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अनेकान्त
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[फाल्गुन वीर निर्वाण सं० २४६६
महापुरुष थे; किन्तु फिर भी जिस प्रकार शीतल चन्दन करते हुए दीन वचनों में प्रार्थना करो कि हम शृगाल हैं के आल्हादक बनमें भी दावानल सुलग जाता है, वैसे सिंह नहीं। बाचाल दूतकी दर्पपूर्ण कटुक्तियों पर कुलही चरित्र नायकके भी उदार एवं शीतल हृदयमें क्रोध- पतिको उत्तेजनात्मक रोष हो पाया और क्रोधसे दांतों ज्वाला प्रज्वलित हो उठी। मोहकी माया बड़ी प्रबल द्वारा श्रोष्ठको दबाता हुअा बोल उठा कि "अरे मूर्ख हुश्रा करती है; शिष्य मोह और बौद्ध-मदान्धताने समु- दूत ! जानो, हमें उस उद्धत प्रतिवादीका निमन्त्रण ज्जवल सुधाकरकी सुमधुर सुधाको विकराल विषधरके स्वीकार है । हे अभिमानी सन्देश वाहक ! उस धृष्ट विषम विषके रूपमें परिणत कर दिया । हरिभद्र सूरि प्रतिवादीको साथमें यह शर्त भी कह देना कि जो पराउठे और वेग पूर्वक वायुकी चालसे चलते हुए वौद्धों जित होगा; उमे प्राण दण्ड दिया जावेगा। यह शर्त से बदला लेने के लिये राजा सूरपालकी सभ में पहुँचे। स्वीकार हो तो हम वाद-विवादमें सम्मिलित हो सकते राजाको तदनुरूप आशीर्वाद दिया और परम हंसकी हैं; अन्यथा नहीं"। दूतने तत्काल उत्तर दिया कि रक्षाके लिये भूरि भूरि प्रशंसा करते हुए धन्यवाद दिया; "पराजितको जलते हुए तेलके कड़ाहेमें कूदना होगा; एवं बौद्धोंसे वाद विवाद कर प्रतिशोधकी प्रज्वलित यही प्राण-दंडकी रूप रेखा होगी। यदि आपको पूरा २ विकराल ज्वालाको शांत करनेकी अपनी अभिलाषा आत्म विश्वास हो कि मैं ही विजयी होऊँगा; तो ही प्रकट की। राजाने नम्रता पूर्वक निवेदन किया कि अापको वाद-विवादके क्षेत्रमें उतरना चाहिये, अन्यथा बौद्ध प्रतिवादी तो अनेक हैं और आप केवल एक ही पराजयके भीषण कलंक के साथ प्राणोंसे हाथ धोना हैं, अतः यह सामञ्जस्य कैसे हो सकेगा ? हरिभद्रसूरिने पड़ेगा और साथ साथ बौद्ध शासन के सौभाग्य श्रीको सिंहवत् निर्भयता पूर्वक उत्तर दिया कि अाप भी भीषण धक्का लगेगा; एवं बौद्ध-शासन-प्रभावना पर निश्चित रहें। मैं अकेला ही उन प्रतिवादी रूप हाथियों कलंक-मुद्राकी अमिट छाप लग जायगी"। इन वचनों के समूहमें सिंहवत् पराक्रमी सिंह होऊँगा। इस पर राजा से कुलपतिको मार्मिक आघात पहुँचा और चोट खाये ने एक वाचाल किन्तु बुद्धिमान दूतको बौद्ध कुलपति हुए सर्पकी भांति दूतको भर्त्सना देता हुअा बोला कि के समीप शास्त्रार्थका निमन्त्रण स्वीकार करनेके लिये “हे मूर्खाधिराज ! हमारी चिन्ता न कर और अधिक भेजा। सन्देश वाहकने जाकर कठोर भाषामें गर्जना प्रलाप मत कर । जा; हम शास्त्रार्थ के लिये आते हैं; की कि “हे बौद्ध-शिरोमणि तर्क-पंचानन" आप अपनेको राजासे कह देना कि सब व्यवस्था करे, किसी बातकी न्याय वन-सिंह समझ बैठे हो; किन्तु अभी तक प्रति- त्रुटि नहीं होने पावे ।" वादी मतंगज स्वछंदता पूर्वक विचरण कर रहे हैं; उन- विवाद-सभाकी सर्व प्रकारेण पूरी व्यवस्था की गई । का दमन क्यों नहीं करते हो ? ऐसा ही कोई दुर्दमनीय सभापति, सभ्य, मध्यस्थ, दर्शक और श्रोताओंसे सारी मतंगज राजा सूरपालकी राज-सभामें आया हुआ है; सभा सुशोभित होने लगी। समय होते ही राजाभी उसने प्रतिमल्लवत् ललकारा है कि यदि अपनी मान- उपस्थित हुा । प्राण-घातक शर्त के कारण प्रत्येक मर्यादाकी रक्षा करना चाहते हो तो विवादात्मक युद्ध- व्यक्ति के हृदयमें उत्सुकता और व्याकुलताका आश्चर्य क्षेत्रमें श्राश्रो; अन्यथा बौद्ध-धर्मकी पराजय स्वीकार जनक संमिश्रण था। संपूर्ण सभामें सूची भेद्य नीर