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________________ ३५४ अनेकान्त .[फाल्गुन वीर निर्वाण सं० २४६६ की लालसा हुई। चकि वह सर्वशक्तिमान् सर्वज्ञ, से भी जिन कार्योंका निर्माण किया जाता है, उनमें और व्यापक था; इसलिये उसने स्वेच्छानुसार तांबा आदि-जिस मूल वस्तुसे कार्य पैदा हुआ तमाम जड़ी और चेतन-जगत्-पर्वत, समुद्र, नद- है-बराबर अन्वयरूपसे पाया जाता है। उपादान नदी, भूखण्ड, बनखण्ड, देश, द्वीप और पशु-पक्षी, कारण अपनी पर्यायों-हालतोंको तो छोड़ देता है, कीड़ा-मकोड़ा, देव, मनुष्य आदिका निर्माण पर वह खुद कभी विनष्ट नहीं होता, उससे जिन किया। इस कार्यके निर्माणमें उसे किसी भी अन्य कार्योंकी सृष्टि की जाती है, उन कार्योंमें उपादानके साधन-उपादानादि कारणोंकी-ज़रूरत नहीं समस्त गुण अविवाद रूपसे पाये जाते हैं। हुई; अर्थात् स्वयं ईश्वर ही उपादान और निमित्त ईश्वरवादी लोग जगत-कार्यकी रचनामें ईश्वरकारण था। को ही उपादान वा निमित्त कारण बतलाते हैं, पर पाठको ! आप लोग जानते ही होंगे कि प्रत्येक युक्ति और बुद्धिकी कसौटी पर कसनेसे यह बात कार्यके करनेमें उपादान-कारण और निमित्त बिल्कुल झूठ साबित होती है। क्योंकि मैं पहले ही कारणकी आवश्यकता हुआ करती है। जो अपनी लिख चका हूँ कि कार्यमें उसके उपादान के समस्त हस्ती वर्तमान पर्याय-मिटाकर खुद कार्य रूपमें गुण पाये जाते हैं । अब सोचिये, यदि जगत-कार्य तब्दील हो जाय उसे उपादान कारण कहते हैं; का उपादान कारण ईश्वर है, तो लाजमी तौरपर और जो कार्य करने में सहायक हो उसे निमित्त ईश्वर के सर्वज्ञत्व, व्यापकत्व, सर्वशक्तिमत्त्वादि या सहायक कारण कहते हैं । जैसे, रोटी बनानेके गण जगतमें पाये जाना चाहिये । परन्तु संसारमें लिये प्राटा, रसोइया, पानी आग आदिकी आव- जितने कार्य नज़र आते हैं, उनमें ईश्वरके गणोंश्यकता हुआ करती है; रोटी कार्यमें आटा उपा- का खोजने पर भी सद्भाव नहीं मिलता, फिर न दान कारण है; आटा अपनी वर्तमान चूर्ण पर्याय- जाने किस आधार के बल पर ईश्वरबादी ईश्वरको को छोड़कर पानी आदिके सहयोग-सम्मिश्रणसे जगतका उपादान कारण बतलाकर उसे कलंकित पिंडादि प्राकृतियोंको धारण करता हुआ, रसोइया करते हैं । भले ही अन्धश्रद्धालु ईश्वरको वैसा माके हाथोंकी चपेट वा चकला-बेलनकी सहायतासे नते रहे, परन्तु जिनके पास समझने-तर्क करनेकी चपटा तथा गोलाकार में परिवर्तित होकर अग्निपर बुद्धि है, वे तो इसे निरी युक्तिशून्य कपोल-कल्पना सेकनेसे रोटी-कार्यमें बदल जाता है, पर वह अपने कहेंगे। रूप-रसादि गुणोंको नहीं छोड़ता। स्वर्णसे कड़ा, अन्य ईश्वरवादी लोग ईश्वरको जगतका बाली, कुण्डल आदि अनेक भूषण बनाये जाते उपादान कारण न मान, निमित्त कारण बतलाते हैं; परन्तु सोना अपने स्वर्णत्व, पीतत्वादि स्वरूपको हैं; उनका कहना है कि सृष्टि-रचनाके पहले कभी नहीं छोड़ता, केवल अपनी पिंड, कुण्डल ब्रह्मांड में ईश्वर, जीव और प्रकृति तीन ही पदार्थ आदि पर्यायों और आकृतियोंका ही परित्याग थे। ईश्वरने स्वेच्छानुसार जीव और प्रकृतिसे करता है। तांबा, पीतल, लोहा, मट्टी, काष्ठ आदि चेतन तथा अचेतन जगत्की उत्पति की। जिस
SR No.527160
Book TitleAnekant 1940 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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