तुम्हें एक ही दिन में मालूम होगा । यहाँ तक कि रात्रि में सोते वक्त ही तुम्हारे अन्दर यह जाप चालू रहेगा तथा स्वप्न यदि कभी श्रावेंगे तो उसमें भी तुम अपनेको जाप करते हुए पानोगे । उस समय तुम्हारी प्रांतरिक सदेंसद्विवेकबुद्धि जाग्रत रहेगी और हरेक खोटे कामोंसे बचाती रहेगी। जब तुम्हारी उठनेकी इच्छा होगी तब ही तुम्हारी नींद खुलेंगी और इस क्रिया के फल-स्वरूप [फाल्गुन, वीरनिर्वाण सं० २४६६ तुम्हें श्रात्म दर्शन भी हो सकेगा, जो कि असली सम्यग्दर्शन है । इस अभ्यासपूर्वक तुम जो भी सांसारिक व्यावहारिक काम करोगे उन सबमें तुम्हारी अत्यल्प आसक्ति होंगी, जिसका परिणाम यह होगा कि कर्मोंका आसव अत्यल्प हो जायगा। यह कहना भी अत्युक्तं न होगा कि किसी समय श्रास्रव बिल्कुल बन्द भी हो जायगा; क्यों कि विषयैर्विषयस्थोऽपि निरासंगो न लिप्यते । कर्दमस्थो विशुद्धात्मा स्फटिकः कर्दमैरिव ॥ ६०॥ नीरागोऽप्रासुकं द्रव्यं भुंजानोऽपि न बध्यते । संखः किं जायते कृष्णः कर्ममादौ चरत्रापि ॥१७॥४ द्रव्यतो यो निवृत्तोऽस्ति स पूज्यो व्यवहारिभः । भावतो यो निवृत्तोऽसौ पूज्यो मोक्षं यियासुभिः॥ ६ - अमितगति योगसार अर्थात् विषयों में रचापचा होने पर भी निरासंग (अनासक्त ) जीव उनसे उसी प्रकार लिप्त नहीं होता जिस प्रकार कि विशुद्धात्मा स्फटिक कीचड़ में रह कर भी उससे लिप्त नहीं होता । नीराग मनुष्य अप्रासुक द्रव्य खाकर भी उससे बद्ध नहीं होता । कीचड़ में रहकर क्या शंख काला हो जाता है ? बाह्य वेशा दिसे जो नि. वृत्त मालूम होता है उसकी पूजा संसारी लोग करते हैं, परन्तु मोक्ष जाने की इच्छा रखने वाले ऐसे मनुष्य की पूजा करते हैं जो भावसे निवृत्त है । हम ऐसे कई गृहस्थाश्रमी साधुयोंका चरित्र सुन चुके हैं, जो संसारमें रहकर भी उससे निर्मोही रह सके, परंतु ऐसे मनुष्य करोड़ोंमें एक दो ही होते हैं । महात्मा गांधी ऐसे पुरुषोंमें से एक हैं। करोड़ों रुपये आने जाने में इन्हें हर्ष शोक नहीं होता और न अपने कार्यके पलट जाने से ही इन्हें हर्ष - शोक होता है । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ५] सरल योगाभ्यास .. ३४५ इस योगकी साधक एक हठयोगकी क्रिया भी दूसरा अभ्यास वर्णित कर देना हम यहाँ उचित समझते हैं । हठयोग हमेशा राजयोगका सहायक होताहै। वह अकेला कोई प्रेमयोग कार्य सिद्ध नहीं कर सकता तथा राजयोग भी हठयोगके जा घट प्रेम न संचरै सो घट जान मसान । बिना अपूर्ण और समयसाध्य तथा अनेकबार असंभव जैसे खाल लुहारकी सांस लेत बिनु प्रान ॥ हो जाता है। -कबीर किसी समतल स्थानमें चित्त लेट जाश्रो तथा नख प्रेमयोगके विषयमें सबसे पहले घेरण्डसंहिताका पर्यंत समस्त नाड़ियोंमेंसे प्राणशक्ति-मन-खींच कर निम्न वाक्य जानने योग्य है:नाभिमें,हृदयमें अथवा भूमध्यमें धारण करनेकी कोशिश स्वकीयहृदये ध्यायेदिष्टदेवस्वरूपकम् । करो, तथा ऐसा करते समय पाँवके अंगूठेको स्थिरदृष्टि - चिंतयेत् प्रेमयोगेन परमालादपूर्वकम् ॥ से देखते रहो। ऐसा करनेसे श्वासोच्छवासकी गति आनंदाश्रुपुलकेन दशाभावः प्रजायते । धीमी पड़ जायगी तथा हाथपैर हिलाने डुलानेसे मुर्दे के समाधिः संभवेत्तेन संभवेच मनोन्मनी ॥ समान दिखेंगे-डोलेंगे तथा धीरे धीरे एक मीठी निद्रासी इसमें बतलाया है कि अपने हृदयमें इष्टदेवके आ जावेगी । इस निद्राका नाम 'योगनिद्रा' या 'मनो- स्वरूपका ध्यान करके परम आहादपूर्वक प्रेमयोगसे न्मनी' है और करीब १ माह के अभ्याससे सिद्ध हो उसका चिंतवन करे । ऐसा करनेसे इस सारे शरीरमें जाती है । यह बच्चोंको सबसे जल्दी, जवानोंको देरसे रोमांच हो आता है, आँखोंसे आनंदके अश्रु गिरने और बूढ़ोंको बहुत देरसे सिद्ध होती है । इस अभ्या- लगते हैं और कभी कभी समाधि लग जाती है तथा सके करने के पहले शवासनका अभ्यास करना चाहिए। मनोन्मनी (योगनिद्रा) भी संभव होती है। इस आसनम हाथ-पैर आदि अंग इतने ढीले छोड़ने वास्तवमें श्रात्माका अात्माके प्रति जो आकर्षण पड़ते हैं कि वे मुर्दे के अंगोंके समान हो जाते हैं । किसी है उसका नाम प्रेम है । प्रेम वह भाग है जो न जाने मित्रसे. हाथ-पैर हिलवा-डुलवाकर इस श्रासनकी परीक्षा कितने कालसे और न जाने किसके लिये मनुष्यमात्रको करवा लेनी चाहिये । विकल कर रही है। कभी कभी यह आग किसीके संगसे, किसीके स्पर्शसे कुछ समय के लिये ठंडी हुईसी इस अभ्यासके सिद्ध होने पर तुम देखोगे कि मालूम होती है परन्तु फिर वह उससे कहीं तीव्र गतिसे जितनी विश्रांति और लोग दस घंटेकी नींदसे भी नहीं प्रज्वलित हो उठती है ! कवियोंमें वह काव्यरूपमें, तपपाते उतनी विश्रान्ति तुम दो घंटेकी नींदसे ही प्राप्त कर स्वियोंमें तपरूपमें, योगियोंमें ध्यानरूपमें, पक्षियोंमें सकोगे । नैपोलियनको यह निद्रा सिद्ध थी, वह २४-२४ गानरूपमें तथा सिद्धोंमें मैत्री, करुणा, क्षमा और श्रघंटेकी थकावट घोड़े पर चढ़े-चढ़े २०-२५ मिनिटकी हिंसारूपमें फूट पड़ती है । नींदसे निकाल लेता था । सुनते हैं कि महात्मा गाँधीको विश्व में प्रेमके सिवाय एक और भी आकर्षण है भी यह निद्रा सिद्ध है; योगियोंमें यह साधारण वस्तु है। जो लोकमें कभी कभी भूलसे प्रेमके नामसे पुकारा Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 308 जाता है । यह आकर्षण प्रत्येक जडवस्तु में है । काँच के किन्हीं भी दो समतल टुकड़ों को एक दूसरेपर रखनेसे वे चिपकसे जाते हैं और जोर देनेपर छूटते हैं । इसी प्रकार लोहे के टुकड़ोंमें, लोहे और लोहकांत (चुंबक) में, लोहांत के विभिन्न ध्रुव ( Poles ) में तथा एक ही प्रकारकी दूसरेसे विभिन्न गुण वाली सृष्टियों – नर और मादा में - यह आकर्षण बहुत ही प्रबल है । मनुष्य आदि उच्च प्राणियों में उक्त दोनों प्रकारके आकर्षणों का एक विचित्र संमिश्रण है । अनेक बार देखा जाता है कि श्राध्यात्मिक प्रेम अनेक बार इस शारीरिक जड मोहमें परिणत होता है और शारीरिक प्रेम अनेक बार आध्यात्मिक रूप ले लेता है । स्त्रीपुरुषका श्राकर्षण इसी प्रकारका है । पदार्थों में जो आकर्षण है वह प्रेमका असली रूप नहीं है वह उसका बहुत ही विकृत और तामसी रूप है । आध्यात्मिक प्रेम ही सत्य है और सब प्रेम 1 झूठ हैं, माया हैं और मोह हैं । आध्यात्मिक प्रेमग्राह्य है और जड प्रेम त्याज्य है । आध्यात्मिक प्रेम आत्मिक 1 उन्नतिका कारण है और जड प्रेम श्रवनतिका । आत्मा के विकास के लिये प्रेमकी बहुत बड़ी श्रावश्यकता है | वह विश्वके प्रत्येक प्राणी के प्रति प्रेम ही था जिसने भगवान महावीर और बुद्धको महान् बनाया । वह सीता के प्रति प्रेम ही था जिसने रामचन्द्रजीको महान् बनाया और जिसे कवि लोग गाते गाते नहीं थकते । शारीरिक प्रेम भी वियोग होने के बाद श्राध्यात्मिक प्रेम में परिणत हो जाता है । प्रेमका सौन्दर्य वियोग में ही है, संयोग में तो उसका शतांश भी नहीं है । मेघदूत इसी लिये सर्वोत्तम काव्य है— उसमें हमें उस चिरंतन वियोगका एक आभास मिलता है और आत्मा उसे तस पिपासा से पीती जाती है। e [फाल्गुन वी - रनिर्वाण सं० २४६६ जिन लोगों में उस सनातन वियोगकी चिरंतन अग्नि जल रही है वे ही सर्वश्रेष्ठ कवि हैं, दार्शनिक हैं और योगी हैं। जिनमें वह अग्नि विभ्रांतिसे दब गई है - जिनकी विषयलालसनोंने उसे दबा दिया है— जिनके कर्म उसे जानने नहीं देते उनका कर्तव्य है कि वे भ्रांति दूर करें – विषयोंसे बचें। यह वह अग्नि है जिसके तीव्र होनेपर सब कर्ममल काफूरके समान उड़ जाते हैं। कहा भी है- "प्रेमाग्निना दूह्यते सर्वपापं ।” . प्रेमके विकास के लिये योगद्वारा प्रदर्शित जुदी- जुदी प्रकृति के लोगोंके लिये साधककी योग्यतानुसार जुदे-जुदे मार्ग हैं। सात्विक प्रकृति के साधकोंके लिये ईश्वर भक्ति या ईश्वर-प्रेम उत्तम उपाय है, ईश्वरप्रेम क्या और किस तरह किया जाना चाहिए, यह बताने के पहले यह जानना आवश्यक है कि दरअसल में ईश्वर है क्या वस्तु ? ईश्वर शब्द प्राचीनसे प्राचीन वेदादि ग्रंथों में तीन अर्थों में आया है, इनको समझ लेनके बाद इनका समन्वय अनेकान्त दृष्टिसे किया जा सकता है । ईश्वर या ब्रह्मका प्रथम अर्थ आध्यात्मिक है । इस अर्थ में आत्मा ही शाश्वत और अविनाशी ब्रह्म है । यथा पुरातनोऽहं पुरुषोऽहमीशो हिरण्मयोऽहं शिवरूपमस्मि । वेदैरनेकैरहमेव वेद्यो विश्वविद्वेदविदेव चाहं । न पुण्यपापे मम नास्ति नाशो न जन्मदेहेन्द्रिय बुद्धिरस्ति । समस्तसाचि सदसद्विद्दीनं प्रयाति शुद्धं परमात्मरूपम् । श्रनेन ज्ञानमाप्नोति संसारार्णवनाशनं । तस्मादेव विदित्वैनं कैवल्यं पदमश्नुते ॥ — अथर्ववेदीया कैवल्योपनिषद् ईश्वरका दूसरा अर्थ प्राधिभौतिक या सामाजिक अनेकान्त Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ५ ] मूर्त है । इस अर्थ में ईश्वर राष्ट्रकी, समाजकी, देशकी आत्मा है जिसके द्वारा राष्ट्र, समाज या देशका प्रत्येक व्यक्ति स्पंदित, प्रेरित या प्रभावित होता है। इस राष्ट्रपुरुष, समाज-पुरुष, देश - पुरुष या विश्व - पुरुष के जाग्रत या सुप्त होनेपर जुदे जुदे सत्, कलि श्रादि युगका विर्भाव होता है, ऐसा ऐतरेय ब्राह्मण में लिखा है । इस समाज-पुरुष या राष्ट्र-पुरुष की जाग्रति के चिह्न हम वर्तमान भारतीय आन्दोलन में देख रहे हैं । यह पुरुष समष्टिरूप है, इसीलिये कहा है कि सरल योगाभ्यास सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् । -- ऋग्वेद-पुरुषसूक्त अर्थात् -- यह हज़ार सिरवाला, हज़ार आँखोंवाला और हज़ार पैरों वाला पुरुष है । जिसप्रकार हम यह कहें कि इस सभा या परिषद् के हज़ार सिर हैं अथवा भारत माता के ३०- कोटि बच्चे, उसी प्रकारका यह कथन है । इस पुरुषके - कलिः शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः । उत्तिष्ठस्त्रेता भवति कृतं संपद्यते चरन् ॥ - ऐतरेय ब्राह्मणः । सोनेपर कलि, जंभाई लेनेपर द्वापर, खड़े होनेपर त्रेता और चलने लगने पर सत्युग होता है । वर्णोंके वर्गीकरण के बाद जिस समाज पुरुष- ब्रह्मवक्त्रं भुजो क्षत्रं कृत्स्नमूरूदरं विशः । पादौ यस्याश्रिताः शूद्राः तस्मै वर्णात्मने नमः ॥ के ब्राह्मण मुखरूप हैं, क्षत्रिय भुजारूप हैं, वैश्य पेटरूप हैं तथा शूद्र पैरोंके आश्रित हैं, उस वर्णात्माको मेरा नमस्कार है । ईश्वरका तीसरा अर्थ आधिदैविक है । जिस प्रकार जैन लोग त्रिलोकको पुरुषाकार मानते हैं उसी प्रकार वेदोपनिषद् और योग के ग्रन्थोंमें भी माना है । इसके ३४० आगे उनकी कल्पना इतनी और आगे बढ़ी है कि इस विराट् पुरुषाकृति में किसी नियंताशक्ति श्रात्माकी आ श्यकता है, जिसकी कल्पना विश्वप्रकृति के रूपमें ही की गई है । यथा— अग्निर्मुर्धा चक्षुषी चंद्रसूर्यौ दिशः श्रोत्रे वाग्वृत्ताश्च देवाः । वायुः प्राणो हृदयं विश्वमस्य पद्भ्यां पृथिवीह्येष सर्वलोकान्तरात्मा ॥ — मुण्डकोपनिषद् | सर्वा दिशः ऊर्ध्वमधश्च तिर्यक् प्रकाशयन् भ्राजते यद्वनड्वा एवं सदेवो भगवान्वरेण्यो विश्वस्वभावादधितिष्ठत्येकः ॥ -- श्वेताश्वतरोपनिषद् | अर्थात् - जिसकी मूर्छा श्रमि है, सूर्य-चन्द्र आँखें हैं, दिशायें कान हैं, वचनादि देव हैं, वायु प्राण हैं, विश्व हृदय है, पैरोंमें पृथ्वी है ऐसा सर्वलोकाँतरात्मा है । ऊपर नीचे बाजूकी सारी दिशाओं को प्रकाश करने वाला जो भगवान् वरेण्यदेव है वह विश्वके रूपमें अवस्थित है । इस विश्वको परिचालित करनेवाली वह शक्ति कौनसी है, इस विषय में मतभेद हैं। जडवादी वैज्ञानिक उसे 'विद्युत' मानते हैं तथा कोई उसे 'सूर्य' मानते है, . तथा अध्यात्मवादी उसे 'सत्य' अथवा 'अहिंसा' मानते हैं; क्योंकि इन्हीं नैतिक नियमोंसे सब बंधे मालूम होते हैं । महात्मा गाँधी 'सत्य' को ही परमेश्वर मानते हैं । कुछ भी हो, जैनधर्मसे इनका कोई विरोध नहीं आता; क्योंकि इनमें से कोई भी इस ईश्वरको मनुष्यके समान चेतन तथा रागद्वेषपूर्ण नहीं मानता। जैनधर्म तो बाइबल, कुरान और भारतीय पाशुपत और वैष्णवमत रागद्वेषी व्यक्तिगत ईश्वरका विरोधी है । जैनधर्मानुसार मुक्त आत्माएँ सब एकसी ही हैं । उनमें जो भेद था वह काल और कर्मकृत् था, और Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ काल और कर्म नष्ट हो जानेपर वे एक ही हैं क्योंकि कालकर्म कुछ जीव थोड़े ही हैं । जैसा कि निम्न वाक्यों से प्रकट है: जीवहं भेउ जि कम्मकिउ, कम्मुवि जीउ ण होइ । जेण विभिण्ड होइ तह, कालु लहेविणु कोइ ॥ २३३ एक्क करे मा बिरि करि, मं करि वरणविलेसु । इकडं देवई जिं वसई, तिहुयणु एहु असेसु ॥ २३४ - योगीन्दु देव - परमात्मप्रकाश अर्थात् -- जीवों में जो भेद है वह कर्मोंका किया हुआ है, कर्म जीव नहीं होता किसी कालको पाकर उनके द्वारा ( कर्मों द्वारा ) वह विभिन्न होता है । इस लिये, हे योगी ! श्रात्माको एक ही समझ उन्हें दो मत कर और न उसमें कोई वर्ण भेद कर । यह अशेष त्रिभुवन एक ही देव द्वारा वसा है ऐसा समझ । अर्थात् सब जीवोंमें श्रात्माका दर्शन कर । ईश्वर के उपर्युक्त श्रर्थों पर विचार करनेते ईश्वर - प्रेमका मार्ग शीघ्र हाथ लग जायगा । सब जीवों में आत्माका दर्शन करो - समाजकी, देशकी तथा विश्व की प्रत्येक व्यष्टि पर प्रेम करो और उसकी सेवा करो । ईश्वरको पहिचानने का सेवासे बढ़कर स्पष्ट कोई उपाय नहीं है । बुद्धदेवने तो अपने भिक्षुत्रों को यहाँ तक उपदेश दिया है कि यदि तुम्हें समाधि द्वारा मोक्षकी भी प्राप्ति होने वाली ही हो और उस समय किसीको तुम्हारी सेवाकी आवश्यकता हो तो समाधि छोड़कर पहले उस प्राणीकी सुश्रुषा करो । मोह चाहे वह मोक्षका ही क्यों न हो, मोक्षका विधातक ही है । इसी प्रकार यदि देश तुम्हारा बलिदान चाहता है तो कायर बनकर यदि तुम मुनि हो जाओ और समाधि साध कर बैठो तो भी तुम्हें कुछ मिलने वाला नहीं है; क्योंकि कायरता से परब्रह्म प्राप्त नहीं होता । कायरता अशक्तकी बासना [फाल्गुन वीर- निर्वाण सं० २४६६ है । श्रीयोगीन्दुदेवने परमात्मप्रकाश में अच्छा कहा हैपरमसमाहि घरेवि मुणि, जे परबंभु ण जंति । ते भवदुक्ख बहुविहई, कालु अांतु सहति ॥ ३२४॥ अर्थात् — परमसमाधिको धारण करके भी जो मुनि परब्रह्मको नहीं प्राप्त होते वे अनेक तरहके संसारदुःख अनंतकाल तक सहते हैं । वास्तव में उनकी विषयवासना नष्ट नहीं होती, चाहे वह मोक्षकी ही क्यों न हो; क्योंकि वासना शक्तिसे ही उत्पन्न होती है । अनेकान्त बुद्धदेवने योगाभ्यासको गौण और सेवाधर्मको मुख्य रक्खा है, परंतु जैनादि धर्मोंमें दोनोंको समान कोटि में रखा मालूम होता है और मोक्ष के लिये दोनों का साथ साथ अभ्यास आवश्यक माना है। | जैनधर्म तथा वैदिक धर्म में सेवामार्ग के लिये तथा निम्न प्रकृति के लोगों में प्रेमके विकासके लिये गृहस्थाश्रम उपयुक्त माना गया है । राजसिक और सामसिक प्रकृतिवालोंके कठोर, स्वार्थी निष्प्रेम हृदय प्रायः विवाह के द्वारा ही मृदु, निःस्वार्थ और प्रेमसे भीने बनाये जा सकते हैं । सात्विक ईश्वर-प्रेमके लिये इन्हीं वस्तुओं की आवश्यकता है। शरीर और स्वास्थ्य पर भी इस प्रेमका बड़ा अच्छा असर होता है। पहले जो दुर्बल, शोकग्रस्त और दुखी होते हैं उनमें अधिकांश विवाह के बाद हृष्ट-पुष्ट, खुश और संतुष्ट मालूम होने लगते हैं । मस्तिष्क-विद्या ( Phrenology) तथा शरीर-विद्या के आचार्योंका कथन हैं कि प्रेमका असर शरीर के प्रत्येक अवयव पर अपूर्व दिखाई देता है । हृदय और फुप्फुसपर जब प्रभाव पड़ता है । मस्तक और हृदय इन दोनों को एक कर डलने की मंथन क्रिया शुरू हो जाती है । हृदय में रूधिरका प्रवाह तीव्र वेगसे बहने लगता है, फुप्फुसोंमें गतिका संचार होता है और मुख-गाल-श्रोष्ठ तथा नयन इनमें प्रेमकीलाली दौड़ श्राती है । मस्तिष्क Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ५] सरल योगाभ्यास के अन्दरकी प्राण-ग्रंथिका प्रदेश एक अजब प्रकारका गई है । जो ईश्वर-प्रेममें लीन रह सकते हैं वे प्रेमके लग जाता है, जिससे जिजीविषाकी वृद्धि सम्पर्ण लाभ ईश्वरप्रेमसे ही प्राप्त कर लेते हैं। प्रेमका होती है । प्रेमीके सहवास में सूखी रोटी भी मीठी लगती असर चाहे वह किसी प्रकारका क्यों न हो स्वास्थ्य और है, प्रेमके भावसे परोसा अन्न शुभ परिपाकको प्राप्त मनपर एक ही प्रकारका होता है। होकर शुभ भावोंको प्रदीप्त करने में बड़ा उपयोगी होता ईश्वरीय प्रेम निरंकुश और स्वतंत्र है, परन्तु अन्य है। इन भावोंके कारण मन अनेक सुखानुभव करताहै, प्रेम अन्य व्यक्तिपर आश्रित है। ईश्वरीय प्रेम प्रत्यत्तर जिससे शरीरका प्रत्येक अवयव संतुष्ट होता है और की अाशा नहीं रखता, परन्तु अन्य प्रकारका प्रेम प्रत्यअपना काम अच्छी तरह करता है। त्तरके बिना नष्ट हो जाता है। इस प्रकारके असंतुष्ट ___इससे पचनेन्द्रियों तथा अनेक संचालक मस्तिष्क प्रेमका असर शरीरपर संतुष्ट प्रेमसे ठीक उल्टा पड़ता के अवयवों पर गहरा लाभदायक असर होता है । इस है। अधिकाँश विधवायें बिना किसी दृष्ट कारणके प्रकार शरीरकी प्रत्येक शक्ति वृद्धिंगत होती है । रक्त, यकृत, हृदय, और फुप्फुसकी बीमारियोंसे पीड़ित रहती मांस, मेद, अस्थि, मजा शुक्र और ज्ञानतंतु पुष्ट होते हैं, इसका कारण असंतुष्ट प्रेम है--वे बेचारी पतिप्रेम हैं और शरीर देखनेमें सुंदर और मधुर हो जाता है। को ईश्वरप्रेममें लीन नहीं कर सकतीं । इसी प्रकार यकृत, पित्ताशय, और स्थलांत्र पर भी प्रेमका बड़ा पुरुष भी असंतुष्ट प्रेमके कारण अनेक बीमारियोंके लाभकारी असर पड़ता है । अनेक यकृत और स्थलांत्र शिकार होते हैं और इंग्लैंड वगैरह देशोंमें तथा भारत के रोगी विवाहसे अच्छे हो गये हैं । उत्कृष्ट और पवित्र में विवाहितों की अपेक्षा कुआरोंकी अधिक मृत्यु संख्या प्रेमका असर हृदयकी बीमारियोंको दूर करने में दिव्यौषधि होनेका कारण भी यही है । असंतुष्ट प्रेम आत्महत्याकी के रूप में होता है। मंदाग्नि और पाचन क्रिया के अनेक त्तिको उत्तेजित करता है। रोग शीघ्र ही दूर हो जाते हैं। प्रेमके विकासका राजमार्ग तो बिवाह ही है ।अन्य ऊपरके वर्णनको पढ़कर कोई यह न समझले कि मार्य साधारण लोगोंके लिए सुलभ नहीं हैं, परन्तु इस ये सब फायदे प्रेमके न होकर वीर्यपातके हैं। ऐसा स- में एक बड़ी भारी अड़चन है। अनेक बार मनुष्य इस मझना नितान्त भूल तथा भ्रम होगा; क्योंकि वीर्यपातसे से तीव्र मोहमें पड़ जाता है और विषयोंका गुलाम हो इन फायदोंमें उलटी कमी होने लग जाती है और प्रेम- जाता है । विवाह विषय-वासनाओंको जीतने का निर्विर के अच्छे असरको वीर्यपातका बुरा असर नष्ट कर देता कार बनने का--मार्ग होना चाहिए, न कि नारकी होने का है। यही कारण है कि जो दम्पति शुरूमें फायदा उठाते इस अवस्था में इन्द्रियां किस प्रकार सम्पर्ण रीलिसे जीती हुए मालूम पड़ते थे वे ही धीरे धारे रोगी और दुर्बल जा सकती हैं तथा नाडि-तन्तुओंमें प्रेमकी विद्युत् उत्पन्न हो जाते हैं। जिन दम्पतियों में असली प्रेम न होकर कर किस प्रकार प्राध्यात्मिक लाभ उठाया जा सकता विषयोंका प्रेम होता है उनकी भी यही दशा होती है । है, इस पर आगे के लेखमें विचार किया जायगा तथा परन्तु अनेकवार प्रेमका फायदा अन्य प्रकारके नक- राजयोग, लययोग और हठयोगकी कछ सानोंकी अपेक्षा अधिक भारी होने के कारण वीर्यपातका बताई जाएगी। यहाँ पर एक सूचना कर देना चाहता नकसान नहीं मालम होता। प्रेमसे अधिकतम लाभ हैं और वह यह है कि पाठक यदि विवाहित होमो उठाने के लिये ब्रह्मचर्यसे रहना ज़रूरी है। प्रेम के बंधन- देखें कि बीच बीचमें कुछ दिन के लिये अपनी स्त्रीको में बंधे हए स्त्री-पुरुष पर्ण नैष्ठिक ब्रह्मचर्य रखते हए उसके मायके भेज देनेसे. किस प्रकार उन कायदे अधिकतम मात्रामें प्राप्त करते हैं। होता है और निर्विकारता आती है। सालमें ऐसा २-३. जिन मनुष्योंकी प्रकृति उन्हें ईश्वरप्रेममें लीन नहीं होने दफे एक एक दो दो महीने के लिये करना अच्छा है। देती उनके लिये ही इस प्रकारके प्रेमकी व्यवस्था की इससे आध्यात्मिक प्रेम, भी बढ़ेगा। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होलीका त्यौहार [ सम्पादकीय ] -100090000 भारतके त्यौहारों में होली भी एक देशव्यापी मुख्य त्यौहार है । अनेक धर्म-समाजों में इसकी जो कथाएँ प्रचलित हैं वे अपनी अपनी साम्प्रदायिक दृष्टिको लेकर भिन्न भिन्न पाई जाती हैं । यहाँ पर उन सबके विचारका अवसर नहीं है। होलीकी कथाका मूलरूप कुछ भी क्यों न रहा हो, परन्तु यह त्यौहार अपने स्वरूपपरसे ममता और स्वतन्त्रताका एक प्रतीक जान पड़ता है; अथवा इसे सार्वजनिक हँसी-खुशी एवं प्रसन्न रहने के अभ्यासका देशव्यापी सक्रिय अनुष्ठान कहना चाहिये। इस अवसरपर हरएकको बोलने, मनका भाव व्यक्त करने, स्वाँग - तमाशे नृत्य गानादिके रूपमें यथेष्ट चेष्टाएँ करने, आनन्द मनाने और मानापमानका खयाल छोड़कर बड़ाई-छोटाई अथवा ऊँचता नीचताकी कल्पनाजन्य व्यर्थका संकोच त्यागकर - एक दूसरेके सम्पर्क में नेकी स्वतन्त्रता होती है। साथ ही, किसीके भी रंग डालने, धूल उड़ाने, हँसी मजाक करने तथा अप्रिय चेष्टाएँ करने श्रादिको स्वेच्छापूर्वक खुशीसे सहन किया जाता है- अपनी तौहीन ( मानहानि आदि) समझकर उस पर कोधका भाव नहीं लाया जाता, न अपनी पोज़ीशन के बिगड़ने का कोई खयाल ही सताता है, और यों एक प्रकार से समता - सहनशीलताका अभ्यास किया जाता है । अथवा यों कहिये कि इसके द्वारा राष्ट्रके लिये विघातक ऐसे रागद्वेषादि मूलके अनुचित भेद-भावोंको कुछ समय के लिये भुलाया जाता है- उन्हें भुलाने तथा जलाने तकका उपक्रम एवं प्रदर्शन किया जाता है— प्रौर इस तरह राष्ट्रीय एकताको बनाये रखने अथवा राष्ट्रीय समुत्थानके मार्गको साफ करनेका यह भी एक कदम अथवा ढंग होता है। 'होलीकी कोई दाद फर्याद नहीं' यह लोकोक्ति भी इसी भावको पुष्ट करती है, और इसलिये इस त्यौहारको अपने असली रूपमें समता और स्वतन्त्रताका रूपक ही नहीं किन्तु एक प्रतीक कहना ज्यादा अच्छा मालूम होता है । समय भी इसके लिये अच्छा चुना गया है, जो कि वसंत ऋतुका मध्यकाल होंनेसे प्रकृति के विकासका यौवन काल है । प्रकृति के इस विकाससे पदार्थ पाठ लेकर हमें उसके साथ साथ अपने देश-राष्ट्र एवं आत्माका विकास अथवा उत्थान सिद्ध करना ही चाहिये | उसीके प्रयत्नस्वरूप उसी लक्ष्यको सामने रख कर - यह त्यौहार मनाया जाता था, और तब इसका मनाना बड़ा ही सुन्दर जान पड़ता था । परन्तु खेद है कि आज वह बात नहीं रही ! उसका वह लक्ष्य अथवा उद्देश्य ही नहीं रहा जो उसके मूल में काम करता था ! उसके पीछे जो शुभ भावनाएँ दृष्टिगोचर होती थीं और जिन्हें लेकर ही वह लोक में प्रतिष्ठित हुआ था उन सब का आज अभाव है !! श्राज तो यह त्यौहार इंद्रियविषयोंको पुष्ट करनेका आधार अथवा चित्तकी जघन्यवृत्तियोंको प्रोत्तेजन देनेका साधन बना हुआ है, जो कि व्यक्ति और राष्ट्र दोनोंके ही पतनका कारण हैत्यौहार के रूप में उसका कोई भी महान् ध्येय सामने नहीं है । इसीसे होलीका वर्तमान रूप विकृत कहा जाता है, उसमें प्राण न होनेसे वह देश के लिये भाररूप है और इसलिये उसे उसके वर्तमान रूप में मानना उचित नहीं है। उसमें शरीक होना उसके विकृत रूपको पुष्ट करना है । यदि समता और स्वतन्त्रता के सिद्धान्त पर श्रव Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ५ ] लम्बित राष्ट्रीय एकता आदिकी दृष्टिसे चित्तकी शुद्धि को कायम रखते हुए यह त्यौहार अपने शुद्ध स्वरूप में मनाया जाय और उससे जनताको उदारता एवं सहनशीलतादिका सक्रिय सजीव पाठ पढ़ाया जाय तो इसके द्वारा देशका बहुत कुछ हित साधन हो सकता है और वह अपने उत्थान एवं कल्याणके मार्ग पर लग सकता है । इसके लिये ज़रूरत है काँग्रेस जैसी राष्ट्रीय संस्था Share की और इसके शरीर में घुसे हुए विकारों को दूर करके उसमें फिरसे नई प्राण-प्रतिष्ठा करने की । यदि कांग्रेस इस त्यौहारको हिन्दू धर्मकी दलदल से निकाल कर विशुद्ध राष्ट्रीयताका रूप दे सके, एक राष्ट्रीय सप्ताह श्रादिके रूपमें इसके मनानेका विशाल आयोजन कर सके और मनानेके लिये ऐसी मर्यादाएँ स्थिर करके दृढताके साथ उनका पालन करानेमें समर्थ हो सके जिनसे अभ्यासादिके वश कोई भी किसीका निष्ट न कर सके और जो व्यक्ति तथा राष्ट्र दोनोंके उत्थान में सहायक हों, तो वह इस बहाने समता और स्वतन्त्रताका अच्छा वातावरण पैदा करके देशका बहुत होलीका त्यौहार ( १ ) ज्ञान-गुलाल पास नहिं, श्रद्धासमता रंग न रोली . है । नहीं प्रेम- पिचकारी करमें, + केशर - शान्ति न घोली है । स्याद्वादी सुमृदङ्ग बजे नहिं, नहीं मधुर रस बोली है । कैसे पागल बने हो चेतन - ! कहते 'होली होली है' !! ही हितसाधन कर सकेगी और स्वराज्यको बहुत निकट ला सकेगी। यदि कांग्रेस ऐसा करनेके लिये तैयार न तो फिर हिन्दू समाजको ही इस त्यौहार के सुधारका भारी यत्न करना चाहिये । क्या ही अच्छा हो, यदि देशसेवक जन इस त्यौहारके सुधार- विषय में अपने अपने विचार प्रकट करने की कृपा करें और सुधार विषयक अपनी अपनी योजनाएँ राष्ट्रके सामने रखकर उसे सुधारके लिये प्रेरित करें । यदि कुछ राष्ट्र हितैषियोंने इसमें दिलचस्पीसे भाग लिया तो मैं भी अपनी योजना प्रस्तुत करूँगा और उसमें उन मर्यादाओं का भी थोड़ा बहुत उल्लेख करूँगा जिनकी सुधारके लिये नितान्त आवश्यकता है । मर्यादाएँ पहले भी ज़रूर जिनके भंग होनेसे लक्ष्य भ्रष्ट होकर ही यह त्यौहार विकृत हुआ है । और इसी लिये बहुत असेंसे मैंने भी होलीका मनाना - उसमें शरीक होना—छोड़ रक्खा है । वीर सेवामन्दिर, सरसावा होली होली है ! ध्यान - अग्नि प्रज्वलित हुई नहिं, कर्मेन्धन न जलाया है । सद्भावका धुआँ उड़ा नहि, सिद्ध स्वरूप न पाया है ॥ भीगी नहीं ज़रा भी देखो, स्वानुभूति चोली है । पाप-धूलि नहि उड़ी, कहो फिरकैसे 'होली होली है' !! ** ३२१ 案 - 'युगबीर' Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनोंकी आस्तिकता और नास्तिकताका आधार [ ले० पं० ताराचन्द नैन न्यायतीर्थ, दर्शन शास्त्री ] + था लोग आत्मिक उन्नति की एओर बढ़े यो रोंसे बढ़ रहे थे। यात्मिक उन्नतिके विषयमें दार्शनिकोंका परस्परमें मतैक्य न था, प्रत्येक दार्शनिक अपने मन्तव्य व दर्शन (Philosophy) को सर्वोत्तम बतलाकर उसको ही आत्मोन्नतिका प्रमुख साधन घोषित करता था । ये दार्शनिक कभी कभी आपस में वादविवाद भी किया करते थे, वादविवादका परिणाम कभी सुखद और कभी कलहवर्द्धक हुआ करता था । आत्मिक उन्नति के लिये अनेक नये दर्शन, मत और मज़हब पैदा हुए। आध्यात्मिक उन्नति व सुखके नामपर जहाँ इन दर्शनोंने जितनी अधिक सुख और पावन - कृत्योंकी सृष्टिकी है; उन्हींने उसी उन्नति के बहाने दुःखों और अत्याचारोंका कम सर्जन नहीं किया । मायावियों, स्वार्थियों और अपनेको ईश्वरका प्रतिनिधि घोषित करनेवाले लोगोंने देवी-देवता तथा यज्ञादिकी कल्पना कर धर्मकी ओट में मनुष्य-समाज और मूक पशुओं के ऊपर जो जुल्म ढाये हैं, उनकी दास्तांके पढ़ने, सुनने और स्मरण करने मात्र से मस्तक घूमने लगता है । यही कारण है कि बहुत लोग धर्मसे घृणा करने लगे हैं; परन्तु धर्म जीवन में उतना ही आवश्यक है, जितनी हवा | धर्म व दर्शनोंके नाम पर जो जुल्म हुए हैं, उनमें उन धर्मों और दर्शनों का कोई दोष नहीं है। इसका सारा दोष तो धर्म का स्वांग रचनेवालों पर है । धर्म दर्शन तो अपने उद्देश से कभी विचलित नहीं हो अपूर्ण पुरुषों द्वारा जो दर्शन चलाये जाते हैं वे पूर्ण आत्मिक उन्नति करने में प्रायः असफल रहते हैं । खैर, यहाँ पर दर्शनोंकी वास्तविकता अवास्तविकता वा पूर्णता अपूर्णता से कोई सरोकार नहीं, यहाँ तो सिर्फ इतना ही बतलाना है कि दर्शनों की आस्तिकता वा नास्तिकताका अमुक आधार है । मैं पहले ही संकेत कर चुका हूँ कि दार्शनिक अपने अपने मन्तव्यको लेकर आपस में वादविवाद किया करते थे और उसका नतीजा कभी कभी कलह-वर्धन भी हुआ करता था। प्राचीन काल में ईश्वरादि विषय पर अनेक शास्त्रार्थ हुए, इन शास्त्रार्थों में प्रमुख दो विरुद्ध-मनोवृत्तिवाले दार्शनिकोंने भाग लिया । इन शास्त्रार्थों अथवा वादों से मतभेद मिटने वा तत्वनिर्णय के बजाय, और अधिक द्वेषाग्नि भड़को । जिन बातों ( ईश्वरादि) के निर्णय के लिये दर्शनोंका जन्म हुआ, वे विषय आज भी जहाँ के तहाँ अन्धकाराच्छन्न हो रहे हैं और दर्शनों के वाद-विवादोंके विषय में कविका यह कथन अक्षरशः सत्य मालूम होता है सदियों से फिलासफी की चुनाचुनी रही । पर खुदाकी बात जहाँ थी वह वहाँ ही रही । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनों की आस्तिकता और नास्तिकताका आधार वर्ष ३, किरया ] के इन दोनों विरुद्ध मनोवृत्तियोंने आपस में अत्यन्त उग्ररूप धारण कर दार्शनिक जगत्, और साथ ही साधारण जनता को भी दो भागों में विभक्त कर दिया । एक भागको आस्तिक और दूसरे भागको नास्तिक कहते हैं, दोनों एक दूसरे दुश्मन हैं । हमें उस बुनियाद - आधारको ढूंढ़ निकालना है, जिसके बल पर इन विरोधि मनोवृत्तियों का बीज बोया गया, और जिसका परिणाम हमेशा दुखद तथा कटु ही रहा । अपने अगुओं के फुसलाव में आकर साधारण जनता भी इन मनोवृत्तिओं के प्रवाह में बहने से अपने आपको न रोक सकी। इस विरोधने इतना जोर पकड़ा कि आये दिन धर्म के नामपर मानवताका खुले आम गला घोंटा गया, इस भावनाने मानव समाजको टुकड़े टुकड़े में विभक्त कर दिया, जिससे उनकी वा उनके देशकी अपार क्षति हुई। इस युगमें भी कभी कभी ये हत्यारी भावनाएं जाग उठतीं हैं, जिससे राजनैतिक आन्दोलनको भी इसका कटु परिणाम भुगतना ही पड़ता है। इस समय तो हमें ऐसी दशा उत्पन्न कर देना चाहिये, जिससे सभी दार्शनिक वा जनसाधारण एक दूसरे को अपना भाई समझकर देशोद्वार आदि कार्यों में कन्धामं कन्धा जुटाकर आगे बढ़ते जावें । इसके लिये पक्षपात वा अपने कुलधर्मका मोह छोड़कर युक्ति अविरुद्ध दर्शनकी आस्तिकता और नास्तिकता पर हमें विचार कर लेना चाहिये, व्यर्थ दूसरोंको नास्तिक कह कर, उन्हें दुःखित करने और भड़कानेसे क्या लाभ ? इन्हीं दुर्भावनाओंने तो भारतको गारत कर दिया; अब तो सम्हलें । ३५३ www.comm बहुत कुछ विचार करने वा आस्तिक-नास्तिक कहे जानेवाले दर्शनोंकी विवेचनाओं की जानकारी करनेके बाद, मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ, कि किसी पदार्थ के अस्तित्व के स्वीकार करनेसे - स्तिक, तथा उसी पदार्थके न मानने से दर्शन नास्तिक कहलाये । किसीने ईश्वर, ब्रह्मा, खुदाको जगतका बनानेवाला स्वीकार करने, किसीने वेदप्रमाण किसीने अदृष्ट – पुण्य-पाप, और किसीने परलोकका अस्तित्व माननेवाले दर्शनको आस्तिक घोषित किया । और जिनने इनके मानने से इंकार किया उन्हें नास्तिक घोषित किया गया। ऊपर लिखी आस्तिक नास्तिक मान्यताओंके विषय में यहाँ पर कुछ विवेचन करना आवश्यक है; जिससे विषयका स्पष्टीकरण हो जावे और आस्तिकता तथा नास्तिकता की भी जानकारी सरलतासे हो जाय । ईश्वरवादी दार्शनिक – जिन दर्शनों में ईश्वरको जगत्का कर्ता हर्ता माना गया है - जैन-दर्शन, चौद्धदर्शन और चार्वाक दर्शनको ईश्वर न मानने के कारण नास्तिक घोषित करते आये हैं । यह ठीक है, कि जैनदर्शन ईश्वर नहीं मानता, पर ईश्वरा - स्तित्व सिद्ध होनेसे पहले उसे नास्तिक कहना उचित न होगा, युक्ति के बलपर यदि ईश्वर सिद्ध होजाय तो जैनदर्शनको नास्तिक ही नहीं, और जो कुछ चाहें कहें। हाँ, तो यहाँ पर ईश्वर के विषय में विवेचना की जाती है । कतिपय ईश्वरवादी दार्शनिकों का अभिमत है कि इस युग से बहुत पहले इस दुनियाँका कोई पता न था, केवल ईश्वर ही मौजूद था। एक समय ईश्वर को - यद्यपि वह परि पूर्ण था - - एकसे अनेक होने वा सृष्टि रचना करने Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ अनेकान्त .