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________________ ३४४ अनेकान्त सोने के पहले उत्तम विचारोंसे तथा शीर्षासन के अभ्याससे अथवा कमरके नीचे तकिया रखकर सोने से भी स्वप्न नहीं आते, क्योंकि इनसे प्राणोंकी गति ऊर्ध्व होती है, यह मेरा खुदका अनुभव है । प्राणोंकी गति निम्न होने से कामुक स्वप्न आते हैं और उत्तेजना होती है। हमेशा जाग्रत होने के अभ्यासके लिये सबसे पहले जाग्रत अवस्था में भी जो असावधानी रहती है उसे दूर करना चाहिए। क्योंकि पुनश्च जन्मतिरकर्मयोगात्स एव जीवः स्वपिति प्रबुद्धः । — कैवल्योपनिषद् अर्थात्-जन्मांतरोंके कर्मयोगके कारण वही जीव जमा हुआ भी सोता है। सदा सतत् जाग्रत रहनेका अभ्यास करनेके लिये मनुष्यको चाहिये कि वह सुबह उठने के बादसे रात्रिको सोने तक हर एक काम करते समय मनन- पूर्वक इस बातका खयाल करता रहे कि वह क्या कर रहा है। उठते समय मन ही मन जाप करे कि मैं उठ रहा हूँ। बैठते समय जाप किया करे कि मैं बैठ रहा हूँ । इतने पर भी यदि खयाल भूल जाय, तो यह जाप ज़ोर ज़ोर से बोला जाना चाहिए, जिसमें सबको सुन सड़े; परन्तु मन ही मन जाप करने का फल अधिक है । इस जपका शुभ परिणाम तुम्हें एक ही दिन में मालूम होगा । यहाँ तक कि रात्रि में सोते वक्त ही तुम्हारे अन्दर यह जाप चालू रहेगा तथा स्वप्न यदि कभी श्रावेंगे तो उसमें भी तुम अपनेको जाप करते हुए पानोगे । उस समय तुम्हारी प्रांतरिक सदेंसद्विवेकबुद्धि जाग्रत रहेगी और हरेक खोटे कामोंसे बचाती रहेगी। जब तुम्हारी उठनेकी इच्छा होगी तब ही तुम्हारी नींद खुलेंगी और इस क्रिया के फल-स्वरूप [फाल्गुन, वीरनिर्वाण सं० २४६६ तुम्हें श्रात्म दर्शन भी हो सकेगा, जो कि असली सम्यग्दर्शन है । इस अभ्यासपूर्वक तुम जो भी सांसारिक व्यावहारिक काम करोगे उन सबमें तुम्हारी अत्यल्प आसक्ति होंगी, जिसका परिणाम यह होगा कि कर्मोंका आसव अत्यल्प हो जायगा। यह कहना भी अत्युक्तं न होगा कि किसी समय श्रास्रव बिल्कुल बन्द भी हो जायगा; क्यों कि विषयैर्विषयस्थोऽपि निरासंगो न लिप्यते । कर्दमस्थो विशुद्धात्मा स्फटिकः कर्दमैरिव ॥ ६०॥ नीरागोऽप्रासुकं द्रव्यं भुंजानोऽपि न बध्यते । संखः किं जायते कृष्णः कर्ममादौ चरत्रापि ॥१७॥४ द्रव्यतो यो निवृत्तोऽस्ति स पूज्यो व्यवहारिभः । भावतो यो निवृत्तोऽसौ पूज्यो मोक्षं यियासुभिः॥ ६ - अमितगति योगसार अर्थात् विषयों में रचापचा होने पर भी निरासंग (अनासक्त ) जीव उनसे उसी प्रकार लिप्त नहीं होता जिस प्रकार कि विशुद्धात्मा स्फटिक कीचड़ में रह कर भी उससे लिप्त नहीं होता । नीराग मनुष्य अप्रासुक द्रव्य खाकर भी उससे बद्ध नहीं होता । कीचड़ में रहकर क्या शंख काला हो जाता है ? बाह्य वेशा दिसे जो नि. वृत्त मालूम होता है उसकी पूजा संसारी लोग करते हैं, परन्तु मोक्ष जाने की इच्छा रखने वाले ऐसे मनुष्य की पूजा करते हैं जो भावसे निवृत्त है । हम ऐसे कई गृहस्थाश्रमी साधुयोंका चरित्र सुन चुके हैं, जो संसारमें रहकर भी उससे निर्मोही रह सके, परंतु ऐसे मनुष्य करोड़ोंमें एक दो ही होते हैं । महात्मा गांधी ऐसे पुरुषोंमें से एक हैं। करोड़ों रुपये आने जाने में इन्हें हर्ष शोक नहीं होता और न अपने कार्यके पलट जाने से ही इन्हें हर्ष - शोक होता है ।
SR No.527160
Book TitleAnekant 1940 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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