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________________ ३२८ अनेकान्त [फाल्गुन वीर-निर्माण सं० २४६६ प्रमाण न माननेवालोंको नास्तिक कहते हैं, वैसे अपने अदृष्ट-स्वोपर्जित पुण्य-पाप कर्मसे मरण ही दूसरे लोग भी वैदिक लोगोंको उनके ग्रन्थ व कर किसी एक मनुष्यादि गतिसे दूसरी देवादि शास्त्र प्रमाण न माननेके कारण नास्तिक कह गतिमें जन्म लेता है. उसीको परलोक कहते हैं । सकते हैं, और प्रायः ऐसा देखा भी जाता यदि जीवास्तित्व भौतिक-जगतसे भिन्न और है । मुसलमान लोग कुरानकी बातों और शाश्वतिक न माना जायगा तो परलोक आदि मुस्लिम-संस्कृतिसे वहिष्कृत सभी लोगोंको भी न बन सकेंगे; क्योंकि परलोक-गामीके अस्तिकाफ़िर-नास्तिक कहते हैं। दूसरे लोग भी कोई त्व होनेपर ही परलोक अस्तित्व बनता है। मिथ्यात्वी और कोई अन्य हीन शब्दके द्वारा हम देखते हैं कि जीवास्तित्वको आस्तिकता अपने मतके न माननेवाले लोगोंको कुत्सित की कसौटी मानने पर संसारकी जन-संख्याका बचनोंके द्वारा सम्बोधित करते हैं। इससे वेद- बहुभाग आस्तिक कोटिमें सम्मिलित हो जाता निन्दक अथवा वेद वचनोंको प्रमाण न स्वीकार है। वौद्ध दार्शनिकोंको नैरात्म्यवादी होनेपर भी करनेवाले दार्शनिकोंको 'नास्तिक' कहना बिलकुल एकान्ततः नास्तिक कहना उपयुक्त न होगाः क्योंकि युक्तिशून्य और स्वार्थसे ओतप्रोत जंचता है। बौद्धदर्शनमें भी सन्तानादि रूपसे जीवका अस्तित्व अतः वेद-वाक्य-प्रमाण न माननेसे भिन्न ही स्वीकार किया गया है, भले ही उनका वैसा नास्तिकताका कोई आधार होना चाहिये। मानना युक्तिसंगत न हो,पर जीव या आत्माका तो ___ इस तरह ईश्वर-विश्वास और वेदवचन- अस्तित्व किसी न किसी रूपमें माना ही गया है। प्रमाण आस्तिकता की सच्ची कसौटी नहीं है, इन चार्वाक दर्शन और इसीकी शाखा प्रशाखारूप दोनोसे भिन्न ही आस्तिकता की युक्तिसंगत मन- अन्य दर्शन जो जीव-आत्मको पथिवी, जल, अग्नि, को लगनेवाली कोई कसौटी होना चाहिये । मेरे वायु और आकाशसे भिन्न पदार्थ नहीं स्वीकार विचारसे तो भौतिक-जगतसे भिन्न चैतन्ययक्त करते, किन्तु इन्हींके विशिष्ट संयोगसे जीवकी आत्मा या जीवका मानना ही आस्तिकताकी सर्व- उत्पत्ति मानते हैं, उन्हें जरूर नास्तिक कोटिमें श्रेष्ठ कसौटी, आधार या बुनियाद है । इससे सम्मिलित किया जा सकता है। प्रत्यक्षसे ही हमें भिन्न आस्तिकताकी जितनी परिभाषायें देखनेमें देहादिसे भिन्न सुख-दुःखका अनुभव कर्ता मालूम आती हैं वे सभी अधूरी, असंगत और सदोष होता है । जो अनुभव करता है उसीको जीव मालूम होती हैं । जीवका अस्तित्व स्वीकार करने कहते हैं । मरनेके बाद पंचभूतमय शरीर मौजूद पर ही ईश्वर-विश्वास, वेद-वाक्य प्रमाण आदिकी रहनेपर भी उसमें चेतनशक्तिका अभाव देखा चर्चा बन सकती है। बिना जोवके उक्त समस्त जाता है। जब तक देहमें आत्मा विद्यमान रहता कथन निराधर और निष्फल प्रतीत होता है। है तभी तक उसकी क्रियायें देखनेमें आती हैं। अदृष्ट-पुण्य-पाप और परलोककी कथनी भी जीव चेतन शक्तिके बाहिर निकल जानेपर मिट्टीकी हेतुक होनेसे जीवास्तित्व पर ही निर्भर है। जीव तरह केवल पुद्गलका पिण्ड ही पड़ा रहता है।
SR No.527160
Book TitleAnekant 1940 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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