[फाल्गुन वीर निर्वाण सं० २४६६ की लालसा हुई। चकि वह सर्वशक्तिमान् सर्वज्ञ, से भी जिन कार्योंका निर्माण किया जाता है, उनमें और व्यापक था; इसलिये उसने स्वेच्छानुसार तांबा आदि-जिस मूल वस्तुसे कार्य पैदा हुआ तमाम जड़ी और चेतन-जगत्-पर्वत, समुद्र, नद- है-बराबर अन्वयरूपसे पाया जाता है। उपादान नदी, भूखण्ड, बनखण्ड, देश, द्वीप और पशु-पक्षी, कारण अपनी पर्यायों-हालतोंको तो छोड़ देता है, कीड़ा-मकोड़ा, देव, मनुष्य आदिका निर्माण पर वह खुद कभी विनष्ट नहीं होता, उससे जिन किया। इस कार्यके निर्माणमें उसे किसी भी अन्य कार्योंकी सृष्टि की जाती है, उन कार्योंमें उपादानके साधन-उपादानादि कारणोंकी-ज़रूरत नहीं समस्त गुण अविवाद रूपसे पाये जाते हैं। हुई; अर्थात् स्वयं ईश्वर ही उपादान और निमित्त ईश्वरवादी लोग जगत-कार्यकी रचनामें ईश्वरकारण था। को ही उपादान वा निमित्त कारण बतलाते हैं, पर पाठको ! आप लोग जानते ही होंगे कि प्रत्येक युक्ति और बुद्धिकी कसौटी पर कसनेसे यह बात कार्यके करनेमें उपादान-कारण और निमित्त बिल्कुल झूठ साबित होती है। क्योंकि मैं पहले ही कारणकी आवश्यकता हुआ करती है। जो अपनी लिख चका हूँ कि कार्यमें उसके उपादान के समस्त हस्ती वर्तमान पर्याय-मिटाकर खुद कार्य रूपमें गुण पाये जाते हैं । अब सोचिये, यदि जगत-कार्य तब्दील हो जाय उसे उपादान कारण कहते हैं; का उपादान कारण ईश्वर है, तो लाजमी तौरपर और जो कार्य करने में सहायक हो उसे निमित्त ईश्वर के सर्वज्ञत्व, व्यापकत्व, सर्वशक्तिमत्त्वादि या सहायक कारण कहते हैं । जैसे, रोटी बनानेके गण जगतमें पाये जाना चाहिये । परन्तु संसारमें लिये प्राटा, रसोइया, पानी आग आदिकी आव- जितने कार्य नज़र आते हैं, उनमें ईश्वरके गणोंश्यकता हुआ करती है; रोटी कार्यमें आटा उपा- का खोजने पर भी सद्भाव नहीं मिलता, फिर न दान कारण है; आटा अपनी वर्तमान चूर्ण पर्याय- जाने किस आधार के बल पर ईश्वरबादी ईश्वरको को छोड़कर पानी आदिके सहयोग-सम्मिश्रणसे जगतका उपादान कारण बतलाकर उसे कलंकित पिंडादि प्राकृतियोंको धारण करता हुआ, रसोइया करते हैं । भले ही अन्धश्रद्धालु ईश्वरको वैसा माके हाथोंकी चपेट वा चकला-बेलनकी सहायतासे नते रहे, परन्तु जिनके पास समझने-तर्क करनेकी चपटा तथा गोलाकार में परिवर्तित होकर अग्निपर बुद्धि है, वे तो इसे निरी युक्तिशून्य कपोल-कल्पना सेकनेसे रोटी-कार्यमें बदल जाता है, पर वह अपने कहेंगे। रूप-रसादि गुणोंको नहीं छोड़ता। स्वर्णसे कड़ा, अन्य ईश्वरवादी लोग ईश्वरको जगतका बाली, कुण्डल आदि अनेक भूषण बनाये जाते उपादान कारण न मान, निमित्त कारण बतलाते हैं; परन्तु सोना अपने स्वर्णत्व, पीतत्वादि स्वरूपको हैं; उनका कहना है कि सृष्टि-रचनाके पहले कभी नहीं छोड़ता, केवल अपनी पिंड, कुण्डल ब्रह्मांड में ईश्वर, जीव और प्रकृति तीन ही पदार्थ आदि पर्यायों और आकृतियोंका ही परित्याग थे। ईश्वरने स्वेच्छानुसार जीव और प्रकृतिसे करता है। तांबा, पीतल, लोहा, मट्टी, काष्ठ आदि चेतन तथा अचेतन जगत्की उत्पति की। जिस Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ५] दर्शनोंकी पास्तिकता और नास्तिकताका आधार तरह कुम्हार मिट्टी, घट, दीपक, सकोरा आदि आते हैं जिनका कर्ता बुद्धिमान नहीं होता, अपने मिट्टीके बर्तन, बढ़ई लकड़ीसे कुरमी, मेज, आप बनते बिगड़ते रहते हैं । घास, कीड़ा-मकौड़ा, पलंग किवाड़ आदि और जुलाहा ( बुनकर) जड़ निमित्त के मिल जानेसे उत्पन्न होते हैं और सृतसे धोती, दुपट्टा, चादर, तौलिया, रूमाल आदि विनाश हेतुओंके साहचर्यसे विनिष्ट होते रहते हैं। काड़ा तैयार करता है; यदि मिट्टी उपादान कारण हीरा, मणि, पन्ना, पुखराज आदि नियत स्थानमें तथा अन्य चक्रादि ( घड़े बनानेका चाक ) निमित्त ही पैदा होते हैं । स्वाति की बद यदि सीपमें पड़ कारण मौजूद भी रहे और कुम्हार न हो तो घड़े जाय तो मोती बन जाता है, किसी हाथीके गण्ड आदिका बनना सर्वथा असम्भव रहता है । उसी स्थलमें भी गजमुक्ता ( एक किस्मका मोती ) का प्रकार यद्यपि जीव और प्रकृति-उपादान-कारणों- सद्भाव माना गया है, सर्पराज-मणियार सर्पके के द्वारा ही चेतन अवेतन विश्वकी रचना हुई है; मस्तक पर मणिकी उत्पत्ति होती है; इसी तरह तो भी इस तमाम अत्यन्त कठिन दुरुह और और भी असंख्य उदाहरण दिये जा सकते हैं, व्यवस्थित जगत-रचनाका करनेवाला कोई बहुत जिनके बनाने में प्रकृतिके सिवाय अन्य किसी भी बुद्धिमान व्यक्ति जहर है । जो इस रचनाका ईश्वरादि व्यक्तिका जरा भी दखल नहीं है । शाकर्ता है, वह ईश्वर है, ईश्वरसे भिन्न कोई अन्य यद ईश्वरवादी दार्शनिक उपर्युक्त उदाहरणोंमें भी साधारण व्यक्ति इतने महान् कार्यको नहीं कर ईश्वरका दखल बतलाते हुए कहें, कि ये कार्य भी मकता । चकि ईश्वर सर्वशक्तिमान् , सर्वज्ञ और सातिशय परमात्मा द्वारा ही निर्मित होते हैं; सर्वत्र व्यापक है, इसलिये वह एक ही समयमें परन्तु घामादिकी उत्पत्तिको देखते हुए, उसकी अनेक देशदर्ती, एक देशवर्ती अनेक कार्य और बुद्धिमत्ताकी कलई खल जाती है । आबाद मकानों भिन्न समय में भिन्न भिन्न देशमें होनेवाले अनेक की छत, अंगन भित्ति आदि उपयोगी स्थानों पर कार्योको सरलतासे करता रहता है। भी बारिशके दिनोंमें व्यर्थ ही घास पैदा होजाया ईश्वरवादी दार्शनिकों की तरह निरीश्वरवादी करता है, यह कार्य भी क्या बुद्धिमत्ताका सूचक दार्शनिक भी कार्यकी उत्पत्ति उभय कारणोंसे है ? ( उपादान और निमित्तसे ) मानते हैं । जैन- ईश्वरवादी दार्शनिक ईश्वरको जगत् निर्माता दर्शनने ईश्वरकी जगन्-कतृताका युक्तिपूर्वक खंडन माननेमें यह दलील भी देते हैं कि, अगर जगतका किया है, वह ना यहाँ नहीं लिया जा सकता बनाने वा व्यवस्था करनेवाला महान् बुद्धिमान न यहाँ मोटी दलीलें पेश करूँगा, जिससे जगत्की होता, तो यह विश्व-रचना इतनी व्यवस्थित और प्राकृतिकताका भान हो सके। सुन्दर न होती । यह उसी सर्वशक्तिमान परमात्मा ___ हमारे ईश्वरवादी भाई कहा करते हैं, कि हर- की लीला है जिसने जगत्को एक सुन्दर ढाँचेमें एक कार्यकी उत्पत्ति बुद्धिमान् सहायकके बिना ढाला है । भाइयो, जरा विश्व-रचनाकी ओर भी नहीं होती; परन्तु संसारमें ऐसे बहुतसे कार्य नजर गौर कीजिये, आया यह व्यवस्थित है या अव्यव Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [फाल्गुन, वीरनिर्वाण सं०२४६६ स्थित ? कहीं भयंकर दुर्गम पर्वत ही पर्वत, कहीं करनेवाला और न नाश करनेवाला ही है। भले ही वन ही बन, कहीं पानी ही पानी, कहीं पानीका अन्धविश्वासी उसको वैसा मानते रहें । जो ज्ञाना बिलकुल अभाव-मरुस्थ जैसे स्थानोंमें, निर्जन वरणादि अष्ट कर्मों के बन्धनम हमेशाके लिये छूट स्थानोंमें जलप्रपात और सुन्दर झरनोंका बहना, गया है अर्थात कर्मों की गुलामीकी जंजीरोंको जिजहाँ ऊँची जमीन चाहिये वहाँ ज़मीनका नीचा सने काट फेंका है, जिसने समस्त कार्य कर लिये होना, जहाँ भूभागका नीचा शोभास्पद होता वहाँ हैं-कृतकृत्य होगया है और जिसने पूर्णता प्राप्त उसका ऊँचा होना, अकाल, महामारी, अनावृष्टि करली है, ज्ञान, सुख, वीर्य-आदिका धनी है जो अतिवृष्टि उल्कापात आदिका होना, डांस, मच्छर, मोक्ष पाने के बाद संसारमें कभी न लौटता है और कीड़ा-मकोड़ा सांप विच्छू सिंह व्याघ्रकी सृष्टि न संसारकी झंझटोंमें फँसता है वही ईश्वर है । होना, मनुष्यमें एक धनवान् दुसरा निर्धन एक उसको महेश्वर, ब्रह्मा, विष्णु परमात्मा, खुदा गोड मालिक दूसरा नौकर, एक पुत्र-स्त्री-बाल बच्चे आदि (God) आदि भी कहते हैं। जैन दशनमें इसी के अभावसे दुखी, दूसरा इस सबके होते हुए भी प्रकारका ईश्वर-परमात्मा माना गया है और ऐसा दरिद्रताके कारण महान दुखी, एक पंडित दूसरा ईश्वर कोई एक विशेष व्यक्ति ही नहीं है। अब अकलका दुश्मन मूर्ख, चन्दनका पुष्प विहीन तक अनंत जीव परमात्मपद पा चुके हैं और होना, स्वर्णमें सुगन्धका न होना और गन्नामें भविष्यमें भी अगणित ; जीव तरक्की करते करते फलका न लगना इत्यादि ऐसे अनेक उदाहरण इस पदको प्राप्त करेंगे। अब तक जितने जीवोंने हैं जिनके कारण विश्वरचनाको कोई भी बुद्धिमान परमात्मपद प्राप्त किया है और भविष्यमें आत्मिक व्यस्थित और सुन्दर नहीं कह सकता । इस लिये उन्नति करते करते जितने जीव इस पदकी प्राप्ति बुद्धिमान ईश्वरको जगतका निर्माता वा व्यवस्था- करेंगे, वे सब परस्पर एक समान ज्ञान-सुख वीर्य पक कहना बिलकुल ही सारहीन मालूम होता है। आदि गुणोंके धारक होंगे। उनकं गुणोंमें रंच. इसीसे किसी कविने ऐसे ईश्वरकी बुद्धिका उप- मात्र भी तारतम्य न तो पाया जाता और न कभी हास करते हुए स्पष्ट ही लिखा है- पाया जायगा। जिनसे पूज्य-पूजक भाव सदाके गन्धः सुवर्णे फलमिक्षुदंडे नाकारि पुष्पं किलचन्दनेषु लिये दूर होगया है और वे सभी मुमुक्षु जीवों विद्वान् धनाढ्यो न तु दीर्घजीवी धातुः पुरा कोऽपिन- द्वारा समानरूपसे उपास्य हैं। इन मुक्त जीवोंस बुद्धिदोऽभूत् ॥ भिन्न जगत् सृष्टा, जगत्पालक और जगत-विध्वंपाठक महानुभाव उपर्युक्त कथनसे संक्षेपमें सक त्रि-शक्ति सम्पन सदेश्वर नामका कोई भी यह तो समझ ही गये होंगे, कि ईश्वरको जगत् । व्यक्ति नहीं है । अतः ईश्वर (जगत् कर्ता आदि कर्ता मानना युक्तिकी कसौटी पर किसी प्रकार रूपसे ) न माननेवाले दर्शनोंको नास्तिक दर्शन भी कसकर सिद्ध नहीं किया जा सकता और नहीं कहा जा सकता; इसलिये उपयुक्त दलीलसे वास्तवमें वह न जगतका बनानेवाला, वा पालन जैनदर्शन आदिको नास्तिकदर्शन कहना महान Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ... दर्शनोंकी प्रास्तिकता और नास्तिकताका आधार ३५७ अपराध होगा। जुल्म नहीं हुए। जैनदर्शन वेदोंके हिंसात्मक भ० महावीर और महात्मा गौतमबुद्धसे विधानोंका खंडन करता है, परन्तु इससे उसे करीब सौ वर्ष पहले जन्म लेनेवाले प्रसिद्ध दार्श- नास्तिकदर्शन नहीं कहा जा सकता। यदि वेद निक महर्षि कपिलने ( कहते हैं सबसे प्रथम निन्दक नास्तिक माने गये होते तो कपिल व कपिलने ही दर्शन पद्धतिको जन्म दिया था, उनसे उनका सांख्यदर्शन भी नास्तिकके नामसे मशहूर पहले आत्मा आदिके विषयमें न तर्कणा की जाती होना चाहिये था । परन्तु उन्हें किसीने नास्तिक थी और न इन गूढ प्रश्नोंके सुलझानेका प्रयत्न ही नहीं लिखा । जैन धर्मने वैदिक विधानोंका खले किया जाता था। ) जगतकी उत्पत्तिको स्वाभाविक आम विरोध किया, इसलिये कुछ मनचलों बतलाया है और ईश्वर नामके पदार्थका खंडन (वैदकों ) ने जैनदर्शनको भी नास्तिक दर्शन किया है; परन्तु किसी दार्शनिकने कपिल द्वारा कहकर बदनाम करना शुरू कर दिया। चूंकि चलाये सांख्यदर्शनको नास्तिकदर्श नहीं लिखा। वैदिक विधान पूर्ण तौरसे जगत्-हित करनेमें इससे समझ लेना चाहिये कि नास्तिकताकी कोई असमर्थ सावित हुए और इनसे संसारमें सुख अन्य ही बुनियाद है। कुछ लोग --जो वेदको ही और समृद्धिकी सृष्टिकी जगह दुःख और अशान्त हरएक बातमें प्रमाण मानते हैं-ऋग्वेद आदि तथा क्षुब्ध वातावरण पैदा होगया। एक उच्च मानी वेदोंको प्रमाण न माननेवाले और वेदोंके अप्रा- जानेवाली कौमके सिवाय समस्त मनुष्योंको कृतिक, असंगत सथा युक्ति-विरुद्ध अंशोंका खंडन अनेक तरहसे पतित और अधम घोषित किया करनेवाले दार्शनिकोंको 'नास्तिकोवेद निन्दकः'- गया उनके अधिकार हड़पे जाने लगे, पशुओंके वेद निन्दक नास्तिक है-कहकर व्यर्थ बदनाम बड़े बड़े गिरोह अग्नि कुण्डोंमें धर्मके नाम पर करते हैं । वेदोंमें ऐसी ऐसी बीभत्स और घृणाके वेरहमीके साथ झोंके गये । सभीका जीवन दूभर योग्य बातें लिखी हैं, जिनको कोई भी निष्पक्ष होगया। इन्हीं वैदिक विधानोंका जैन, बौद्ध बुद्धिमान माननेको तैयार न होगा। गोभेध, नर- आदि सुधारक लोगोंने खण्डन किया, जिससे मेध आदि यज्ञोंका वैदिक कालमें और उसके इन कृत्योंकी कमी दिनों दिन होती चली गई। पश्चात् कई शताब्दी तक खुले आम धर्मके नाम और इन्हींके बलपर जिनकी आजीविका और पर प्रचार किया गया और जो जुल्म ढाये गये वे शान-शौकत अवलम्बित थी वे लोग घबराये कम निन्दाके योग्य नहीं हैं। उनकी निन्दा तो और वे ऐसे सभी सुधारकों और उनके मत की ही जावेगी। महर्षि कपिलने भी वेदोंके ऐसे या दर्शनको बदनाम करने के लिये कोई अन्य निन्दाह अंशों पर आपत्ति की थी,खंडन भी किया उपाय न सूझनेके कारण 'नास्तिकोवेदनिन्दकः' था। भगवान महावीर व म० गौतम बुद्धने तो इस तरह घोषित करने लगे। इस तरहसे तो धर्मके नामपर किये जाने वाले अत्याचारोंको जड़से प्रत्येक मजहब और दर्शन नास्तिकताके शिकार उखाड़ फेंका । तबसे फिर आज तक वैसे कठोर होनेसे न बचेंगे। जिस तरह वैदिक लोग वेद Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ अनेकान्त [फाल्गुन वीर-निर्माण सं० २४६६ प्रमाण न माननेवालोंको नास्तिक कहते हैं, वैसे अपने अदृष्ट-स्वोपर्जित पुण्य-पाप कर्मसे मरण ही दूसरे लोग भी वैदिक लोगोंको उनके ग्रन्थ व कर किसी एक मनुष्यादि गतिसे दूसरी देवादि शास्त्र प्रमाण न माननेके कारण नास्तिक कह गतिमें जन्म लेता है. उसीको परलोक कहते हैं । सकते हैं, और प्रायः ऐसा देखा भी जाता यदि जीवास्तित्व भौतिक-जगतसे भिन्न और है । मुसलमान लोग कुरानकी बातों और शाश्वतिक न माना जायगा तो परलोक आदि मुस्लिम-संस्कृतिसे वहिष्कृत सभी लोगोंको भी न बन सकेंगे; क्योंकि परलोक-गामीके अस्तिकाफ़िर-नास्तिक कहते हैं। दूसरे लोग भी कोई त्व होनेपर ही परलोक अस्तित्व बनता है। मिथ्यात्वी और कोई अन्य हीन शब्दके द्वारा हम देखते हैं कि जीवास्तित्वको आस्तिकता अपने मतके न माननेवाले लोगोंको कुत्सित की कसौटी मानने पर संसारकी जन-संख्याका बचनोंके द्वारा सम्बोधित करते हैं। इससे वेद- बहुभाग आस्तिक कोटिमें सम्मिलित हो जाता निन्दक अथवा वेद वचनोंको प्रमाण न स्वीकार है। वौद्ध दार्शनिकोंको नैरात्म्यवादी होनेपर भी करनेवाले दार्शनिकोंको 'नास्तिक' कहना बिलकुल एकान्ततः नास्तिक कहना उपयुक्त न होगाः क्योंकि युक्तिशून्य और स्वार्थसे ओतप्रोत जंचता है। बौद्धदर्शनमें भी सन्तानादि रूपसे जीवका अस्तित्व अतः वेद-वाक्य-प्रमाण न माननेसे भिन्न ही स्वीकार किया गया है, भले ही उनका वैसा नास्तिकताका कोई आधार होना चाहिये। मानना युक्तिसंगत न हो,पर जीव या आत्माका तो ___ इस तरह ईश्वर-विश्वास और वेदवचन- अस्तित्व किसी न किसी रूपमें माना ही गया है। प्रमाण आस्तिकता की सच्ची कसौटी नहीं है, इन चार्वाक दर्शन और इसीकी शाखा प्रशाखारूप दोनोसे भिन्न ही आस्तिकता की युक्तिसंगत मन- अन्य दर्शन जो जीव-आत्मको पथिवी, जल, अग्नि, को लगनेवाली कोई कसौटी होना चाहिये । मेरे वायु और आकाशसे भिन्न पदार्थ नहीं स्वीकार विचारसे तो भौतिक-जगतसे भिन्न चैतन्ययक्त करते, किन्तु इन्हींके विशिष्ट संयोगसे जीवकी आत्मा या जीवका मानना ही आस्तिकताकी सर्व- उत्पत्ति मानते हैं, उन्हें जरूर नास्तिक कोटिमें श्रेष्ठ कसौटी, आधार या बुनियाद है । इससे सम्मिलित किया जा सकता है। प्रत्यक्षसे ही हमें भिन्न आस्तिकताकी जितनी परिभाषायें देखनेमें देहादिसे भिन्न सुख-दुःखका अनुभव कर्ता मालूम आती हैं वे सभी अधूरी, असंगत और सदोष होता है । जो अनुभव करता है उसीको जीव मालूम होती हैं । जीवका अस्तित्व स्वीकार करने कहते हैं । मरनेके बाद पंचभूतमय शरीर मौजूद पर ही ईश्वर-विश्वास, वेद-वाक्य प्रमाण आदिकी रहनेपर भी उसमें चेतनशक्तिका अभाव देखा चर्चा बन सकती है। बिना जोवके उक्त समस्त जाता है। जब तक देहमें आत्मा विद्यमान रहता कथन निराधर और निष्फल प्रतीत होता है। है तभी तक उसकी क्रियायें देखनेमें आती हैं। अदृष्ट-पुण्य-पाप और परलोककी कथनी भी जीव चेतन शक्तिके बाहिर निकल जानेपर मिट्टीकी हेतुक होनेसे जीवास्तित्व पर ही निर्भर है। जीव तरह केवल पुद्गलका पिण्ड ही पड़ा रहता है। