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________________ ३४२ अनेकान्त [फाल्गुन, वीरनिर्वाण सं० २४६६ प्रथम अभ्यास अवस्थामें ही सताती हैं; क्योंकि यदि उसे अपने स्वरूप का पूरा बोध हो और यह मालूम रहे कि मैं क्या कर सदा जाग्रत रहना रहा हूँ।तो वह कषायोंके फेरमें कभी न फंसे । अक्सर यह सदा जाग्रत एवं सावधान रहना, यह योगकी पहली देखा जाता है कि मनुष्य कोई काम करके उसी प्रकार सीढ़ी और प्रथम शर्त है। इस विषयमें कुछ योग- पछताता है जिस प्रकार कि स्वप्न में बुरी बातें देख कर निपुण प्राचार्यों के वाक्य जानने योग्य हैं: 'जागृत होने पर दुःखी होता है। वह सोचता है कि उस भवभुवणविभ्रान्ते नष्टमोहास्तचेतने । समय किसीने मुझे जगा क्यों न दिया ? सावधान क्यों एक एव जगत्यस्मिन् योगी जागर्त्यहर्निशम् ॥ न कर दिया ? हाय ! मुझे ऐसे विचार क्यों उत्पन्न हुए। _ -श्रीशुभचंद्राचार्य-ज्ञानर्णव यही बात वह तब सोचता है जब कि काम-क्रोधादिके अर्थात्-जन्म जन्मके भ्रमणसे भ्राँत हुए तथा आवेशमें कुछ कर बैठता है। मोहसे नष्ट और अस्त होगई है चेतना जिसकी, ऐसे यदि सूक्ष्मतासे देखा जाय तो संसारके बीजरूप जगत् में केवल योगी ही रातदिन जागता है। कर्मोंकी जड़ यह असावधानता ही है । यदि यह निकल कालानलमहाज्वालाकलापि परिवारिताः। जाय तो नवीन कर्मोंका आस्रव बिल्कुल रुक जाय मोहांधाः शेरते विश्वे नरा.जाग्रति योगिनः॥१० तथा पुराने कर्म बिना किमी प्रतिक्रियाके नष्ट होते चले -श्रीनंदिगुरुविरचित योगसारसंग्रह जायँ । यह सावधानी या जाग्रति सबसे प्रधान योग है, अर्थात्-कालरूपी महा अग्निकी ज्वालाकी कला- इसके बिना और सब योग वृथा है; क्योंकि अक्सर ओंसे घिरे हुए इस विश्वमें मोहाँध लोग सोते हैं और देखा जाता है कि बहुत से योगियोंमें संवर-निर्जराकी, योगी लोग जाग्रत रहते हैं। अपेक्षा प्रास्रव-बन्ध ही बढ़ जाता है । जा णिसि सयलह देहियह जोगिहु तहिं जग्गेइ। अनेक बार यह ही देखने में आया है कि बहुतसे जहिं पुणु जग्गइ सयलु जगु सा णिसि मणिवि सुवेह॥१७३ लोग काम-क्रोधादिका कारण न मिलने देने के लिये -श्री योगीन्दुदेव-परमात्मप्रकाश जंगल-पहाड़ आदिका आश्रय लेते हैं; परन्तु स्वप्नोंके अर्थात्-जो सब देहधारिजीवोंकी रात्रि है उसमें समय वे भी असंख्य कर्मोका बन्ध कर लेते हैं। इस योगी जागता है और जहाँ सारा जगत् जागता है वहाँ लिये योगीको चाहिए कि वह रात्रिको भी सावधान रहे। योगी उसे रात्रि समझकर (योगनिद्रामें) सोता है। दिनकी अपेक्षा काम-क्रोधादि रिपु रातको ही अधिक __योगका सर्वप्रथम उद्देश्य कर्म के परमाणुओंका सताते हैं । वैज्ञानिकोंका कथन है कि इसका सूर्यसे संवर-अर्थात् उन्हें लगने से रोकना है । ये कर्मके पर- सम्बन्ध है । माणु मनुष्यको अपने स्वरूपकी असावधानी-सुषुप्तिकी योगके ग्रन्थोंमें जो यह जाग्रत रहनेकी क्रियाका अवस्थामें ही लगते हैं । जबसे यह जीव संसारमें जन्मता उपदेश दिया है इसकी खोज में मैंने बहुत दिन सोचहै तबसे मृत्युपर्यन्त वह जागनेकी अपेक्षा सोता ही विचार और प्रयोगोंमें बितायें और तब वह क्रिया बड़ी अधिक है। काम-क्रोधादि कषायें पप्त मुश्किलसे मेरे हाथ लगी। यह क्रिया मैंने आज तक
SR No.527160
Book TitleAnekant 1940 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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