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________________ वर्ष ३, किरण ५] हरिभद्र-सूरि था और उस प्रकाशकी सहायतासे प्राचार्यश्री रात्रिमें यह भी पूर्ण सत्य है कि विद्याधरगच्छ और श्वेभी ग्रंथ रचनाका कार्य भलीभाँति कर सकते थे और ताम्बर संप्रदायमें श्री याकिनी महत्तराजीकी किसी करते थे। अज्ञात प्रेरणासे श्री जिनदत्त सूरिजीके पास दीक्षा ग्रहण ___ हरिभद्र सूरि जब भोजन करने बैठते थे, उस समय की थी। और श्री जिनभट जी के साथ इनका सम्बन्ध लल्लिग शंख बजाता था, जिसे सुनकर याचकगण वहाँ गच्छपति गुरुरूपसे था। एकत्रित हो जाते थे। याचकोंको उस समय भोजन जन्म-स्थान और माता पिताके नामके सम्बन्धमें कराया जाता था और तदनन्तर याचकोंके हरिभद्रसरि ऐतिहासिक सत्यरूपसे कुछ कह सकना कठिन है । को नमस्कार करने पर प्राचार्यश्री यही आशीर्वाद देते किन्तु ये ब्राह्मण थे, अतः कथावलिका उल्लेख सत्य धे कि “भवविरह करने में उद्यमवन्त हो।" इसपर याचक हो सकता है। प्रभावक-चरित्र के अनुसार चित्तौड़ नरेश गरण पुनः “भवविरह सूरि चिरंजीवी हो" ऐसा जयघोष जितारिका पुरोहित बतलाना सत्य नहीं प्रतीत होता है, करते थे । इसीलिये जिन-शासन शृंगार आचार्य हरि क्योंकि चित्तौड़के इतिहास में हरिभद्र-कालमें "जितारि" भद्र सूरिका अपर नाम "भवविरह सरि', भी प्रसिद्ध हो नामक किसी राजाका पता नहीं चलता है । इसी प्रकार गया था। हाथीवाली घटना भी कितना तथ्याँश रखती है, यह भी सम्पूर्ण कथा-मीमांसा एक विचारणीय प्रश्न है; क्योंकि इस घटना की श्रीयह तो सत्य है कि कथाका कुछ अंश कल्पित है, मुनिचन्द्र सूरि कृत उपदेशपदकी टीकाके उल्लेखमें कोई कुछ अंश विकृत है और कुछ अंश रूपक अलंकारसे चर्चा नहीं है । यह कथाभाग पीछेसे जोड़ा गया है, संमिश्रित है । साधु-शिरोमणि श्राचार्य हरिभद्र सूरिके ऐसा ज्ञात होता है। पांडित्य-प्रदर्शन और तत्सम्बन्धी गुज्वल और श्रादर्श जीवन चरित्रका अधिकाँश भाग अंशका इतना ही तात्पर्य प्रतीत होता है कि इनकी विस्मृति के गर्भमं विलुप्त होगया है; जिसे अब हमारी वृत्ति प्रारंभमें अभिमानमय होगी और ये अपनेको सबसे अधिक विद्वान् समझते होंगे तथा शेषके संबंधमें कल्पनाएँ ठीक ठीकरूपमें ढंढ निकालने में शायद ही हीन-कोटिकी धारणा होगी । इसी धारणाका यह रूप समर्थ हो सकेंगी। प्रतीत होता है। जो कि कवि-कल्पना द्वारा इस प्रकार ___ ये प्रकृतिसे भद्र, उदार, सहिष्णु, गम्भीर और कथाके रूपमें परिणत हो गया है। विचारशील थे; यह तो पूर्ण सत्य है और इनकी सुन्दर कृतियोंसे यह बात पूर्णतया प्रामाणिक है। दार्शनिक श्री याकिनी महत्तरा जोके साथ इनका सम्पर्क और क्षेत्रमें इनके जोड़का शाँत विद्वान् और लोकहितकर इतना भक्ति-पूर्ण सम्बन्ध कैसे हुआ ? यह एक अज्ञात उपदेष्टा शायद ही कोई दूसरा होगा । पं० बेचरदास- किन्तु गम्भीर रहस्यपूर्ण बात है । एक श्लोक अथवा जीके शब्दोंमें ये वादियोंके वादज्वरको, हठियोंके हठ- गाथा के आधार से ही इतना प्रचण्ड गम्भीर दार्शनिक ज्वरको और जिज्ञासुओंके मोहज्वरको शांत करने में एक वैदिक दर्शनको छोड़कर एकदम जैन-साधु बनकर जैनआदर्श रामबाण रसायन-समान थे । दर्शन भक्त बन जाय; यह एक आश्चर्य-जनक बात
SR No.527160
Book TitleAnekant 1940 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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