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण २] होली है। - उस समय चेतन श्रात्माके स्वरूपका उसमें एक गठित हो क्षण भरमें नेस्त व नाबूद कर सकते दम अभाव नजर आता है। इसलिये जीवको हैं। जीव या आत्मा शाश्वतिक और अमर है भूतजन्य या भूतमय कहना भ्रमसे खाली नहीं है। इसमें किसी भी आस्तिक दार्शनिकको लेशमात्र जीवास्तित्वको आस्तिकताकी कसौटी मान संशय नहीं है और होना भी न चाहिये। सभी लेनेपर आस्तिकता और नास्तिकताके नाम पर दार्शनिकोंने जीव सिद्धि प्रबल प्रमाणोंसे की है। होनेवाले संसारके अनेक संघर्ष सरलतासे दूर अतः इस संसारको सुखमय स्वर्गीय बनानेके किये जा सकते हैं। आपसके वैमनस्य तथा घृणा लिये हमें इसी श्रेयस्करी मान्यताको आस्तिकता आदि दोषोंका शमन इससे बहुत जल्द हो सकता की सच्ची कसौटी सहर्ष स्वीकार कर लेना है । और भारतवर्ष पारस्परिक प्रेम-सूत्रमें सुसंवद्ध चाहिये ।। हो उन्नतिकी चरम सीमा तक पहुँच सकता है, वीरसेवामन्दिर, सरसावा, तथा गुलामी जैसे असह्य अभिशापको हम सुसं. होली है! बच्चे ब्याह, बूढ़े व्याहें कन्याओंकी होली है। बेचें सुता, धर्म-धन खावें, ऐसी नीयत डोली है ! संख्या बढ़ती विधवाओंकी, जिनका राम रखोली है !! भाव-शून्य किरिया कर समझे,पाप कालिमा धो लीहै ! नीति उठी, सत्कर्म उठे,औं' चलती बचन-बसोली है ! ऊँच-नीचके भेद-भावसे लुटिया साम्य डुबो ली है !! दुख-दावानल फैल रहा है, तुमको हँसी-ठठोली हे !! रूढ़ि-भक्ति औ' हठधर्मीसे हुआ धर्म बस डोली है !! (२) नहीं वीरता, नहीं धीरता, नहीं प्रेमकी बोली है ! सत्य नहीं,समुदार हृदय नहिं,पौरुष-परिणति खो ली है ! नहीं संगठन, नहीं एकता, नहीं गुणीजन-टोली है !! प्रण-दृढ़ताकी बात नहीं, समताकी गति न टटोली है !! हृदयोंमें अज्ञान-द्वेषकी बेल विषैली बोली है ! आर्तनाद कुछ सुन नहिं पड़ता, स्वारथ चक्की झोली है। भाई-भाई लड़ें परस्पर, पत अपनी सब खो ली है !! बल-विक्रम सब भगे,क्नी हा ! देह सबोंकी पोली है !! उठती नहीं उठाए जाती, यद्यपि बहुती सो ली है ! खबर नहीं कुछ देश-दुनीकी, सचमुच ऐसी भोली है!! बाइस जैनी प्रतिदिन घटते, तो भी आँख न खोली है ! इन हालों तो उन्नति अपनी ऐ जैनो । बस हो ली है!! 'युगबीर' Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जातियाँ किस प्रकार जीवित रहती हैं ? [ ले० - श्री० ला० हरदयाल, एम० ए० ] जा कृतिका जीवन किस वस्तु में है ? किस चीज़ में जातिकी रमा छिपी हुई है ? क्या तावीज़ है, जिसे जाति अपनी रक्षा के लिये पहने रहती है । क्या कस्तूरी है, जिसे एक अधमरी जातिको सुँघाना चाहिए कि वह कुछ तो होश में श्रावे? वह क्या रहस्य है जिसमें शेष सब भेद छिपे हुए हैं ? वह क्या कुंजी है, जिससे जातीय प्रश्नोंके सब ताले खुलते हैं ? थलीबाबाको एक मंत्र याद था, जिससे तरह तरहके बहुमूल्य मोती- जवाहर उसके हाथ आये थे। उसका भाई यह शब्द भूल गया; और वह अपने भाग्यको पीटता रहा; दौलतका द्वार न खुला, पर न खुला। इसी तरह हम पूछते हैं कि जाति के लिए वह क्या मंत्र है, जिससे मनमानी मनोकामना मिलती है-धन, मान, बल स्वराज्य, चक्रवर्ती राज्य सब प्राप्त होते हैं ? यह स्पष्ट प्रकट है कि जातिके जीवनका संसार व्यापी सिद्धान्त अवश्य है, अन्यथा जातिके कर्णधार किस प्रकार अपने देश वासियोंकी भलाईका प्रयत्न कर सकते हैं । किस नियम से वह काम करने में सहायता लें, किस नेता के अनुयायी बने, किस गुरुसे शिक्षा ग्रहण करें ? यदि कोई सिद्धान्त नहीं है तो बड़ी निराशाकी बात है । सब मामला श्रटकल - पच्चू और अनिश्चित् रहा। किसी श्रान्दोलनकी बुराई - भलाईको पहचानना असम्भव हो गया । प्रकृतिकी अँधेरी रात्रि में मनुष्य जैसे कमज़ोर यात्री के लिये कोई कुतुब (ध्रुव) मार्ग दिखानेवाला नहीं रहा । सिद्धान्त अवश्य होगा । प्रकृति नियमकी प्रेमिणी है; नियमबद्ध श्रान्दोलनकी मतवाली है । प्रकृतिको पूर्वी रजवाड़ों की सी बदइन्तज़ामी पसन्द नहीं । प्रकृति फूहड़ नहीं है । पार्थिव संसार में हर वस्तु टल नियम के अनुसार अपना असर दिखाती है । फिर नैतिक और देशोंकी दुनिया में भी अवश्य किसी न किसी तरकीबके अनुसार काम होता होगा । या कार्यवाही न होती होगी । यदि तमाम जातियोंकी उन्नति और उनकी अवनतिसे हम कोई सिद्धान्त नहीं निकाल सकते, जिससे हम अपने मार्ग से काँटे हटा सकें, तो इतिहासको धिक्कार है। उसके लड़ाई के मैदान केवल कसाईखाने और उसकी क्रान्तियां केवल होलीका स्वांग रही हैं । अफ़सोस है कि लाखों निरपराध जानें गईं, ज़माने में उथल-पथल हुई एक क्षण भी मनुष्यको चैन न मिला । अगर इस पर भी इतिहास से कोई सिद्धान्त जातीय जीवनको बनाए रखने के लिए नहीं मिल सकता, तो उसे व्यर्थ समझना उचित है । क्या यह संसारकी जातियोंको यों ही यह नाच नचा रहा है ? श्रवश्य ही जातीय जीवनका कोई विश्वव्यापी सिद्धान्त है जो हमको मालूम हो सकता है । जिस प्रकार कटोपनिषद् में लिखा है कि नेचिकेनाने भय से पूछा -- मुझे मनुष्यकी मृत्युका रहस्य बताओ ? मुझे हाथी घोड़े सोना चाँदीकी श्रावश्यकता नहीं | उसी तरह हमारे मन में निरन्तर प्रश्न उठता रहता है कि क्या जातीय जीवनका कोई सिद्धान्त है ? यदि है, तो हम जाननेके लिये उद्यत हैं । जंगलों में घूमने से हम Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ५ ] जातियाँ किस प्रकार जीवित रहती हैं ? नहीं डरते, पहाड़ोंकी गुफाओंसे परहेज़ नहीं करते । जो तप श्रावश्यक होगा करेंगे। अगर पेरिस पहुँचना हो, तो एक पल भर में जा धमकेंगे। अगर समुद्रकी हमें प्रयोग करना हो, तो पानीके कीड़े बनकर रहेंगे, क्योंकि हम उस अमृतकी तलाश में हैं । श्राज भारतवर्ष जातीय जीवनका गुर ढूँढता है । जान निकल रही है । धर्म और जाति पर प्रत्येक श्रोरसे आक्रमण हो रहे हैं । आसपासक जातियाँ कहती हैं कि इसमें अब क्या रहा है । राम-नाम लो और तैयारी करो । इतिहासकारों की सम्मति हैकि अब आगे इससे कुछ नहीं बनेगा - ऐसी दशामें हम उस श्रात्म-जोबन बूटीके लेनेको हिम्मतकी कमर बाँधकर चले हैं, जिससे हमारी जाति पुनः जीवित हो । हनुमानजी ने एक लक्ष्मणजी के लिए पहाड़ उलट डाले | हम क्या अपने हिन्दू बच्चों के लिए, जिनमें से एक-एक राम-लक्ष्मणकी तस्वीर है, सारी ज़मीनको उलट पलट न कर देंगे कि उनकी बर्वादीके जो समान दिखाई देते हैं उनको दूर किया जाय । संसारके इतिहासके अध्ययनसे क्या सिद्धान्त मालूम हुए हैं, जिन्हें पूर्व और पश्चिमके विद्वानोंने अपनी किताबों में बयान किया है । जातीय उन्नतिके नियम भूतकालके वर्णनों में छिपे हुए हैं। मरने नाले मर गये । परन्तु हमको जीवित रहनेकी तरकीव बता गये हैं । जो कुछ मनुष्य जातिने किया है, उस दास्तान का अक्षर अक्षर हमारे लिए पवित्र है, क्योंकि हम उससे जातीय और देशके आन्दोलनको सफलताके साथ चलाने की तदवीर सीखते हैं । 1 संसारका इतिहास क्या ही समुद्र है, जिसमें गणित जवाहर मौजूद हैं; जिन्हें बुद्धिमान गोताखोर निकालते हैं और अपनी प्रियतमा जातिके सम्मुख उपस्थित करते हैं । इन विचारों और सिद्धान्तोंको • ३६१ जाति बड़े यत्नसे रखती है। इनकी इस प्रकार रक्षा करती है जैसे साँप खजाने पर बैठता है। वैज्ञानिक विद्वान् सोच-विचारके पश्चात् जो ज्ञान इतिहाससे प्राप्त करते हैं उनसे जातिकी मुक्ति होती है । ज्ञानकी कद्र न करने वाले नष्ट होते हैं । उसको सरखों पर रखने वाले इस लोक में भी और परलोक में भी अपने मनोरथोंको पाते हैं । हिन्दुस्तान के लिए संसारका इतिहास क्या सन्देश लाता है ? जो जातियाँ चल बसी हैं उन्होंने भीष्म पितामहकी तरह मृत्यु शैय्यासे हमारे लिए क्या संदेश छोड़ा है ? जिन जातियोंकी श्राज सब तरह से चलती है उनकी मिसालसे हमको क्या शिक्षा मिलती है ? जातीय उन्नतिके एक मोटे सिद्धांत पर विचार करना उचित मालूम देता है। सारे अंगों पर विचार करना असम्भव है । गागर में सागरको क्योंकर बंद किया जा सकता है । “जातीय जीवनका एक बड़ा सिद्धान्त जातीय इतिहासको जीवित रखना है ।" कुछ दकियानूसी पण्डित यों कहेंगे कि क्या बात बताई है। जप नहीं बताया, तप नहीं सिखाया; श्राद्ध, कर्म, पाठ आदि कुछ अच्छी तरकीब भी नहीं समझाई जिससे जातिका लाभ होता । यह क्या वाहियात व्यर्थका सिद्धांत निकाला है । यह भी कोई सिद्धांत है ! इसमें क्या खूबी है ! यह कौन सी बारीक बात है । दर्शन नहीं, वेदान्त-सूत्र नहीं, योगाभ्यास नहीं, सर्व-दर्शन संग्रह नहीं। यह हेतु हेतुमद्भूतकी गणना किस रोगकी दवा है ? यह मरघटकी सैर किस बीमारी के लिए लाभकारी है ? इतिहास क्या है, यही कि अमुक मरा, अमुक पैदा हुया । अस्तु, अब मुर्दोंका क्या रोना । स्यापे Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ अनेकान्त [फाल्गुन, वीरनिर्वाण सं०२४६६ की मियाद निश्चित है । यह जातीय स्यापेको लोरीके बदले इतिहासकी एक कहानी सुनाई कि सदा कायम रखनेकी सलाह क्या अर्थ रखती है। बच्चा अच्छी तरह सो जाये। श्रलिफ्रलैला न पड़ी हिंदुवाह, यह क्या भाटका काम है जिसमें ईश्वरीय ज्ञान स्तानका इतिहास पढ़ लिया। किन्तु जातिके मार्ग नहीं, आत्माका नाम नहीं, सत-असतका विचार प्रदर्शकोंको, बुद्धिमानोंको, पण्डित ज्ञानियोंको अपनी नहीं । यह था, वह था; हम थे, तुम थे-इस व्यर्थके लियाकत इस व्यर्थकी विद्यामें नष्ट नहीं करनी वर्णनसे जातीय उन्नति क्या हो सकती है ! इस चाहिए । मीमांसा पढ़ें, षट् शास्त्र पढ़ें, व्याकरण घोटें अनुमतिसे तो मृतक शरीरकी सी गंध आती है। तो एक बात है। किन्तु इतिहाससे न अात्माकी शुद्धि उच्च मस्तिष्क वाले और न्यायप्रिय मनुष्य इसको कदापि होती है, न परमात्मा मिलता है यह किसी अर्थका सहन न करेंगे कि मुर्दोकी क़बे उलटा करें । यह तो नहीं है। जातीय मत्युका कारण हो सकता है । जातीय जीवनकी हमारे पण्डितगण आज तक इतिहासकी ओर से शकल तो दिखाई नहीं देती। आदमी पंछी है । आज ग़ाफ़िल हैं। कोई कवि है. कोई व्याकरण जानता है, श्राया, कल चला गया। दस दिन ज्यों-त्योंकर बिता कोई तर्क शास्त्र पढ़कर बालकी खाल निकालता है, गया । अंतमें एक मुट्ठी राख बनकर गंगाजीकी शरणमें कोई ज्योतिषसे ग्रहणका समय बता सकता है। किन्तु श्रागया । इतिहास ऐसे-ऐसे ही नौचंदीके मेले के इतिहासके ज्ञाता कहाँ हैं ? पण्डितोंको तो यह भी दर्शकोंके कारोबारका वर्णन है। इतिहास केवल एक मालूम नहीं होता है कि मुसलमानोंको इस देश में बड़ा भारी पुलिसका रोज़नामचा तथा व्यापारिक आये हुए कितना समय हुआ, अथवा सिकन्दर महान बहीखाते और म्युनिसिपेलिटीके मौत और पैदाइशका कब सतलजसे अपना सा मुँह लेकर लौट गया था। रजिस्टर अथवा तीर्थके पर डोंकी पोथीका संग्रह है। जातीय इतिहासके सिलसिले मे वे अनभिज्ञ होते हैं । इससे अधिक उसकी और क्या प्रतिष्ठा है ? इतिहाससे उन्हें इससे क्या प्रयोजन कि कौन सी घटना कब हुई, कुछ सत्व प्राप्त नहीं होता कोई मतलब नहीं पूरा होता, या हुई भी कि नहीं हुई। उनको अन्य जातियोंका कोई सिन्धात प्रमाणित नहीं होता। फिर व्यर्थकी इतिहास तो अलग रहा, उनके अस्तित्वका भी ज्ञान माथापच्ची क्यों की जावे ? हज़ारों राजा हुए हैं और नहीं होता। इसी कारणसे प्राचीन काल में किन-किन साखों और होंगे। प्रत्येकके राज्य कालका हाल पढ़ते- जातियोंसे हमारा सम्बन्ध था, इस प्रश्नपर वे कुछ पढ़ते अकल चक्करमें भाजावे और कुछ हाथ न लगे। सम्मति नहीं दे सकते । दुःखका विषय है कि एक कोई भी मीमांसाका सिद्धान्त मालूम न हो । ब्रह्म-जीव प्राचीन जातिके विद्वानोंका उसके इतिहास परिचय न की महत्ता, प्रात्माका उद्गम और उसके भविष्यका हो। काशीजी में, नदियामें सब प्रकारकी विद्याका हाल, मनुष्यकी मानसिक शक्तियोंका वर्णन आदि। प्रचार है, शास्त्र, वेद,व्याकरण, सबकी प्रतिष्ठा है, किन्तु इनमें से कौनसे प्रश्नका इतिहास हल कर सकता है। एक बेचारे इतिहासकी शक्लसे पण्डित बेज़ार हैं। इस इतिहास तो भाटों आदिकोजीविका का साधन है । विषयपर न कोई प्रमाणित ग्रन्थ है, न सूत्र रचे गये हैं, बच्चोंके दिल बहलानेका खिलौना है । रातको न वाद-विवाद होता है, न टीका लिखी जाती है । