SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३५ अनेकान्त [फाल्गुन, वीरनिर्वाण सं०२४६६ प्रतीत होती है । यह सम्भावना हो सकती है कि कोई यह कोई अस्वाभाविक बात नहीं है । बौद्धोंसे इन्होंने अति जटिल दार्शनिक समस्या इनके मस्तिष्कमें चक्कर अवश्य शास्त्रार्थ किया होगा और उन्हें अपमान पूर्वक लगाती रही होगी और उसका समाधान इन्हें बराबर पराजय की कलक-कालिमासे चोट पहुँचाई होगी। किन्तु नहीं हुआ हो; ऐसी स्थितिमें सम्भव है कि अनेकान्त- बौद्धोंका इस प्रकार नाश किया हो; यह कुछ विश्वसिद्धान्त द्वारा पूज्य याकिनी महत्तराजीसे इनका समा- सनीय प्रतीत नहीं होता है। यह हो सकता है कि धान हो गया होगा और इस दशामें स्याद्वादकी महत्ता मानवप्रकृति अपूर्व है और इसलिए बौद्धोंका नाश करने और दार्शनिक समस्याके समाधानसे इन्हें परम प्रसन्नता का संकल्प कर लिया हो और उस संकल्पजा हिंसाकी हुई होगी और इस प्रकार यह प्रसन्नता ही इन्हें जैन-द- निवृत्तिके लिये ही एवं शिष्यमोहकी निवृत्ति के लिये ही र्शनके प्रति अनुरक्त बनाने में एवं साधु बनानेमें कारण १४४४ या १४४० ग्रन्थोंको रचनेका विचार किया हो । भूत हुई होगी, ऐसा ज्ञात होता है । यही श्री याकिनी- और यथा शक्ति इस संख्याको पूर्ण करनेका प्रयास महत्तराजीके प्रति इनकी भक्ति और श्रद्धाका रहस्य किया हो, इस सत्य पर अवश्य पहुँचा जा सकता है कि प्रतीत होता है। बौद्धों और इनके बीचमें कोई न कोई तुमुल युद्ध अवस्याद्वाद या अनेकान्तवाद जैनदर्शनका हृदय है। श्य मचा है और वह कटुताकी चरम-कोटि तक अवश्य इसकी मौलिक विशेषता यही है कि इसके बलसे जटिल पहुँचा होगा । बौद्धोंकी तत्कालीन नृशंसतापूर्ण निरं. से जटिल दार्शनिक समस्याका भी सरल रीत्या पूर्ण कुशता और उत्तरदायित्वहीन स्वछंदता पर हरिभद्रसमाधान हो जाता है । अतः हो सकता है कि असाधा- सूरिको अवश्य क्रोध आया होगा और संभव है कि वह रण दार्शनिक हरिभद्रकी दार्शनिक समस्याएँ इस सिद्धांत क्रोध हिंसाकी अक्रियात्मक अवस्थाओं में से अवश्य के बल पर हल होगई हों और इस प्रकार ये जैन धर्मा- गुजरा होगा । इस प्रकार तज्जनित पापकी निवृत्तिके नुरागी बन गये हों। लिये ग्रंथ रचनाकी प्रतिज्ञाकी हो । अतः इस विस्तृत शिष्य-संबंधी कथा-भागका आधार. यही हो आद्योपाँत घटनाका यही मूल अाधार प्रतीत होता है। सकता है कि इनके शिष्य तो दो अवश्य ही हुए होंगे यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि बौद्धोंकी स्वच्छंइनका गृहस्थ नाम शायद हँस और परमहंस होगा दतापर ये अकुंश लगानेवाले और उनकी उन्मत्तताका और दीक्षा नाम संभव है कि जिनभद्र और वीरभद्रके दमन करने वाले थे । अतः भारतीय संस्कृति के और रूपमें हो । प्रभावक चरित्र और कथावलिमें पाये जाने खास तौर पर जैन संस्कृति के ये प्रभावक संरक्षक और वाले नाम-भेदसे यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है। विकासक महापुरुष थे; इसमें कोई संदेह नहीं है । कथा-अंशसे यह भी सत्य हो सकता है कि बौद्धोंने इनकी प्रतिभा संपन्न कृतियों और साहित्य सेवाके इन दोनोंको कोई महान् कष्ट पहुँचाया हो और इन्हें संबंधमें अगली किरणमें लिखनेका प्रयत्न करूंगा। भयंकर प्रताड़ना दी हो; जिससे संभव है कि ये दोनों शिष्य काल कर गये हों । इस पर प्राचार्य हरिभद्र सरिको यदि प्रचंड क्रोध आ जाय तो मानव-प्रकृति में (अपूर्ण)
SR No.527160
Book TitleAnekant 1940 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy