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________________ ३२६ अनेकान्त भगवान् सिद्धार्थ- कुलभानु न केवल अहिंसाके ब्रह्मा को लेकर अवतीर्ण हुए थे किन्तु जीवमात्रकी समानताको प्रत्यक्षीभूत कराने आये थे । विचार-वैषम्य द्वारा होनेवाले विरोध शमनको स्याद्वाद जैसी विभूति के साथ भगवानने दर्शन दिया था । भगवान वर्धमानका अहिंसा और विश्वशांतिका पाठ अज्ञान और लैव्यके छिपानेका विधान नहीं था । उसका जन्म नाथवंशी युद्ध वीर क्षत्रियकुल- पुंगव के परी - क्षित और विक्रान्त हृदयमें हुआ था । वीर जिनेन्द्रकी तपोश्त आत्माने वास्तवमें इन्द्रभूत, वायुभूत, अग्निभूत जैसे गणधरों श्रेणिक-बिम्बसार और अंगेश कुणिक-प्रजातशत्रु, कौशल-रक्षक प्रसेनजित जैसे नरेशोंके ही नहीं किन्तु लेष्ठा, चन्दना, चेलना जैसी धनाओं के हृदयों को भी श्रालोड़ित किया था और विश्वशांति तथा भ्रातृत्व फैलानेको दीक्षित किया था । " न गच्छेज्जैनमन्दिरम्' के शमन करनेकी शक्ति सौम्यमूर्ति जिनराज तुम्हारे हाथमें ही है, अर्थवादकी भोर क्षिप्रगति से दौड़नेवाले संसारको रुकाये बग़ैर विश्व कल्याण हो ही नहीं सकता, पर इसका सेहरा तुम्हारे जैसे सिरोंपर ही बाँधा जा सकता है। सिद्धान्तों के दिग्विजयको वाँछा जिनके हृदयों में उद्वेलित रहती है उनका शौर्य श्राजकलकी जैन समाज में प्राप्त कराना तुम्हारी ही कृपापर अवलम्बित है। भगवन् ! तुम्हारे द्वारा प्रचारित धर्म में भगवान बुद्ध की प्रश्न- अवहेलना वा श्रपलामको स्थान नहीं । प्रभु ईसाकी दया तुम्हारी जैसी तपस्याओं में निष्णात नहीं । वस्तुनिरूपणमें बात बातमें युद्ध होनेकी श्रावश्यकतको तुम्हारे सापेक्ष-वादने सदाके लिये दूर कर दिया । प्राणीमात्र जहाँ भ्रातृत्व हो सकता है वहाँ राष्ट्रकी स्वातन्त्र्यलिप्सा और एक उद्देश्याधिकृत बन्धुत्व ין [फाल्गुन, वीर- निर्वाण सं० २४६६ का प्रश्न उठानेकी आवश्यकता नहीं, वह तो स्वभावले ही उसमें गर्भित है किन्तु वहाँ राजनीतिकी ग्रंथियाँ खोलनेवाला कर्मयोगी गाँधी नहीं । सिधारी हाथ कृपाणरिक्त होते हुए भी विश्व नायकत्व सफलतापूर्वक कर सकते हैं, इसके तुमसे बढ़कर और कौन जीवित उदाहरण हो सकता है ? निरतिशय क्राँति के युवराजका हृदय इतनी श्रवाधशांतिसे शासित हो यह भारतवर्षके ही भाग्य और जलवायुकी विचित्रता है । क्षत्रियके नृशंस, दयाविहीन और कर्कश हृदयसे विश्वशांति की कल्लोल प्राणीदयाका श्रविरल श्रोत, राज्यलिप्सा से श्रोतप्रोत वक्षस्थलसे मानवसमताकी श्रावाज पचेन्द्रिय जीवोंको भी उद्धारका संदेश, कैसा विचित्र विरोध है । तुम्हारे सुन्दर शरीर सम्पत्ति-युत नव-हृदय में रूस तथा भयंकर तपनिगृहीत किन्तु स्वभाव सरल श्रात्मसंयम है। देवांगनाओंके मधुर हास्य तथा प्रलोभनोंमें भी मदनपर रुष्ट हो उसे दहन करनेको शिवशक्तिकी श्रावश्यकता नहीं । बिना भोग तथा तलवारके मदनविजय ही नहीं, विश्वविजय करनेवाले अतिवीरको क्यों बोधिसत्व आदर की दृष्टिसे देखते ? कुसीनारा के निर्माण पथगामी समवयस्क तथा गतऋषिने यदि तुम्हें सर्वज्ञ और सर्वदर्शी कहकर विभूषित किया तो इससे अधिक बुद्धभगवान् जैसे श्रापके प्रति और क्या कह सकते थे ? हृदयोंको द्रवित करनेवाले और वरवस श्राँसू बहा देनेवाले उपसर्गों के बीच में भी शाँति और क्षमाके अविचल अवतार यदि तुम्हारी तपस्या पूर्ववत् बनी रही तो क्या श्राश्वर्य ? यदि विश्व के सबसे बड़े शाँति के अवतार कहकर तुम्हारा आवाहन किया जाय तो क्या अत्युक्ति ?
SR No.527160
Book TitleAnekant 1940 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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