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________________ ३२० अनेकान्त [फाल्गुन, वीर-निर्वाण सं० २४६६ अपनी कुत्सित चित्तवृत्ति के अनुकूल उस प्राणिको चूँकि ये सब कार्य क्रोध, मान, माया, अथवा लोभके दुखी करने के अनेक साधन जुटाये जाते हैं; मायाचारी वश होते हैं । इसलिये हिंसाके सब मिला कर स्थलरूप से दूसरोंको उसके विरुद्ध भड़काया जाता है, विश्वास- से १०८ भेद हो जाते हैं। इन्हींके द्वारा अपनेको तथा पात किया जाता है-कपटसे उसके हितैषी मित्रोंमें दूसरे जीवोंको दुःखी या प्राणरहित करनेका उपक्रम किया फट डाली जाती है उन्हें उसका शत्रु बनानेकी चेष्टा जाता है। इसीलिये इन क्रियाओंको हिंसाकी जननी की जाती है, इस तरहसे दूसरोंको पीड़ा पहुँचाने रूप कहते हैं । हिंसा और अहिंसाका जो स्वरूप जैन ग्रन्थों में व्यापारके साधनोंको संचित करने तथा उनका अभ्यास बतलाया गया है, उसे नीचे प्रकट किया जाता हैबढ़ानेको समारम्भ कहा जाता है। फिर उस साधन- सा हिंसा व्यपरोप्यन्ते बसस्थावराङ्गिनाम् । सामग्रीके सम्पन्न हो जाने पर उसके मारने या दुखी प्रमत्तयोगतः प्राणा द्रव्य-भावस्वभावकाः ॥ करनेका जो कार्य प्रारम्भ कर दिया जाता है उस क्रिया -अनगारधर्मामृते, अाशाधरः ४, २२ को प्रारम्भ कहते हैं । ऊपरकी उक्त दोनों क्रियाएँ तो अर्थात्-क्रोध-मान-माया और लोभके अाधीन हो भावहिंसाकी पहली और दूसरी श्रेणी हैं ही, किन्तु कर अथवा अयत्नाचारपूर्वक मन-वचन-कायकी प्रवृत्तिसे तीसरी आरम्भक्रियामें द्रव्य-भाव रूप दोनों प्रकारको त्रमजीवोंके-पशु पक्षी मनुष्यादि प्राणियोंके--तथा हिंसा गर्भित है, अतः ये तीनों ही क्रियाएँ हिंसाकी स्थावर जीवोंके--पृथ्वी, जल, हवा और बनस्पति आदिमें जननी हैं । इन क्रियाओं के साथमें मन वचन तथा काय रहने वाले सूक्ष्म जीवोंके --द्रव्य और भाव प्राणोंका घात की प्रवत्तिके संमिश्रणसे हिंसाके नव प्रकार हो जाते हैं करना हिंसा कहलाता है । हिंसा नहीं करना सो अहिंसा और कृत-स्वयं करना, कारित-दूसरोंसे कराना, अनु- है अर्थात् प्रमाद व कषायके निमित्तले किसी भी सचेतन मोदन-किसी को करता हुआ देखकर प्रसन्नता व्यक्त प्राणीकों न सताना, मन वचन-कायसे उसके प्राणों के करना, इनसे गुणा करने पर हिंसाके २७ भेद होते हैं। घात करने में प्रवृत्ति नहीं करना न कराना और न करते x परिदावकदो हवे समारम्भो ॥ हुएको अच्छा समझना 'अहिंसा' है । अथवा-भग० अाराधनायां, शिवार्यः ८१२ रागादाणमणुप्पा अहिंसगत्तेति भासिदं समये । साधनसमभ्यासीकरणं समारम्भः । तेसिं चेदुप्पत्ती हिंमेति जिणेहि णिहिट्ठा ॥ -सवार्थसिद्धौ, पूज्यपादः, ६, ८। --सर्वार्थसिद्धौ, पूज्यपादेन उद्धतः । सान्यायाहिंसादिक्रियायाःसाधनानां समाहारःसमारंभः। अर्थात्-श्रात्मामें राग-द्वेषादि विकारोंकी उत्पत्ति -विजयोदयायां, अपराजितः,गा० ८११। नहीं होने देना 'अहिंसा' है और उन विकारोंकी अात्मामें भारंभो उहवमो, उत्पत्ति होना 'हिंसा' है। दूसरे शब्दोंमें इसे इस रूप में -भ० अाराधनायां शिवार्यः, ८१२। कहा जा सकता है कि आत्मा में जब राग-द्वेष-कामप्रक्रमा भारम्भः। –सर्वार्थसिद्धौ, पूज्यपादः ६, ८। क्रोध-मान-माया और लोभादि विकारोंकी उत्पत्ति होती संचितहिंसाधुपकरणस्य प्रायः प्रक्रम आरंभः। है तब ज्ञानादि रूप अात्मस्वभावका घात हो जाता है विजयोदयायां; अपराजितः, गा०८११ इसीका नाम भाव हिंसा है और इसी भाव हिंसासे
SR No.527160
Book TitleAnekant 1940 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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