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________________ ३३० अनेकान्त [फाल्गुन, वीरनिर्वाण सं० २४६६ ताड्यमानोऽपि न गच्छेत् जैन मन्दिरम्" एक कल्पित जिसका कथित नहीं समझ सकूँगा, उसका तत्काल उक्ति हैं । सामने ही जिन प्रतिमा दिखलाई पड़ी और शिष्य हो जाऊंगा। उमी ममय नम्रता पूर्वक बोल कि जैन दर्शनके प्रति विद्वेषकी सहसा झटिति मुँह से "माताजी ! मुझे अपना शिष्य बना लीजियेगा और निकल पड़ा किः-- कृपया इस गाथाका अर्थ समझाइयेगा।" ज्ञान चारित्र वपुरेव तवाचष्टे स्पष्ट मिष्टान्न भोजनम् । सम्पन्न आर्याजीने समझाया कि “दीर्घ तपस्वी भगवान नहि कोटरसंस्थेऽग्नौ तरुर्भवति शादलः ॥ महावीर स्वामी के चारित्र क्षेत्रमें स्त्रियोंका पुरुषोंको दीक्षा अर्थात्-तुझारा शरीर स्पष्ट ही मिष्टान्न भोजनके देनेका श्राचार नहीं है । यदि आपको यह परम पवित्र प्रति ममत्वभावको बतला रहा है। क्योंकि यदि वनके आदर्श संयम धर्म ग्रहण करना है तो इसी नगर में स्थित कोटरमें अग्नि है, तो फिर वह हरा भरा कैसे रह सकता आचार्य प्रवर श्री जिनभट जी मुनिके पास पधारिये; वे आपको अनगार धर्मकी दीक्षा देंगे”। हरिभद्रने उनकी हाथीके निकल जानेपर तत्पश्चात् हरिभद्र अपने अाज्ञाको शिरोधार्य किया और आर्याजीके साथ साथ दीक्षा ग्रहणार्थ प्रस्थान किया। मार्गमें वही जैन मन्दिर घर पहुंचे। मिला जिसके शरण ग्रहणसे हरिभद्रका जीवन मदोविनीत हरिभद्र न्मत्त हाथीसे सुरक्षित रह सका था। पुनः वही जिन एक दिनकी बात है कि विप्रवर हरिभद्र राजमहल प्रतिमा दृष्टि गोचर हुई । दृष्टिभेदसे इस समय इन्हें उममें से निकलकर अपने घरकी अोर जारहे थे; मार्गमें एक बातमी पतीति दर्द वीतरागत्वमय शाँतरसकी प्रतीति हुई। तत्काल मुखसे जैन उपाश्रय पड़ता था । वहाँपर कुछ जैन साध्विएँ ध्वनि प्रस्फटित हुई कि "वपरेव तवाच भगवन । अपना स्वाध्याय कर रही थीं। स्वाध्यायकी ध्वनी हरि- वीतरागताम् ॥” वहाँपर कुछ समय ठहरकर हरिभद्रने भद्रके कर्णगोचर हुई और उन्हें सुनाई दिया कि एक भक्तिरससे परिपर्ण स्तुति की और तत्पश्चात ग्रार्या नीके साध्वीः साथ श्री जिनभट जीके समीप पहुँचे और मुनि धर्मकी "चक्की दुगं हरि षणगं, पणगं चक्कीण केसवो चक्की। जैन दीक्षा विधिवत् विशुद्ध हृदयसे ग्रहण की। केसव चक्की केसव दुचक्की, केसव चक्की य ॥ स्वयं हरिभद्र सूरिने अपनी यावश्यक सूत्रकी टीका इस प्रकार च-प्राचुर्यमय छन्दका उच्चारण कर के अन्तमें अपने गच्छ और गुरुके सम्बन्धमें इस प्रकार रही है । इन्हें यह छन्द कौतुकमय प्रतीत हुआ और उल्लेख किया है:अर्थका विचार करनेपर भी कुछ समझमें नहीं आया, "समाप्ता चेयं शिष्यहिता नामावश्यकटीका, कृतिः इसपर वे स्वयं उपाश्रयमें चले गये और आर्याजीसे सिताम्बराचार्यजिनभटनिगदानुसारिणो विद्याधरकुलबोले कि इस छन्दमें तो खूब चकचकार है । आर्याजीने तिलक-प्राचार्य जिनदत्तशिष्यस्य धर्मतो याकिनीमहउत्तर दिया कि भाई ! अबोध अवस्थामें तो इस प्रकार त्तरासूनोरल्पमतेराचार्य हरिभद्रस्य ।" इस उल्लेख परसे पहले पहल आश्चर्यमय नवीनता प्रतीत होती ही है। निश्चित रूपसे ज्ञात होता है कि हरिभद्र सूरिके जिनभटजी इसपर उन्हें अपनी वह भीष्म प्रतिज्ञा याद हो आई कि गच्छपति गुरु थे, जिनदत्तजी दीक्षाकारी गुरु थे, याकिनी
SR No.527160
Book TitleAnekant 1940 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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