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ५ ] जातियाँ किस प्रकार जीवित रहती हैं ? - जब हम इतिहासके अध्ययनको जातीय जीवनका सिद्धान्त मानते हैं, तो पण्डितोंकी इस दशाको देख - कर हमको यह कहानी याद आती है कि एक चौबेजी भोजन करने यजमानके घर गये। लड़का भी साथ था। उन्होंने उससे पूछा कि न्योता जीमनेका क्या नियम है ? लड़के ने कहा कि आधा पेट खाना चाहिए, चौथाई पेट पानी के लिए और बाक़ी जगह हवाके लिए रखना ज़रूरी है । तब चौबेजीने कहा- तुम अभी बच्चे हो, के कच्चे हो । देखो, भोजनका सिद्धान्त यह है कि पूरा पेट खानेसे भर लो । पानीका गुण है कि इधरउधरले भोजनके बीच में अपना रास्ता निकाल ही लेता है। और हवाका क्या है, आई गई, न श्राई न सही । इसी प्रकार पण्डितगण तर्क और व्याकरणपर लट्टू होते | परन्तु जातीय इतिहासका चिन्ता नहीं करते, जिसके बगैर न तर्क चलेगा न कवित्त लिखे जायेंगे । "कौड़ी को तो खूब सँभाला, लाल रतन क्यों छोड़ दिया" - जातीय इतिहासको जीवित रखना जातीय जीवनका उत्तम सिद्धान्त है । प्रत्येक जातिका भाग्य उसके गुणोंपर निर्भर है । प्रत्येक जाति श्रपनी क़िस्मत की ख़ुद मालिक होती है । यदि किसी जातिके बुरे दिन आ जायँ; यदि उसका धन दौलत, प्रतिष्ठा, मान-मर्यादा, राज-पाट धर्म कर्म सब मिट्टी में मिल जाय, तो उस समय उस जातिका क्या कर्तव्य है ? क्या विजयीको गालियाँ देने से उसका काम बन जाएगा ? क्या विजयी लोगोंकी बदी, वादाख़िलाफ़ी, लालच या मक्कारीको प्रमाणित कर देनेसे उस जातिका भला हो जायगा ? क्या विजयीकी निन्दा करने से उसके अवगुणोंका पूरा इलाज हो जायेगा ! क्या शब्दाडम्बर, वाक्य कौशल और डींग डप्पाल काम देगा ? क्या वाक्य चातुरी और मृदुभाषिता उसका बेड़ा ३६३ पार लगावेगी ? क्या विजयी लोगोंकी पोलिसी (कार्य प्रणाली) पर पुस्तकें लिखने और उनको दुनियाँ भरका दगाबाज़ और चालबाज़ प्रमाणित कर देनेसे ही उस गिरी हुई जातिकी मोक्ष हो जायेगी ? नहीं, कदापि नहीं । जब कोई जाति अपने देशमें दुःख पाती है, जब उसकी कन्याएँ विजयी लोगोंकी लौंडियाँ और उसके नौजवान उनके गुलाम बनाये जाते हैं, जब उसका अन्न उसके बच्चों के पेटमें नहीं पड़ता और वे भूखसे त्राहि त्राहि करते हैं, जब उसके धर्मका नाश होता है। और उसके राजा और पुरोहित विजयी लोगोंकी अर्दली में नौकर रखे जाते हैं, जब उसकी औरतोंकी इज़्ज़त विजयी लोगों की कुदृष्टिसे नहीं बच सकती और वे ऐसे देश में रहने से मौतकों बेहतर समझकर ज़हरका घूंट पीकर चल बसती हैं, जब किसी जातिकी ऐसी अप्रतिष्ठा और बदनामी होती है, तो उसके लिए श्रावश्यक है कि अपने हृदयको टटोले, अपने गुणोंकी परीक्षा करे, अपने आचरण की जाँच पड़ताल करे और मालूम करे कि वे कौनसे अवगुण हैं, जिनके कारण उसकी ऐसी गति हुई है। क्योंकि जब तक कोई जाति, जो संख्या दृष्टिले पर्याप्त प्रतिष्ठा रखती हो, लालच, काहिली, खुदगर्जी इन्द्रिय लोलुपता और बुज़दिली में गिरफ़्तार न हो, उसपर तमाम दुनियाँकी जातियाँ मिलकर चढ़ श्रायें, तो भी विजय नहीं प्राप्तकर सकतीं। ऐसी जातिको चाहिए कि उन भीतरी शत्रुओं का मुक्काबिला करे जो उसके जीवनको घुनकी तरह खा रहे हैं । तब वह बाहरी दुश्मनों के सामने खड़ी रह सकेगी। जिसने मन जीता उसने जग जीता। और ऐसी जाति के उद्धारके लिए व्याख्यानदाताओं और लेखकों, वकीलों, बैरिस्टरों और डेलीगेटोंकी इतनी ज़रूरत नहीं है जितनी साधु सन्तोंकी, जिन्होंने अपनी इन्द्रियोंपर Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ विजय प्राप्त करली हो । क्योंकि जाति लेखनकलाकी अनभिज्ञता या क़ानूनकी अवहेलना करने से नहीं गिरी, बल्कि उन सद्गुणों के न होनेसे जो स्वतंत्र जातियों में पाये जाते हैं । अतः कोई विजित जाति पूछे कि मेरे अपमानका कारण कौन जाति है, तो जवाब दो कि तुम खुद हो, तुम ख़ुद हो । विजयी जाति किसी विजित जातिकी हारका कारण कभी भुले-भटके ही होती है । क्या गिद्ध जो लाशसे बोटियाँ नोच-नोचकर अपनी ज्याफ़त करता है, उस शख्स की मौतका कारण होता है ? मरता तो आदमी बीमारी या दुर्घटनासे है । गिद्ध तो केवल इस बातको सब पर प्रकट करता है कि यहाँ लाश पड़ी है । वह चिन्ह है, सबब नहीं । परिणाम है, कारण नहीं । जातीय इतिहास उन सद्गुणोंको जीवित रखता है जिनपर जातीय अस्तित्व दारमदार है । चिराग़ ही से चिराग़ जलता है। महापुरुषोंकी मिसाल ही हमको उनका अनुकरण करनेपर तैयार करती है। इस वास्ते जिस जातिका कोई इतिहास न हो, उसकी उन्नतिके लिए ज़रूरी है कि वह किसी और जातिके साथ ऐसा सम्बन्ध पैदा करे कि उसके बुजुर्गोंको अपना समझने लगे, या ऐसा धर्म ग्रहण करे जिससे किसी जातिका इतिहास उसके लिए जोश दिलाने वाला बन नावे | उदाहरणार्थं अफरीका के हब्शी स्वयम् उन्नति करनेके अयोग्य हैं, क्योंकि उनके पास कोई आदर्श नहीं है, कोई नाम नहीं है, जो उनको परोपकार, बहादुरी, सच्चाई सिखाये। उन हब्शियोंकी उन्नति आजकल मुसलमानी धर्म के द्वारा हो रही है। जब वे मुसलमान लोगों के नबियों और श्रौलियाओंके जीवन चरित्र पढ़ते हैं और उनके कामों की तारीफ़ करते हैं, तो वे सभ्यता के सिद्धान्तोंका ज्ञान प्राप्त करते हैं। अगर इस तरह [फाल्गुन वीर- निर्वाण सं० २४६६ " किसी सभ्य जाति के इतिहास से अपना सम्बंध स्थापित न करें, और उसकी ज्योतिसे अपनी ज्योति प्रज्वलित न करें, तो वे प्रलयतक अज्ञान और दुर्बलता के शिकार बने रहें । श्रतः इतिहास ही सब गुणोंका दाता इतिहास सब धर्मोंका संग्रह है । इतिहास के द्वारा हम महात्मा बुद्ध, श्रीशङ्कराचार्य, गुरु नानक आदि समस्त धार्मिक और नैतिक मार्ग प्रदर्शकों के जीवन चरित्रसे शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं । इतिहासकी मुट्ठी में सब धर्मोका अनुकरण है । इतिहाससे बचकर कोई कहाँ जायेगा ? यह तो हाथी है, जिसके पाँव में सबका पाँक है । अनेकान्त इतिहास हमको स्मरण कराता है कि हमारा कर्तव्य क्या है। दुनियाँ के झगड़ों में फँसकर जब हम उच्च विचारोंको भूलने लगते हैं, तो बुजुर्गोंकी श्रावाज़ सुनाई देती है कि ख़बरदार हमारी यान रखना, हमारा काम जारी रखना, सपूत रहना, जिस तरह हमने जाति और धर्म के लिए कोशिश की, उसी तरह करते रहना, ऐसा न हो कि हमारा प्रयत्न योंही नष्ट हो जाय ! यह शङ्ख जातिको हर समय जगाता रहता है । इतिहास जातीय मन्जिलकी अँधेरी रात में चौकीदारकी तरह कहता है कि सोना मत; अपने मालकी रक्षा करो। यह सिद्धान्त कभी नहीं भूलना चाहिए कि नैतिक उन्नतिका प्रारम्भिक सोता मनुष्य होता है। जीताजागता पाँच फुटका कोई श्रादमी ही जातिको सुधारता है । किताबें, मसले, रस्में, बाहरी टीम टाम, कहावतें, मीमांसाकी शुष्क बातें - ये सब उस आदमी के नौकर हैं, उसके मालिक नहीं। किताबें केवल रद्दीका ढेर हैं, यदि एक आदमी उनके अनुसार जीवन बसर करके नहीं दिखलाता । भजन, प्रार्थना, संस्कारके तरीके, शिक्षाका प्रबन्ध, नियम और उप-नियम, सभा, समाज, Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, विरण ५] जातियाँ किस प्रकार जीवित रहती हैं? मठ और टोल, अखबार-ये सब ज़रिये व्यर्थ हैं, अगर का सहारा है, जिन्होंने धर्म और सत्यका पालन किया कोई आदमी हमारे सामने उदाहरणके रूप में न हो। है। इतिहास इन महात्माओंके जीवनचरित्रका नाम ये सब मसाला तो तेल-बत्तीकी तरह है। एक आदमी है। इसलिए इतिहासपर जातीय अस्तित्व अवलम्बित का जीवन ही आग है, जिससे रोशनी फैलती है । यह है। दो बड़े सिद्धान्त जिनसे यह सच्चाई प्रमाणकी हद सारा सामान बारातकी टीम-टाम है । दूल्हा तो वह तक पहुँचती है, हमें याद रखने आवश्यक है। महापुरुष है जिसके प्रत्येक कामसे हज़ार शिक्षाएँ पहला हैमिलती हैं। जिसकी प्रत्येक बात जादूका असर रखती "जातीय आचरण की महत्ता" है; जिसका नाम समय यदि घिस-घिसकर भी मिटावे तो इतिहासकी पट्टीसे नहीं मिटेगा; जिसकी तस्वीर हर छोटी जातियां जिनके पास धन न हो, न हथियार, दिल में रहेगी चाहे लोग और सब कुछ भूल जायँ। केवल आचरण में उच्च होने के कारण बई। जातियोंकी नैतिक उन्नतिपर मुल्की, दुनियावी और हर तरहकी दौलत और शक्ति छीन सकती हैं। आचरण ही मनुष्यों उन्नतिका दारमदार है । अगर जातिके आदमी लालची, के जीवनको सफल करता है और हमारी मानुषिक डरपोक और स्वार्थी हैं, तो वह जाति अवश्य नष्ट शक्तियोंको उन्नति करनेका अवसर देता है। जिस जाति होगी, चाहे प्रत्येक गाँवमें पार्लियामेंट ( राजसभा) के पास अाज सद्गुण मौजूद नहीं हैं, किन्तु दुर्ग हैं, बन जाय और दुनियाँ भरके अधिकार उन्हें दान कर मन्दिर हैं, खज़ाने हैं, तोप हैं, तो समझ लो कि वह । यदि जातिका आचरण. ठीक है तो प्रत्येक जाति उस मकानकी तरह है, जो खोखली नींव पर दशामें वह प्रसन्न रहेगी, चाहे कोई भी सभा या खड़ा है। उसके मन्दिर गिराए जायँगे और उनकी इंटों समाज या जल से न होते हों । अतः इतिहाससे हम में उसके बच्चे चने जायँगे, उसके ख़ज़ाने लटे जायेंगे उन महात्माओंके वचन सुनते हैं, जिनके जीवनकी और उसके शत्रुओंको मालामाल करेंगे, उसकी तो यादके बिना, मोटी मोटी किताबें चाहे वे कितनी ही उसीका नाश करनेके लिए काममें लाई जायँगी और प्राचीन क्यों न हो; गम्भीर प्रश्न जो नारदजीकी सम- उसके घरों की ओर उनके मुँह किये जायेंगे। इसके विपझमें भी न पावें; मीठे भजन जिनको सुनते सुनते रीत यदि जाति में अच्छे गुण हैं, तो बह न केवल लोग आनन्द मग्न हो जायें; बड़ी कॉन्फरेन्सें (सभाएँ) अपनी रक्षा कर सकेगी, बल्कि दूसरोंको सहायता भी जिनमें भारतवर्षका प्रत्येक परिवार तक प्रतिनिधि भेज देगी। उसकी ओर कोई आँख उठाकर भी न देख दे; कॉलेज जिनकी छत पासमानसे बातें करती हों; सकेगा। उसके सरका बाल तक बाँका न होगा। व्याख्यान जिनको सुनने सरस्वती भी उतर आवे; सम उसकी मर्यादा बढ़ेगा। उसके खेत हरे-भरे रहेंगे और चार पत्र जिनका प्रचार हर गाँवमें हो, बिल्कुल बेकार उससे ईर्ष्या करनेवालोंका मुंह काला होगा। दूसरा हैं। ये सब चीज़ किसी जातिको नहीं उठा सकतीं। सिद्धान्त हैइतिहास मनुष्योंसे हमारा परिचय कराता है और इस कारण हमारा सबसे बड़ा शिक्षक है, इतिहास सन्तोंकी ___"नैतिक उन्नतिके लिए जीवनकी उपमा की आवश्यकता समाधि है। केवल समाधि चुप होती है । इतिहास उनकी हर बातका राग गाता है। समाधि शक्ल आचरण तो करनेकी विद्या है, कहनेकी तो बात दिखाती है, किन्तु इतिहास प्रत्येक वचन और कार्य, ही नहीं है। जर्मनीके प्रसिद्ध कवि गेटेने कहा है कि प्रत्येककी आदत और प्रकृतिपर प्रकाश डालता है। तुम्हारा प्रति दिवसका जीवन अत्यन्त शिक्षा जनक अतः जातीय आचरणपर जातीय अस्तित्व अव- पुस्तकसे अधिक उपदेश दे सकता है। प्रत्येक मनुष्यका लम्बित है। जातीय आचरण उन आदमियोंके जीवन बर्ताव ऐसा होना चाहिए कि वह स्वयं मूर्तिमान शास्त्र Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ अनेकान्त [फाल्गुन वीर-निर्वाण सं० २४६६ हो । परोपकारपर व्याख्यान देनेकी उसे आवश्यकता अलग हैं । वे उसके भत-कालीन अनुभवके परिणाम न रहे, क्योंकि उसकी शक्ल ही हज़ार व्याख्यानोंका हैं । ये विशेषताएँ उसके देश और उसकी आवश्यकअसर रखती हो। लालचके विरुद्ध उसे उपदेश देना न ताओं के अनुसार होती हैं और उसकी क़ौमी हैसियत सिद्ध है कि एक कविका एक शिष्य नित्य उसे को प्रकट करता हैं । इस तरह हर क्रोम, हिन्दु मुसलदिक करता कि आपने यह शुद्धि किस किताबके श्राधार मान, अंग्रेज़ फ्रांसीसी अलग पहचानी जाती है। उस पर की है, वह शुद्धि किस नियमके अनुसार है। एक के जीवनका प्रत्येक अंग यह प्रकट करता है कि उसके दिन गुरुजी झल्ला गये और कहा, अरे हम कविता विशेष गुण है और विशेष कर्तव्य और विशेष शक्तियाँ कहते-कहते स्वयं पुस्तक बन गये हैं, तू यह क्या पछता हैं । अतः जातीय विशेषताओंका बनाये रखना आवश्रहता है। इसी तरह वे ही मनुष्य जातिको पुनः यक है। उदाहरणार्थ पोशाक हा को लीजिए । यों तो उन्नति के मार्गपर ले जा सकते हैं, जिनसे अगर पूछा कपड़े पहननेका बड़ा अभिप्राय गरमी-सरदीसे बचना जाय कि यह बात श्राप किस आदर्शकी दृष्टिसे करते हैं, और लाज-शरम को बनाये रखना है। किन्तु जब कोई परोपकार किस सिद्धान्त पे करना आवश्यक है, तो वे जाति एक विशेष पोशाक ग्रहण कर लेती है, तो एक कह सकें कि भाई हम स्वयं श्रादर्श और सिद्धान्त हैं। अभिप्राय भी हो जाता है । वह पोशाक उस जातिकी हमारा जीवन ही हमारे अनुकरणका प्रमाण है। अधिक एकताका चिन्ह हो जाती है, और उसे दूसरोंसे अलग क्या कहें। केवल पुस्तक अवसरपर काम न आवेगी। करती है। हर जातिके लिये उसकी प्रथाएँ और उसके मंत्र समयपर धोखा देगा। प्रार्थना क्या खबर है सनी समाजका ढाँचा सीपीकी तरह है, जिसमें उसके सदजाय या न सुनी जाप, तावीज़ कठिनाईमें टूटकर गिर गुणों और विचारोंका मोती छिपा रहता है। जब पड़ेगा । श्लोक और ऋचाएँ हृदयको ढाढ़स न देंगी। मोता सीपीकी शरणसे निकला तो गैराक हाथ बिक ये सब उसी समय काम यावेगी जब किसी महापुरुष गया । या यों कहो कि जातिके रिवाजोंका चौखटा का चित्र आँखों में फिरता हो, जिसने उन परीक्षाओंका उसके हृदय और दिमाग़के दर्पणको रौनक देता है तामुकाबिला किया हो जिनका हमें सामना करना है। कि वह संसारके इतिहासकी प्रदर्शनी में दीवार पर उनकी सहायता ही हमारी मुक्तिका कारण होगी। अच्छी जगह रखे जाने के योग्य हो । जाति यदि सिपाही ___अतएव सम्मिलित महापुरुष-पजाको ही अँगरेज़ी है, तो उसकी संस्थाएँ ( अर्थात् स्थायी जातीय विशेष लेखक कार्लाइल सारी उन्नतिका मूल मानता है। ताएँ, जैसे भाषा त्योहार श्रादि) और उसके संस्कार उसकी सम्मतिमें संसारका इतिहास केवल महान लोहे के कवच हैं, जो उसे दुश्मनों के तीरोंसे बचाते हैं । पुरुषोंकी करामातका प्रत्यक्ष रूप है। यदि जाति हीरा है तो संस्थाएं अँगुठी हैं, जिसमें वह __जातीय इतिहाससे अपने रिवाजों, प्रथाओं और अपनी चमक-दमक दुनियाँके बाज़ारके जौहरियों को जातीय संस्कारोंकी प्रतिष्ठा होती है। दिखलाता है। प्रत्येक जातिका अस्तित्व पाचरणके अतिरिक्त उन जातीय इतिहाससे हमको पता लगता है कि रिवाजोंपर निर्भर है जिन्हें वह मानती है। ये रिवाज हमारे रिवाजों और संस्थाओंकी क्या वास्तविकता है, भी पाचरणको बनाये रखनेके अभिप्रायसे चलाये जाते किस अभिप्रायसे उन्हें स्थापित किया गया था, उनमें हैं और बहुधा प्राचीन पुरुषोंकी स्मृतिको बनाये रखने क्या खूबियाँ हैं, उनमें जातिकी एकता और आचरण का कारण होते हैं । प्रत्येक जातिकी अलग चाल-ढाल को किस प्रकार सहायता मिलती है। जिन रिवाजोंके होती है। प्रादमी पादमी में अन्तर है। कोई हीरा है लाभोंसे हम अनभिज्ञ हैं उनके लिए हमारे दिल में कोई पत्थर है। हर जातिकी भाषा, रहनेका तर्ज़, इज्जत नहीं हो सकती । उनको अवश्य ही हम बेहूदा त्योहार, मेले तमाशे, शादी और ग़मीके दस्तूर अलग- और व्यर्थ समझने लगेंगे । उनसे घृणा करने लगेंगे। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण जातियाँ किस प्रकार जीवित रहती हैं ? इस प्रकार हमारा दैनिक जीवन कण्टकाकीर्ण हो जातिको अन्ट प्रथाएँ और विशेषताएँ तोताचरम हैं । जायगा । क्योंकि हमको अपने जातीय चाल-ढाल पे जो श्राज उन्नतिका कारण हैं, कल वही हानिकारक प्रेम न रहेगा । फिर हमको अपने दस्तूर और नियम प्रमाणित हुई हैं। एक समय जातिको विजय दिलाती पीजड़ेकी तीलियाँ दिखाई देने लगेंगी, जिनसे हम हैं, दूसरे अवसर पर उसको नीचा दिखलाती हैं। पड मारते-मारते घायल हो जाएँगे। किन्तु जातीय इतिहास वह वस्तु है, जो हमेशा मूल्य जातीय इतिहास ऐक्यका द्वारहै रखती है । यह कभी जातिको किसी प्रकारकी हानि आज कल एकता की बगी धम है । कौवों की सी नहीं पहुंचा सकता। हमेशा सदाचरण और एकता काय-कायँ सब ओर हो रहा है। शायद यह आशा है सिखाता रहता है। अतः हम देखते हैं कि जातिकी कि कौवों का सा एका उनकी तरह शोर मचाने से हो समस्त बातें बदलती रहती हैं, बल्कि समय मजबूर जायेगा । कोई कुछ प्रस्ताव पेश करता है, कोई कुछ करता है कि जाति उनको बदलती रहे । किन्तु जातीय उपाय बतलाता है। वास्तव में जातीय इतिहास ही इतिहास उन सब रिवाजोंके मोतियोंको जो किसी एकता की बड़ा कुंजी है। क्योंकि जाति के कारनामों समय जातिके प्रिय पात्र रहे हों, एक लड़ीमें गंथकर एक और संस्थाओं में सबका भाग है। सबको वे जान से ऐसी माला बनाता है, जिसका पहिनना चच्चेका अप्यारे हैं । आज कुछ भी झगड़ा टण्टा हो, थोकबन्दियाँ धिकार और कर्तव्य है और जिससे जातिकी मानसिक हों, परन्तु त्योहारके दिन सब भेद भाव भल जाते हैं। और नैतिक उन्नतिका पता चलता है। बुजुर्गोका नाम लेकर सब गले मिलते हैं और जातीय अतः जातीय इतिहास ही जातिके व्यक्तियोंको उत्थानकी मन-मोहक कहानियाँ सुनकर, सुनाकर खुशी मिला सकता है। क्योंकि बुजुर्गोंसे किसको दुश्मनी है ? से फूले नहीं समाते हैं। जातीय महापुरुषोंका नाम अापसमें कितना ही लड़ें, श्राद्धके दिन तो सब सम्बसदैव जातिके समस्त दलोंको प्रिय होता है और वास्त. न्धी जमा हो ही जाते हैं । जातीय इतिहास यह स्मवमें देखो तो जातीय इतिहास ही जातीय प्रतिष्ठाका रण करता रहता है कि तुम वास्तव में वही हो, जो पहले चिन्ह है। जातिमें प्रत्येक वस्तु परिवर्तित होती रहती ऐसा ऐसा करते रहे । तुम्हारे विकासका मूल वही है। है । समय सारी प्रथाओंको कुछका कुछ कर दिखाता तुम पर यह बीती है । तुमने अमुक-अमुक काम किये है। वस्त्र, भोजन, भाषा, सब बातों में थोड़ा थोड़ा हेर- हैं। ये सब बातें जाति के प्रत्येक मनुष्य पर सही उतरती फेर होता रहता है। धर्म में क्रान्ति उपस्थित हो जाती हैं। वह अपने वंश, अपने धर्म, अपने रिवाजों और है। इंगलिस्तान जो अाज रोमके नामये चिढ़ता है, प्रथाओंसे इन्कार नहीं कर सकता। अतः जिस जाति कई-सौ वर्ष पहले रोम के धर्मका अनुकरण करने वाला का इतिहास जीवित है, वह कभी भीतरी झगड़ोंसे था । अब अंग्रेज व्यापार, शिल्प और कला-कौशलसे नष्ट नहीं हो सकती। जीविका कमाते हैं । सारा देश एक भट्ठी बना हुआ है इसलिए सभी जातियाँ अपने इतिहासको जीवित भूतकाल में खेतीये पेट भरते थे। सारा देश खेतीसे लह- रखना अपना धर्म समझती हैं । बुजुर्गोंकी यादगार लहाता था । साराँश यह कि यदि अंग्रेजोंके पित्र अब कायम करने को मुख्य कर्तव्य ख़याल करती हैं । निम्न लिखित उपायों से इतिहासका ज्ञान फैलाया जाता है:सकते । अतः वह क्या वस्तु है, जिससे यह विचार (१) त्योहारके दिन जातिके इतिहासमें मुबाबना रहता है कि हम एक जाति हैं और सदासे रहे हैं ? रक हैं-उनके श्राने पर खुशी मनाना जातीय इतिहास लातीय शक्तिकी वृद्धि करना हमारा कर्तव्य है ? केवल सिखानेका सुगम मार्ग है । जैसे अमेरिका और फांसमें जातीय इतिहाससे यह भावना बनी रहती है। जाति स्वाधीनताके अान्दोलनकी सफलताको यादगारमें जुलाकी क्षणिक संस्थानों में इतिहास अटल संस्था है। ईमें त्योहार मनाया जाता है। इंगलिस्तानमें अब एक Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ श्रनेकान्त नया त्योहार एम्पायर डे ( साम्राज्य दिवस ) स्थापित करनेकी सम्मति है, जो विक्टोरियाके जन्मके दिन मनाया जाता है । इसका अभिप्राय है कि बच्चोंको साम्राज्य की ओर अपने कर्तव्यका स्मरण रहे । (२) शहरों, बाजारों और अन्य स्थानोंकानाम बुजुर्गों के नाम पर रखना । यह रिवाज सारे संसार में पाई जाती है । पेरिस में सारे शहर में नेपोलियनका नाम गूँजता है । उसकी बिजय जयन्तियोंकी तारीख हर गली-कूचें की दीवारों पर लिखी हुई है । यहाँ तक कि जिन तारीखों पर कोई प्रसिद्ध जातीय घटना हुई है, उनको भी किसी जगह का नाम बना दिया है, मसलन एक गली और स्टेशनका नाम “४ सितम्बर" है । पहले पहल मैं चकित रह गया कि यह क्या मामला यह ४ सितम्बर क्या वस्तु है ? किन्तु मालूम हुआ कि इसी प्रकार १४ जुलाई आदि नाम भी हैं । लन्दन में ट्राफलगर चौक, वाटरलू स्टेशन इंगलिस्तानकी जल और थल शक्तिकी यादगारें हैं। फाँसके कोई कोई जहाज़ फाँसके विद्वानों के नाम पर हैं । 