SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्ष ३, किरण १] कि प्रतिमा के कण्ठ- स्थानपर इन्होंने तीन रेखाएँ खींच दौं; जिससे कि यह प्रतिमा जिन की नहीं रहकर बौद्धकी बन गई और तदनुसार उसपर पैर रखकर ये दोनों भी आगे बढ़ गये । रेखा -प्रक्रिया से कुलपतिको विश्वास हो गया कि ये दोनों नवीन ब्रह्मचारी ही जैन हैं । " जैन हैं" ऐसा ज्ञात होते ही प्रतिशोधकी और प्रतिहिंसाकी भयंकर ज्वाला प्रज्वलित हो उठी और मृत्यु दण्ड देना ही कुलपतिको उचित दण्ड ज्ञात हुआ । हंस और परमहंस को जब ऐसे भयंकर दण्ड विधान के समाचार सुनाई पड़े तो वे वहाँ से गुप्त रीति से भाग निकले। कुलपतिको उनके भागनैके समाचारसे प्रचंड क्रोध आया और उसने तत्काल विद्यापीठमें उपस्थित किसी बौद्ध-राजाकी सेना के कुछ सैनिकों को उन्हें पकड़कर लानेका कठोर आदेश दिया । आदेश पालक सेना के 'कुछ पदाति और अश्वारोही उनका पीछा करनेके लिये चल पड़े और । जब यह बात हंस और परमहंसको पीछे की ओर मुड़कर देखनेपर ज्ञात हुई तो हंसने परमहंसको कहा कि देखो ! श्र अपनी रक्षा होनी कठिन है; अतः यही श्रेष्ठ होगा कि तुम तो सामने दिखलाई पड़नेवाले इस नगर में चले और यहाँ राजा सूरपालको संपूर्ण वृत्तान्तसे अवगत करके इसकी सहायतासे गुरुजी ( हरिभद्र सूरि जी) के पास चले जाना । सारा वृत्तान्त उनकी सेवा में सविनय निवेदन करना और श्राज्ञाकी अवहेलना करने प्राप्त पापके लिये प्रायश्चित्त करना; एवं मेरी ओर से भी श्राज्ञा अवज्ञा के लिये क्षमा माँगते हुए निवेदन करना कि हंस तो धर्मकी रक्षा करते हुए वीर-गतिको प्राप्त होगया है । परमहंस बड़े भाई की इस करुण रसपूर्ण बातसे विह्वल हो उठा, किन्तु भयानक स्थिति और समय देखकर बड़े भाईको श्रद्धा पूर्वक प्रणामकर नगर हरिभद्र- सूरि की ओर प्रस्थान कर दिया । आक्रमणकारियोंके समीप आते ही हंस उनसे अभिमन्युकी तरह युद्ध करता हुआ वहीं वीर गतिको प्राप्त होगया । परमहंसका वाद विवाद और अवसान परमहंस वहाँसे शीघ्रगतिसे भागता हुआ राजा सूरपालकी राज सभा में पहुँचा और सारा वृत्तान्त कह सुनाया । राजाने शरणागतको अभयदान दिया । तत्पश्चात् हंसको मारकर वे आक्रमणकारी भी सूरपालकी सभा में पहुँचे और परमहंसकी माँगणी की। सूरपालने देने से इंकार कर दिया । सेनाकी टुकड़ीके अध्यक्षने अनेक प्रकार के भय बतलाये, किन्तु सुरपाल अचल रहा । अंत में यह निश्चय हुआ कि परमहंसके साथ बौद्धों वाद विवाद हो और यदि परमहंस पराजित हो जाय तो उसे बौद्धोंको सौंप दिया जाय । तदनुसार इस प्राणघातक परीक्षा में भी परमहंस स्वर्णवत् प्रामाणिक ठहरा और विजयी हुआ । आक्रमणकारी अपना सा मुँह लिये हुए लौट गये । परमहंस सूरपालके हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता हुआ वहाँसे चल दिया । तेज़ गति से चलता हुआ और अनेक कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करता हुआ अन्तमें परमहंस अपने गुरु हरिभद्रसूरि के समीप पहुँचा । सारा इतिहास - जनक भाषा में बतलाया और गुरु श्राज्ञांकी अवहेलना करने के लिये अपनी ओरसे एवं बड़े भाई हंसकी प्रोरसे क्षमा माँगते हुए दैव दुर्विपाकसे वार्तालाप करते हुए ही तत्काल स्वर्गवासी होगया । ३३३ बौद्धों के प्रति हरिभद्रसूरिका प्रचण्ड प्रकोप 3 हरिभद्र सूरिको इस प्रकार बौद्ध-कुकृत्यों और दुराचारोंका ज्ञान होते ही भयंकर क्रोधका समुद्र उमड़ श्राया । यद्यपि हरिभद्र सूरि एक योगी और श्राध्यात्मिक
SR No.527160
Book TitleAnekant 1940 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy