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________________ ३३६ अनेकान्त [फाल्गुन, वीरनिर्वाण सं०२४६६ के शिष्य श्री क्षमाकल्याण मुनिने भी राजशेखर सूरि- जन्म-स्थान “पिर्वगुई” नामक कोई ब्रह्मपुरी बतलाई वत् ही उल्लेख किया है। और यह भी विशेषता बत- गई है । माताका नाम गंगा और पिताका नाम शंकर. लाई है कि हरिभद्र सूरिके क्रोधको शांत करनेवाले भट्ट बतलाया गया है । इसी प्रकार याकिनी महत्तराजी श्री जिनभट सूरिजी नहीं थे; किन्तु “याकिनी महत्तराजी" । के साथ चरित्र नायक श्री जिनभटजीकी सेवा में नहीं ही थी। गये थे, किन्तु श्री जिनदत्त. सूरिजीके समीप गये थे; ___ सुना जाता है कि इन्होंने १४४४ अथवा १४४० ऐसा उल्लेख है। श्री जिनदत्त सूरिजीसे हरिभद्रसूरिने बौद्धोंको नाश करनेका संकल्प किया था; अतः उस प्रश्न किया था कि “धर्म कैसा होता है" ? इसपर संकल्पजा हिंसाकी निवृत्तिके लिये १४४४ अथवा गुरुजीने उत्तर दिया कि धर्म दो प्रकारका होता है:१४४० ग्रंथोंके रचने की आदर्श प्रतिज्ञा ली थी। अपने १ सकामवृत्तिस्वरूप धर्म और २ निष्कामवृत्तिस्वरूप उज्वल जीवनमें ये इतने ग्रंथ रच सके थे या नहीं; इस धर्म । प्रथमसे स्वर्गादिकी प्राप्ति होती है और द्वितीयसे सम्बन्धमें कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं पाया जाता है। "भव-विरह” होता है । इसपर भद्र-प्रकृति हरिभद्र सूरिने केवल इतने ग्रन्थोंके रचनेवाले कहे जाते हैं एवं माने सविनय निवेदन किया कि "हे करुणासिंधो ! मुझे तो जाते हैं। "भव-विरह" ही प्रिय है । इसपर श्री जिनदत्त सूरिजीने हरिभद्र सूरिने अपने कुछेक ग्रन्थोंके अन्तमें 'विरह' । प्रसन्न होकर उन्हें साधु-धर्मकी पवित्र दीक्षा दी। शब्दको अपने विशेषण रूपसे संयोजित किया है। यह शिष्योंके सम्बन्धमें कथावलिमें इस प्रकार उल्लेख है कि इनके दो शिष्य थे, जिनके नाम क्रमसे जिनभद्र शब्द हंस और परमहंसकी अकाल मृत्युका द्योतक है. ऐसी मान्यता है । उनके दुःखसे उत्पन्न वेदना स्वरूप और वीरभद्र थे। इन दोनोंको बौद्धोंने किसी कारणही एवं उनकी स्मृति के लिये ही "विरह" शब्द लिखा वशात् एकान्तमें मार डाला था, इससे हरिभद्र सूरिको भार्मिक आघात पहुँचा एवं आत्मघात करने के लिये ये तैयार होगये। किन्तु ऐसा नहीं करने दिया गया। ____ श्री प्रभाचन्द्र सूरिने अपने प्रभावक चरित्र में अन्त में हरिभद्र सूरिने ग्रंथ-रचना ही शिष्य अस्तित्व लिखा है कि प्राचार्य हरिभद्र सूरिने अपने ग्रंथोंका समझा और तदनुसार इन्होंने अनेक ग्रन्थोंकी रचना व्यापक और विशाल प्रचारार्थ तथा ग्रन्थोंकी अनेक प्रतियाँ तैयार करनेके लिये “कार्पासिक" नामक किसी इसी प्रकार कथावलिमें यह भी देखा जाता है कि भव्य श्रात्माको व्यौपारमें लाभकी भविष्यवाणी की थी: हरिभद्र सूरिको लल्लिग"नामक एक सद्गृहस्थने ग्रन्थऔर तदनुसार उसने व्यौपारकर पुष्कल द्रव्य-लाभ किया था, जिससे उसने अनेक प्रतियाँ तैयार कराई रचनामें बाह्य सामग्रीकी बहुत सहायता प्रदान की थी। यह जिनभद्र वीरभद्रका चाचा (पितृव्य) था । इसे और स्थान २ पर पुस्तक भंडारोंमें उन्हें भिजवाई थी। चरित्र नायकजीकी द्रव्य-विषयक भविष्य वाणीसे पुष्कल कथा-भिन्नता लाभ हुआ था । इसने उपाश्रयमें एक ऐसा रत्न रख श्री महेश्वर सरि कृत कथावालिमें हरिभद्र सूरिका दिया था कि जिसका प्रकाश रात्रिमें दीपकवत् फैलता की।
SR No.527160
Book TitleAnekant 1940 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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