1 (३) खास तौर पर मूर्ति या मकान बनानामूर्ति सदासे बुजुर्गोंकी यादगार स्थापित करने का अच्छा तरीका चला आया है । अतः लन्दन और पैरिस में मूतियोंसे बड़े मन्दिर बन रहे हैं। पेरिसमें लूथर अजायब घरी पर सैंकड़ों मूर्तियाँ बराबर-बराबर लगाई गई हैं । मानों वे पत्थरकी शक्लें अपने बच्चोंके कारोबार प्रेम भरी दृष्टिसे देख रही हैं । लन्दन में प्रत्येक पग पर किसी न किसी महापुरुषकी मूर्ति दिखलाई पड़ती हैं । मानों हर गली में जातीय इज्जतका चौकीदार खड़ा है । एल्बर्ट की स्मृति में एक बड़ा ही शानदार मकान बनाया गया है और नेपोलियनका मकबरा पेरिस में एक देखने योग्य वस्तु है । (४) बच्चों के नाम रखना - जाति अपने मकानों और बाज़ारोंको महापुरुषोंके नामसे पवित्र करती है, तो क्या अपने प्यारे बच्चों को, जो उसकी सबसे बड़ी सम्पत्ति है, इस आशीर्वाद से वञ्चित रख सकती है ? प्रत्येक जाति अपने बच्चोंको वे नाम देती है, जिनका [फाल्गुन, वीरनिर्वाण सं०२४६६ जीवित रखना उसका कर्तव्य है । मानों हमारे बच्चे उत्पन्न होते ही जातीय इतिहास में भाग लेने वाले बन जाते हैं। और यद्यपि अभी तुतलाना भी नहीं सीखा, तो भी चुपचाप जातीय, प्रतिष्ठाको प्रकट करते हैं। क्यों न हो; इतिहास उन्हीं की तो बपौती हैं। जो कुछ बुजुर्गों कमाया था और जो कुछ हमने प्राप्त किया है, सब उन्हीं के लिए है, और किसके लिए है ? ( ५ ) पाठशालाओं में शिक्षा - पहले सभ्य जाति बच्चोंको पाठशालाओं में अपना इतिहास सिखाती है और उसको रोचक बनाती है महापुरुषोंके चित्र उसमें लगाती है । देशभक्तिपूर्ण कविताएँ पढ़ाई जाती हैं। (६) कवियों की वाणी - जब कोई कवि क़लम लेकर बैठता है, तो वह बहुधा महापुरुषोंकी गाथा सुनाता है । जातीय इतिहासके अगणित आकर्षक दृश्य, जातीय सूरमाओं के कारनामे, जातीय अस्तित्व और उन्हीं के लिए प्रयत्नोंको कथाएँ, ये सब उसकी आँखों में फिरती हैं और उसकी जिव्हाको पाचन शक्ति प्रदान करती है : बैठे तनरे तवाको जब गर्म करके मीर, कुछ शीरमाल सामने कुछ नान कुछ पनीर | जातीय इतिहासकी सैकड़ों कथाओं में से कोई फड़कती हुई कहानी कह डालता है और जातिको सदा के लिए अपना प्रेमी बना जाता है । (७) इतिहास विद्या विद्वानोंकी सहायता -- प्रत्येक यूनीवर्सिटी ( विश्वविद्यालय ) में कई प्रोफेसर शिक्षक ) होते हैं, जो इतिहासके अध्ययनमें लगे रहते हैं; और जातिको अपनी जानकारीसे लाभ पहुँचाते हैं । वे दिन-रात परिश्रम करते हैं और जातीय इतिहासके सम्बन्धमें छान बीन और अन्वेषण करने में संलग्न रहते हैं । (चाँद उद्धत ) * अनुवादक - श्री नारायणप्रसाद अरोड़ा, बी० ० भूतपूर्व एम० एल० सी० Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ তাল স্ট্রাই কি ভলানি উজ্জ্বলুজ द [ले०-श्रीमान् बी० सूरजभानजी वकील ] में तुम्हारी जीवात्माके शान्ति स्वरूप और ज्ञान गुणमें नार भगवान का जन्म विदेह देशकी प्रसिद्ध राज- फ़रक आरहा है, विषय कषायोंके उबाल उठते हैं और धानी वैशालीके निकट कुण्डग्राममें हुआ था, यह जीव इन्द्रियोंका गुलाम होकर संसारमें चक्कर जिसको कुंडलग्राम या कुंडलपुर भी कहते हैं । आपके लगाता फिर रहा है। अगर वह हिम्मत करे तो इस पिता राजा सिद्धार्थ कुण्डग्रामके राजा थे और आपकी गुलामीसे निकल कर आज़ाद हो सकता है और अपना माता वैशालीके महाराजा चेटककी बेटी प्रियकारिणी ज्ञानानन्द स्वभाव प्राप्त कर सकता है। परन्तु विषय थी, जो त्रिशलाके नामसे भी प्रसिद्ध थी। राजा चेटक कषायोंकी यह गुलामी उनकी ताबेदारी करने और उन की दूसरी लड़की चेलना मगध देश के प्रसिद्ध महाराजा के अनुसार चलनेसे दूर नहीं हो सकती, किन्तु अधिक श्रेणिकसे ब्याही गई थी। वीर भगवान ३० बरसकी अधिक ही बढ़ती है । विषय-कषायोंसे कर्मबंधन और आयु तक अपने पिताके घर ब्रह्मचर्य अवस्थामें रहे, कर्मोदयसे विषय-कपाथ उत्पन्न होते रहते हैं । वह ही फिर संसारके सारे मोहजालसे नाता तोड़, सन्यास ले, चक्कर चल रहा है और जीव इससे छूटने नहीं पाता, नम अवस्था धारण कर परम वैरागी होगये और अात्म विषय कपायोंके नशेमे उत्पन्न हुअा भटकता फिर रहा ध्यानमें लीन होकर अपनी आत्माकी शुद्धि में लग गये। है । जिस तरह रामचन्द्र जी सीताके गुम होने पर वक्षों बारह वर्ष तक वे पूरी तरह इसी साधनामें लगे रहकर से भी सीताका पता पूछने लग गये थे अथवा जिस घातिया कर्मोका नाशकर केवल ज्ञानी हो गये। तब तरह थालीके खोये जानेपर उसकी तलाशमें कभी कभी उन्होंने दूसरोंको भी इस संसाररूपी दुःखसागरसे निका- कोई घड़ेमें भी हाथ डाल देते हैं, उसी ही तरह विषयलने के लिये नगर नगर और ग्राम ग्राम घूमना शुरु कषायोंकी पूर्ति के लिये यह जीव संसार भरकी खुशाकिया । नीच-ऊँच, अमीर ग़रीब सबही को अपनी सभा मद करने लगता है । अाग, पानी, हवा, धरती, पहाड़, में जगह देकर कल्याणका मार्ग बताया । प्रायः ३० सूरज, चांद, झाड़, झंड़ और नदी-नाले आदि पदार्थों वर्ष इस ही काम में बिताये और फिर ७२ वर्षकी श्रायु को भी पूजने लग जाता है । नहीं मालूम कौन हमारा में आयुकर्म पूरा होने पर इस शरीरका भी सदाके लिये कारज सिद्ध कर दे, ऐसा बेसुध होनेके कारण यदि संग छोड, पूर्ण शुद्ध बुद्ध और सत्-चित्-अानन्द स्व- कोई किसी ईट पत्थरको भी देवता बता देता है तो रूप होकर तीन लोक के शिखर पर जा विराजे, जहाँ उससे ही अपनी इच्छाओंकी पूर्तिकी प्रार्थना करने लग वह अनन्तकाल तक इसही अवस्थामें रहेंगे। कभी भी जाता है। अपने ज्ञान गुणसे कुछ भी काम नहीं लेता संसारके चक्कर में नहीं पड़ेंगे । है, महा नीच-कमीना बन रहा है और कण-कणसे डर वीर भगवानने स्वयं स्वतन्त्र होकर दसरोंको स्व- कर उसको पजता फिरता है। तन्त्र होनेका रास्ता बताया और इसके लिये अपने परन्तु इस जीवमें केवल एक भय कषाय ही नहीं पैरों पर खड़ा होना सिखाया । कर्मोंकी जंजीरों में जकड़े है जो हर वक्त खुशामद ही करता फिरता रहे । इसको हुए विषय-कषायोंके गुलाम बने हुए, बेबस संसारी तो क्रोध, मान, माया, लोभ, रति, अरति, भय, ग्लानि, जीवोंको समझाया कि-जिस प्रकार श्रागकी गर्मी हास्य, शोक और कामदेव यह सब ही कषाय सताती हैं पाकर ठंडा शांत और स्वच्छ पानी गर्म होकर खल- और सब ही तरह के उबाल उठते हैं। कभी घमण्डमें बलाने लगता है, तरह तरह के जोश आकर देगचीमें आकर अपनेसे कमजोरोंको पैरों तले ठुकराता है, चक्कर लगाने लग जाता है इसी प्रकार कर्मके सम्बन्ध ऊँचे दर्जेके काम करने और उन्नतिके मार्ग: Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० अनेकान्त [फाल्गुन, वीरनिर्वाण सं०२४६६ पर चढ़नेकी उनको इजाजत नहीं देता है और और न किसीकी खुशामद करने या भक्ति स्तुति करनेमे यहां तक बढ़ जाता है कि धर्मके कामों के करने ही यह काम बन सकता है । बीमारी तो शरीरमें से मल से भी उनको रोक देता है. धर्मका जानने का भी मौका दर होनेसे ही शांत होती है. इस ही प्रकार यह जीवात्मा नहीं देता है। मायाचारके चक्कर में आकर चालाक भी विषय-कषायोंके फन्देसे तब ही छट सकता है जब 'लोगोंने तरह तरह के देवता और तरह तरह की मिथ्या कि कर्मोंका मैल उससे अलग हो जाय और वह शुद्ध धर्म क्रियाओंमें पड़कर भटकते हुये भोले लोगोंको ठगना और पवित्र होकर ज्ञानानन्द चैतन्यस्वरूप ही रह जाय । शुरु कर दिया है। परन्तु यह काम तो जीवात्माके ही करनेका है, किसी ___ यह सब कुछ इस ही कारण होता है कि लोग दूसरेके करनेसे तो कुछ भी नहीं हो सकता है। संसारके मोहमें अन्धे होकर बिना जांचे तोले आँख संसारमें हज़ारों देवी-देवता बताये जा रहे हैं मोचकर ही एक एक बातको मान लेते हैं और झठे जिनकी तरफ़से चारों खंट यह विज्ञापन दिया जाता है बहकावेमें आ जाते हैं। वीर भगवानने लोगोंको इस कि वह सर्व शक्तिमान् हैं, जो चाहे कर सकते हैं, उनको भारी जंजालसे निकालने के वास्ते साफ शब्दोंमें सम- राज़ी करो और अपना काम निकालो । हज़ारों लोग माया कि वह अाँख मीचकर किसी बातको मान लेनेकी इन देवी देवताओं के ठेकेदार बनते हैं, और दावा मूर्खता (मूढ़ता) को त्याग कर, वस्तु स्वभावकी खोज बाँधते हैं कि हमको राज़ी कर लो तो सब कुछ सिद्ध करके नय-प्रमाण के द्वारा हर एक बातको मानकर हो जाय, परन्तु इसके विरुद्ध वीर भगवान्ने यह नाद ख्वामख्वाह ही न डरने लग जावे; इस तरह लोगों के बजाया कि जीव तो अपनी ही करनीसे आप बँधता है मिथ्या अन्धकारको दूर करके और उनके झठे भ्रम और अपनी ही कोशिशसे इस बँधनसे निकल सकता है, को तोड़करके उनको बेखौफ बनाया और अपने आप किसी दूसरेके करनेसे तो कुछ भी नहीं हो सकता है। को कर्मों के फन्देसे छडाकर आज़ाद होने के लिये कमर और इसी कारण इन्द्रादिक देवतात्रोंसे पजित श्री वीर कसना सिखाया । वस्तु स्वभाव ही धर्म है, जबयह भगवानने अपनी बाबत भी यही सुनाया कि मैं भी नाद वीर भगवान ने बजाकर लोगोंको गफलतकी नींद किसीका कुछ बिगाड़ सगर नहीं कर सकता हूँ। इस से जगाया, पदार्थ के गुण बताकर लोगोंका भय हटाया कारण किसी दूसरेका भरोसा छोड़ कर जीवको तो श्राप और सब ही जीवोंमें अपने समान जीव बनाकर अापम अपने ही पैरों पर खड़ा होना चाहिये । कमोंका बन्धन में मैत्री तथा दयाभाव रखनेका पाठ पढ़ाया, और इस तोड़ने के वास्ते आप ही विषय-कपायांसे मुँह मोड़ना प्रकार जगत भर में सुख शांति रहनेका डंका बचाया, चाहिये । विषय कषायोंसे ही कर्मबन्धन होता है और तब ही लोगोंको होश आया । कर्मो के उदयसे ही विषय-कपाय पैदा होते हैं, यह ही वस्तुस्वभाव ही धर्म है, इस गुरु-मंत्रके द्वारा वीर चक्कर चल रहा है, जो अपनी ही हिम्मतसे बन्द किया भगवान् ने लोगोंको समझाया कि विषय कषायोंकी जा सकता है । किन्तु जिस प्रकार पुराना बीमार एक गुलामीसे आज़ाद होना और अपना ज्ञानानन्द असली दम तन्दुरुस्त और शक्तिशाली नहीं हो सकता है, दीर्घ स्वरूप प्राप्त करना ही जीवका परमधर्म है, जिसके लिये काल तक इलाज करते करते आहिस्ता आहिस्ता ही किसीकी खुशामद करते फिरने या प्रार्थनायें करनेसे काम उन्नति करता है, उस ही प्रकार कर्मोका यह पुराना नहीं चल सकता है, किन्तु स्वयम् अपने पैरों पर खडे बन्धन भी साधना करते करते आहिस्ता आहिस्ता ही होने और हिम्मत बाँधनेसे ही काम निकलता है। जिस दूर हो पाता है। ' प्रकार बीमारको अपनी बीमारी दूर करनेके लिये स्वयं इस ही साधनाके लिये वीर भगवानने गहस्थी और ही दवा खानी पड़ती है, स्वयं ही कुपथ्यसे परहेज़ रखना मुनि यह दो दर्जे बताये हैं । जो एकदम रागद्वेष और होता है, किसी दूसरेके करनेसे कुछ नहीं हो सकता है विषय कषायोंको नहीं त्याग सकते हैं उनके लिये गृहस्थ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ५] . भगवान महावीर और उनका उपदेश - मार्गका उपदेश दिया, जिसमें वह कुछ कुछ रागद्वेषको खराब होती है-उन्नति करनेके बदले और ज्यादा कम करते हुए अपने विषय कषायोंको भी करते नीचेको गिरती है। इस कारण जितना भी धर्मसाधन रहें और उन्हें रोकते भी रहें। इस तरह कुछ कुछ हो वह अपनी इन्द्रियोंको काबमें करने के वास्ते ही हो । पाबन्दी लगाते लगाते अपने विषय कषायोंको कम अधिक धर्म-साधन नही हो सकता है तो थोड़ा करो, करते जार्वे और रागद्वेषको घटाते जावें । जिन लोगोंने रागद्वेष बिल्कुल नहीं दबाये जा सकते हैं तो शुभ भाव हिम्मत बाँधकर अपनेको विषय कषायोंके फंदेसे छड़ा ही रखो, सबको अपने समान समझ कर सब ही .