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________________ ३४८ काल और कर्म नष्ट हो जानेपर वे एक ही हैं क्योंकि कालकर्म कुछ जीव थोड़े ही हैं । जैसा कि निम्न वाक्यों से प्रकट है: जीवहं भेउ जि कम्मकिउ, कम्मुवि जीउ ण होइ । जेण विभिण्ड होइ तह, कालु लहेविणु कोइ ॥ २३३ एक्क करे मा बिरि करि, मं करि वरणविलेसु । इकडं देवई जिं वसई, तिहुयणु एहु असेसु ॥ २३४ - योगीन्दु देव - परमात्मप्रकाश अर्थात् -- जीवों में जो भेद है वह कर्मोंका किया हुआ है, कर्म जीव नहीं होता किसी कालको पाकर उनके द्वारा ( कर्मों द्वारा ) वह विभिन्न होता है । इस लिये, हे योगी ! श्रात्माको एक ही समझ उन्हें दो मत कर और न उसमें कोई वर्ण भेद कर । यह अशेष त्रिभुवन एक ही देव द्वारा वसा है ऐसा समझ । अर्थात् सब जीवोंमें श्रात्माका दर्शन कर । ईश्वर के उपर्युक्त श्रर्थों पर विचार करनेते ईश्वर - प्रेमका मार्ग शीघ्र हाथ लग जायगा । सब जीवों में आत्माका दर्शन करो - समाजकी, देशकी तथा विश्व की प्रत्येक व्यष्टि पर प्रेम करो और उसकी सेवा करो । ईश्वरको पहिचानने का सेवासे बढ़कर स्पष्ट कोई उपाय नहीं है । बुद्धदेवने तो अपने भिक्षुत्रों को यहाँ तक उपदेश दिया है कि यदि तुम्हें समाधि द्वारा मोक्षकी भी प्राप्ति होने वाली ही हो और उस समय किसीको तुम्हारी सेवाकी आवश्यकता हो तो समाधि छोड़कर पहले उस प्राणीकी सुश्रुषा करो । मोह चाहे वह मोक्षका ही क्यों न हो, मोक्षका विधातक ही है । इसी प्रकार यदि देश तुम्हारा बलिदान चाहता है तो कायर बनकर यदि तुम मुनि हो जाओ और समाधि साध कर बैठो तो भी तुम्हें कुछ मिलने वाला नहीं है; क्योंकि कायरता से परब्रह्म प्राप्त नहीं होता । कायरता अशक्तकी बासना [फाल्गुन वीर- निर्वाण सं० २४६६ है । श्रीयोगीन्दुदेवने परमात्मप्रकाश में अच्छा कहा हैपरमसमाहि घरेवि मुणि, जे परबंभु ण जंति । ते भवदुक्ख बहुविहई, कालु अांतु सहति ॥ ३२४॥ अर्थात् — परमसमाधिको धारण करके भी जो मुनि परब्रह्मको नहीं प्राप्त होते वे अनेक तरहके संसारदुःख अनंतकाल तक सहते हैं । वास्तव में उनकी विषयवासना नष्ट नहीं होती, चाहे वह मोक्षकी ही क्यों न हो; क्योंकि वासना शक्तिसे ही उत्पन्न होती है । अनेकान्त बुद्धदेवने योगाभ्यासको गौण और सेवाधर्मको मुख्य रक्खा है, परंतु जैनादि धर्मोंमें दोनोंको समान कोटि में रखा मालूम होता है और मोक्ष के लिये दोनों का साथ साथ अभ्यास आवश्यक माना है। | जैनधर्म तथा वैदिक धर्म में सेवामार्ग के लिये तथा निम्न प्रकृति के लोगों में प्रेमके विकासके लिये गृहस्थाश्रम उपयुक्त माना गया है । राजसिक और सामसिक प्रकृतिवालोंके कठोर, स्वार्थी निष्प्रेम हृदय प्रायः विवाह के द्वारा ही मृदु, निःस्वार्थ और प्रेमसे भीने बनाये जा सकते हैं । सात्विक ईश्वर-प्रेमके लिये इन्हीं वस्तुओं की आवश्यकता है। शरीर और स्वास्थ्य पर भी इस प्रेमका बड़ा अच्छा असर होता है। पहले जो दुर्बल, शोकग्रस्त और दुखी होते हैं उनमें अधिकांश विवाह के बाद हृष्ट-पुष्ट, खुश और संतुष्ट मालूम होने लगते हैं । मस्तिष्क-विद्या ( Phrenology) तथा शरीर-विद्या के आचार्योंका कथन हैं कि प्रेमका असर शरीर के प्रत्येक अवयव पर अपूर्व दिखाई देता है । हृदय और फुप्फुसपर जब प्रभाव पड़ता है । मस्तक और हृदय इन दोनों को एक कर डलने की मंथन क्रिया शुरू हो जाती है । हृदय में रूधिरका प्रवाह तीव्र वेगसे बहने लगता है, फुप्फुसोंमें गतिका संचार होता है और मुख-गाल-श्रोष्ठ तथा नयन इनमें प्रेमकीलाली दौड़ श्राती है । मस्तिष्क
SR No.527160
Book TitleAnekant 1940 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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