का लिया है, रागद्वेषको नष्ट करके कर्मोकी जंजीरोंको भला चाहो । दया भाव हृदय में लाकर सब ही के काम तोड़ डाला है और अपना असली ज्ञानानन्द स्वरूप में प्रायो। किसीसे भी द्वेष और ग्लानि न करके सब हासिल कर लिया है ! उनकी कथा कहानियाँ सुनकर, ही को धर्म मार्ग पर लगायो। सांसारिक जायदादकी उनकी प्रतिष्ठा अपने हृदय में बिठाकर खुद भी हौसला तरह धर्म बाप-दादा की मीरासमें नहीं मिलता है और पकड़े और विषय कषायों पर फ़तह पाकर आगे ही न माल-असबाबकी तरह किसीकी मिलकियत ही हो आगे बढ़ते जावें । यह ही पूजा भक्ति है जो धर्मात्माओं सकता है । तब कौन किसीको धर्मके जानने या उसका को करनी वाजिब है। और जो परी तरहसे विषय साधन करने से रोक सकता है ? जो रोकता है वह अपने कषायों को त्याग सकते हैं, राग-द्वेषको दबा सकते हैं को ही पापोंमें फंसाता है। घमण्डका सिर नीचे होता उन्हें गृहस्थदशा त्याग कर मुनि हो जाना चाहिये। है । जो अपनेको ही धर्मका हक़दार समझता है और दुनिया का सब धन्धा छोड़कर अपनी सारी शक्ति अपनी दूसरोंको दुर-दुर-पर-पर करता है वह श्राप ही धर्मसे . अात्माको राग-द्वेषके मैलसे पवित्र और शुद्ध बनाने अनजान है और इस घमण्ड के द्वारा महापाप कमा और अपना ज्ञानानन्दस्वरूप हामिल करने में ही लगा रहा है । धर्मका प्रेमी तो किसीसे भी घृणा नहीं करता देनी चाहिये। है। घृणा करना तो अपने धर्म श्रद्धानमें विचिकित्सा ___वस्तु-स्वभावके जानने वाले सच्चे धर्मात्मा अपना नामका दूषण लगाना है । सच्चा धर्मात्मा तो सब ही . काम दूसरोंसे नहीं लिया चाहते । वह दीन हीनोंकी जीवों के धर्मात्मा हो जाने की भावना भाता है। नीचसे तरह गिड़गिड़ा कर किसीसे कुछ नहीं माँगते हैं । हाँ, नीच और पापीसे पापीको भी धर्मका स्वरूप जिन्होंने धर्म-साधन करके अपने असली स्वरूपको धर्म में लगाना चाहता है। धर्म तो वह वस्तु है जिसका हासिल कर लिया है, उनकी श्रद्धा और शक्ति अपने श्रद्धान करने से महा हत्यारा चाण्डाल भी देवोंसे पजित हृदय में बिठा कर खुद भी वैसा ही साधन करनेकी चाह हो जाता है और अधर्मी स्वर्गोका देवभी गंदगीका अपने मन में ज़रूर जमाते हैं । धर्मका साधन तो राग- कीड़ा बन कर दुःख सठाता है। इस ही कारण वीर द्वेष को दूर करने और विषय-कषायोंसे छुटकारा पाने के भगवानने तो महानीच गंदे और महा हत्यारे मांस भक्षी वास्ते ही होता है, न कि उल्टा उन्हींको पोषनेके पशुओंको भी अपनी सभामें जगह देकर धर्म उपदेश 'सही कारण वीर भगवानका यह उपदेश था सुनाया। धर्मका यह ही तो एक काम है कि वह पापी थी हो या मुनि धर्मात्माको तो हरगिज़ भी को धर्मात्मा बनावे, जो उसे ग्रहण करे वह ही उन्नति किसी भी धम-साधन के बदले किसी सांसारिक कार्यकी करने लग जावे, नीचेसे ऊँचे चढ़ जावे और पज्य सिद्धि की इच्छा नहीं करनी चाहिये। अगर कोई ऐसा बन जावे । धर्म तो पापियोंको ही बताना चाहिये, नीचों करता है तो सब ही करे करायेको मेटकर उल्टा पापोंमें से उनकी नीचता छुड़ाकर उनको ऊपर उभारना फँसता है। धर्मसेवन तो अपनी. अात्मिक शुद्धि के वास्ते चाहिये। जो कोई महानीच-पापियोंको धर्मका स्वरूप ही होता है न कि सांसारिक इच्छाओंकी पूर्ति के वास्ते, बता कर उनसे पाप छुड़ाने की कोशिश करने को अच्छा । जिससे अात्मा शुद्ध होनेके स्थान में और भी ज्यादा नहीं समझता है, पापसे घृणा नहीं करता है, कठोर Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ श्रनेकान्त चित्त होकर उनको पापमें ही पड़ा रहने देना चाहता वह तो आप ही धर्मसे अनजान और दीर्घ संसारी है । धर्मका द्वार तो सब ही के लिये खुला रहना चाहिये और जितना कोई ज्यादा पापी है उतना ही ज्यादा उसको धर्मका स्वरूप समझाने की कोशिश करना चाहिये । यही वीर भगवानकी कल्याणकारी शिक्षा थी, जो सर्व प्रिय हो जाती थी । [फाल्गुन वीर निर्वाणसं० २४६६ वह इसके बाद मिथ्यादृष्टि हो जाता है और फिर दोबारा संभलने से ही सम्यक श्रद्धानी होता है । धर्मका स्वरूप समझाते हुवे वीर भगवान्ने यह भी बताया था कि, धर्म कोई नौकरी नहीं है जो किसी की आज्ञाको पालन करनेसे ही निभ सकती हो या फौज़की कवायद नहीं है जो शरीर के विशेषरूप साधन सेा सकती हो। या कोई कुशता नहीं है जो शरीरको आग में तपाने, तरह तरहका कष्ट पहुँचाने, दुबला पतला और कमज़ोर बनाने या धूप में सुखाने और भूखा मारने से बन जाता हो । धर्म तो वस्तुके असली स्वभावका नाम है । जीवका असली स्वरूप ज्ञानानन्द है, जिसमें बिगाड़ कर और राग द्वेष और विषयकषायके उफ़ान उठते हैं। इस कारण जिस जिस तसे विषय कषायोंका जोश ठण्डा होकर जीवका राग-द्वेष दूर हो सके वह ही धर्म-साधन है । वह ही साधन अपनी अपनी अवस्था के अनुसार जैसा जिसके लिए ठीक बैठता हो वैसा ही उसको करने लग जाना चाहिये । वीर भगवान् ने भी भिन्न भिन्न साधन बताये हैं । गृहस्थियों के ११ दर्जे करके उनके अलग अलग साधन सुनाये हैं और १४ गुणस्थानोंका कथन करके मुनियों के वास्ते भी ध्यान यादिके कई दर्जे बताये हैं । फिर भी यह कथन दृष्टांतरूप बताकर हर एकका साधन उसकी ही अवस्था पर छोड़ा है । इस प्रकार साधन तो सबका भिन्न भिन्न हो गया परन्तु साँचा सबका एक यह हीं होना चाहिये कि राग-द्वेष दूर होकर हमारा जीवात्मा अपने असली स्वभाव में श्रजाय । धर्मी हो जावे, उसको समझाज़रूरी सहायता यह स्थितिकरण जो सच्चे श्रद्धानी में तो अपने धर्मसे गिर । । वीर भगवान्ने यह भी बताया था कि जिस तरह पुराना बीमार इलाज कराता हुआ कभी २ बद परहेज़ी भी कर जाता है और दवां नहीं खाता है, जिससे उस की बीमारी फिर उभर आती हैं और कभी २ तो पहले से भी बढ़ जाती है तो भी घरवाले उसका इलाज नहीं छोड़ देते हैं किन्तु फिरसे इलाज शुरू करके बराबर उस बीमारी को दूर करने की ही कोशिश में लगे रहते हैं । उस ही प्रकार अगर कोई धर्मात्मा ऊँचे चढ़कर नीचे गिर जावे तो फिर बुझाकर तसल्ली-तशफ्फी देकर और पहुँचाकर धर्म में लगा देना चाहिये भी धर्म श्रद्धानका एक ग्रङ्ग है, होना ज़रूरी है । गृहस्थियों को जाने के बहुत ही अवसर आते है इस वास्ते उनको तो स्थितिकरण के द्वारा फिर धर्म में लगा देना ज़रूरी है । किन्तु मुनि भी यदि धर्मसे भ्रष्ट हो जावे तो उसको भी फिर ऊपर उठाकर धर्म में लगा देना चाहिये । उसका छेदोपस्थापन हो जाना चाहिये। अगर ज्यादा ही भ्रष्ट हो गया हो तो दोबारा दीक्षा मिल जानी चाहिये | जिस तरह बच्चा गिर गिर कर और उठ उठ कर ही खड़ा होना सीखता है उस ही प्रकार संसारी जीव भी धर्म ग्रहण करके बार-बार गिरकर और फिर संभलकर ही पक्का धर्मात्मा बनता है। सातवें गुण स्थान से छटे में और छटेसे सातवें में तो मुनि बार-बार ही गिरता और चढ़ता है और ग्यारहवें गुणस्थान पर चढ़कर तो अवश्य ही नीचे गिर जाता है। तब गिरे हुये को फिर ऊपर न उठने दिया जाय तो काम किस तरह चले ? सबसे पहले जीवको उपशम सम्यक्त्व ही होता है, जो दो घड़ीसे ज्यादा नहीं ठहर सकता । प्रत्येक मत चलाने वालोंने और समय- समय के लीडरोंने अपने समय के सांसारिक रीति रिवाजों में भी अपने समय के अनुसार कुछ कुछ सुधार करना ज़रूरी समझा है और उनको पक्का बनानेके लिये धर्म पुस्तकों में भी उनको लिख देना जरूरी समझा है ! जो होते होते धर्म के ही नियम बन जाते हैं, और लकीर के फ़कीर दुनिया के लोग भी अपने प्रचलित रीति रिवाजोंको धर्मके अटल नियम मानने लग जाते हैं । इस प्रकार सांसारिक रीति-रिवाज धर्मका रूप धारण करके धर्म में मिल जाते हैं और यह भेद करना मुश्किल Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ५] भगवान महावीर और उनका उपदेश ३७३ हो जाता है कि इनमें कौन नियम सांसारिक है और परन्तु इस बातका ध्यान ज़रूर रक्खें कि उनसे उनके कौन धार्मिक ? इससे धर्मकी असलियत गुप्त होकर धार्मिक श्रद्धान और धामिक आचरणमें किसी भी भारी गड़-बड़ी पड़ जाती है, और सांसारिक प्रगति भी प्रकारकी खराबी न पाने पावे । रुक जाती है, द्रव्य; क्षेत्र काल; भाव और अवस्थादि सब कुछ बदल जाने पर भी उन सांसारिक नियमोंको वीर भगवान के समयमें महात्मा बुद्ध भी अपने बौद्ध धर्मके अटल नियम मानकर ज्योंका त्यों उनका पालन धर्मका प्रचार कर रहे थे, और मगध देशमें ही अधिकहोता रहता है । हज़ार दुःख उठाने पर भी उनमें हेर- तर दोनों का विहार हुआ है । इस ही कारण वह देश फेर नहीं किया जाता है। उनके विरुद्ध करना महा अब बिहार ही कहलाने लग गया है,परन्तु वीर भगवान अधर्म और अशुभ समझा जाता है। और महात्मा बुद्ध के उपदेशोंमें प्रायः धरती-श्राकाशका अन्तर रहा है। वीर भगवानने तो वस्तु-स्वभावको ही मकान कैसा बनाया जावे, उसका दरवाजा किधर धर्म बताकर प्रत्येक बातको उसकी असलियत अच्छी रक्खा जावे. दरवाजे कितने हों और कितने ऊँचे हो. तरह ढंद पहचान कर ही मानने का उपदेश दिया है. खू टी कहाँ 'लगाई जाय और शरण कहाँ मिलाई जीवात्माको अपना सच्चा स्वरूप समझ कर ही उसकी जाय, दाढ़ी मूंछ और सिरके बाल किस तरह मुंडाये प्राप्तिके साधन में लगाया है । परन्तु महात्मा बुद्ध अपने जावें, उनका क्या ढंग रक्खा जावे, वस्त्राभूषण कैसे धर्मको वस्तु स्वभावकी बुनियाद पर खड़ा करनेसे यहां हों, सिर किस तरह ढका जाय, कपड़ा किस रंगका तक घबराये हैं कि जीवात्माका स्वरूप बतानेसे ही साफ़ पहना जाय, और किस ढंगका पहना जाय, इसी तरह इनकार कर दिया है । जगत अनादि है वा किसीका जाति और बिरादरी, आपसका बर्ताव, छूतछात, किस बनाया हुअा है, उसका अन्त हो जायगा वा नहीं, जीव के हाथका पानी पीना, किसके हाथकी कच्ची और आत्मा शरीरसे अलग कोई वस्तु है वा शरीरके ही किसी और किसके हाथकी पक्की रसोई खाना, रसोईकी सफाई स्वभाव का नाम है, मरने के बाद जीव कायम रहता है के नियम, किस खानेको कहां बैठकर खाना, किस या नहीं इन बातोंकी बाबत तो महात्मा बुद्धने साफ़ बर्तनमें खाना, कौन कौन कपड़े पहन कर खाना, शब्दोंमें ही कह दिया है कि मैं कुछ नहीं बता सकता हूं किससे ब्याह-शादी करना, मरने पर किसको वारिस इसलिए यह पता नहीं लगता है कि उनका धर्म किस बनाना, मरने जीने और ब्याह शादीमें क्या क्या रीति आधार पर टिका हुआ है । वेशक वह अहिंसाका सभी होना, यह सब सांसारिक रीतिये धर्मके तौर पर मानी उपदेश देता था, और दया धर्मको मुख्य ठहराता था, जाती हैं । और अन्य मतोंकी धर्म पुस्तकोंमें भी लिखी परन्तु उस समयमें हिंसाका प्रचार अधिक होनेके कारण पाती हैं। जिनके कारण धर्मकी असली बातें लोप होकर उसको यह पाबन्दी लगानेका भी साहस नहीं हुआ कि यह ही धर्मकी बातें बन जाती हैं। इन ही कारणोंसे उसके धर्मको अङ्गीकार करने वालेको मांस का वीर भगवान्ने अपने उपदेशमें केवल धर्मके स्वरूप ज़रूरी है । इसके अतिरिक्त उसने मरे हुए जीवोंका मांस और उसके साधनोंका ही कथन किया है । और सांसा- खानेकी तो इजाज़त दे दी थी। किन्तु वीर भगवानने जैनी के लिए माँस, मदिरा और शहद त्याग श्रावश्यक साफ़ कह दिया है कि इनका धर्मसे कोई सम्बन्ध नहीं ठहराया और मरे हुए पशुका मांस खाना भी महापाप है। यह ही कारण है कि जैन ग्रन्थोंमें सांसारिक कार्यों बताया, क्योंकि उसमें तुरन्त ही त्रस जीव पैदा होने के नियम बिल्कुल भी नहीं मिलते हैं। हां, यह सूचना लगते हैं और मांस खानेसे घणा न रहकर जीवोंको भी ज़रूर मिलती है कि गहस्थी लोग अपने लौकिक कार्य मार कर खाजानेको मन चलने लगता है । इस ही कारण - समय और अवस्थाके अनुकूल जिस तरह चाहें करें बौद्धोंमें जीते जानवरोंको भी मारकर खाजानेका बहुत Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ अनेकान्त [फाल्गुन वीर निर्वाणसं० २४६६ प्रचार हो गया है और अहिंसा का एक नाम ही बाकी हुई हिंसाको बन्द कराकर सुख और शान्ति का मार्ग रह गया है। चलाया वीर भगवान के उस कल्याण कारी तत्व उपदेश अन्तमें हम सब ही पाठकोंसे प्रार्थना करते हैं कि को और सुख और शान्तिके देनेवाले उस दया धर्मको वह वीर भगवानके उपदेशको पढें और वस्तु स्वभावको श्राप भी सब चावें । अाजकल में जो हिंसा हो समझे। जैनियोंसे भी हमारी यह प्रार्थना है कि आप ही रही है उसका बन्द न होना क्या आप हीकी ग़फ़लतका वीर भगवानके उपदेशोंके अमानतदार हैं इस ही कारण नतीजा नहीं है ? परी तरह प्रयत्न करलेने पर भी कार्य इस बात के ज़िम्मेदार हैं कि वीर भगवानने जीव मात्रके का सिद्धि न होने में मनुष्य अपनी ज़िम्मेदारीसे बच जाता की सिद्धि न होने में मन कल्याण के अर्थ ३० वर्ष तक ग्राम २ फिर कर जिस है, परन्तु कुछ भी प्रयत्न न करने की अवस्था में तो सारा धर्म तत्वको सब लोगों को सुनाया, उस समय में होती दोष अपने ऊपर ही अाता है । E साहित्य प्ररिचय और समालोचन (१) जीतकल्पसूत्र ( स्वोपज्ञ भाष्य भूषित )- अर्थ 'पूर्व' होता है, यह निर्णय किया है कि यह भाष्य लेखक, श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमण । संशोधक (संपादक) उन्हीं जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणका बनाया हुअा है जो मुनि श्री पुण्यवि जय । प्रकाशक, भाई श्री बबलचन्द्र अावश्यक-भाष्य के कर्ता हैं, और इसीसे उन्होंने इस केशवलाल मोदी, हाजापटेलाकी पोल, अहमदाबाद। गाथामें यह सूचित किया कि 'तिसमयहार' अर्थात् पृष्ठ संख्या, २२४ । मूल्य, लिखा नहीं। "जावइया तिसमया" (श्राव० नियुक्ति० गाथा ३०) इस ग्रन्थका विषय निर्ग्रन्थ जैन साधु-साध्वियोंके इत्यादि पाठ गाथानों का स्वरूप जिस प्रकार पहले अपराधस्थान विषयक प्रायश्चित्तोंका वर्णन है। इसमें (पर्व ) आवश्यक ( भाष्य ) में विस्तारसे कहा गया मूल सूत्र गाथाएँ २०३ और भाष्य की गाथाएँ २६०६ है उसी प्रकार यहाँ भी वह वर्णनीय है । क्योंकि श्रावहैं । मूल की तरह भाष्यकी गाथाएँ भी प्राकृत श्यक नियुक्ति के अन्तर्गत "जावइया तिसमया” आदि भाषामें हैं। भाष्यमें मुलके शब्दों और विषयका प्रायः गाथाश्रोंका भाष्यग्रन्थ द्वारा, विस्तृत व्याख्यान करने अच्छा स्पष्टीकरण किया गया है, और इससे वह बड़ा वाले श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के सिवाय दूसरे और ही सुन्दर तथा उपयोगी जान पड़ता है। इस भाष्यकी कोई भी नहीं हैं । इससे यह भाष्य मूल ग्रंथकारका ही बाबत अभी तक किसीको निश्चितरूपसे यह मालम नहीं. निर्माण किया होनेसे स्वोपज है। इतनेपर भी यह भाष्य था कि यह किसकी रचना है, क्योंकि न तो इस भाष्यमें ग्रंथ प्रायः कल्पभाष्य, ब्यवहारभाष्य, पंचकल्पभाष्य, भाष्यकारने स्वयं अपने नामका उल्लेख किया, न चूर्णि- पिण्ड नियुक्तिश्रादि ग्रंथोंकी गाथाओंका संग्रहरूप ग्रंथ है; कारने अपने ग्रंथमें इस भाष्य विषयक कोई सूचना की क्योंकि इस ग्रंथमें ऐसी बहूत गाथाएँ हैं जो उक्त ग्रंथों और न अन्यत्रसे ही ऐसा कोई स्पष्ट उल्लेख मिलता की गाथाअोंके साथ अक्षरशः मिलती जुलती हैं, ऐसा था जिसके अाधारपर भाष्यकारके नामका ठीक निर्णय प्रस्तावनामें सूचित किया गया है। साथ ही, यह भी किया जाता । ग्रन्थ सम्पादक मुनि श्री पुण्यविजयजीने सूचित किया गया है कि श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणकी अपनी प्रस्तावनामें, इस भाष्यकी गाथा नं० ६०% और महाभाष्यकारके रूपमें ख्याति होते हुए भी प्रस्तुत भाष्य उसमें खास तौरसे प्रयुक्त हुए 'हेटा' शब्द परसे जिसका में श्री संघदासगणि कृत भाष्यादि ग्रन्थोंकी गाथात्रोंके * तिसमय हारादीणं गाहाणऽढरह वी सरूवंत। होने में कोई बाधा नहीं है; क्योंकि वे उनसे पहले हो वित्थरयो वरणेज्जा जह हेट्ठाऽऽवस्सए भियेण चुके हैं । अस्तु, ग्रंथका सम्पादन बहुत अच्छा हुआ है, Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, किरण ५ ] मूल और भाष्यकी गाथाओं को भिन्न भिन्न टाइपोंमें दिया गया है, विषय सूची अलग देने के अतिरिक्त ग्रंथ में जहाँपर जो विषय प्रारम्भ होता है वहाँपर उस विषयकी सूचना सुन्दर बारीक टाइप में हाशियेकी तरफ दे दी है, इससे ग्रन्थ बहुत उपयोगी होगया है । छपाई - सफाई सुन्दर है और कागज भी अच्छा लगा है। ग्रंथ आत्मशुद्धि में दत्तचित्त साधु-साध्वियों के अतिरिक्त पुरानी बातोंका अनुसंधान करनेवाले विद्वानों के संग्रह योग्य है । साहित्य- परिचय और समालोचन (२) निजात्मशुद्धिभावना और मोक्षमार्गप्रदीप ( हिन्दी अनुवाद सहित ) – मूल लेखक, मुनि कुंथु - सागर जी – अनुवादक, पन्नानूलाल शास्त्री, जयपुर - प्रकाशिका, श्री संघवी नानीव्हेन सितवाडा निवासी । पृष्ठ संख्या, सब मिलाकर १४४ । मूल्य, स्वाध्याय । मिलने का पता, पं वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री, 'कल्याण' प्रेस, शोलापुर । ये दोनों ग्रन्थ एक साथ निबद्ध हैं- पहले में ६४ और दूसरे १६४ संस्कृत पद्य हैं तथा पिछले ग्रन्थके साथ ३८ पद्योंकी एक प्रशस्ति भी लगी हुई है, जिसमें लेखक ने अपने गुरु आचार्य शान्तिसागर के वंशादिकका कीर्तन किया है. अपनी दूसरी रचनाओंका उल्लेख किया है और इस ग्रंथका रचना समय ज्येष्ठ कृष्ण १३ वीर निर्माण संवत् २४६२ दिया है । साथ ही, अनुवादक और अनुवादके समयका भी उल्लेख कर दिया है। पहले ग्रंथका रचना समय उसके अन्तिम पद्योंमें फाल्गुन शुक्ला ३ वीर नि० सं० २४६२ दिया है। दोनों ग्रंथ अपने नामानुकूल विषयका प्रतिपादन करनेवाले, रचना - सौन्दर्यको लिये हुए, पढ़ने तथा संग्रह करने के योग्य है | अनुवाद भी प्रायः अच्छा ही हुआ है और उसके विषय में अधिक लिखनेकी कुछ ज़रूरत भी मालूम नहीं होती, जबकि मूलकारने स्वयं उसे स्वीकार किया है और अपनी प्रशस्ति तक में स्थान दिया है | अनुवादक महाशयने इस ग्रन्थकी एक हज़ार प्रतियाँ अपनी ओर से बिना मूल्य वितरण भी की हैं, जिससे उनका ग्रंथके प्रति विशेष अनुराग होने के साथ ३७५ साथ सेवाभाव प्रकट है, और इसके लिये वे विशेष धन्यवाद के पात्र हैं । ग्रंथकी दूसरी एक हज़ार प्रतियाँ प्रकाशिका नानी व्हेन की ओर से बिना मूल्य वितरित हुई है । जिनका चित्र सहित परिचय भी साथमें दिया हुआ है । लेखकने यह ग्रंथ अपने गुरु श्राचार्य शान्तिसागरको समर्पित किया है। दोनों के अलग अलग फोटो चित्र भी ग्रंथ में लगे हुए हैं और पं० वर्धमान पार्श्व - नाथ शास्त्रीने अपने 'वक्तव्य' में दोनोंका कुछ परिचय भी दिया है । परन्तु ग्रंथके साथमें कोई विषयसूची नहीं है, जिसका होना ज़रूरी था । (३) धर्मवीर सुदर्शन - लेखक, मुनि श्री अमरचन्द | प्रकाशक, वीर पुस्तकालय, लोहा मंडी, आगरा पृष्ठसंख्या, सब मिला कर ११२ । मूल्य, पांच श्राना । सेठ सुदर्शनकी कथा जैन समाजमें खूब प्रसिद्ध है । यह उसीका नई तर्ज़ के नये हिन्दी पद्योंमें प्रस्फुटित और विशद रूप है । इसमें धर्मवीर सेठ सुदर्शन के कथानकका ग्रोजस्वी भाषामें बड़ा ही सुन्दर जीताजागता चित्र खींचा गया है। पुस्तक इतनी रोचक है कि उसे पढ़ना प्रारम्भ करके छोड़नेको मन नहीं होता वह पशु बल पर नैतिक बलको विजयका अच्छा पाठ पढ़ाती है । पद-पद पर नैतिक शिक्षाओं, अनीतिकी अवहेलना और कर्तव्य बोधकी बातोंसे उसका सारा कलेवर भरा हुआ है। साथ ही, कविता सरल, सुबोध और वर्णन-शैली चित्ताकर्षक है । लेखक महोदय इस जीवनी लिखने में अच्छे सफल हुए जान पड़ते हैं । प्राचीन पद्धति के कथानकोंको नवीन पद्धति में लिखने का उनका यह प्रथम प्रयास अभिनन्दनीय है । उन्हें इसके लिखनेकी प्रेरणा अपने मित्र श्री मदनमुनि जीसे प्राप्त हुई थी । प्रेरणाका प्रसंग भी एक स्थान पर होलीके भारी हुल्लड में सदाचारका हत्याकाण्ड और भारतीय सभ्यताका खून देखकर उपस्थित हुआ था, जिसका 'आत्म निवेदन' में उल्लेख है, और उससे यह भी मालूम होता है कि इस चरित्र ग्रंथका निर्माण राधेश्याम रामायण के ढंग पर भारतीय गांवों में सदाचारका महत्व समझाने-बुझाने के उद्देश्य से हुआ है । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [फाल्गुन, वीरनिर्वाण सं०२४६६ श्रीमान् दानवीर जैन समाज भूषण स्वर्गीय सेठ पृथ्वी सुरम्य जिसने गज मोतियोंस । ज्वालाप्रसादजी, कलकत्ताकी धर्मपत्नी सेठानी साहिबा ऐसा मगेन्द्र तक चोट करे न उस्पै, के आर्थिक सहयोगसे यह ग्रन्थ प्रकाशित हुअा है। तेरे पदाद्रि जिसका शुभ आसरा है । आपने इसका परा व्यय 'श्री वीर पुस्तक माला' लोहा मंडी आगराको, जिसका यह ग्रन्थ द्वितीय पुष्प है, ___ इन दोनों अनुवादोंकी मूल के साथ तुलना करने से यह स्पष्ट जाना जाता है कि गिरिधर शर्मा नीका अनुवाद प्रदान किया है। और इस तरह एक ग्रंथमालाको अपना कार्य चलानेमें मदद की है, जिसके लिये श्राप धन्यवाद मूल के बहुत अनुकूल तथा भावपूर्ण है । दूसरे पद्योंके, अनुवादकी तुलना परसे भी ऐसा ही नतीजा निकलता के पात्र हैं। आपके दो छोटे छोटे पुत्रोंका चित्र पुस्तक में है और खूबी यह है कि यह अनुवाद भी उसी छंदमें देखकर समाजके हितार्थ लाखों रुपये खर्च करनेवाले किया गया है जिसमें कि मूलस्तोत्र निबद्ध है और सेठ साहबके असमय वियोगकी स्मति ताज़ा होकर दुःख होता है और इन बच्चोंके चिराय होने आदिके श्रा जसे बहुत वर्ष पहले वीरनिर्वाण संवत् २४५१ में मेरी भावनाके साथ छपकर बम्बईसे प्रकाशित भी हो लिये अनायास ही हृदयसे आशीर्वाद निकल पड़ता है। चुका है । ऐसी हालतमें प्रस्तुत पुस्तककी 'दो शब्द' पुस्तक छपाई, सफाई तथा गेट-अपकी दृष्टिसे भी नामकी प्रस्तावनामें साहित्य रत्न पं. भंवरलाल भट्टने अच्छी है और सर्व साधारण के पढ़ने तथा संग्रह करनेके योग्य है। अपने पितामहकी इस कृतिका कीर्तन करते हुए और इसे प्रकाण्ड विद्वत्ता तथा कुशल काव्य ज्ञानका फल (४) श्री आदिनाथ स्तोत्र ( समश्लोकी पद्या बतलाते हुए जो यह कल्पना की है कि समश्लोकी नुवादसे युक्त)--अनुवादक, स्व. पं. लक्ष्मणजी अनवादकी कठिनाई के कारण ऐसे अनवादको असंभव अमरजी भट्ट गरोठ । प्रकाशक, सेठ हज़ारीलाल जी समझकर ही अब तक इस काव्य के समश्लोकी अनुवाद हरसुखजी जैन, सुसारी ( इन्दौर)। पृष्ठ संख्या, ३४ । न किये गये होंगे, वह निःसार जान पड़ती है । अस्तु, मूल्य, नित्य पाठ। यह पुस्तक जैन महिलादर्शके १८वें वर्ष के ग्राहकोंको यह प्रसिद्ध भक्तामर स्तोत्रका उसी छंदमें रचित श्री० सौ० नाथीबाई जी धर्मपत्नी सेठ हरसुखजी रोडमल हिन्दी पद्यानवाद है। मूलकी तरह अनुवादका भी एक जी ससारीकी अोरसे भेटस्वरूप वितरित हुई है। एक ही पद्य है--मूलका संस्कृत पद्य ऊपर और उसके । (५) गोम्मटसार कर्मकांड-(मराठी संस्करण) नीचे अनुवादका पद्य दिया है । अनुवाद साधारण है मूल लेखक, प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती । और कहीं कहीं बहुत कुछ अस्पष्ट जान पड़ता है अनुवादक और प्रकाशक श्री नेमचन्द बालचन्द गांधी मूल के अाशयका पर्ण रूपसे व्यंजक एवं प्रभावक नहीं वकील, धाराशिव । बड़ा साइज पृष्ठ संख्या ५२४ मूल्य है। नमूने के तौर पर 'भिन्नेभकुम्भ' नामक ३६पद्य सजिल्द का ५) रु०। का अनुवाद इस प्रकार है-- यह ग्रन्थ हिन्दी अनुवादादिके साथ अनेक बार शार्दूल जो द्विरद मस्तकसे गिराके, प्रकाशित हो चुका है और जैन समाजका कर्म साहित्य भूभाग भूषित करे गज मौक्तिकोंको। विषयक एक प्रधान ग्रंथ है। अभी तक मराठी भाषामें सो भी प्रहार करदे यदि आश्रितों पै, इसका कोई अनवाद नहीं हुआ था। इसका यह मराठी होता समर्थ न कदापि त्रिलोकमें भी॥ संस्करण अपनी खास विशेषता रखता है। इसमें मूल उक्त पद्यका जो अनुवाद कविवर पं० गिरधर शर्मा ग्रन्थकी गाथाअोंके साथमें क्रमशः अनवाद देनेकी जी ने किया है वह निम्न प्रकार है-- पद्धतिको नहीं अपनाया गया है, बल्कि गाथा अथवा नाना करीन्द्रदलकुम्भ विदारके की, गाथाओंके नम्बर देकर उनके विषयका यथावश्यकता Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य- परिचय और समालोचन वर्ष ३, किरण ५ ] अनुवाद, व्याख्यान तथा कोष्ठकों आदि की रचना - द्वारा स्पष्टीकरण किया गया है। एक विषयको एक ही स्थान पर जाने के लिये अनेक गाथाओं का सार एक दम दिया गया है । और इसी प्रकार अनेक गाथा के विषयको मिला कर एक ही कोष्टक भी करना पड़ा है । गाथाओं को क्रमशः अनुवाद पूर्वक साथ साथ देने पर ऐसा करने में दिक्कत होती थी, इस कठिनाईको दूर करने के लिये सब गाथाओं को क्रम पूर्वक अधिकार- विभाग सहित एक साथ ( पृ० ४६६ से ५१२ तक) अलग दे दिया है। कोष्ठकोंके निर्माणसे विषय को समझने ग्रहण करने में पाठकों तथा विद्या •र्थियोंको आसानी हो गई है। इस संस्करण में संदृष्टि आदिको लिये हुए २४५ कोष्टक दिये गये हैं, कोष्ठकोंका निर्माण बड़े अच्छे ढंगसे किया गया है और उनमें विषय दर्पणकी तरह प्रायः साफ़ झलकता है। जहां कोष्टकी किसी विषयको विशेष स्पष्ट करने की जरूरत पड़ी है वहाँ उसका वह सष्टीकरण भी नीचे दे दिया गया है । इस तरह इस ग्रंथको परिश्रम के साथ बहुत उपयोगी बनाया गया है । जो लोग मराठी नहीं जानते वे भी इस ग्रंथ कोष्ठकों परसे बहुत कुछ लाभ उठा सकते हैं । इस ग्रंथको लिखकर तैयार करने में ७ || वर्षका समय लगा है, जिसमें पं० टोडरमल जी की भाषा टीका और श्री केशववर्णी तथा अभयचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती की संस्कृत दीकाका ब्र० शीतलप्रसादजी से अध्ययन काल भी शामिल है । अध्ययन कालके साथ साथ ही भाषान्तर (अनुवाद) का कार्य भी होता रहा है । ता० २० जुलाई सन् १६२६ से कार्य प्रारम्भ होकर २२ फरवरी सन् १९३७ को समाप्त हुआ है । इस संस्करणके तैयार करनेमें वकील श्री नेमिचंद बालचंद्र ३७७ जी गाँधी जी को जो भारी परिश्रम करना पड़ा है उसके लिये आप विशेष धन्यवाद के पात्र हैं । श्रापने इसके लिये ब्र० शीतल प्रसादजीका बहुत श्राभार माना है और यहाँ तक लिखा है कि इसमें जो कुछ भी अच्छी. बात है उस सबका श्रेय उक्त ब्रह्मचारीजीको हैं । तः ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी भी ऐसे सत्कार्य में सहयोग देनेके कारण खासतौर से धन्यवादके पात्र हैं । ग्रन्थ में एक छोटासा ( ५ पृष्ठका ) शब्दकोश भी लगा हुआ है, जिसस दो भाग हैं- पहले में कुछ शब्दों का अर्थ मराठी भाषा में दिया है और दूसरे में कुछ शब्दों के अर्थ के लिये उन गाथाओं के नम्बर सामने लिखे हैं। जिनमें उनका अर्थ दिया है। साथ ही '२१ पेजकी ' विस्तृत विषय सूची भी लगी हुई है जिसमें ग्रंथके ४०७ विषयों का उल्लेख है, दोनों ही उपयोगी हैं। इनके श्र तिरिक्त ६ पेजका शुद्धिपत्र और ३ पेजका “मी काय केलें" नामका अनुवादकीय वक्तव्य भी है । इस वक्तव्य में मूल ग्रंथका निर्माणकाल ईसाकी आठवीं शताब्दी बतला दिया गया है, जो किसी मूलका परिणाम जान पड़ता है, क्योंकि जिन चामुण्डरायके समय में इस ग्रंथकी रचना हुई है उनका समय ईसाकी दसवीं शताब्दीं है— उन्होंने शक सम्वत् ६०० ( ई० ६७८ ) में 'चामुण्णराय पुराण की रचना समाप्त की है । ग्रंथ में गाथा को जो एक साथ मिलाकर Runn ing matter के तौरपर - छापा गया है वह कुछ ठीक मालूम नहीं हुआ । प्रत्येक गाथाको दो पंक्तियांम छापना अच्छा रहता - थोड़े ही कागजका फर्क पड़ता । गाथाओं की एक अनुक्रमणिका भी यदि ग्रंथ में लगादी जाती तो और अच्छा होता । अस्तु । ग्रन्थकी छपाई सफाई और काग़ज़ सब ठीक है और वह सब प्रकारसे संग्रह करने के योग्य है | Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Register No L. 4328 Ak9OKOK अनुकरणीय गत वर्ष कई धर्म-प्रेमी दाताओं की ओरसे १२१ जैनेतर संस्थाओं को अनेकान्त एक वर्ष तक भेंट स्वरूप भिजवाया गया था। हमें हर्ष है कि इस वर्ष भी भेंट स्वरूप भिजवाते रहने का शुभ प्रयास होगया है । निम्न सज्जनोंकी ओर से जैनेतर संस्थाओं को भेंट स्वरूप अनेकान्त भिजवाया गया है । अनेकान्त पर आए हुए लोकमतसे ज्ञात हो सकेगा कि अनेकान्त के प्रचारकी कितनी आवश्यकता है । जितना अधिक अनेकान्तका प्रचार होगा उतना ही अधिक सत्य शान्ति और लोक हितैषी भावनाका प्रचार होगा । अनेकान्तको हम बहुत अधिक सुन्दर और उन्नतिशील देखना चाहते हैं । किन्तु हमारी शक्ति बुद्धि हिम्मत सब कुछ परिमित हैं ! हमें समाज हितैषी धर्म बन्धुयोंके सहयोग की अत्यन्त आवश्यकता है। हम चाहते हैं समाज के उदार हृदय बन्धु जैनेतर संस्थाओं और विद्वानोंको प्रचारक - दृष्टिसे अनेकान्त अपनी ओर से भेंट स्वरूप भिजवाएँ और जैन बन्धुओं को अनेकान्तका ग्राहक बनने के लिए उत्साहित करें । ताकि अनेकान्त कितनी ही उपयोगी पाठ्य सामग्री और पृष्ठ संख्या बढ़ाने में समर्थ हो सके । लड़ाईकी तेजी के कारण जबकि पत्रोंका जीवन संकटमय हो गया है, पत्रोंका मूल्य बढ़ाया जा रहा है । तब इस मंहगी के जमाने में भी प्रचारको दृष्टिसे केवल ३) रु० वार्षिक मूल्य लिया जा रहा है । इस पर भी जैनेतर विद्वानों शिक्षण संस्थाओं और पुस्तकालयों में भेंट स्वरूप भिजवाने वाले दानी महानुभावोंसे ढाई रुपया वार्षिक ही मूल्य लिया जायगा । किन्तु यह रियायत केवल जैनेतर संस्थाओंके लिये मूल्य भिजवाने पर ही दी जायेगी । समाजमें ऐसे १०० दानी महानुभाव भी अपनी ओरसे सौ-सौ पचास-पचास अथवा यथाशक्ति भेंट स्वरूप भिजवानेको प्रस्तुत हो जाएँ तो 'अनेकान्त' श्राशातीत सफलता प्राप्त कर | जैनेतरोंमें अनेकान्त जैसे साहित्यका प्रचार करना जैनधर्म के प्रचारका महत्वपूर्ण और सुलभ सकता साधन है । बा० मोहनलालजी जैन देहली की ओर से: १. लायब्रेरियन, महावीर जैन पुस्तकालय, चांदनी चौक देहली । ला चिरञ्जीलालजी बड़जात्या, वर्धा की ओरसे : १. सैक्रेटरी, मारवाड़ी लायब्रेरी चाँदनी चौक देहली | साहू अजितप्रसाद इन्द्रसैन जैन नजीबाबाद की ओर से : १. मंत्री, गवर्नमेन्ट संस्कृत कालेज पुस्तकालय बनारस | २. मंत्री, महाराणा कालेज पुस्तकालय उदयपुर | वीर प्रेस ऑफ इण्डिया, कनॉट सर्कस, न्यू देहली । baba771079107207070/ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त चैत्र, वीर नि० सं० २४६६ अप्रैल १९४० - OROOFCFOOLFCOTO 01700101FCO FOO1700101170016F60107130160 HO वीर-स्तवन [ १ ] पराग रेणु, बानसे जयति जिनेश-पद-पदम परसि परम-पापी पावन पलाये हैं । प्रचण्ड - चण्ड-चण्डकोश नागपति, पल माँहि घोर क्रूर भाव विसराये हैं | विजय- विनत-नर अमर चमर-इन्दूमाथके मुकुट चूम जाहि शोभा पाये हैं । भव के गहन जल-निधि में शरण - हीन पोतसम तिन्हें भवजलसे तिराये हैं । [ २ ] रजनि भयावनी में गाजे घनघोर घन, घन अन्धकार सब तारागण मन्दजी | कड़कड़ कड़क सौदामिनि-दमक घोर, जग-जीव काँप, यह कैसो दुःख - कन्दजी || दुख दलियेको त प्रकटे हैं वीर मानो वीर घन-चीवरको पुनमके चन्द जी । जयति जिनन्द जगजीव के श्रानन्दकन्द, टारे भव - फन्द द्वन्द, त्रिशला के नन्दजी || वर्ष ३, किरण ६ वार्षिक मूल्य ३० [ ३ ] कौन पोत- सम भव- जलसे उतारे पार १ कौन मेघ-सम जग-ज्वालन बुझात है ? कौन महा-मोह व्याधि शमन करन-हितचतुर भिषग-सम भेषज बहात है ? संसार गहन निरजन बन-बीच भूलेजनको दे शान्ति कौन मारग सुझात है ? 'बसन्त' - सम कौन उपवन-हित वीर- पादपद्म और न लखात है | [ ४ ] कहत [ ले० - श्री० चसन्तीलाल न्यायतीर्थ ] जुगलकिशोर मुख्तार अधिष्ठाता वीर सेवामन्दिर सरसावा (सहारनपुर) कौन कौन चिन्तामणि- सम पूरे जन-मन-काज १ कौन दिनमणि-सम मोहको नसात है ? हिमकरण-सम तप्त - जन-मुदकारी ? कौन इन्दु सम भवि चकोर सुहात है ? कौन सिंह-सम कर्म करिको विदारे कुम्भ ? कौन अरविन्द संत भ्रमर लुभात है ? चातकको मेघ-जिम कहत 'वसन्त' ताहि तजि वीर-पाद-पद्म और न लखात है ॥ SOVOINO 100101011091 10 10 10921017001010110017OFOTO0101016 LOLOO सम्पादक संचालक तनसुखराय जैन कनॉट सर्कस पो० बो० नं० ४८ न्यू देहली । FOOTOFO@00101OOFOOTOFOO1YOF0100101100 101 10010101010016 मुद्रक और प्रकाशक - अयोध्याप्रसाद गोयूलीय । FOOTNOTO FOTOFO Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची पृष्ठ 378 564 389 390 392 393 1. उमास्वाति-स्मरण .. 2. श्वेताम्बर कर्म-साहित्य और दिगम्बर पंचसंग्रह [पं० परमानन्दजी ... 3. धर्माचरणमें सुधार [बा० सूरजभान वकील 4. महावीर-गीत ( कविता)-[शान्तिस्वरूप जैन "कुसुम" 5. अहिंसा [ श्री० बसन्तकुमार एम. एस. सी. . 6. संसारमें सुख की वृद्धि कैसे हो ? [श्री दौलतराम मित्र 7. प्रभाचन्दका तत्त्वार्थ सूत्र [सम्पादकीय 8. मोक्ष-सुख[श्रीमद् रायचन्द 9. वीर-श्रद्धाञ्जलि [श्री रघुवीरशरण एम. ए. 'घनश्याम'.. 10. प्राकृत पंचसंग्रहका रचना-काल [प्रो० हीरालाल जैन एम.ए. 11. प्रश्न ( कविता )-[श्री रत्नेश विशारद 12. साहित्य सम्मेलनकी परीक्षाओंमें जैन दर्शन [पं० रतनलाल संघवी ... 13. वीरका जीवन मार्ग [ बा० जयभगवान बी. ए एल. एल. बी. वकील ... 14. वीर स्तवन ( कवित्ता)- [श्री बसन्तीलाल न्यायतीर्थ... 15. साहित्य अरिचय और समालोचन .. ... 407 408 ... . . 409 410 411 414 टाइटिल पृष्ट 1 सूचनाविलम्ब होने के कारण इस किरणमें 16 पृष्ठ कम जा रहे हैं, उनकी पूर्ति आगामी किरणों में करदी जायेगी। ---व्यवस्थापक